दिल के मैखाने में।

दिल के मैखाने में।  

मिला दर्द जितना भी इस जमाने में
राहतें उतनी मिली तेरे मैखाने में

सुकून-ए-दिल तलाशते रहे जितना
मिला वो हर बार मुझे इस पैमाने में

है मालूम सच जहर लगता है सब को
इसलिए झूठ को जिलाते हैं जमाने में

चाहा कितना कि सी लूँ मैं होठों को यहाँ
मगर नजरें कब रुकी हैं इसे जताने में

वार करते हैं हरबार रूठ जाते हैं
घबराते हैं आईने के पास आने में

बहुत मुश्किल है जान पाना दिल को
कभी तो बैठो देव दिल के मैखाने में

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31दिसंबर, 2022







जिंदगी पूछती कब है।



जिंदगी पूछती कब है।  

जिंदगी तू  भी  बोलती कब है
बंद  मुट्ठी को  खोलती कब है

कर ही देती है जो भी है करना
मौका  देने का  सोचती कब है

अपनी मरजी चलाने वालों को
ये  बता  दे  तू  टोकती  कब है

दौरे-हाज़िर में सितम् मुफ्लिस् पे
ढाने  वालों  को  रोकती  कब है

कितने  आये  चले  गये  कितने
तू बता किसको  ढूँढती  कब है

कितने   हसरत   दबाये  बैठे हैं
हाले-दिल उनका पूछती कब है

कैसे कह दूँ कि कुछ नहीं पाया
दे के कुछ भी तू  भूलती कब है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29दिसंबर, 2022


दर्द का रिश्ता।

दर्द का रिश्ता।   

दर्द का मुझसे अजब नाता है
कौन अब इतना निभा पाता है

काँटे हों फूल हों या खाली दामन
हर घड़ी मुझसे दिल लगाता है

लोग तो आते हैं चले जाते हैं
पास मेरे यही रह जाता है

कौन है अपना क्या पराया है
वक्त आने पर ये बताता है

आह जो निकली कभी दिल से
पास बस इसको अपने पाता है

लिखे गीत इसपर न जाने कितने
कौन है ऐसा जो इसे न गाता है

कहने को रिश्तों से भरी दुनिया
दर्द का रिश्ता दिल को भाता है

छोड़ परछाईं जब चली जाती
"देव" बस ये ही साथ आता है

उम्र ढली कितनी और बाकी क्या
साथ रहता है साथ जाता है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        28दिसंबर, 2022

राष्ट्रधर्म।

राष्ट्रधर्म।  

धर्म ध्वजा को छोड़ हाथ में क्या पारितोषिक लाये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीता का उपदेश सहजता से कैसे तुम भूल गये
विषकन्याओं की बाहों में तुम जाकर कैसे झूल गये
शील भंग दिखलाते हो क्या शर्म नही तुम्हें आती है
नङ्गेपन की महिमा गाते क्या जिह्वा नहीं लजाती है
बिखरा कर के धर्म संस्कृति बोलो कुछ क्या तुम पाओगे
आने वाली संतानों को क्या नंगापन दिखलाओगे
धनलोलुप हो रही सभ्यता क्या ये दिखलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

चौराहों पर शोर मचा कर बोलो किसको भरमाते हो
राह रोकते जन गण मन की पर पीड़ित स्वयं दिखाते हो
टुकड़े-टुकड़े के नारों से क्यूँ तुमने खुद को जोड़ा है
क्या अहसास नहीं ये बोलो के राष्ट्र भाव को तोड़ा है
संगीनों को लिए हाथ में बोलो किसको धमकाते हो
अनजाने ही मंसूबों में अब अरि के उलझे जाते हो
अपनी ही जननी का आँचल क्यूँ छलनी करने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीदड़ धमकी दिए जा रहा सरहद के उस ओर खड़ा हो
लगता जैसे जिद्दी बालक तोड़ खिलौना दूर खड़ा हो
गलबहियाँ कर बैठे जो भी अरि के झूठे अनुमानों में
डाल रहे हैं अपना जीवन स्वयं हाथ से व्यवधानों में
गयी पुरानी रीत यहाँ जो कभी बीतती मनुहारों में
अब सबको उत्तर मिलता है केशव के नव अवतारों में
मगरमच्छ के आँसू से अब किसको पिघलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25दिसंबर, 2022

आवाहन

आवाहन।  

आज विकल है सृष्टि सकल ये मौन रहे तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।
         
घिरा कुहासा आज धरा पर ओर-छोर कुछ नहीं दिख रहा
धुँधली हुई दिशाएँ सारी दिनकर जाकर कहीं छुप रहा
आज निराशा तेज हो रही जग के सारे अनुमानों में
लगता जैसे क्षीण हो रहे शक्ति रही जो वरदानों में
सुनो पुकार मौन की अब तो, अब तो जग को राह दिखा दो
भटका-भटका जीवन लगता नयनों में फिर आस जगा दो
नहीं जगे जो भाव सुनहरे जग को बस कल्पित पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।1।।

आज हवाओं में क्या जाने कैसा-कैसा जहर घुल रहा
किसको है मालूम यहाँ पर क्यूँ कर मन को घाव मिल रहा
बीच धार में मचली किश्ती दूर-दूर तक नहीं किनारा
तेज उफनती धाराओं में डूब न जाये भाग्य सितारा
तूफानों के बीच लहर पर मन शांत चित्त अनुमान लिखो
लहरों को निर्देशित कर दे, हाँ नौका का सम्मान लिखो
लिखो पंथ नवयुग नूतन हो बीते पथ में क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।2।।

विचलित पर्वत मौन है सागर पल-पल रीत रही है गागर
उच्छृंखल सब भाव हो रहे मैली होती मन की चादर
प्रतिपल अंतस द्वंद पल रहा साँसों को प्रतिबंध खल रहा
आवेशित हो रहे सभी अब जैसे अपना अंग जल रहा
भींगी पलकें रैन सताती करवट में रातें हैं जाती
अवसादों में गगन घिर रहा शुचिता का सब ढंग गिर रहा
गिरे ढंग जो इस जीवन के बिखरा मन तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।3।।

आँसू से पूरित नयनों में आ फिर से अंगार सजा दो
युद्ध भूमि में खड़ा हुआ मन आ जाओ फिर नाद बजा दो
टुकड़ा-टुकड़ा हुआ क्षितिज अब धरती का आँचल विह्वल है
रक्त चरित्र को देख मनुजता अंतरतम तक आज विकल है
आजादी पर ग्रहण लगा है धरती का आँचल घायल है
रुनझुन-रुनझुन जो बजती थी मौन हुई वो क्यूँ पायल है
अभिशापित हो रही द्रौपदी मौन रहोगे क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।4।।

ठहर न जाये गंग धार ये राहों के अवरोध हटा दो
ठहरी सभी शिलाएँ पथ की ठोकर से सब आज मिटा दो
आ सकते जो नहीं यहाँ तो मन को नूतन राह दिखाओ
अँधियारा हो घना भले ही राहों में फिर दीप जलाओ
चले राह खुद अपनी मंजिल ऐसा फिर आवेग सबल दो
असुरों का सब दंभ मिटा दे आज भुजाओं में वो बल दो
इतना भी जो नहीं हुआ तो युग-युग तक फिर पछताओगे
रीत गया जो अंक धरा का बोलो फिर क्या तुम पाओगे।।5।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2022



जग से कब बंजारा होता।

जग से कब बंजारा होता।  

पुष्पित भाव लिए नयनों में मुझको काश पुकारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

नीर कोर तक आकर ठहरे गिरे नहीं पर कहीं खो गए
गीत सजाये जो साँसों ने अधरों पर आ मौन हो गए
मौन मुखर हो जाता उस दिन मुझको बड़ा सहारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

दुख अरु सुख का हुआ मिलन जब आँसू की पहचान हो गयी
पलकों से जो गिरे मचलकर जगती से अनजान हो गयी
नयनों ने कुछ बूँद बचाये वरना कौन हमारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

तारे जितने गिरे गगन से उनके मन की पीड़ा कौन सुने
खाली अंक लिए बैठा जो कुछ बोलो उसके कौन चुने
मन से मन का नेह नहीं जब मन को किया इशारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2022

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

मौन सफर में चलते-चलते 
कितने लम्हे छूट गये
हुए पराए कितने अपने 
कितने अपने छूट गए
मुक्त हृदय पर रहा सफर में अपनी सबसे रही बंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

तेरे सच में मेरे सच में 
जितनी छुपी कहानी है
शोर किया पर जग कब माना
मेरी छपी जुबानी है
समय अंक के गंगा जल में मन की सारी घुलीं गंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

पीछे मुड़ कर देखा जब भी
राहों में इक रेख दिखी
समय पृष्ठ के हर पन्ने में
धुँधली सी इक लेख दिखी
त्याग समय के लेख अधूरे आगे बढ़ती रही जिंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22दिसंबर, 2022

अंतस का अंतर्द्वंद।

अंतस का अंतर्द्वंद।   

डूबता है मन न जाने 
कौन सी गहराइयों में
सोचता है डूबे न फिर
दर्द में रुसवाईयों में
अंक में जो द्रोह भारी
क्यों कहो स्वीकार कर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

क्यूँ अकेला चल रहा है
कुछ आज है उत्तर नहीं
शब्द हो या अर्थ जाने
कुछ आज है अंतर नहीं
जब घटायें हों घनेरी
क्यूँ सूर्य का प्रतिकार लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

जब खड़ा है युद्ध द्वारे
क्या सोच तेरी भूमिका
हाथ तेरे क्या सजेगा
कह खड्ग या फिर तूलिका
आज भर लूँ प्राण नूतन
तूलिका में धार भर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

था बहुत मुश्किल हमेशा
स्वयं से लड़ना यहाँ पर
खींचना प्रतिबंध रेखा
रोकना मन को वहाँ पर
मन भटकता ही रहा जब
बेड़ियों में आज धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

झूठ हो या सत्य हरदम
द्वंद सदियों से रहा है
चोट खाया घाव झेला
वक्त ने क्या-क्या सहा है
मुक्त कर लूँ आज खुद को
शून्य का आकार धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

एक धुँधली रेख देखी
रात दिन के मध्य हमने
चाँद सूरज सामने थे
औ लगे तब पाँव थकने
थक चली संध्या अकेली
आचमन मन आज कर लूँ
अब लड़ूँ क्या स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18दिसंबर, 2022

लम्हों के घाव।

लम्हों के घाव।   

बेशर्मी का खाल ओढ़कर देखो कैसे नाच रहे हैं
जितना है पाया विवेक बस उतना पन्ना बाँच रहे हैं।।

धर्म संस्कृति से दूर-दूर तक है इनका कोई मोह नहीं
पैसों की खातिर नंगेपन से इनको कोई द्रोह नहीं।।

अभिव्यक्ति के नाम पे सारे घर-घर कीचड़ बाँट रहे हैं
अपने हाथों से शुचिता की जड़ को पल-पल काट रहे हैं।।

हैं सारे ये पथभृष्ट यहाँ बस इनका तो है कर्म यही
इनके बहकावे से बचना क्या अपना है ये धर्म नहीं।।

नङ्गेपन की दौड़ में यहाँ है इनसा कोई और नहीं
चाहे जितने अंग खुले हों पैसों के आगे गौर नहीं।।

बेच चुके हैं अपना जमीर सब अब क्या बेचें सोच रहे हैं
जन गण मन के मनो भाव को गिद्धों जैसे नोच रहे हैं।।

आज लुटी जो नैतिकता तो फिर सोचो कैसी आएगी
लम्हों से जो घाव मिल रहे आगे सदियाँ पचताएँगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16दिसंबर, 2022

गीतों का मधुपान करा दो।

*4-गीतों का मधुपान करा दो।*  

आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो
बिखर न जायें भाव हृदय के
मुझको इतना ज्ञान करा दो
बिसरे भावों को आहों को
सांसों को संज्ञान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

चलता पथ पर रहा निरंतर
पग पग उलझा उलझा जीवन
ऋतुओं के मृदु अनुमानों में
बहका बहका था ये उपवन
बरसो बनकर आज घटा तुम
मृदुल नेह का ध्यान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।


निर्जल अधरों पर मेरे ये
जाने कैसी प्यास जगी है
मेघ बरसते भीगे सावन
फिर भी कैसी आग लगी है
अंतस के इस सूनेपन में
अपनेपन का मान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।

लगता जैसे दूर हो रहे
सपने पलकों से बोझल हो
दूर हो रही परछाईं भी
साँझ ढले पथ में ओझल हो
मन में जो भी आशंकायें
उनको नया विहान दिखा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
****************

दिल में अभी मेरा बसेरा है।

दिल में अभी मेरा बसेरा है।  

चाँदनी रात थी लेकिन कहीं मन में अँधेरा था
थी जाने बात वो कैसी न जाने कैसा घेरा था

न जाने कैसी रंजिश थी मेरी दिन के उजालों से
थी भीतर रात वो गहरी मगर बाहर सवेरा था

थामा हाथ गैरों का जिन्होंने आज महफ़िल में
नहीं थकते थे वो कहते तेरा हर दर्द मेरा है

हुआ अनजान उनसे भी नहीं अब आस है कोई
नहीं थकते थे जो कहते मिरा दिल में बसेरा है

लिखता हूँ किताबों में मैं बस तेरी कहानी को
यकीं मुझको तिरे दिल में अभी मेरा बसेरा है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

मुक्तक

मुक्तक-
कभी ये गीत मेरे गाये जाएंगे।।

लिखे जो गीत जीवन के कभी तो मुस्कुरायेंगे
करेंगे याद हर लम्हे इसे सब गुनगुनायेंगे।
गाता हूँ अकेले मैं अभी दुनिया के मेले में 
मेरे गीत महफ़िल में कभी तो गाये जाएंगे।।


कौन है सुनता यहाँ।

कौन है सुनता यहाँ।  

शोर गलियों में बहुत दिखता यहाँ
कौन किसको अब है सुनता यहाँ।।

यूँ तो घनी आबादियों में रहते सभी
बमुश्किल से इंसान अब दिखता यहाँ।।

है बहुत मुश्किल कहना बात दिल की
कौन किसकी बात अब सहता यहाँ।।

था वो कोई दौर सहते थे सभी हर बात को
अब पिता की बात भी कौन है सहता यहाँ।।

यूँ मिलेंगे घाव देने को यहाँ हर मोड़ पर
पास मलहम कौन अब रखता यहाँ।।

टूटते हैं घर अब हर गली हर मोड़ पे
हुनर जोड़ने का कौन अब रखता यहाँ।।

राजनीति बन गयी है खेल अब तो
अब मान इसका कौन है रखता यहाँ।।

झूठ ने वादों से जब से की सगाई
सत्य का व्यवहार कब सहता यहाँ।।

है मिलावट का जमाना "देव" अब तो
हो शुद्ध जब आहार कब पचता यहाँ।।

जब नग्नता हावी हुई परिधान पर
फिर कौन पर्दा आँख में रखता यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

सीख जाते हैं।

सीख जाते हैं।   

बेवजह जो मुस्कुराना सीख जाते हैं
दर्द दिल का वो छिपाना सीख जाते हैं।।

भले ही दर्द कितना भी मिला हो इन हवाओं में
चले जो साथ में इनके निभाना सीख जाते हैं।।

जलाया हाथ जिसने भी अँधेरों में चिरागों से
हर तूफान में दीपक जलाना सीख जाते हैं।।

नहीं मिलता जिन्हें कोई सहारा इस जमाने में
जमाने से वो खुद रिश्ता निभाना सीख जाते हैं।।

नहीं तालीम मिलती है छिपाने की इन जख्मों को
समय के संग-संग चलकर खुद छिपाना सीख जाते हैं।।

झुकेगा क्या किसी इंसान के सजदे में वो माथा
गली हर मोड़ पर जो सर झुकाना सीख जाते हैं।।

थाना है कलम जिसने भी लिखने मन के भावों को
सभी के मन को अपना बनाना सीख जाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12दिसंबर 2022

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।  

ढूँढता प्रतिरोज मन ये एक सुंदर सी कहानी
चाहता जिसमें हृदय फिर डूब जाए बन कहानी।
और भर दे बादलों में नेह की धारा सुनहरी
उम्र भर न सूख पाए जिसकी धाराओं का पानी।।

याद में छाए जो पल ऐसा कुछ अहसास भर दो
मौन भी चुप रह सके न ऐसा नव उल्लास भर दो।
ढूँढती कब तक रहें बदलियाँ ये राहें प्रेम की
हैं आज राहें मुखर फिर अंक में मधुमास भर दो।।

कौन जाने इस सफर का कौन सा पल चल रहा है
कौन जाने भाव कैसा वक्त के मन पल रहा है
वक्त की चुप्पी यहाँ तूफान है कितने समेटे
भोर में निखरा दिवाकर सांध्य पल में ढल रहा है।।

अब और कब तक ढोएंगे ये पाँव जर्जर गात को
ढोएंगी कब तक ये साँसें उस पुरानी बात को
रोज काँधे पर उठाये स्वप्न की गठरी अधूरी
ढोएंगी कब तक ये पलकें उस अधूरी रात को।।

वक्त की पाबंद लहरें  दूर कहाँ तक जायेंगी
ज्वार के अंतिम क्षणों में लौट सतह पर आयेंगी
थक गयी जो पंक्तियाँ इस गीत के अंतिम सफर में
मौन को इक अर्थ देकर वो स्वयं ही छुप जायेंगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11दिसंबर, 2022

दूषित अनुबंध।

दूषित अनुबंध।

देव बनाकर पूज पूज कर
मन ने जिसका सम्मान किया
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

जिनके पथ पर पुष्प बिछाए
हमने अपनी पलकों के
हमने जिनके पंथ सजाये
जीवन के हर हलकों में।।

गंतव्यों की राह मिली तो
कैसे सब संबन्ध हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संवादों का लिया सहारा
अभिव्यक्ति का मान किया
मुख से निकले हर शब्दों का
प्रतिपल है सम्मान किया।।

मेरी पीड़ा जब गायी तो
कैसे सब प्रतिबंध हो गए
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संबंधों में अर्थ बढ़ा तो
अर्थहीन संबन्ध हो गये
कल्पित चक्रव्यूह में सारे
जीवन के आंनद खो गये।।

घट-घट टूट रहा यूँ जीवन
भावों में अब द्वंद हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

गीत पिरोया जोड़-जोड़ कर
शब्द-शब्द की मोती से
साज भरे जीवन में सारे
भावों की मृदु मोती से।।

लेकिन अधरों पर जाते ही
बिखरे सारे छंद खो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11दिसंबर, 2022

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

आज फिर व्याकुल नयन ये लिख रहे कोई कहानी
दूर सूनी राह में हैं ढूँढते कोई निशानी
जो लिखा था पृष्ठ पहले आज खाली हो चुका है
पंक्तियों के मध्य जीवन कुछ चला है कुछ रुका है
द्वंद अंतस में अभी तक कौन हारा कौन जीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

ये शोर है कैसा सफर में जो हृदय की बींधता है
शून्यता का भाव पल-पल इस हृदय को खींचता है
आज मन को खींचता है कौन जाने गीत कैसा
रिक्तियों में भर रहा है आज ये संगीत कैसा
है बहुत मुश्किल कहूँ अब दर्द हँसकर मन क्यूँ पीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

मन न जाने गीत गाकर क्यूँ यहाँ दोषी बना है
दो कदम भी चल न पाये वेदना से पथ सना है
गीत नयनों ने लिखे जो बह रहे बन अश्रुधारा
पूछते हैं ये अधर अब कौन जाने है हमारा
शब्द से ही चोट खाये शब्द ही पैबंद सीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09दिसंबर, 2022

व्यंग्य-असली सरकार।

व्यंग्य- असली सरकार।  

प्यार बुढ़ापे में होता है जवानी में व्यापार
दोनों में मिलता है धोखा जाने क्यूँ हर बार
दोनों के आड़े आती है महँगाई की मार
इन सब को वोटों में ढाले कहते हैं सरकार।।

चिट्ठी, पत्री तार सभी अब मोबाइल से हारे हैं
ऐसा कह दो कौन यहाँ जो इनसे भी न हारे हैं
रोज नीति नई है बनती परिवारों के बीच यहाँ
सुबह उठाई कसम यहाँ वो साँझ ढले बेचारे हैं।।

जो पत्नी की बात न माने ऐसा कोई वीर नहीं
सुनकर के जो मुँह न खोले उससे बढ़कर धीर नहीं
मिलने को तो मिल जाती हैं राहें हर मुश्किल की
पर गलती वो स्वीकार करें सबकी ये तकदीर नहीं।।

बिन माँगे जो मिले यहाँ बीवी की फटकार है
जिसको डांट मिली नहीं जीवन वो धिक्कार है
दोनों में सामंजस्य रखे ऐसे कितने लोग यहाँ
झूठे वादों से बहलाये सच वो ही सरकार है।।

देश दुनिया की खबर बताए वो ही तो अखबार है
चाय पिला कर काम निकाले मित्रों का व्यवहार है
सुबह करे वादा जनता से और निभाने की कसमें
साँझ ढले सब भूल गयी जो असली वो सरकार है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07दिसंबर, 2022

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

तारों की बारात सजी है रात सजी है दुल्हन जैसी
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दिनकर धीरे-धीरे थककर अस्तांचल में छुपा जा रहा
दिनभर में जो लिखी कहानी संझा को सब दिए जा रहा
दिए जा रहा गीत जो लिखे सांध्य पलों में अनुरागों के
और मुखर अधरों के कितने उम्मीदों के संवादों के
अनुरागों की नीति नई अब अहसासों के पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

चाँद बना है दूल्हा देखो गयी अमावस काली रातें
छिटक-छिटक कर रश्मि कर रही शबनम से मधुमासी बातें
बीते दिन के ताप हुए अब भूली बिसरी एक कहानी
हुए प्रवासी दर्द सभी अब बात हुई सब आनी-जानी
अंतस में नूतन लहरें अब अहसासों के साथ खड़ी हैं
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दूर हुई घड़ियाँ बिछोह की संध्या ने अनुराग जताया
रात-दिवस के मध्य अधूरी साँसों को फिर आज मिलाया
लौट रहे पाँखी कलरव कर मधुर मिलन का गीत सुनाते
शीतल पवन झँकोरे छूकर साँसों को सिहरन दे जाते
मीठी-मीठी सिहरन लेकर संध्या चौखट पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2022

दो प्रेम पाँखी।

दो प्रेम पाँखी।  

संग जीवन के सफर में चल रहे दो प्रेम पाँखी
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

दूर सागर की तरंगें झूमती हैं गीत गातीं
चूमती तटबंध अल्हण दूर जातीं पास आतीं
हैं रच दिए नवगीत कितने प्रेम के अनुराग के
और ऋतुओं को सिखाये मन साज नूतन राग के
नेह से सींचे धरा चाहे पंथ केवल ताप हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

थी दूर छिटकी रश्मियाँ जो आज पल-पल पास आतीं
शून्य मन में बंधनों के नेह के अनुप्रास लातीं
मन रहा भटका कभी जो जाने किन-किन रास्तों में
और सहता था कभी जो स्वयं की ही आदतों को
संग तेरे आदतों की फिर आज खुलकर बात हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

लिख दिया नवगीत पल-पल भर दिया मन प्राण तुमने
मौन था पथ हैं सजाये पुष्प तोरण द्वार तुमने
तुमसे सजे श्रृंगार मन के औ सजी है अल्पना
पूर्ण लम्हों में हुई हैं सब इस सदी की कल्पना
चल पड़े बेफिक्र पथ में ले हाथ तेरा हाथ में
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2022


राष्ट्र प्रथम।

राष्ट्र प्रथम।  

जाति धर्म के नारों में मानवता को बाँट रहे
ऐसा कर के भारत में भारत को ही बाँट रहे।।

बलिदानों ने लिखी कहानी माटी-माटी जीवन जिसका
उसी वृक्ष पर बैठे-बैठे शाख उसी की काट रहे।।

राष्ट्र प्रथम औ राष्ट्र नीति ही जिस भारत का मौलिक है
उस भारत की जड़ में बैठे दीमक बनकर चाट रहे।।

संविधान है मूल राष्ट्र का भारत ऐसी महाशक्ति है
जिसने जग को ज्ञान दिया है उसी ज्ञान को काट रहे।।

आधा ज्ञान डुबा देता है क्या इतना मालूम नहीं
भारत माता को आँचल को टुकड़ों में क्यूँ बाँट रहे।।

शिक्षा का स्थान पवित्र है गुरुकुल ज्ञान ध्यान की भूमि
इसके नैतिक व्यवहारों शुचिता की जड़ काट रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04दिसंबर, 2022

तुम ना आये।

तुम ना आये।  

नयन द्वार को तकते-तकते
देहरी के तोरण मुरझाये
पुष्प प्रतीक्षारत भावों के
साँझ ढले सारे कुम्हलाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

दूर सितारे कहीं गगन से
चंदा का पथ खोज रहे हैं
रात अकेली चले सफर में
कब तक मन में सोच रहे हैं
नील गगन में उड़ते-उड़ते
बादल रस्ता भूल न जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

रात दीप की बाती जलकर
कैसे-कैसे भाव जगाए
गूंगे दिन काली रातों के
जाने कितने प्रश्न उठाये
कितने प्रश्न गिरे पलकों से
सूख गए कुछ कह ना पाए
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

भटक रही हैं यादें मन की
डर है रस्ता भूल न जायें
भूल गए सब रिश्ते-नाते
हाथों से पल छूट न जायें
बीती यादों के सपनों में
पल-पल मन ये उलझा जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03दिसंबर, 2022

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।   

हुई प्रवासी जहाँ संस्कृति
मन में उपजी आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

विद्यालय से निकला बचपन
सात समंदर पार मन चला
तोड़ नेह के कितने धागे
आसमान के पार मन चला
विचलित मन जब अनुमानों में
जिस पल चाहे आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

देख समय के चक्र यहाँ पर
वेद पुराण ग्रन्थ सब फीका
जाने कैसे हवा चली है
छूटा रोली चंदन टीका
चकाचौंध में भटक गया मन
जैसे बिन पतवार नाव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

नहीं आसरा मन को भाये
पंथ जोहते बापू माई
बूढ़ी आँखे पथराईं हैं
कोई चिट्ठी न पत्री आई
बेगानों के बीच पठाये
आयी मन को याद छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

जीवन के उस अंतिम क्षण में
पैसों का सन्देशा आया
कोशिश करता हूँ आने का
मौखिक इक सन्देशा पाया
आगे बढ़ने की धुन सारी
लगती है जंजीर पाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

दाम कमाया नाम कमाया
पैसों का अंबार लगाया
समय जुआरी बन बैठा जब
दाँव कहीं तब काम न आया
पीछे मुड़ कर मन जब देखा
न आँचल, और नहीं छाँव थी
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 दिसंबर, 2022

गोली विज्ञापन की।

गोली विज्ञापन की।  

आज घरों में चौराहों पे 
कानों में बस बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

कदम कदम पर कितने वादे
कितनी रस्में कितनी कसमें
सच्चे कहते झूठे कहते
भरमाया मन रहता जिसमें
भाँति-भाँति के करतब करते
मन को पल-पल मोह रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

क्या अच्छा है क्या अनुचित है
इसका ज्ञान भुला देते हैं
रहे जरूरत भले नहीं पर
मन में चाह जगा देते हैं
मोड़-माड़ कर जोड़-तोड़ कर
दबी आस को तोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

काले को ये गोरा करते
अरु गौर वर्ण को और गोरा
भावों पर आलेपन करते
झूठ अधिक सच थोड़ा
थोड़े झूठे थोड़े सच्चे
जाने क्या-क्या बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

ज्ञानी के सब ज्ञान शून्य हैं
थे भावुक पर भाव शून्य हैं
इनके तर्कों के आगे सब
अनुभव औ व्यवहार शून्य हैं
मन को अपने वश में करते
कितने पत्ते खोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01दिसंबर, 2022

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...