मौन मृदु रस घोलता है।

मौन मृदु रस घोलता है। 

गीत के हर शब्द में जब
भाव की अँगड़ाइयां हों
और तेरी राह में जब
पुण्य की परछाइयाँ हों
तब मुखर हो गीत मन का
बात दिल की बोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब व्यथा के गीत में भी
प्रिय शब्द का संचार हो
जब हृदय की भावना में
प्रिय नेह का संसार हो
तब मुखर हो प्रीत मन से
भाव के पट खोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब नजारे झूम कर के
गीत की महफ़िल सजायें
जब सितारे झूम कर के
रात का आँचल सजायें
तब मुखर हो रश्मियाँ ये
गीत में रस घोलती हैं
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलती हैं।।

जब हृदय की भावनायें
मुक्त होकर गीत गाये
जब मचलती कामनायें
प्रीत को भी जीत जायें
तब मुखर हो गीत मन के
कान में रस घोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021

खुद से दिल बहला लेना।

खुद से दिल बहला लेना।  

जब कोई तेरी बात सुने ना
मन से बातें कर लेना
जब बात किसी से कह ना पाओ
खुद से बातें कह लेना।।

ये माना कितनी बात हृदय में
तेरे घर कर बैठी है
ये माना कितने भाव हृदय में
गहरे छुपकर बैठी है।।

जब मन के भाव निकल ना पायें
खुद को तब दिखला लेना
जब कोई तुझसे बात करे ना
खुद से दिल बहला लेना।।

क्यूँ जली जा रही रात सुनहरी
तारे भी क्यूँ गुमसुम हैं
क्यूँ पिघल रही है शबनम ऐसे
लगता खुद से अनबन है।।

पिय मन का सूनापन समझा कर
खुद से प्रीत लगा लेना
जब तेरा कोई मीत बने ना
खुद को मीत बना लेना।।

फिर नेह किसी से क्या होगा जब
खुद से नेह नहीं होगा
अरु मोह किसी से क्या होगा जब
खुद से मोह नहीं होगा।।

जग से नेह लगाने से पहले
खुद से नेह लगा लेना
जब कहीं अकेलापन तड़पाये
खुद को तुम अपना लेना।।

इस जीवन का ये भेद समझ लो
मन के दर्द कहीं न खोलो
यदि जग से तुझको गरल मिला है
खुशी खुशी उसको पी लो।।

कोई अश्रु पोंछने वाला न हो
खुद ही गले लगा लेना
अरु अपने गीतों में जीवन के
सारा मर्म छुपा लेना।।

जब कभी अकेलापन तड़पाये
खुद से दिल बहला लेना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021




मन करता नित नूतन नर्तन।

मन करता नित नूतन नर्तन।  

तुम्हें देख कर भाव जगे मन करता नित नूतन नर्तन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

पड़े रश्मि किरणें पुष्पों पर ऐसा रूप तुम्हारा है
खिली खिली कलियों ने जैसे लगता रंग निखारा है
अधरों के कंपन ने जैसे राग भैरवी गायी है
बादल के झुरमुट से जैसे धूप सुनहरी आयी है।।

मेरा मन आह्लादित करता रंग रूप का ये संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

तेरे कदमों की आहट से धरती भी बलखाती है
उड़े धूल चंदन बन कर के उपवन को महकाती है
तेरी परछाईं से छूकर पिय मृदु भाव पनपते हैं
जैसे भोजपत्रों पर कोई गीत नया लिख जाती है।।

तेरे नुपुरों से सजता है निज मन का सूना आँगन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

रति पति के सब भाव मनहरे तेरी पलकों में सजते
नख से शिख तक जो भी पहने तुझ पर हैं सारे सजते
दृष्टि भाव के छुअन मात्र से सिहरन मन में आती है
नया अर्थ पाता है जीवन जब जब हम तुझसे मिलते।।

तेरे मेरे मन भावों का जाने कैसा है संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2021

मेरा अस्तित्व।

मेरा अस्तित्व।

एक प्रश्न उछला कहीं से थी कहीं उसमें रवानी
पूछने मुझसे लगा मेरे अस्तित्व की कहानी।।

कौन हूँ मैं कौन हो तुम प्रश्न अहर्निश चल रहा है
सबके मन में भावों में द्वंद जैसे पल रहा है
है कोई एहसास या फिर भावनाओं की छुअन
प्रश्न का आकार ले जो स्वयं से ही मिल रहा है।।

नित्य गहराती घनेरी परतों की यहाँ पर बदलियाँ
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

स्वयं में क्या पूर्ण है या पूर्णता की क्या निशानी
कह सका है कौन बोलो पूर्णता अपनी जुबानी
सबके अपने भाव हैं और सबकी अपनी जिंदगी
सबके अपने मूल हैं सबकी है अपनी कहानी।।

नित्य मुस्काती मचलती शब्द की अठखेलियाँ 
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

है इधर या फिर उधर या दायरे में है कहीं पर
कौन जाने किस घड़ी ये दूर जा बैठे क्षितिज पर
प्रश्न की परछाइयों में क्या उत्तरों की भूमिका
मौन मन उलझा विगत के स्वयं की ही भूमिका पर।।

नित्य समझाकर स्वयं को मौन मन की भूमिकायें
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        29नवंबर, 2021

मधुप की अभिलाषा।

मधुप की अभिलाषा।  

सोच रहा है आज मधुप पुष्प का जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

माँगता है भोर से नव रूप की मोहनी आशा
अरु उषा से अरुण पीत रंगों की शोभती आभा
कर रहा विनती सिंधु से आसमानी रंग भर दे
और मिटा दे हृदय से डूबती उतरती निराशा।।

सोच रहा है आज मधुप आस से जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

झूम कर चूमता पुष्प वो भरता परागकणों को
संग्रहित करता अंक में नेह के मीठे क्षणों को
अंजुरि भर गंगा जल पलकों में सपनों की लाली
श्वेत कमल सा भाव लिए पूजता जीवन पलों को।।

सोच रहा है आज मधुप पुष्प में खुद को मिला लूँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

प्रकृति के भित्तचित्र पर रंगों की मोहक आभायें
बैठ शिखर अभिलाषा के पुण्य मचलती आशायें
राग, द्वेष, मद मोह छोड़ जीवन के पिय आँगन में
और भरे निज गुंजन से गीतों में नव गाथायें।।

सोच रहा है आज मधुप जीवन का नव रूप निखारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28नवंबर, 2021

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।  

जो हो सके तो गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

मैं छपा हूँ पृष्ठ पर ले भावनाओं का समंदर
आस के आकाश पर उम्मीद का लेकर समंदर
कुछ पँक्तियाँ अब तक अधूरी पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

हूँ यहाँ गुमनाम सा मैं भूली कहानी की तरह
एक झलक जो देख लो खिल जाऊँ जीवन की तरह
थाम कर अब हाथ मेरा आवाज मुझको दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

शब्द मिल जाये जो मुझको गीत लिख सकता हूँ मैं
साथ मिल जाये तुम्हारा जीत लिख सकता हूँ मैं
मेरे अधूरे ख्वाब हैं जो पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

सोचा था के मैं निखर जाऊँगा लिखने के बाद
पूर्ण हो जाऊँगा मैं पन्नों में सजने के बाद
मेरे अधूरे संकलन को पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27नवंबर, 2021





काशी-नेह का सुंदर सवेरा।

काशी-नेह का सुंदर सवेरा।  

इस धरा के पृष्ठ का है कौन सुंदर वो चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

बादलों के श्वेत पट से ओस की बूँदें गिरी जब
इस धरा की कोख पर वो मोतियों सी हैं खिली तब
भोर की किरणें मचलकर दृश्य नूतन हैं सजाती
और पंछी भी सुरीली तान में हैं गुनगुनाती।।

इस धरा के पृष्ठ पर किसने सजाया है बसेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

गंग की इस धार में हैं नाचती किरणें मचलकर
कह रही हैं आज सुन लो शब्द वो सारे सँभलकर
घाट के उस छोर से इस छोर तक है बंदगी
कह रही लहरें मचलकर हैं बस यहीं पर जिंदगी।।

घाट के इस पृष्ठ का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

मंत्र के उच्चारणों से गूँजती खुशियाँ यहाँ पर
देव गीतों से भजन से गूँजती गलियाँ यहाँ पर
वेद के उत्तम स्वरों से भोर होती है सुहानी
अरु साँझ के धुँधलके में आरती होती सुहानी।।

वेद के इस रूप का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

देव की है भूमि काशी मोक्ष है मिलता यहाँ पर
शब्द जीवन मृत्यु का सब साथ में चलता यहाँ पर
कुंभ में जीवत्व के जो दूर करती है उदासी
ऐसा खुशियों का नगर देवताओं की है काशी।।

इस धरा पर मोक्ष का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021



हृदय के भाव को आश्रय मिला है।

हृदय के भाव को आश्रय मिला है।  

कल्पनाओं के शिखर पर कुछ स्वप्न की अठखेलियाँ
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

भोर की आगोश में दिन का उजाला मुस्कुराये
रश्मि किरणों में मगन हो मन का मयूरा गुनगुनाये
एक झोंका जब हवा का खोल पट वातायनों का
कान में मधु घोल दे अरु भोर का पथ खिलखिलाए।।

रश्मि का आभार पाया जीत को आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँझ का पट खोल कर के चाँद कुछ ऐसे मिला है
ओट में आँचल के जैसे रूप दुल्हन का खिला है
अंक में मधुमास के कुछ रंग से भरने लगे हैं
शब्द के श्रृंगार से नव पुष्प अधरों पर खिला है।।

प्रीत ने श्रृंगार पाया कामना को बल मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँस की सारंगियों ने गीत है कुछ गुनगुनाया
धड़कनों ने राग छेड़ा यामिनी को है सजाया
चाँदनी खिलकर यहाँ पर कर रही हमको इशारे
आस के आकाश ने है पंथ पुष्पों से सजाया।।

अब निराशा के प्रहर बस चंद लम्हों के बचे हैं
मन निलय की भावना को मोह का आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

है शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ इन रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें वो यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर तुम सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या उन बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से अब दूर तू निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी ही दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने वो द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अरु अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना फिर प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

अब आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर अब पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई जब फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ जब पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ पर अपना ढूँढ़ ले तू आसमां।।

है लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

गीत मधुर क्या बन पाया है।।

गीत मधुर क्या बन पाया है।।


आशाओं के पृष्ठभूमि पर कितने गीत लिखे चुन चुन कर
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

रंगपट्ट पर चली तूलिका जब जब स्वप्न सजाये सबने
रंग भरे इच्छाओं के अरु नूतन रूप सजाये सबने
रंगों में सज कर बोलो जीवन मुस्काता कब खिल खिल कर
लेकिन केवल खिलने भर से कहो चित्र सुघड़ बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

दिशाहीन अल्हड़ता से बस कुछ पल का आराम मिला है
ये माना क्षणिक फुहारों से कुछ पल को आराम मिला है
कुछ पल के आरामों से क्या शांति मिली है बोलो खुलकर
कुछ पल के विश्राम से क्या ये जीवन खुलकर जी पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

चली कलम जब भी पन्नों पर कितने ही नवगीत लिखे हैं
जाने कितनों के भावों को सुंदर सा मनमीत लिखे हैं
लिखे गीत कितने ही सबने बोलो इक दूजे से मिलकर
पन्नों पर बस छप जाने से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

मन की क्यारी में कितने ही पुष्प खिलाये हैं भावों के
बड़े जतन से सींचा उनको अपनाये हैं सब दावों को
दावों अरु वादों में जीवन कहता आया बस सुन सुन कर
लेकिन केवल सुनने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

विरले ही हैं लोग यहाँ पर जो महाकाव्य रच पाते हैं
संकल्पों के बिन जीवन ये नवगीत कहाँ रच पाते हैं
बिन संकल्पों के जीवन के प्रश्न कहाँ सुलझे हैं खुलकर
लेकिन केवल हल मिलने से प्रश्न सरल क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

जाने कैसा राग दे रहा।

जाने कैसा राग दे रहा।  

दूर देश में बैठा कोई बेमतलब आवाज दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

भारत को जो समझ न पाए आज गवाही देने आए
जिसने इसको कभी न समझा दुनिया को समझाने आये
घिसे पिटे कुछ तर्कों से वो बेमतलब संवाद दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

सोच किसी की गंदी हो जब राष्ट्र भला क्या कर सकता है
ज्ञान किसी का किंचित हो जब मान भला क्या मिल सकता है
नैतिकता का बोध नहीं पर नैतिकता की बात कह रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

मूल भाव को समझ न पाये दूजे पर क्यूँ दोष मढ़े वो
संस्कृति को जब समझ न पाये उस पर कैसा रोष करे वो
संस्कृतियों का मर्म ना समझा जाने कैसा ज्ञान दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

अभिव्यक्ति पर रोक लगी है दूर कहीं पर खड़ा रो रहा
यही बात बतलाने को वो अभिव्यक्ति का नाम दे रहा
लगता बुझती राखों पर चिंगारी रख आग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

राष्ट्र का मतलब वो जानता जिसने जीवन जाना है
जीवन वो ही धन्य हुआ है जिसने भारत पहचाना है
वो क्या जाने भारत को जो दूर खड़ा हो दाग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

भाव जब समझा न पायें शब्द की संवेदना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

कंठ से निकले कभी जो शब्द मन की कह सके ना
वेदना के भाव के अहसास को भी सह सके ना
और सम्मुख हो खड़ा जग मौन पत्थर की तरह जब
आह के किंचित स्वरों के मर्म भी जब सुन सके ना
वेदना समझा न पाओ आह की अवहेलना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

चोट जो दिल पर लगी हो जब उसे दिखला न पाओ
बात जो तेरे हृदय में जब उसे समझा न पाओ
शब्द के वो मर्म सारे मौन कुंठित हो रहें जब
और उस पत्थर हृदय को बात जब बतला न पाओ
शब्द भी समझा न पाये सत्य की अवहेलना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

व्याकरण के शब्द भी जब गीत पूरा लिख सके ना
पंक्तियों में भावना को व्यक्त भी जब कर सके ना
छंद के निर्माण में अरु शब्द में विचलन उठे जब
लेखनी भी जब जहाँ पर मुक्त हो कर चल सके ना
व्याकरण समझा न पाये शब्द की अनुवेदना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

हूँ व्यथित मैं आज फिर से थाम स्मृतियों के सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

भावनाओं के समर में बस डूबता गिरता रहा
ले के जाने ख्वाब कितने मन ही मन कुढ़ता रहा
खींचता खुद को कहाँ से स्वयँ जब मंझधार चाहा
और डूबा जब वहाँ मैं सारा जग हंसता रहा।।

मौन मेरी वेदना पथ जोहती कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

बादलों को ओढ़कर सोचा सहारा मिल गया
उफान थी लहरों में पर सोचा किनारा मिल गया
थी वो शायद मरीचिका जिस पर भरोसा था किया
मेरे उस एहसास को अपराध का फल मिल गया।।

अपराध था मेरा वहाँ फिर चाहता कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काल के व्यवहार में सोचा यहाँ कुछ बदलाव कर दूँ
तोड़ कर अपवाद सारे मैं नया इतिहास रच दूँ
भूल बैठा मैं यहाँ पर वक्त में ठहराव कब है
स्वार्थ की आँधियों में संभव यहाँ बदलाव कब है।।

था असंभव जो यहाँ पर माँग बैठा वो सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

है यही अफसोस मुझको सत्य को बतला न पाया
झूठ के आडंबरों को मैं यहाँ झुठला न पाया
भूल थी अपनी हि कोई झूठ कोई कह गया
देखते ही देखते मेरा सत्य सारा बह गया।।

यज्ञ की आहुति कब पूरी हुई बिना मंत्र सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2021

मन गीत नहीं वो गा पाया।

मन गीत नहीं वो गा पाया।  

जाने कितने गीत कंठ में व्याकुल अधरों पर आने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

खामोश निगाहों ने ढूँढा प्रतिपल प्रतिक्षण इक अपनापन
उम्मीदों की सेज सजाया और बुहारा मन का आँगन
पल पल कितने जतन किये हैं इस जीवन का सुख पाने को
जाने क्यूँकर सज ना पाया वो निज नयनों का सूनापन।।

नयनों का वो निज सूनापन लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

निज बाहों में प्रतिपल सबने खिलता अंबर भरना चाहा
अंबर के सूने भावों को गीतों में यूँ कहना चाहा
मिलन यामिनी के पल में भी जितने स्वप्न बुने जीवन ने
जीवन के सारे भावों को मन ने कहना सुनना चाहा।।

मन का वृंदावन मधुमासित उल्लासित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

गोधूली बेला में जीवन सूरज के ढलने से पहले
संध्या प्राची की दुल्हन सी आयी मन भावों को हरने
इच्छाओं ने पंख पसारे आशाओं ने भोजपत्र लिखे
नयनों की भाषा पढ़कर के गीत मधुर अधरों ने पहने।।

अधरों पर जो भी गीत सजे लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2021


धूल बन कर रह गए।

धूल बन कर रह गए।   

जाने किस व्यवहार की हम भूल बनकर रह गये
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

ताप की उम्मीद में दीपक जला बैठे थे हम
सूर्य के उस तेज को दीपक दिखा बैठे थे हम
आज उसकी लौ से ही झुलसी हमारी उँगलियाँ
सूर्य को होते हुए भी छा गयी हैं बदलियाँ।।

बदलियों के झुण्ड में हम राह भूलकर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

जिस राह में सोचा बिछाऊँ पुष्प की पंखुड़ियाँ
उस राह में क्यूँ बिछ गये आज जंगल कटीले
जिस पुष्प में सोचा मिलेंगी सतरंगी तितलियाँ
उस पुष्प से क्यूँ कर मिले दंश विधना के नुकीले।।

उस दंश के एहसास में हम झूल कर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

व्याकरण सब चुक गया नहीं कुछ कोष संचित रहा
जाने किन किन पंक्तियों में भाव भी वंचित रहा
सींचने जिस वृक्ष को थे कितने जतन हमने किये
हर जतन हर यत्न मेरा हर बार ही किंचित रहा।।

हर यत्न में संभावनाएँ बिखेर कर हम रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2021

यादें।

यादें।   

कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं
सच तो है के तू जहन से जाती नहीं।।

देखा जब जब आईने में मैंने खुद को
तेरी ही सूरत आयी है नजर मुझको
बिन तेरे कोई महफ़िल सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

बारहा दिल को समझाया बहाने ने
हाल इस दिल का कब पूछा जमाने ने
बहाना, दिलासा कोई दिलाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

टूटा जब दिल आवाज नही होती है
कैसे कह दूँ बरसात नहीं होती है
अब तो आँसू से भी प्यास जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचता था बिन तेरे सँभल जाऊँगा
याद के साये से भी निकल जाऊँगा
ऐसा उलझा यहाँ राह सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचा था जी लूँगा तेरे बिन मैं तो
जख्मों को सी लूँगा तेरे बिन मैं तो
पर दर्द जाने वो मगर क्यूँ जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

अब तो मैं हूँ औ मेरी तन्हाई है
उमर जाने किस मोड़ पे ले आयी है
बिन तेरे जिंदगी गीत अब गाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2021



गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।

गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।  

तुम कहो तो गीत लिख दूँ मैं हृदय की भावना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

लेखनी में प्रीत भरकर मृदु मधुर संगीत भरकर
पंक्ति में उन्माद भर कर मौन में संवाद भर कर
तुम कहो तो प्रीत लिख दूँ मैं हृदय की कामना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

गीत के हर शब्द में है प्रिय चाहतों की कल्पना
मेरे मन के भावों में है प्रिय मधुर इक़ अल्पना
तुम कहो तो रंग भर दूँ कल्पनाओं में यहाँ मैँ
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

साँस में चंदन लिखूँ मैं या गीत वृंदावन लिखूँ
प्रेम का आँगन लिखूँ मैं या गोपियों का मन लिखूँ
तुम कहो तो मीत लिख दूँ कामनाओं को यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

जो कहो प्रारंभ लिख कर मैं बाँध लूँ मधुपाश में
अंक में भरकर लिखूँ फिर नव रीत मैं मधुमास के
आस का अनुप्रास लिख दूँ भावनाओं में यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12नवंबर, 2021

तुम इनको परिभाषित कर दो।

तुम इनको परिभाषित कर दो।  

अपने अधरों की पंखुड़ियों से छू कर मेरे भावों को
अपने मृदु आलिंगन में भरकर देकर अपनी छाहों को
प्राण वायु भर कर गीतों को तुम इनको स्पंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

भोर रश्मि की किरणों से ले है लिखी तरंगें जीवन की
आशा के अनुप्रासों से ले है लिखी उमंगें उपवन की
चंदा सी शीतलता भर दो तुम इनको अनुमोदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

कुछ स्वप्न सँवारे कोमल से आशाओं के नील गगन में
कुछ भाव उकेरे हैं हमने मृदु अपने हिय के मधुवन में
मधुवन में मधुमास खिलाकर तुम इनको संभाषित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

छंद छंद में भाव हृदय के पंक्ति पंक्ति में है अपनापन
पृष्ठ पृष्ठ पे चित्र तुम्हारा हरता मन का ये सूनापन
सूनेपन में गीत सजाकर जीवन को आनंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर, 2021

भावनाओं को शब्द का आकार दिया।

भावनाओं को शब्द का आकार दिया। 

मौन मचल संवेदनायें वर्जनायें छोड़कर
सोचा के कुछ आज लिख दूँ सीमायें तोड़कर
लेखनी से आग्रह अरु शब्दों से अनुरोध कर के
आज जीवन के पलों का हँसकर आभार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।
 
क्या लिखूँ क्या ना लिखूँ प्रश्न थे मन में हजारों
भाव के संवेदना के गीत में भरकर सितारे
और आँखों में भरी थी वो विरह की वेदनायें
वेदनाओं के सफर को मैंने नव अंदाज दिया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

है विदित मुझको बहुत हैं इस राह में दुश्वारियाँ
मौन अधरों पर रुकी हैं बीती विगत लाचारियाँ
आगत विगत के फेर में आकाश जाने कब गिरा
जो भी गिरा जैसे गिरा मैंने सब स्वीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

हर दिवस के बाद रातें भोर का प्रारंभ माना
शून्य को हमने यहाँ पर इक मधुर आरंभ माना
बाँधने भुजपाश में पल उम्मीद का आश्रय लिया
और सभी परिवर्तनों को मैंने अंगीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर ,2021






बाल श्रम।

बाल श्रम।   

काँधों पर प्रतिपल बोझ लिए
जीवन को आकार दिया
नन्हें नन्हें सपनो को भी
मैंने कब इनकार किया।
माना कुछ मजबूरी अपनी
फिर भी हँसता रहता हूँ
देख भाल कर जग के रौनक
मन ही मन खुश रहता हूँ।
चाहत है कुछ नया करूँ मैं
आशा के नव स्वप्न बुनूँ
पढूँ, लिखूँ नव राह चुनूँ मैं
जीवन का आधार बुनूँ।
पर मंजिल पाने की खातिर
पग पग चलना पड़ता है
इस दुनिया में जीना है तो
पग पग मरना पड़ता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2021

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।  

इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

आस के आकाश पर कुछ मौन चित्र जीवन ने चुने
मोतियों का ले सहारा कुछ हार जीवन ने बुने
ख्वाहिशों के मोतियों को बिखराया बोलो क्या पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

याद बनकर रह गये वरदान जो थे तुमको मिले
स्वप्न सारे ढह गये अनुभूतियों में जो थे पले
ढह रही अनुभूतियों में स्वप्न फिर से खिल न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

वो थी कसौटी प्रेम की अहसास की विश्वास की
थी शब्द के संचार की अरु इक मधुर आभास की
विश्वास जो टूटा यहाँ विश्वास फिर जुड़ न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

मृदु शब्दों के हर अर्थ की व्याख्यान थी वो वंदना
थी मगर उलझी न जाने बन मौन क्यूँ संवेदना
इस कदर उलझे यहाँ सब चाह कर सुलझा न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09नवंबर, 2021

स्याही ने इंकार कर दिया।

स्याही ने इंकार कर दिया।  

पलकों के कोरों पे आँसू
ठहरे कभी, कभी हैं ढलके
सूखे कभी ताप में जलकर
कभी नरम होकर के छलके
जब भी इनको लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

यादों की वीथी पर कितने
धुँधले चित्र अभी तक ठहरे
अंतस के भावों पर जाने
कैसे कैसे हैं ये पहरे
पहरों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

विरह वेदना के क्षण में भी
आँसू का सम्मान किया है
घोर निराशा के क्षण में भी
मैंने मधु का दान किया है
मधु की पीड़ा लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सन्नाटे के विरह में घुली
अब खामोशी किससे दर्द कहे
पग पग कितनी पीड़ा झेली
और जाने कितने दर्द सहे
पीड़ा को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

आह, सुलगती आशाओं ने
कुछ कहा कभी कुछ सुना कभी 
पग में कितने भी छाले हों
क्या दिनकर का रथ रुका कभी
छालों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सुधियों के चौराहे पर अब
चुपचाप मुसाफिर मौन खड़ा
यादों के बीते साये में
ले चुभते कितने प्रश्न खड़ा
प्रश्नों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2021

नाम दोषियों में मैंने पाया।

नाम दोषियों में मैंने पाया।  

है मुझे अफसोस अब तक राह तेरी चल न पाया
बात दिल में जो छिपी थी बात दिल की कह न पाया
यूँ है विदित मुझको हमारी वो सभी नाक़ामियाँ
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

भाव थे जो भी हृदय के दिल चाहता था बोल दूँ
राह में जंजीर थी जो जंजीर सारे तोड़ दूँ
और लिख दूँ गीत जो गूँजे हृदय की वादियों में
रीत में नवरीत लिख कर वो रीत सारे जोड़ दूँ।।

अफसोस मन की भावना को व्यक्त मैं कर न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

धड़कनों ने गीत गाकर मौन को आवाज दी है
साँस की सरगम सुरीली जिंदगी को साज दी है
त्याग कर प्रतिबंध सारे था लिखा इक गीत मैंने
और अधरों को लुभाये वो सुरीली राग दी है।।

आह अधरों पर सुरीली रागिनी सजा ना पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

है सभी स्वीकार मुझको जो मुझे शायद मिला है
है नहीं अफसोस कोई और ना कोई गिला है
वक्त का ये दोष है या फिर है मिरी नाक़ामियाँ
ये दर्द का अहसास सारा दर्द पाकर ही खिला है।।

कंठ तक आकर रुके पर गीत खुलकर गा न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07नवंबर, 2021


हिय हृदय से मिल गया।

हिय हृदय से मिल गया।   

आपका प्रिय साथ पाकर मौन भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

प्राची के राजमार्ग पर किरणों की रंगोली
सज धज जीवन की ऐसी ज्यूँ कहार की डोली
मिल रहे धरती गगन यूँ प्राण का संचार ले
गूँजती हिय में मधुर शब्दों की मीठी बोली।।

शब्द का मृदु साथ पाकर गीत भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

वीथि पर ये सितारे कह रहे कितनी कहानी
कर रहे इस रात को भोर से ज्यादा सुहानी
घिर रही ज्योत्सनाओं की यहाँ मृदुल फुलवारी
गा रही नव गीत ये जिंदगी होकर दीवानी।।

नव गीत का संस्कार पा साज भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

चलो कुछ ऐसा रचें जो गीत को आकार दे
शब्द को आश्रय मिले भाव को संस्कार दे
भोर सी दस्तक मिले अरु पंथ सारे पुण्य हों
कामनाओं को हृदय में पुण्यता विस्तार दे।।

पुण्य का आधार पाकर भाव भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर, 2021


विस्तार मैं देने लगा हूँ।

विस्तार मैं देने लगा हूँ।  

शब्द मिरी भावना के तेरे अधरों से झरे यूँ
कामनाओं को यहाँ विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

कुछ सुनहरे शब्द लाये गीत की माला बनाकर
इस रात की चाँदनी से ओस की बूँदें चुराकर
है यही करता हृदय अब चाहतों में डूब जाऊँ
और फिर तुमको रिझाऊँ गीत कोई गुनगुनाकर।।

गीत कुछ ऐसा सजा दूँ मीत बन कर वो सजे यूँ
भावनाओं को यहाँ आकार मैं देने लगा हूँ।।

रूप कुछ ऐसा सजे जो नैन में बस मुस्कुराए
प्रीत की पेंगें हृदय में कामनाओं को जगायें
बात जो निकले हृदय से बात वो पहुँचे हृदय तक
और पलकों में सजे जो स्वप्न सारे झिलमिलायें।।

स्वप्न कुछ ऐसा बुनूँ जो दे मौन को संचार यूँ
स्वप्न को आधार को व्यवहार मैं देने लगा हूँ।।

पुण्य पावन प्रीत गायें आरती मन में बसाकर
शब्द को श्रृंगार देकर भावनाओं में सजाकर
आस का आकाश लेकर पंथ नूतन कुछ सजाऊँ
और फिर तुमसे मिलूँ मैँ प्रीत की कलियाँ खिलाकर।।

आस को स्वीकार कर ले दे प्रीत को अधिकार यूँ
आस के संसार को विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05नवम्बर, 2021

राम वनगमन व दशरथ विलाप

राम वनगमन व दशरथ विलाप माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया। युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।। जब स्वार्थ हृदय म...