नीलकंठ कहलायेगा।

सभयसिंधुगहिपदप्रभुकेरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
   समुद्र नेभयभीतहोकरप्रभु के चरण पकड़करकहा- हेनाथ! मेरे सबअवगुण (दोष)क्षमाकीजिए।हे नाथ! आकाश,वायु,अग्नि, जल और पृथ्वी-इन सबकी करनीस्वभाव से ही जड़ है॥1
नीलकंठ कहलायेगा। 

बीत गई कितनी सदियाँ जब परछाईं तक छू न सके
चाहा कितना जोर लगाया अनुमानों तक छू न सके।
हुआ असंभव कद को पाना और पहुँच के बाहर था
मरे शब्द अधरों से गिरकर चाहा कितना जी न सके।।

भाव प्रभु श्री राम सा मिलना है इतना आसान नहीं
चक्र सुदर्शन धारी बनना सोच सके आसान नहीं।
त्याग तपस्या के बल से ही इनके पथ को पा सकते
द्वेष भाव औ बैर भरा हो तो पथ ये आसान नहीं।।

कलयुग का है खेल सभी ये मन सबका भरमाया है
अपने-अपने मन विवेक से सबने भाव बनाया है
जो अक्षर बोध समझ न पाये चले व्याकरण समझाने
अपना घर तो सँभल न पाया प्रभु पर प्रश्न उठाया है।।

माना तुम हो सही गलत वो क्या वो कद छू सकते हो
तुम कहते हो गलत किया है क्या तुम वो कर सकते हो।
जिन्हें वोट की चिंता रहती त्याग तपस्या क्या जानें
जन-जन के मन में बसने को क्या सोने सा तप सकते हो।।

एक शब्द के अर्थ बहुत हैं सबको है मालूम यहाँ
द्विअर्थी संवादों में जो सदा खोजते मर्म यहाँ।
मनमाफिक सब अर्थ बना कर दुनिया को भरमाते हो
अपने जिह्वा की फिसलन पर बोलो क्या सकुचाते हो।।

मर्यादा की खातिर जिसने सुख जीवन का त्याग दिया
जितनी ही विपदाएं आयीं हँस कर बस सम्मान किया।
हमें सिखाया जिसने जीवन व्यर्थ नहीं गँवाते हैं
विपदाओं के महासमर में कभी नहीं घबराते हैं।।

एक न सत्य धर्म की खातिर खुद पर कितना दाग लिया
जिस कोख से जन्म लिया था उसी कोख का त्याग किया।
हर संभव संकट को जिसने हँसकर खुद पर झेला है
गोवर्धन उँगली पर रखकर विपदाओं से खेला है।।

मात-पिता भाई का रिश्ता इक ने सबको सिखलाया
धर्म-अहिंसा सत्य सनातन इक से जग ने है पाया।
इक ने वचन बद्धता दी है दूजे ने है ज्ञान दिया
इक ने मूल्य सिखाया जग को दूजे ने सिद्धांत दिया।।

इक ने राजधर्म सिखलाया दूजा कूटनीति में माहिर
इक ने नीति धर्म सिखलाया इक की सेवा जग जाहिर।
दो नामों में मंत्र सभी है न जादू न टोना जंतर
यही शास्वत सत्य यही है और यही जगत में सुंदर।।

तनिक असुविधा होते ही जो सिर पर व्योम उठाते हैं
झूठी शानो शौकत पर जो फूले नहीं समाते हैं।
सत्ता सुख की खातिर क्या है वचनबद्धता क्या जानें
सत्ता के गलियारों का जो रस्ता केवल पहचानें।।

इन पर प्रश्न उठाना है तो इन जैसा बनना होगा
जितना त्याग किया जीवन में त्याग वही करना होगा।
आसानी से कब मिलता है उम्मीदों को पंख यहाँ
सेज फूल की यदि चाहो काँटों पे भी चलना होगा।।

अपने भीतर झाँकेगा जो वही सत्य जी पायेगा
सागर का मंथन जब होगा अमृत तब ही आयेगा
दूर खड़े हो प्रश्न उठाना रहता है आसान सदा
लेकिन विष जो धरे कंठ में नीलकंठ कहलायेगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31जनवरी, 2023

खिली कली मन की मुरझाई।

खिली कली मन की मुरझाई। 

रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

साँझ ढले मन के पनघट पर
कैसी फिसलन जान न पाया
खाली घट मैं लिए खड़ा था
सागर था, पहचान न पाया
कुछ सपनों की चाहत गहरी
नयनों की प्यासी धरती पर
जाने फिर क्यूँ स्वप्न गिरे
रक्तिम गालों की धरती पर
अधरों ने जब कहना चाहा
बात हुई सब सुनी सुनाई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

राहें तक-तक पलकें हारीं
कितने जीवन पार हो गए
सूना-सूना मन का आँगन
सावन बीता क्वार हो गए
जितने महल बने ख्वाबों के
द्वार पलक के आकर ठहरे
चाहा कितनी बार सजा लूँ
पर जाने थे कैसे पहरे
द्वार ठहर कर देख रहा मन
सूने आँगन की परछाईं
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

संझा चाह मिलन की लेकर
रात-दिवस से रही उलझती
दूर क्षितिज पर उम्मीदें थीं
साँसें पल-पल रहीं कलपती
दूर सभी रस्ते ठहरे थे
जाना है किस ओर न जाने
रुँधे कंठ ले सांध्य खड़ी थी
आँसू का आवेग न माने
संझा आज स्वयं के घर में
क्या कहती क्यूँ हुई पराई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जनवरी, 2023

सपने कुछ हमने भी बोए।

सपने कुछ हमने भी बोए।

यादों के कुछ मौन पलों में
बूँद पलक के द्वारे आए
कुछ ने मन को बहलाया
आहों को कुछ भरमाए
कुछ बूँदों में चैन मिला है
कुछ में हमने जीवन खोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रही हथेली रिक्त भले ही
नहीं शिकायत रही समय से
लम्हों से कितने दर्द मिले
नहीं शिकायत करी समय से
गिरे हाथ से लम्हे कितने
लेकिन दामन नहीं भिंगोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रूक जाता तो कैसे जीता
थमने का कुछ मोल नहीं था
रुक कर आँसू ही पीता जो
सपनों का कुछ मोल नहीं था
बने बिगड़ते सपने लेकर
जग जाने क्या, कितना रोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जनवरी, 2023

मुक्तक।

मुक्तक।  

समंदर के किनारों ने लहर से और क्या पाया
कभी ठोकर थपेड़े औ कभी अवसाद है पाया।
हजारों जख्म खाते हैं मगर चुपचाप रहते हैं
समेटे दर्द कितने ही नया पर गीत है गाया।।
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भले हों बंदिशें कितनी राहें खुल ही जाती हैं
दिलों को जीत लेती हैं साँसें खिल ही जाती हैं।
नहीं अफसोस रहता है मिले जब साथ अपनों का
चलें जब साथ मिलकर के राहें मिल ही जाती हैं।।
*******************************

मिले जो दर्द तुमसे अब नहीं उसका मुझे गम है
तुमसे जख्म जो पाये वही अब मेरे मरहम है
मगर इक कशमकश सी है मुझे जो सालती रहती
मुकम्मल जिन्दगी है या अभी कुछ और भी गम है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       27जनवरी, 2023

जाना है क्या ये जीवन।

जाना है क्या ये जीवन।  

प्रभु आपकी शरण में आया तो जाना जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

भटका हुआ था जीवन खोई हुई थी राहें
क्या जाने किस गली में खोई हुई थी चाहें
आशीष जब मिला तो पाया है मैंने जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

अपना क्या जगत में जो मिला है सब तुम्हारा
अनजाने रास्तों पे है बस आपका सहारा
बस आपकी कृपा से पाया है मन का मधुवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

प्रभु पंथ भी तुम्हीं हो औ तुम ही हो ठिकाना
भूलूँ मैं राह जब भी तू ही रास्ता दिखाना
प्रभु आपकी कृपा से महका है मन का उपवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

झूठा जगत है सारा बस एक तू ही सच्चा
नादान हूँ अभी मैं क्या जानूँ क्या है अच्छा
आशीष पाया जब से अंतस हुआ ये पावन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जनवरी, 2023

साज दिल के।।

साज दिल के।  

चली कैसी ये पवन 
आज तुझसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नहीं जोर अब तो
दिल पर है कोई
जागने लगीं अब
रातें जो सोईं
नया पाया जीवन
तुझसे ही मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नये ख्वाब आंखों में
अब आने लगे हैं
खोई थी राहें जो
हम पाने लगे हैं
नए गीत अधरों पे
सजे तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

यही दिल की चाहत
कि कोई जनम हो
तुमसे शुरू हो औ
तुम पर खतम हो
सजा दिल का उपवन
मेरा तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जनवरी, 2023

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।  

पाई-पाई जोड़ि-जोड़ि के करईं व्यवस्था मुश्किल से
जोड़ईं हाथ मूड़ नवावईं माँगइ मोहलत तंग दिल से।

कइसन जग में रीत चलल बा पैसा ही भगवान भइल
बिटिया जनमब यहिं युग में बोला का अपमान भइल।

मंदिर-मंदिर चौखट-चौखट केतनी अरज गोहार लगायेन
तब जाई के ओनकर घर मे सुंदर सी एक बिटिया पायेन।

किलकारी सुनि के बिटिया के दुख सारा बिसराई दिहिन
बिटिया के न बोझ समझिहा घर भर के समझाई दिहिन।

अइसन लागइ देखि के ओहके परी धरा पे उतरी हौ
अउ दादी-दादा नानी-नाना के आँखे के पुतरी हौ।

आँखी से जो आंसु गिरइ तो काम छोड़ि सब दौड़ई लागईं
कोरा में लेई के सब केयू आँसू ओकर पोंछई लागईं।

बीतत समय देर केतना पढ़ि लिखी बिटिया भई सयानी
सोचि विदाई बिटिया के बहई आँख से झर-झर पानी।

लेकिन जग के रीति पुरानी केयू बिटिया के कब राखि सकल
केतनउ चाहई अपने मन में समय के का केऊ बान्हि सकल।

योग्य देखि के बिटिया खातिर ब्याहें के इंतजाम किहिन
रुपया-पैसा, गहना-गुरिया यथाशक्ति वरदान दिहिन।

एककई बिटिया जानि के लरिका वालन मुँह बाढ़ई लाग
छवउ महीना नाहि बिता कि फिर से पैसा माँगई लाग।

एक दुइ बार त ओनके मन के सारी इच्छा पूर किहिन
करजा वरजा काढ़ि के कइसेउ हाथे पइसा लाई धरिन।

एक त बियाहे के करजा ऊपर से ई नई समस्या
अब त जीवन लागई लाग अपने मां इक नई समस्या।

कुछ दिन ले बरदाश्त किहिन फिर पानी सर से ओर होइगा
हर आये दिन नई माँग अब मुश्किल दाना-पानी होइगा।

रोज-रोज के मार पीट से मन सब कर उकताई गवा
जवन सोन एस मोह बिटिया के उ कइसन मुरझाई गवा।

हद त होइगा एक दिन लरिका बिटिया के पहुंचाई दिहिन
नई कार के लिस्ट हाथ पे लाई के उनके थमाई दिहिन।

अब हमसे बरदाश्त न होई बाबू आखिर केतना करब
रोज-रोज के इनकर लालच अउर ताड़ना अब न सहब।

मोह के खातिर बिटिया के अब नई कार मँगवाई दिहिन
बेचि के आपन बिस्सा ओनकर घर पइसा पहुंचाई दिहिन।

लेकिन लालच अइसन मन में नवा पाप संचार भयल
मार-पीट आये दिन ताना अब जीवन के आहार भयल।

मूड़ पकरि के बिटिया रोवइ अउर न कउनो रस्ता सूझै
हाथ जोड़ि के कहेस प्रभु से अगले जनम न बिटिया कीजै।

एक दिन ई संदेश मिलल के बिटिया के सब जारि दिहिन
छाती पीट के माई रोवइ बिटिया के हमारे मार दिहिन।

कोर्ट कचहरी भयल मुकदमा सब अपराधी जेल ग्याल
लेकिन बिटिया के दोष रहा का जेकरे साथे पाप भयल।

लालच के खातिर दुनिया में मनई केतना अंधा होई गा
सूट-बूट से ऊपर बाटई भीतर से मुदा मंगा होई गा।

का बिटिया के जीवन के यहिं समाज मे मोल नहीं
केहू बतावइ कि समाज में का जीवन अनमोल नहीं।

दहेज प्रथा की आड़ में कितना जीवन ई बरबाद भइल
शिक्षा, संस्कृति अउर सभ्यता ई सबकर अपमान भइल।

गर सम्मान मिली नारी के जीवन ई खुशहाल रही
चीर द्रौपदी के खींची जे ऊ जीवन बदहाल रही।

कुरुक्षेत्र होई जाये जीवन कौरव जइसन हाल होई
मूल रही न जीवन के कुछ ई दुनिया बेहाल रही।

सृष्टि के निर्माता नारी अउ जीवन के पालन कर्ता 
इनके ही सम्मान से घर के सारा दुख दरिद्र हरता।

दहेज प्रथा उ दीमक हौ जो समाज के चलि डाली
जो एकर अंत न होई मनुज सभ्यता छलि डाली।

कहे देव अब गाँठ बान्हि ल बात यही अनमोल अही
जेहिं घर नारी जीवन कलपी वहिं घर के कउनो मोल नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
       हैदराबाद
       23जनवरी, 2023

अवधी गीत-कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

 अवधी गीत- कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगा, यमुना, आदि गोमती अरु सरयू के का हाल भइल
कतहु पे कचरा कतहु पे टेनरी अउर कतहु अपमान भइल
कतहु पे नाली गिरत अहइ अउर कतहु पे केऊ पानी रोकई
कतहु पे काटई पेड़ रूख अउर कतहु पे केऊ गंदा झोंकई
अइसन ही जो हाल रही तो निर्मल कबहु न गंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगोत्री से निकली हैं अउर हरिद्वार पे धरती आइन
जड़ी, बूटी पर्वत से लाइन दुनिया के जीवन दिखलाइन
जउने-जउने राह चलिन कुलि राह पवित्र कई देहलिन
रोग, दरिद्र दूर करिन अउ खुशहाली घर-घर देहलिन
इनके अपमान जहाँ होई मन वु कबहु न चंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

खेती-बाड़ी अउ लरिकन-बच्चन तुहिं जीवन के मूल्य अहियु
शिक्षा, संस्कृति, धरम, सभ्यता, नैतिकता के मूल अहियु
तोहरी गोदिया में खेल कूद के भारत के माटी सोन भयल
राम, कृष्ण, गौतम, नानक, गीता, पुराण अनमोल मिलल
एक बूँद से तोहरे मिल के गड़ही भी गंगाजल होइहैं
बिन तोहरे मन ई शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

जउने-जउने रस्ता चललू वहिं के माटी हरियाई दिहु
लोभ, मोह अउ पाप के मन से बहरे रस्ता दिखलाई दिहु
काशी, प्रयाग अउर गंगा सागर धरती पे स्वर्ग बसाइयू तू
शंखनाद करि कुरुक्षेत्र में पांडव के युद्ध जिताइयू तू
जेकरे मन मां पाप बसल हौ सकल जगत मां नंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

कहे देव बस पानी नाहीं तू भारत के प्राण वायु अहियु
दुख-दरिद्र दूर करे जो अइसन तू वरदान अहियु
तोहरे पानी के अंजुलि भर के देवलोक भी धन्य भयल
आशीष मिलल बा हम सबके हमरो जीवन भी धन्य भयल
जो तू रहबियु मैली अब भी भारत के मन ई गंदा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22जनवरी, 2023

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।  

बहुत कठिन बा का दुनिया मे
अपने मन के काबू करना
जग से अच्छी बातें सीखब
ओहके फिर से लागू करना
हरदम मन मे दुविधा कइसन
चाहेस केतनी बार कि कहिले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

कउनो गलती ओहर रहल
अउ कउनो गलती यहर रहल
तनिक बिगाड़ ओहर भयल
अउ तनिक बिगाड़ यहर भयल
तोहसे भी कुछ सहल गइल न
एहरौ मनवा कुछ न सहले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

अब पछताए होय काऊ जब
चिड़िया चुगी गयी खेत सकल
तुहई बतावा तब का करिता
मनवा में जब वहम रहल
कइसे मेल उहाँ संभव हो
केऊ न कदम बढावईं पहिले
कइसे ई सब सहल होई
सोचई अब तो मन ई पहिले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जनवरी, 2023

अवधी गीत-गलत हमेशा गलत रही।

अवधी गीत-  गलत हमेशा गलत रही।  

नवा जमाना देख के मन में
कइसन-कइसन भाव जगल
लालच, लोभ, मोह में पड़ि कर
अइसन वइसन चाह जगल।

बॉलीवुड के देखि सिनेमा
लोगन के मन बदलत बा
धरम करम के प्रति लोगन के
भाव चित्त से उतरत बा।

केहू कहे बेसरम रंग हौ
लगे केहू के सब उद्दंड
औ केहू के लागत बाटई
पूजा-पाठ भक्ति पाखंड।

दुसरे के घर देखि हवन
आपन खिड़की बंद करईं
शंख-नाद सुनि के सारे
काने के अपने बंद करईं।

केहू कहत हौ भोले जी के
दूध चढ़ाउब व्यर्थ इहाँ
राम-नाम के पाठ केहू के
लागत बाटई व्यर्थ यहाँ।

टीका-चंदन मंदिर-मंदिर
अपराधिन के डेरा बोलेन
वेद-पुराण ऋषि मुनि के
बदनाम करे खातिर मुँह खोलेन।

नवा जमाना देखि के ओनकर
मनमाना सब ढंग भईल
कलि तक साड़ी ठीक रहल
अब काहे के तंग भईल।

देह देखाइब बॉलीवुड में
लागत हौ सम्मान भईल
नीति शास्त्र के बात इहाँ
जइसन के अपमान भईल।

फिल्मन के नङ्गेपन पर
कहें, जनता इहे देखइ चहे
केऊ नँगा होइके आपन फोटो
पेपर-पेपर बेचई चाहें।

जब तक सब चुप रहल इहाँ
छेड़-छाड़ त खूब भईल
बॉयकाट के हवा चलल तो
खटिया काहें टूट गईल।

भिनसारे केयू कहेन आई के
नशा वशा केऊ नही करित
संझा होतइ दूसर बोलेन
थोड़-थाड़ सब कबहु करित।

कहे अजय यदि निक दिन चाहा
चाल, चरित्र अउ चित्र संभाला
राष्ट्र, धर्म, शिक्षा संस्कृति के
मूल के आपन ध्येय बना ला।

राम, कृष्ण, गीता रामायण
भारत के सब मूल तत्व हौ
इनकर अपमान इहाँ पर
जे करई ऊ दुष्चरित्र हौ।

गलत हमेशा गलत रही
केतनउ चाहा ठीक न होई
जेकरे मन में भाव गलत हौ
कबहु राष्ट्र के मीत न होई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2023



जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

दीप की रोशनी में सुबह हो गयी
रात भर चाँदनी छटपटाती रही
चाँद चलता रहा रात भर आस में
चाँदनी दूर से ही बुलाती रही।

चाँद के दर्द का अर्थ होगा नहीं
भाव उसके तुम्हें जो जता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जिन्दगी में सभी कुछ मिला कब यहाँ
कुछ न कुछ तो कहीं पर कमी रह गयी
मिल न पाया सहारा सदा बाँह का
कुछ न कुछ आस मन की दबी रह गयी।

बेसहारे रहेंगे इरादे सभी
आज उसको तुम्हें जो बता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

चाह जिसकी हृदय को हमेशा रही
वो मुझको तुम्हारे हृदय में मिला
मन भटकता रहा इस नगर में सदा
देख तुमको हुआ खत्म वो सिलसिला।

स्वर्ग भी अब मिले व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को लुभा न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जनवरी, 2023

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

कुछ अधूरी ख्वाहिशें 
कुछ अधूरी चाहतें
स्वप्न के कुछ पल यहाँ
मौन कदमों के निशाँ
कुछ मचलती राहतें
दूर होती आहटें
वक्त से न जाने क्यूँ
एक लम्हा रूठ जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

नेह के कुछ पल यहाँ
संग बीते कल वहाँ
एक हल्की सी छुअन
प्यार की मीठी चुभन
वो नजर का फेरना
और फिर से देखना
फिर पलक के कोर से
बूँद बन, टूट जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

वो धूप में बाहर निकलना
बारिशों के संग फिसलना
वो चाँदनी रातें सुहानी
नानी-दादी की कहानी
देर तक चलती वो बातें
छोटी लगती थी वो रातें
चाँद का आँगन उतरना
फिर-फिर याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

जा के आँचल से लिपटना
और फिर उसमें सिमटना
वो खिलौने को मचलना
और कदमों को पटकना
माँगना आकाश तारा
और कहना जग हमारा
वो दूध की छोटी कटोरी
फिर सब याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

शाम को घर से निकलना
दोस्तों के संग टहलना
वो समोसे की लड़ाई
एक दूजे की खिंचाई
साइकिलों पर दूर जाना
अभाव में भी सब कुछ पाना
वो दिलों की चाहतें
अब भी तड़पाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17जनवरी, 2023

शायद।

शायद।  

मेरे मन की बातों को वो खेल समझते हैं शायद
झूठे वादों को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कुछ खामोशी गहरी होती क्यूँ इतना आभास नहीं
शोर मचाने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

नयनों के सूनेपन के भावों को कब समझा है
पलक झपकने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

यादों में कुछ गीत बसे हैं जिनकी याद सुहानी है
गीत मचलने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कह देना मुश्किल लगता चुप रहना आसान नहीं
बेफिकरे इस दुनिया को खेल समझते हैं शायद

मन ने दर्द जिया पग-पग पर नहीं शिकायत करी कभी
सहनशीलता को दुनिया में खेल समझते हैं शायद

कुछ सपनों का इन आँखों से गहरा कुछ तो नाता है
इस नाते को दुनियावाले मेल समझते हैं शायद

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जनवरी, 2023

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।


छोड़ कर जिन रास्तों को आ गया हूँ
फिर मुझे उन रास्तों पर मत बुलाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

ढल चुकी रात जो गहरी अंधेरी
उस रात से मेरा नहीं अब वास्ता
जिन दिशाओं से अभी छूटा हूँ मैं
अब उन दिशाओं से नहीं है वास्ता।

जिन रास्तों में दर्द से गुजरा हूँ मैं
फिर मुझे उन रास्तों को मत दिखाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

वादे मन के द्वार पर घुटते रहे 
यादों ने उनको कभी देखा नहीं
कुछ घुटे से दर्द अब भी राह तकते
है रास्ते क्या कंठ ने सोचा नहीं।

हैं घुटे उस दर्द के नासूर जो भी
उनकी आहों को मुझे मत सुनाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

आज मन की गाँठें सारी खुल गईं
सब दर्द की आहें हृदय में धुल गईं 
मन पे कोई बोझ अब कुछ भी नहीं
खोई मन की साँस सारी मिल गईं।

कंठ में थी घुटी जो साँसें कल तक
फिर से उनको कंठ में मत दबाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जनवरी, 2023

जीत का मंत्र।

जीत का मंत्र।   

सूर्य की रश्मियों से
तेज लो प्रकाश लो
मुट्ठियों को खोल कर 
सारा तुम आकाश लो
शास्त्र वीर काँधों पे 
शस्त्र तुम सजा लो अब
उठो के शत्रु सामने है 
तेज तुम दिखा दो अब
तेज हो प्रभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।


राष्ट्र की पुकार है 
भागवत का सार है
शत्रु जब हो सामने 
प्रचंड तू प्रहार कर
भीम सा प्रभाव हो 
न मन पे कुछ दबाव हो
शत्रु के रक्त से 
धरा का तू श्रृंगार कर
मन में न अभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

वार तू प्रचंड कर 
स्वयं पर घमंड कर
हो जहाँ खड़े रहो 
चट्टान से अड़े रहो
नेह के प्रभाव तुम 
आज सारे त्याग दो
इस धरा को आज तुम 
शत्रुओं से पाट दो
वक्त की यही पुकार 
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

राह में रुके नहीं
शीश ये झुके नहीं
युद्धवीर बन चलो
राह अब थके नहीं
राष्ट्र की अखंडता का
तुम ही तो प्रमाण हो
जीत के नव राग से
शांति का निर्माण हो
शांति का आधार बन
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है
चले चलो चले चलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जनवरी, 2023


चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।


आज साँसों ने मचलकर है पुनः तुमको पुकारा
चाहता हूँ वेणियों में गूँध दूँ आकाशतारा।।

माँग में तेरे सजा दूँ नेह की सारी कलायें
पाश में भरकर उतारूँ मैं तिरी सारी बलायें
माथ पर तेरे सजा दूँ भोर का पहला सितारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

नैन मैं मैं आज भर लूँ प्रेम की हर भंगिमा को
इस हृदय को मैं सजाऊँ चाहतों की लालिमा से
और भर दूँ इस भुवन में आज मैं मधुमास सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पुष्प से मधुरस चुराकर आज अधरों पर लगा दूँ
बाल रवि की रश्मियों को इन कपोलों पर सजा दूँ
आज रच दूँ गात पर मैं धरा का श्रृंगार सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पास बैठो मैं भरूँ पिय अंक में मृदु रत्न सारे
भरे पुष्पित भाव मन में स्वयं रतिपति जो सँवारे
नव्य कलियों की दमक से आज भर दूँ अंक सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

यूँ सजा कर रूप तेरा चाहता तुमको निहारूँ
धूप-बाती प्रेम की ले आरती तेरी उतारूँ
और आलिंगन धरूँ मैं नेह का अमृत पिटारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जनवरी, 2023

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

अपने मन से भार उतारा दूजे के सिर माथ चढ़ा कर
हाहाकारी इस जीवन में अपना पद अरु मान घटाकर
दूजे के भावों को छलकर जीना मुश्किल यहाँ बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

मन के झूठे अनुरोधों पर साँसें भी असमर्थ हुई हैं
ढँक कब पाया झूठ-तर्क सब आहें सारी व्यर्थ हुई हैं
किन्तु मोह के आगे सारे जीवन के प्रतिबंध गिरे हैं
जैसे पतझड़ ऋतु आते ही शाखों से सब पुष्प झरे हैं।

पतझड़ ऋतु में पुष्पाच्छादित उपवन का मनुहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

पग-पग जीवन एक पहेली कुछ सुलझे कुछ सुलझ न पाये
कुछ उलझे निज परिभाषा में चाहा मन पर समझ न पाये
जाने कैसी अनुशंसा में निज मन ये उलझा जाता है
खोल न पाये गाँठ हृदय की बंधन कब सुलझा पाता है।

अनुशंसा में उलझे मन को खलता ये व्यवहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

बाँध हवा को पाना मुश्किल कितने ही आये चले गये
जितने महाबली उभरे थे सब समय चक्र में छले गये
दूजे मन को दूषित कर के कब मिलता है सम्मान यहाँ
शकुनी की चालों को मिलता सदा उचित परिणाम यहाँ।

गीता के हर उपदेशों का निज मन पर उपकार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जनवरी, 2023

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

लिखना था तुम्हारे संग चाहा पर न लिख पाया
अधूरे गीत अधरों पर रुके पर मन न गा पाया
रुकी जो चाहतें मन में अभी तक वो सताती हैं
विरह ने गीत जो गाया अभी तक मन न सह पाया।

मिलन के स्वप्न नयनों में अभी तक वो अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

वो खुशबू आज भी मन के कोनों में महकती हैं
वो साँसें आज भी पल-पल आहों में दहकती हैं
आहों में अभी तक भी तुम्हारी चाह जिंदा है
यादों के चिरागों की वो धीमी लौ तड़पती है।

जली बाती चिरागों की मगर सपने अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

जाना जो जरूरी था तो इतना ही बता जाते
नहीं जो रीत थी कोई निगाहों को जता जाते
न लेता दोष सर माथे गिरे जो हाथ से लम्हे
कि अपने हाथ से खुद ही मिटा कर नाम तो जाते।

गिरे कुछ हाथ से लम्हे बचे जो हैं अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2023


बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।


देर तक रहे खड़े नैन ये भरे-भरे
चाहतें मुखर हुईं राहतें सिफर हुईं
दर्द को मिली डगर थी कहाँ किसे खबर
आस भी सिमट गई राह भी सिमट गई
चूर थक के हो गये दूर सबसे हो गये
कह सके न बात को सह सके न घात को
शून्य को निहारते स्वयं को पुकारते
कंठ थे भरे-भरे हम रहे खड़े-खड़े
नेह सभी लुट गये मौन हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

सांध्य जब मुखर हुई रात ने छुपा लिया
सब दिवस के दर्द को आह ने दबा लिया
साँस थी घुटी-घुटी आहटें छुपी-छुपी
शब्द जो कहे नहीं दूर से समझ गए
कुछ कहे, कहे नहीं, मौन रह पलट गए
और शोर ने कहा बात जो समझ गये
शून्य को निहारते बात क्या सँभालते
सोच में पड़े-पड़े हम रहे खड़े-खड़े
स्वप्न सभी लुट गये जागती रही निशा
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

जब नहीं है वास्ता क्यूँ चले मन रास्ता
दूर जब सभी हुए दोष सब बरी हुए
रात की करवटें कह सकी न सिलवटें
दंश जब वहाँ छुए दूर अंक से हुए 
कह सकी न रात कुछ बुझ गये सभी दीये
दीप जो जले रहे सोचते पड़े रहे
कर्ज क्या उतारते भोर को पुकारते
रात भर जले-जले यही सोचते रहे
मुक्त कंठ हो गए राख हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जनवरी, 2023


तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

थे लगे प्रतिबंध कितने और कितनी थी कथाएँ
हर कथाओं से जुड़ी थीं कुछ पुरातन भावनाएँ
किंतु सारी भावनाओं से हुआ मन दूर देखो
स्वप्न कुछ ठहरे अधूरे हो न पाए पूर्ण देखो
भावनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

है असंगत मेल जब ये क्यूँ सहे फिर ताप मेरा
शब्द से छलनी हुआ मन फिर सहे क्यूँ पाप मेरा
क्यूँ दबाये फिर हृदय में जग रहे निज वेदना को
क्यूँ नहीं फिर से जगाये सुप्त मन की चेतना को
वेदनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

क्यूँ समय को दोष देना जब सभी अनुबंध ढीले
रोक अधरों को न पाया हो गए संबन्ध ढीले
आज आकुलता हृदय की जल गई सब दीपिका में
लिख दिए अनुबंध नूतन टूटती इस तूलिका ने
तोड़ कर इस तूलिका को दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2023


दूर निकल आया मन सबसे।

दूर निकल आया मन सबसे।

पल-पल भावों को तड़पाकर
नयनों में जो चुभते रहते
सिलवट भरी करवटों में जो
रात-रात भर घुटते रहते
जिसने दर्द दिया साँसों को
घुट-घुट जिसमें रहे सुबकते
मुक्त किया बंधन से तन को
दूर निकल आया मन सबसे।।

जली आस बस राख रह गयी
खाली हुआ अंक यादों से
विस्मित हो पल ताक रहे थे
मुक्त हुआ झूठे वादों से
मन की कतरन सिले बिना ही
छोड़ दिया सब साँस दरकते
मुक्त किया साँसों को प्रण से
दूर निकल आया मन सबसे।।

कुछ सपने जीवन से उलझे
प्रतिपल कैसी बहस छिड़ी है
तर्क यही है कौन बड़ा है
बीच मौन है किसे पड़ी है
स्वप्न प्रलोभन छोड़ डगर में
बारिश भींगी स्वयं बरसते
मुक्त किया सब स्वप्न नयन से
दूर निकल आया मन सबसे।।

किसको कह दें आज सँभालो
मन किसको दे जिम्मेदारी
मुक्त करेगा कौन साँस को
दे किसको मन आज सुपारी
जीत गया फिर वक्त आज भी
सपने फिर सब रहे तरसते
मुक्त किया जिम्मेदारी से
दूर निकल आया मन सबसे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जनवरी, 2023

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।

जाने दुःख ने किया बसेरा
अंतर्मन के किन भावों में
तकती आँखें भरी दुपहरी
मृदुल नेह को अनुरागों में
मन में कोई भाव न आया और न कोई चाहत पनपी
सारा दिवस बीनते बीता आशाएं जो बिखरी मन की
बिखरे मन की आशाएं सब रहीं बीनती टूटा दर्पण
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कुछ यादों के पुष्प भरे थे
जाने मन फिर भी था रीता
भय ने कैसा डेरा डाला
रात कटी कब दिन कब बीता
सुध-बुध बिसरी जिन गलियों में नहीं याद थी उसमें तन की
उन राहों में खुशियाँ भटकीं भूल गईं सब आहें मन की
पतझड़ बीता सावन आया बूँदों को फिर भी तरसा मन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

मन का घट भरने को आईं
सेज सजाने आशाओं की
पपिहे ने मृदु गीत सुनाया
पावस ऋतु में मधुमासों की
लेकिन बरखा बीत गयी सब रहीं तरसती आँखें मन की
गुजर गईं ऋतुएं भी सारी घुटी रही सब साँसें तन की
मधुमासों ने नेह लगाया मन में पर जाने क्या उलझन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कंकड़ पत्थर गूँध-गूँध कर
चाक सजाया बना खिलौना
खाली पन में रंग भरे पर
मन जाने क्यूँ सूना-सूना
पल-पल तकती रहीं द्वार को चूड़ी नहीं न कंगन खनकी
पीड़ा ने बस नेह जताया सुनी रुदन उसने ही मन की
कितना कुछ पाया मन तुमसे फिर जाने क्यूँ रीता मृदु वन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जनवरी, 2023

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें फिर से मिल जायें।।

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

यूँ मत फेरों नजरों को अंतस का दर्पण हिल जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

मौन मुखरित हो सके फिर भाव की गहराइयों में
छाँव हल्की मिल सके फिर टूटती परछाइयों में
कह सकें फिर बात सारी जो गिरे लम्हें कहीं पर
मुक्त हो मन कह सके फिर वक्त की बातें वहीं पर
 अँगड़ाइयाँ में।

यूँ मत तोड़ो डोर आस की टूटे सपने गिर जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

बनकर समर्पण हैं पड़ीं अब तक भुजायें नेह की
सुर्ख मन को हैं भिंगोती स्वेद बूँदें मेह को
है अभी तक याद मन को मृदु पाश की मीठी छुअन
छू के आँचल से तुम्हारे जो मिली पगली पवन।

यूँ मत रोको मुक्त पवन को भाव हृदय के घुट जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

जी उठेगी भावनाएँ अब बंद मन को खोल दो
सामने जो भी तुम्हारे सब आज मन की बोल दो
मन को मन की चाह प्रतिपल मन ही मन को खोजता
अपने अंतस की ध्वनि में मन है मधुरता खोजता।

यूँ मत रोको मन की राहें मन में गाँठें पड़ जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2023


सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...