कुदरत का करिश्मा।



कुदरत का करिश्मा

हर कोई यहां सोचता है
राज दिल के खोलता है
अंदाज कितना भी अलग हो
पर बात अपनी बोलता है।

आदमी सब चाहता है
चाहतों को मांगता है
करूणानिधान भगवान से
हर पल दुआएं मांगता है।

इच्छाएं हैं मगर बड़ी यहां
पूर्ण कब हुई हैं सब यहां
अविराम पर तू चला चल
कोशिशों से है जीत यहां।

वक्त से पहले न पायेगा
कितनी ख्वाहिशें जगायेगा
कुदरत का करिश्मा है अजब
पात्र से अधिक ना पायेगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            30जून,2020


इक नया आगाज़ लिखते हैं।

इक नया आगाज़ लिखते हैं।    

लम्हा-लम्हा हिसाब रखते हैं
तेरी हर बात का जवाब रखते हैं।।

दर्द आंखों से छलक न जाये
इसलिए चेहरे पे हिजाब रखते हैं।।

यूँ न समझो के कुछ नहीं समझता
तेरे हर सितम का जवाब रखते हैं।।

तेरी चाहत ने सहारा दिया था कभी
हम आज भी उसकी याद रखते हैं।।

माना कि मुझे भूल गए हो तुम
पर हम यादों की सौगात रखते हैं।।

डूबे होंगे लाखों साहिल पे मगर
हम तो हौसलों की पतवार रखते हैं।।

राह में हो कितना ही घना अंधेरा
संग में अपने चिराग रखते हैं।।

ये न समझो कि चुक गया हूँ मैं
हर लम्हा नया आगाज़ लिखते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जून,2020


देखा है।

आशावादी विचार का संचार करती एक रचना आप सभी के समीक्षार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ---

        देखा है।    


उच्च श्रृंग के शिखरों को
बादल से घिरते देखा है
मानसरोवर सम बूंदों को
कमलों पर गिरते देखा है।

                  छोटे-छोटे कण हाथों से
                  गिरते-संभलते देखा है
                  मुट्ठी भर आकाश लिए
                  कितनों को चलते देखा है।

उमसाते कोमल मन को
पावस में तरते देखा है
श्वेत धवल हंसा जोडों को
बूंदों से तरते देखा है।

                 माना आभासी दुनिया को
                 पल-पल रंग बदलते देखा 
                 बेमौसम बरसात भी देखी
                 ओले ताड़ित कंपन देखा ।

रश्मि प्रभात की किरणों को
बादल में छिपते देखा है
लेकिन अगले ही पल में
सूरज को चलते देखा है।।

 ✍️©️ अजय कुमार पाण्डेय 
           हैदराबाद
           29जून,2020

इतने ऊंचे आज उड़ो तुम।


इतने ऊंचे आज उड़ो तुम।   

चलो चलें हम नभ को छू लें
अपने सब सपनों को जी लें    
अपने पंखों को फैलाकर
सीमाहीन क्षितिज को छू लें।

भावों पर रोक नहीं हो
गति ऐसी अवरोध नहीं हो
बाहों में आकाश भरें हम
मन में कोई क्षोभ नहीं हो।

इतने हों मजबूत इरादे
जैसे कि हिमगिरि चट्टानें
भावों में पर कोमलता हो
मन निर्मल, निर्झर के गाने।

प्रस्तुति ऐसी जग को भाए
मार्ग के कंटक खुद थर्राए
सजल बनो जैसे हो बादल
जो शीतल बूंदें बरसाए।

जितना चाहो उतना गाओ
जग के सब संताप मिटाओ
ऐसी मीठी वाणी बोलो
हंसे फूल, कली खिल जाए।

धरती सा धैर्य अपनाओ
परिश्रम को हथियार बनाओ
इतने ऊंचे आज उड़ो तुम
नभ में अमिट नाम लिख आओ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28जून, 2020

    

भूल नहीं सकता।

भूल नहीं सकता।   

मेरा दर्द लाख मांगो तुम
मगर मैं दे नहीं सकता
मुझे अब लाख चाहो तुम
तुम्हारा हो नहीं सकता।

            भले तुम भूल सकते हो
            पुरानी उस कहानी को
            मगर जो चोट खाई है
            मैं उसको भूल नहीं सकता।

दोष कितने ही मढ़े थे
तुमने मुझपे बेवफाई के
आरोप कितने ही गुहे थे
तुमने मुझपर रुसवाई के।

            आरोप सारे वो तुम्हारे
            अभी तक याद हैं मुझको
            तुम्हारी वो दी हुई पीड़ा
            मैं हरगिज भूल नहीं सकता।

भरी महफ़िल में मुझको छोड़
तुम गैरों से मिलते थे
मिले जो घाव महफ़िल में
मैं उसको भूल नहीं सकता।

            अब लाख तुम राहें तको
            यहां फिर लौट आने की
            मगर जो छूट जाता है
            किनारा मिल नहीं सकता।

है ये मुमकिन के मुझको
भूल जाऊं तेरी जफ़ाओं को
मगर दिल ने सहा है जो
वो उसको भूल नहीं सकता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून,2020




प्रेम के तुम देवता हो।

प्रेम के तुम देवता हो।

सृष्टि का आधार तुम हो
सहज, स्फूर्ति, अविकार तुम हो
सत्य की हो प्रेरणा तुम
सुंदर, सरल, स्वीकार तुम हो।

                          सहजता का स्राव तुम हो
                          प्राण का सद्भाव तुम हो
                          सृष्टि का सौंदर्य भी औ
                          प्रेम का हर भाव तुम हो।

चेतना का दाह तुम हो
इस हृदय की आह तुम हो
ढूँढ लेता हूँ स्वयं को
ज्योति की वो राह तुम हो।

                          ईश का वरदान तुम हो
                          गीता, वेद, पुराण तुम हो
                          प्रेम का हर प्रवाह तुमसे
                          सूर, औ रसखान तुम हो।

तुम समग्र  संपूर्णता हो
स्वभाव की निर्भीकता हो
प्रीत की हर रीत तुमसे
प्रेम के तुम देवता हो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
            हैदराबाद
            27जून,2020

मैं ढूंढता हर बार हूँ।

ढूंढता सत्य हर बार हूँ।   

चीखती तन्हाइयों की, अनसुनी आवाज़ हूँ 
जो कभी कह न पाए, बस वही अल्फाज हूँ।

था दर्द हर इक सांस में, दर्द था हर बात में,
जो दर्द को बहला न पाए, बस वही जज्बात हूँ।

मौन रहकर के भी देखा, और मुखर हो देख लिया
हर किसी का आरोप यही, बस इल्जाम ही इल्जाम हूँ।

झूठ को पर झूठ कहना, है बहुत मुश्किल यहां
आईना लेकर चला जब, टूटता हर बार हूँ।

दर्द दामन में समेटे, और फ़र्ज़ कांधों पे धरे
छोड़कर मलाल सारे, चल पड़ा खुद राह हूँ।

अब प्रश्न सारे छले गए, और अर्थ भी सब छले गए
झूठ का क्रंदन हो कितना, ढूंढता सत्य हर बार हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जून,2020

मैं दिखलाती हूँ।



चिड़िया और उसके चुग्गे के मध्य संवाद।
चित्र चिंतन- एक प्रयास

मैं दिखलाती हूँ

उड़ उड़ कर नील गगन में
चुग चुग कर दाना लाई हूँ
नन्हें-मुन्ने अब बाहर आओ
मैं सारी दुनिया लाई हूँ।

                         डाली-डाली, पत्ते-पत्ते
                         ढूंढी कलियाँ, ढूंढे फूल
                         तब जो पराग कण पाई
                         सब चुन-चुन कर लाई हूँ।

माँ मुझे मत भोला समझो
देख समझ सकता हूँ सबको
डाली-डाली कूद कूद कर
मैं अब तो आ जा सकता हूँ।

                       अभी पंख तेरे हैं छोटे
                       छोटा तू है काया छोटी
                       उड़ने  में  वक्त तुझे  है
                       छूना फिर तू नभ की चोटी।

अभी तुमको उड़ना न आया
छोटा   है ,   कोई   भरमाता
बस  कुछ  दिन  की  बातें हैं
तब तक  सब समझाती  हूँ।

                       तब तक पंखों के आंचल से
                       आ जा तुझको सहलाती हूँ
                       सीमाहीन   गगन   तेरा   है
                       तब तक मैं दिखलाती हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जून,2020

तक़दीर की लिखावट।

तक़दीर की लिखावट

तेरे हाथों की लिखावट मैं
मेरे हाथों की लिखावट तुम
मेरी दुनिया है आशना तुमसे
मेरी तकदीरों की लिखावट तुम।।

                   तुम्हीं हर राह की मंज़िल
                   मचलती लहरों का साहिल
                   सफर जैसा हो, जो भी हो
                   मगर हर छांव तुम ही हो।।

जो मैं प्यासा इक पनघट हूँ
तो तुम्हीं बूंदें हो बारिश की
हर पल, हर घड़ी, हर लम्हा
मैंने बस तेरी ही ख्वाहिश की।।

                    कहीं मुजरिम बना हूँ जो
                    मेरी बेगुनाही तुम ही हो
                    कभी जो भूल मैंने की
                    उसकी हसीं सजा तुम हो।। 

तुम्हीं से होकर के शुरू 
तुम्हीं पर खत्म होता हूँ
तेरी मुस्कान के दम पर 
ज़िंदगी में रंग भरता हूँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         25जून,2020

निशा निमंत्रण।

निशा निमंत्रण-चाँद छूने की चाहत

निशा निमंत्रण दे रही,मन में भरे उजास
काहे को अब देर है, चंदा अपने साथ।।
  🌹🌹🌹🌌🌃🌉🌹🌹🌹

चंदा को छूने की चाहत
दिल में लेकर जगती हूँ,
आधी हूँ मैं पूरा कर  दो
राह तुम्हारी  तकती  हूँ।

                   चंदा के  चमकीले  उजास
                   शीतलता  भी है पास पास
                   पर तुझको छूने की चाहत
                   में  न  सोती  न  जगती  हूँ ।

मधुर स्मृतियों की  चादर
पलकों को  चमकाती  हैं
तुम्हारे वो  कोमल  स्पर्श
मन को आज लुभाती है।

                   चाँद का वो  रूप  सलोना
                   आंखों में यूं भर आया था
                   तुम्हारे आलिंगन  में  जैसे
                   चांद उतर कर आया  था।

पुनः आज मधुमास की चाहत
इस  व्याकुल  मन में  जागी है
यूँ लगता  तुम  यहीं  कहीं  हो
पाने   की   चाहत   जागी   है।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
          हैदराबाद
          25जून,2020

तुमको कोई कमी मिलेगी।

तुमको कोई कमी मिलेगी।

गहराई में जा कर देखो
तुमको कोई कमी मिलेगी
चेहरे पर हो भाव कोई
आंखों में पर नमी मिलेगी।

तेरे दिए सब घाव मिलेंगे
तुमने चले जो दांव मिलेंगे
गहराई में जा कर देखो
मुरझाए से भाव मिलेंगे।

सत्य कहा या झूठ कहा
प्रश्नों के भंडार मिलेंगे
छूट गईं जो बातें सारी
उन सबके अंबार मिलेंगे।

घायल मन की अंगनाई में
पीड़ित सब विश्वास मिलेंगे
गहराई में जा कर देखो
तेरे ही अभिशाप मिलेंगे।

हर पल तेरी राह चला मैं
आंख मूंद चुपचाप चला मैं
तेरी बस आशा थी मन में
हार सभी कुछ दांव चला मैं।

माना सारी खुशी मिलेगी
तुमको नई जिंदगी मिलेगी
गहराई में जा कर देखो
तुमको हर पल कमी मिलेगी।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            20जून,2020

योग।

योग।  

स्वस्थ संतुलित रखना है तो
मन का संयम रखना होगा
त्याग कर आलस्य सारे
योग सभी को करना होगा।

योग निरोगी रखता है
मन को योगी रखता है
चिंता सारी दूर भगाता
अंतस सुरक्षित रहता है।

योग से शक्ति मिलती है
जीव को भक्ति मिलती है
देह निरोगी रहता है।
मन में स्फूर्ति रहती है

जीवन जो सफल बनाना है
रिश्तों के फर्ज निभाना है
सजग रहें, चैतन्य रहें 
जन जन को समझाना है।

योग की शक्ति से हम सारे
रोगों को दूर भगा सकते 
चाहे जैसा भी मौसम हो
प्रतिरोधक क्षमता पा सकते।

योग की महत्ता दुनिया को
भारत ने बतलाया है
सेहत के लिए योग जरूरी
सबको अहसास कराया है।

धर्म-जाति से ऊपर उठकर
सब मिलकर के योग करें
छोड़ सभी विषाद मन के
सब इसका उपयोग करें।

योग का बस उद्देश्य यही
स्वास्थ्य शरीर का ना बिगड़े
स्वस्थ निरोगी काया हो सब
रोग कोई भी न पकड़े।

योग दिवस के ध्वज के नीचे
आज सभी को लाना है
समृद्ध हों खुशहाल हों सब
भारत स्वस्थ बनाना है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जून, 2020

भारत के आगे तड़पेगा।

भारत के आगे तड़पेगा 

चीन हों या पाकिस्तान
कभी भी भारी न होते,
यदि भारत की भूमि में
छुपे हुए गद्दार न होते।

राष्ट्रवाद व राष्ट्रभक्ति का
जो भी मजाक  बनाते हैं
वो अपना परिचय देते हैं
खुद  का  मान गिराते हैं।

भारत की विदेश नीति  पर 
जो  आज  प्रश्न   उठाते  हैं
उनसे  बस इतना कहना है
वो भारत का पक्ष घटाते हैं।

युद्ध भूमि में हरदम भारत
मजबूती   से   डटा    रहा
पर मेजों और समझौतों में
धोखेबाजी  से  छला  रहा।

दुश्मन छाती पर बैठा हो
उसे  गीत  नहीं सुनाते हैं
जो  जैसी  भाषा  समझे 
तब वैसा ही समझाते हैं।

पीठ पे जिसने खंजर  घोंपा
वो  पंचशील क्या  समझेगा
दुश्मन ताकतवर कितना हो
भारत   के   आगे  तड़पेगा।

भारत का भूगोल अटल है
कोई  इसे क्या  छू  पायेगा
इसकी  सरहद जो लांघेगा
वो      पाछे     पछतायेगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            18जून,2020

जैसा कर्म वैसा फल।

जैसा कर्म वैसा फल।  

क्यूँ रूठते हैं लोग जो हरदम पास रहते हैं
छोड़कर दामन अलग क्यूँ जा निकलते हैं।।

जिंदगी की राह में धूप भी है छांव भी
छांव में दिखते सभी धूप में क्यूँ बिखरते हैं।।

हार-जीत का सिलसिला निर्बाध चलता है 
फिर हार पर अपनी, कोई क्यूँ बिफरता है।।

जीवन के खेल में नित नए खिलाड़ी मिलते हैं
कुछ छूट जाते बीच में, कुछ दूर तक चलते हैं।।

शब्दों के है मोल यहां, शब्द ही प्रतिमान हैं
फिर जाने लोग क्यूँ, कह कहकर मुकरते हैं।।

दौलत-शोहरत सभी, ताउम्र कब चले यहां
चाह में इनकी फिर कैसे अपने बिछड़ते हैं।।

जीवन ये मंचन है, हम सभी किरदार हैं
जैसी जिसकी भूमिका, वैसे फल मिलते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून,2020

उचित न्याय सबका अधिकार।

उचित न्याय सबका अधिकार।   

अत्याचार  जब  भी  बढ़ता  है
अन्याय जब सिर पर चढ़ता है
नैतिकता  के  उचित  पंथ  की
तब  न्याय  ही  रक्षण करता है।

जब बेमानी बढ़ जाती है
जब मानवता घट जाती है
शोषण जब बढ़ जाता है
कानून  सहारा  होता  है।

न्यायालय  के  चौखट  पर 
वकील का आश्रय मिलता है
उसकी  उचित  दलीलों  से
न्याय  सुनिश्चित  होता  है।

विवाद कहीं बढ़ जाता है
सुलह सभी रुक जाता है
जब और हल नहीं मिलता है
तब द्वार कोर्ट का दिखता है।

तब कोर्ट फैसला करता है
अधिकार सुरक्षित करता है
झूठ व सच के कुरुक्षेत्र में
सत पक्ष सुरक्षित करता है।

जब कानून फैसला करता है
निष्पक्ष भाव वो रखता है
न्यायालय  के  प्राँगढ़  में
तब न्याय बराबर मिलता है।

लोकतंत्र   के    स्तंभों   में
इसकी  अहम  भूमिका  है
कानून व्यवस्था निर्भर इसपर
ये लोकतांत्रिक व्यवस्था है।

न्याय सही हो, पुण्य  मार्ग हो
सुदृढ  व्यवस्था  समभाव  हो
न्यायालय  की   चौखट  पर
शीघ्र, प्रभावी, उचित न्याय हो।

न्याय सभी के लिए जरूरी
लोकतंत्र  की  आशा  पूरी
ये सभी की आवश्यकता है
जरूरी विधिक साक्षरता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2020

तुमको लेकिन खबर नहीं थी

तुमको लेकिन खबर नहीं थी।

अब क्या बतलाऊँ मैं तुमको
तुम  बिन  कैसे  रहती  थी
याद तुम्हें करती थी पल पल
ना  सोती  ना  जगती  थी।
तेरी  ही  बातें  करती  थी
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

गीत  न  जाने  कितने  बुनती
खुद ही पढ़ती, खुद ही सुनती
कैसे  अब  बतलाऊं  तुमको
तुझमें  ही  खोई  रहती  थी।
तुझसे ही खुशियां सारी थीं
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

आंखों  के  पैमाने  छलके
मोती बनकर हरपल ढलके
तेरी  ही  राहें  तकती  थीं
तुझको ही खोजा करती थीं।
देख  तुझे  मैं  जीती  थी
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद।   
       13जून,2020


नन्हें पांव।


नन्हें पांव।   

नन्हें-नन्हें पांवों की आहट
कितने स्वप्न नए जगाती है
अंतः आह्लादित हो जाता
एहसास नए जगाती है।।।

जीवन का सुनापन भरता
घर-आंगन उपवन सा खिलता
उसके आने की हलचल से
नया रूप, नया जीवन मिलता।

नन्हें-मुन्ने की किलकारी
खुशियां नई जगाती है
पीड़ामुक्त लगता तब जीवन
अंतरतम तक महकाती है।

देखे उसका रूप सलोना
अवसाद सभी छंट जाते हैं
नन्हें-नन्हें पांवों की आहट
जीवन में जब आते हैं ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जून,2020

मुखर सत्य।

        मुखर सत्य।

तुम ही थे क्या कुछ कहे थे
शब्द सुविधा के गुहे थे
खुद तुम्हें नहीं याद शायद
घाव कितने हम सहे थे।।

मात्र सुविधा के लिए यहां
आरोप था तुमने मढ़ा
झूठ का घेरा बनाकर
फिर भाव था उसमें गढ़ा।

झूठ तुम्हारी हर बात में
झूठ था हर व्यवहार में
झूठ की थी चादर बुनी
झूठ था हर जज्बात में।

पर सत्य के होते मुखर
आरोप गए सारे बिखर
दृष्टांत एकदम साफ था
दृश्य गए तब सारे निखर।

जो सत हो तो अटल रहो
मार्ग पर तुम अविचल रहो
अवरोध अगणित और हैं
निर्बाध तुम चलते रहो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09जून, 2020



फिर नई शुरुआत कर देंगे।

फिर नई शुरुआत कर देंगे।   

रुक गयी है सब ज़िंदगी
बंद हो गयी सब बंदगी
टूटता है अब सब्र सारा
थम गई है सब ज़िंदगी।

ज़िंदगी की राह को हम
सब रोशन पुनः कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

माना हैं सब बंद गलियां
कैद उपवन, कैद कलियाँ
जल्द ही सब मुक्त होगा
खिलखिलायेंगी ये गलियाँ।

गली के हर इक मोड़ को
फिर आबाद हम कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

नियति का है खेल सारा
दनुजता का दोष सारा
हो किसी की भूल चाहे
या अधम व्यवहार सारा।

यदि हमारी भूल है तो
फिर हम सुधार कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

माना के तम घनघोर है
दिखता न कोई छोर है
खो रहे हैं धीरज सभी
पर तू नहीं कमज़ोर है।

निराशा की इस रात को
हम रोशन पुनः कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

फिर से चहकेंगी ये गलियां
मुस्कुराएँगी सारी कलियाँ
फिर छटेंगे अवसाद सारे
फिर मिलेंगे दोस्त, सखियां।

हम उस आशा के दीपक
को कभी बुझने न देंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून,2020




दोहे व छंद

दोहे व छंद

🕉️🚩🌸🌸🌸🚩🕉️
राम नाम की धुन लगा, राम नाम की प्यास।
माया-मोह बिसराई, कर राम नाम की आस।।1।।

संकट का है ये समय, धैर्य का है मान।
शांत चित्त बर्ताव से,बनेंगे बिगड़े काम।।2।।

 आपद के इस काल में, वचन बड़े अनमोल,
 भावों को शीतल करे, ऐसी बोली बोल।।3।।
 
बिखरी किरणें भोर की, दूर सब अंधकार।
मन में सुगढ़ भाव जगे, सुंदर सब  व्यवहार।।4।।

मन से सब कटुता मिटे, सुंदर जग परिवार।
राग-द्वेष भाव छंटे, मिले ज्ञान आधार।।5।।

जीवन इक संग्राम है, चलता रहता युद्ध।
सुगम इसको करना है, कर ले मन को शुद्ध।।6।।

भांति भांति के लोग हैं, भांति भांति के  भाव
जैसा जिसका भाव है, मिलती वैसी  छांव।।7।।

बादल से बारिश गिरे, बन कर के संगीत
रिमझिम बारिश बूंद ने, भर दी दिल में प्रीत।।8।।

भींगा भींगा मन यहां, भींगा गया है तन
नदिया, नाले सब भरे, हर्षाया जन गण मन।।9।।

बादल से बिजली गिरे, खूब मचाये शोर
मौसम का रुख देख के, नाचन लागे मोर।।10।।

सावन आया झूम के, बरसी प्रेम फुहार
बारिश की हर बूंद से, स्वर्णिम वंदनवार।।11।।     

झूठा धन का मोह है, झूठा सब अभिमान
झूठा पद  से नेह  है, झूठा  है  अतिमान।।12।।

राम बनाई देह है, ना करो साभिमान
अंत समय मिट जाएगा, रहता बस सम्मान।।13।।

मात-पितु की सेवा से, बनते बिगड़े काम,
जो करते अपमान वो, ना पाते सम्मान।।14।।

चक्की चलती जाये है, नहि करती आराम,
निःस्वार्थ सबहि तारती, तब पाती सम्मान।।15।।

है यही अरज हमारी ,हँसता रहे जहान
अपने नेक कामों से, सब जन पाएं सम्मान।।16।।

बैर भाव सब खतम हो, खतम सारे अवसाद,
मिलजुल कर के सब रहें,जीवन बने महान।।17।।

धीरे धीरे सुबह हुई, जग गयी जिंदगी,
अंधकार सब दूर हुए,शुरू हुई बंदगी।।18।।

तुम भी सब आलस्य त्यजो, सुमिरो प्रभु का नाम
जीवन है इक पुण्यपंथ, पूरन कर सब काम।।19।।

सूरज से सीखो सदा, रहना तुम गतिमान।
जीवन की इस दौड़ में,गढो नए प्रतिमान।।20।।

जीवन इक संगीत है, मिल सब गाओ गान।
एक दूजे में प्रेम हो, कहीं न हो अभिमान।।21।।

चलती रहती जिंदगी, चलता रहता काम।
इक पल जो भी रुक गया, रुक जाते सब काम।।22।।

जीवन चक्की जांत की, हर पल चलती जाए।
जैसी मुटठी कर्म की, वैसी पिसती जाए।।23।।

मनवा प्यासा प्रेम का, घट घट भटकत जाय।
जिस ठौर पर प्रेम मिले, वो ही का हो जाय।।24।।

मनवा में जो बैर हो,स्थिर नहिं हो पाए।
प्रेम भाव मन में बसे,जनम सुफल हो जाय।।25।।

सब जन हैं शंकित यहां,मन में है संताप।
प्रेम भाव से सब मिलो, घटे त्रास अभिषाप।।26।।

जीवन है गुरुकुल यहां,नित नव पाठ पढ़ाए।
जैसा जो भी देखता, वैसी राह दिखाए।।27।।

मनवा का सब खेल है, मनवा का अनुबंध।
मनवा से ही प्रीत है, मनवा से संबंध।।28।।

प्रेम प्यार की लौ जले, मन में हो विश्वास।
सबमें सौहार्द्र भरें, आओ रचें इतिहास।।29।।

मन में कभी न राखिए, लोभ क्रोध मद मोह।
ज्ञानी जन सब कह गए, इनसे बाढ़े द्रोह।।30।।

बुद्धि, विवेक, धैर्य, बल, जीवन के हथियार।
इनसे ही सम्मान है, होता जग उजियार।।31।।

शब्द सभी अनमोल हैं, धरो शब्द का ध्यान।
शब्दों से ही होत हैं, मान और अपमान।।32।।

हिल मिल कर यदि सब रहे, बढ़े प्रेम व्यवहार।
घर में तब सुख शांति हो, फैले कीर्ति अपार।।33।।

है छोटी सी बात ये, कहे सभी ऋषि राज।
इन्द्रिय जो वश में करे, करे जगत पर राज।।34।।

अपने मन विश्वास भर, शुरू करो सब काम।
हर मुश्किल आसान हो, बढ़े जगत में नाम।।35।।

मेहनत से न भागिए, इसके बिन सब व्यर्थ।
नहीं कहीं सम्मान मिले, मिट जाते सब अर्थ।।36।।

निश्चय से जो प्रीत है, निश्चित हरपल जीत।
निश्चय से सबकुछ मिले, निश्चित मन का मीत।।37।।

सुंदर जग संसार है, सुंदर जग का रूप।
खिली कहीं पे छांव तो, कहीं खिली है धूप।।38।।

घट घट बसता प्रेम जब, सजता तब संसार।
प्रेम बिना कब चल सके , कोई भी व्यापार।।39।।

भटका मन संसार में, पाता कभी न चैन।
ज्यूँ आंँखों में नींद बिन, कटे नहीं ये  रैन।।40।।

भटका मन संसार में, पाता कब अधिकार।
जो मन को वश में करे, पाए सिद्धि अपार।।41।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      

गुलमोहर


        गुलमोहर।      

गुलमोहर की छांव तले
एक गीत सुनाने आया हूँ
भूली बिसरी उन यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

दिन माना कितने बीत गए
पर याद तुम्हारी बनी रही
इक दूजे से हुए दूर भले
पर छाँह तुम्हारी बनी रही।

उन छाहों की अंगनाई में
फिर सुस्ताने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

लिखना था पर शेष रह गये
कहना था संवाद खो गए
अतृप्त तृष्णा भावों में भर
इक दूजे से दूर हो गए।

शेष उन्हीं संवादों को
फिर आज सुनाने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

दबी थी जो मन में तू कह ले
खुल कर आज खुद से मिल ले
पुनः आज फिर चूक गयी तो
न जाने कब ये पुष्प खिलेंगे।

फिर गुलमोहर की शाखों को
मैं दहकाने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज सुनाने आया हूँ।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून,2020

इंसानों सा जीना होगा।

इंसानों सा जीना होगा।  

कैसी दुनिया, कैसा शहर है
मन में कैसे इतना जहर है
मामूली परिहास की खातिर
किसने मचाया इतना कहर है।।

मानवता कब कहाँ खो गयी
शिक्षा-संस्कृति सब खो गयी
कैसा विष भर आया मन में
नैतिकता सब कहां खो गयी।।

इक बेजुबान भटका बस्ती में
बिन पतवार जैसे कश्ती में
लहरें पर घनघोर वहां थी
सुराख बने अगणित कश्ती में।

फल में भर बारूद खिलाया
वहशीपन का रूप दिखाया
बिन अपराध सजा पाई वो
मानवता का मान घटाया।

राग-द्वेष कुछ नहीं जानते
अपना-पराया नहीं मानते
इंसानों का सम्मान करते
सबको अपना दोस्त मानते।

कैसी ये दानवता आई
देख खुद दनुजता शरमाई
क्षत-विक्षत देखा होगा जब
उसकी भी आंखें भर आयी।

बेजुबान को खुले काटते
फल में भर बारूद खिलाते
मन में कितना पाप भरा है
दानवी व्यवहार दिखलाते।

सो रही  मनुजता सारी
सो गए शायद नर नारी
सो चुके संस्कार हैं सारे
भटक रही मनुष्यता बिचारी।

ऊपर बैठ देखता होगा
खुद से ही पूछता होगा
कैसे कैसे इंसान बनाये
अंतर्मन में सोचता होगा।

खुद से हमें पूछना होगा
मनुजता को खोजना होगा
आज अजय बनना है यदि
इंसानों सा जीना होगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून,2020







मन को साफ करो।

मन को साफ करो।  

अपनी ताकत को पहचानो
नवनिर्माण की बात करो
टी आर पी का फेरा छोड़ो
भावनाओं का सम्मान करो।

आधुनिकता के नाम पर
नँगा बदन दिखाते हो
जनता की मांग बताकर
क्यों सबको भरमाते हो।

लाज कहां खो जाती है
जब भ्रम फैलाया जाता है
संस्कार और परंपरा का
उपहास उड़ाया जाता है।

कितनी कुंठा है मन में
जो ऐसा दिखलाते हो
भारत के इतिहासों को
तोड़ मोड़ बतलाते हो।

अश्लीलता नथुनों में बैठी
गंध नहीं क्या आती है
ऐसी लापरवाही से क्या
लाज नहीं तुमको आती है।

सस्ते साहित्यों की फंतासी
अनुचित व्यवहार जगाती है
मलिन विचार पनपता है
सुगढ़ता दफन हो जाती है।

गांव मुहल्ले की महिला को
कामुक तुम दिखलाते हो
कितनी गन्दी सोच तुम्हारी
ये सबको जतलाते हो।

वेब सिरीज के नाम पे 
ऐसा जाल बिछाया है
नैतिकता  तोड़ मोड़ के
कामुकता  फैलाया है।

क्या फूहड़ नग्नता में सबको
अभिव्यक्ति स्वतंत्रता दिखती है
धनलोलुपता में झुकते हो 
संस्कृति बर्बादी न दिखती है।

परिवार तुम्हारे भी अपने हैं
क्या तुम ये सब अपनाते हो
जो दिखलाते हो पर्दे पर
क्या घर में भी दिखलाते हो।

भारत के इतिहासों में
नारी हरपल पूज्य रही
स्थान बराबर था उसका
मिला कदम वो साथ चली।

नारी का योगदान तुम
कभी नहीं दिखलाते हो
धन-पिपासा इतनी क्यों
उसको भोग्या बतलाते हो।

बंद करो कुचक्र ये सारे
भ्रांतियां, अनैतिकता सारे
ऐसे बस व्यभिचार बढ़ेगा
टूटेंगी  नैतिकता  सारे।

यदि सच्चे हमदर्द हो तो
पहले मन को साफ करो
अश्लील प्रदर्शन को त्यागो
शालीन सोच स्वीकार करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून,2020









बाल कविता- इन्द्रधनुष से बचपन


इन्द्रधनुष सा बचपन।   

दूर गगन में मौसम न्यारा
इन्द्रधनुष निकला है प्यारा
रंग-बिरंगी छटा निराली
सतरंगी मोरों की आला।

आओ हिलमिल सारे आओ
सुन नन्हें, मुन्ने, प्यारे आओ
नभ का देखो रूप संलोना
रंग-बिरंगा जीवन पाओ।

ऊंच नीच की बेड़ी टूटे
राग-द्वेष सब पीछे छूटे
फूलों सा महके ये बचपन
प्रेम-प्यार की कोंपल फूटें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       02जून,2020

पलट जाई पासा

           पलट जाई पासा।                

काहें को भटके मनवा
काहें भरल बा निराशा,
चार दिन के जिंदगानी
फिर त पलट जाई पासा।

माटी के खोता में हौ
व्याकुल पंछी के बसेरा
दिन रात भटके इ सगरो
ढूँढे नया इक सवेरा।

दिनवा सिमटते सिमटते
आई सांझ ले बुढापा
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।

प्रीत के रस्ता पे चलि के 
आपन जिंदगी सुधार ल
हमर, तोहर चक्कर छोड़ा
सगरो के तू अपना ला।

चार कदम के हौ रास्ता
संगे कुछ नाही जा ला
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।

माया, मोह, लोभ में पड़ि
तू भटक रहे हो काहें
यहीं सारा रह जायेगा
तू अटक रहे हो काहें।

मनवा के निखार ला तू
छंट जाई सब कुहासा
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जून,2020

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...