ढूंढता सत्य हर बार हूँ।
चीखती तन्हाइयों की, अनसुनी आवाज़ हूँ
जो कभी कह न पाए, बस वही अल्फाज हूँ।
था दर्द हर इक सांस में, दर्द था हर बात में,
जो दर्द को बहला न पाए, बस वही जज्बात हूँ।
मौन रहकर के भी देखा, और मुखर हो देख लिया
हर किसी का आरोप यही, बस इल्जाम ही इल्जाम हूँ।
झूठ को पर झूठ कहना, है बहुत मुश्किल यहां
आईना लेकर चला जब, टूटता हर बार हूँ।
दर्द दामन में समेटे, और फ़र्ज़ कांधों पे धरे
छोड़कर मलाल सारे, चल पड़ा खुद राह हूँ।
अब प्रश्न सारे छले गए, और अर्थ भी सब छले गए
झूठ का क्रंदन हो कितना, ढूंढता सत्य हर बार हूँ।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26जून,2020
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