विचलित हैं ये गीत हमारे।।

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

शून्य हुआ सब बचा कहो क्या
बाँट दिये तट पनघट सारे
जाने कैसी है ये विचलन 
चुभे पुष्प या काँटे सारे
मन में है प्रति पल ये उलझन
कंटक पथ है कौन बुहारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

इतिहासों की अनुश्रुतियों से
कुछ अनुस्यूत अनुकृतियों से
मन ने थोड़े भाव सजाये
अथक परिष्कृत अभिकृतियों से
जाने कैसी थी वो अनबन
हाथ नहीं कुछ आज हमारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने कैसा सरोकार है
विस्मृत क्यूँ सभी संस्कार है
गूँज रहे जिन गीतों के स्वर
स्वरों में क्यूँ हाहाकार है
सरोकार में ऐसी ठनगन
मन क्या जीते मन क्या हारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने मन क्यूँ नहीं जागता
मन अब मन को नहीं बाँधता
बंद पड़े गीता रामायण
चौपालों में नहीं बाँचता
सूना है अब मन का आँगन
चौबारों से कौन पुकारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2022

अनुश्रुतियाँ- प्राप्त कथा या ज्ञान
अनुस्यूत-ग्रथित, पिरोया हुआ
अनुकृतियाँ- नकल
अभिकृति- एक प्रकार का छंद जिसमें 100 वर्ण या मात्राएं होती हैं।

मेरे मन की प्राण वायु।

मेरे मन की प्राण वायु।

जग कहता है इन गीतों में हमने भावों को रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत की मेरे मन की प्राण वायु है।।

मन के नूतन आयामों की
आकाशों के पार परिधि है
मुग्ध मनोरम नंदनवन तक
इन नयनों की पुष्पित निधि है
मन के पार कहीं जाकर के
तनिक शून्य से भाव चुराकर
पृष्ठों पर उनको लिख डाला
सच तो ये है भाव पंक्ति के मेरे मन की प्राण वायु है।।

नहीं चाह जग से कुछ पाऊँ
नहीं चाहता मेरी जय हो
अपने मन की चाह यही है
पंक्ति-पंक्ति बस जीवन मय हो
जीवन के कुछ पुण्य पलों से
साँसों का अहसास चुराकर
हमने गीतों में रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत के मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

सुनता हूँ कितनों ने अपने
गीतों से सम्मोहन बाँधा
कितने मन के पार उतरकर
अंतस के भावों को साधा
भावों के उन मौन पलों से
हमने थोड़े मौन चुराकर
उनको बस गीतों में ढाला
सच तो ये है मौन पंक्तियाँ मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26नवंबर, 2022

मुक्तक।

मुक्तक

देख पावन रूप तेरा चाँद शरमाये
मुक्त पलकों की अदायें क्यूँ न भरमाये
नित्य पावस कर रही हों जिसका आचमन
क्यूँ न पाकर पास उसको मन ये हर्षाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022

मन के भाव पंक्तियों में।

मन के भाव-पंक्तियों में।

गीत लिखने का मुझको सलीका न था
शब्द खुद पंक्तियों में आ रचते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

भाव से हमने पग-पग किया आचमन
आँजुरी में भरी छंदों की पाँखुरी
नयनों में प्रेम का जब हुआ आगमन
अधरों पर आ सजी प्रीत की बाँसुरी।।

नयनों के कोर ने दीप माला चुनी
पंथ के बन वो दीपक चमकते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

माथ पर धूलिकण से यूँ कुमकुम सजे
संध्या की रोशनी में नहा मन गया
नेह के धागों से आज ऐसे बँधे
साँचे में मोह के मन सिमटता गया।।

मन से मन ने जो इक अभिलाषा बुनी
मन के आगोश में मन मचलते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

हो चले रिक्त पलकों की जब सीपियाँ
नयनों ने पास आ कर के चुंबन दिया
धुंध बन छाईं जब याद की बदलियाँ
पाश में बाँध कर मन को चंदन किया।।

मन ने मधुमास की लालसा जो बुनी
मन का अहसास पाकर निखरते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022





भुलाना आ गया होता।

भुलाना आ गया होता।  

अगर खामोशियों से दिल लगाना आ गया होता
बेवजहा तुमको भी मुस्कुराना आ गया होता

जो टकराते नहीं जज्बात यहाँ बहती हवाओं से
तो तुम्हें मँझदार में नौका चलाना आ गया होता

 कि आँचल में किसी छुपकर सुबक लेते जरा हम भी
गुनाहों पर सभी परदा गिरना आ गया होता

जरा सी जी-हुजूर सीख लेते हम दिखावे की
उसूलों से यहाँ आँखें चुराना आ गया होता 

लगे दिल पर सभी जख्मों को "देव" मलहम बना लेते
 हुआ जो दर्द दिल को वो भुलाना आ गया होता

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23नवंबर, 2022

धीरे-धीरे।

धीरे-धीरे।

चली है कैसी पवन धीरे-धीरे
लुट रहा चैनो अमन धीरे-धीरे।।

रात का धुँधलका बढ़ा जा रहा है
रोशनी का हो जतन धीरे-धीरे।।

वादों का अब तो भरम जाल तोड़ो
टूटे सभी अब चलन धीरे-धीरे।।

उजड़ी नहीं एक दिन में ये दुनिया
सदियों ने तोड़ा बदन धीरे-धीरे।।

समय एक जैसा कहाँ तक रहा है 
इसने भी बदला वचन धीरे-धीरे।।

महफ़िल में तन्हा नहीं "देव" तुम ही
बनते हैं सारे रतन धीरे-धीरे।।

चलो फिर चलें हम वहीं एक बार
मिलते जहाँ मन से मन धीरे-धीरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2022



क्यूँ इतना आसान नहीं।

क्यूँ इतना आसान नहीं। 

कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं
आवाजों के इस मेले में
चुप की क्यूँ पहचान नहीं
घाव हृदय के भीतर हो जब
ऊपर से कब दिखता है
विष पीकर हँसने वालों के
होते क्या अरमान नहीं।।

दुःख के अनुभव से गुजरा जो
वो सुख का मोल समझता
अनुभव की चक्की में पिस कर
अंतस का रूप निखरता
अनुभव के उस पुण्य पथिक की
राहें अब आसान नहीं
कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2022

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

दौड़ती भागती पटरियों की तरह
कुछ कहो जिंदगी कब रुकी है यहाँ
सब बदलते रहे मौसमों की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

एक राहों से कितनी हैं राहें जुड़ीं
कुछ रुकी हैं कहीं कुछ मुड़ी हैं कहीं
कुछ चली झूमती मंजिलों की तरफ
और कुछ मंजिलों से चली हैं कहीं
कुछ, मचलती रही आस पल-पल मगर
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

सपने नयनों में छुप गये खो गये
रात की गोद में जब कहीं सो गये
उम्र ने पलकों के कोर को तब छुआ
पलकों को नेह नूतन पुनः दे गये
पलकें झुकती रही बदलियाँ की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

वो कहे-अनकहे भाव कुछ आज तक
कंठ में ही रहे जो नहीं कह सके
सालती वो रही टीस पल-पल मगर
अधर की पाँखुरी को नहीं छू सके
खो गईं मौन पल में ग्रहण की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

मधुर एक कहानी की शुरुआत हो
पलकों की बूंद में फिर जज्बात हो
फिर चलो घूम आयें, किनारे वहीं
जुगनू की रोशनी में फिर बात हो
ओढ़ें आकाश फिर आँचल की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18नवंबर, 2022

बहती हवाओं में।

बहती हवाओं में।  

कहाँ पर है खड़ी दुनिया कहाँ हम आ के ठहरे हैं
क्यूँ लगता है कि अधरों पर बिठाए लाख पहरे हैं
दबी सी टीस उठती है हृदय के एक किनारे से
के खुल कर कह नहीं पाये मिले जो घाव गहरे हैं।।

के वादों में उलझती जिंदगी फरियाद करती है
इरादे नेक हो यदि वीराना आबाद करती है
मगर कथनी और करनी में जहाँ पर फर्क होता है
वहाँ जितनी भी दुनिया है महज बरबाद होती है।।

हमारा देश ये भारत नहीं कोई धर्मशाला है
के दे कर लाख कुर्बानी इसे सदियों ने पाला है
ये सुन लें आज दुश्मन सब लगाए घात बैठे जो
के लम्हों के इरादों ने बदल इतिहास डाला है।।

नहीं है धर्म क्यूँ कोई नहीं कोई निशानी है
दिलों में नेह जो भर दे नहीं ऐसी कहानी है
क्यूँ वोटों के लिए बस खेलते देखा हवाओं को
अंधेरों ने दिलों में क्यूँ बसाई राजधानी है।।

कब ठहरी रोशनी बोलो कहीं गहरी घटाओं से
कब ठहरी धार नदिया की बही उलटी हवाओं से
बनेंगी राहें तब खुद ही इरादे नेक जब होंगे
सजेगी फिर नई दुनिया इन्हीं बहती हवाओं में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2022




अदावत।

अदावत।  

है कैसा प्यार ये बोलो कि न आधार है कोई
के कुछ भी कह सके न जब कहो अधिकार क्या कोई
टूटी हैं कई कड़ियाँ क्यूँ इस राह में चलकर
महज जब नेह जिस्मों से कहो आधार क्या कोई।।

नहीं मजहब कहीं इसका नहीं कोई रवायत है
कि इसके रूप से हमको नहीं कोई शिकायत है
मगर जो खेल खेले आड़ में वहशी दरिंदों ने
मुझे उस खेल के अंजाम से गहरी अदावत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16नवंबर, 2022

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं। 

ये रात सागर का किनारा और हम तुम घाट पर
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूधिया आकाश ओढ़े रात पल-पल ढल रही है
और मीठी सी छुअन दे पौन मद्धम चल रही है
गा रही है गीत ऋतु का सुन रहे हैं चाँद तारे
घुल रही है चाँदनी भी देख अधरों पर हमारे
ओस बूँदें चाँदनी में मोतियों में ढल रही हैं
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

नाचती हैं पंक्तियाँ औ आधरों पर गीत सारे
झूमती हैं बदलियाँ भी झूमते सारे नजारे
कनखियों से रास रचकर रात ने मन को लुभाया
भर दिया अनुराग मन में गीत ने आकाश पाया
नेह की मीठी छुअन से यामिनी भी तर रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूर इन पगडंडियों पे देख परियाँ नाचती हैं
गात में मधुमास भरतीं पुष्प से पथ साजती हैं
बीत जाये ना कहीं ये रात की घड़ियाँ सुहानी
और कुम्हलाये कहीं न आधरों की रात रानी
शब्द से श्रृंगार करती पंक्ति आगे बढ़ रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15नवंबर, 2022

अपने अंतस के पट खोलें।।

 अपने अंतस के पट खोलें।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा आ नैनों में इसे सहेजें
नयनों के पृष्ठों को खोलें यादों को फिर चलो समेटें
पलक भरें यादों के झुरमुट सपनों को फिर चलो टटोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

याद करो उस प्रथम भेंट को जब हम दोनों थे ऋतुणखी
अधरों के दो पुष्प खिले थे नयनों ने सम्मोहन बाँधी
कहें भाव फिर से अंतस के मन के बंद द्वार फिर खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

हों अक्षर-अक्षर मधुर गीत जब मन में तब छाता है सावन 
जहाँ गीत में फागुन आता वहीं गात होता वृंदावन
नेहमुग्ध हो बाँधे मन को अधरों के फिर मधुघट खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

पता नहीं मधुमास ढले कब जाने कब साँसें ढल जायें
जीवन का ये महादिवस भी संध्या में कब जा घुल जाये
हैं भूली बिसरी जो स्मृतियाँ उनसे फिर से नैन भिंगो लें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2022

मुक्तक- अधरों पर उपकार बहुत है।

अधरों पर उपकार बहुत है।

जीवन के इस महासमर में पीड़ा का आभार बहुत है
जग से इतना कुछ पाया है अब तो ये अधिकार बहुत है
निज पीड़ा पर गीतों ने जो मलहम बनकर चैन दिया है
गीतों के उस महा पंक्ति का अधरों पर उपकार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022 

समय संग रीत जाता है।

समय संग रीत जाता है।

न समझो राह का पत्थर मैं वही रस्ता पुराना हूँ
जो तुम हो गीत की दुनिया तो मैं भी इक फसाना हूँ
नहीं कोई अदावत है मुझे तुम्हारे जमाने से
जो तुम हो आज की दुनिया तो मैं गुजरा जमाना हूँ।।

जहाँ तुम आज पहुँचे हो उसे हमने ही बनाया है
हटा कर के राह से काँटे नया रस्ता बनाया है
नहीं थी मखमली राहें चुभे कितने शूल पैरों में
औ कितनी ठोकरें खाईं तब जाकर पथ सजाया है।।

नया क्या सूर्य है देखा औ नया कब चंद्रमा देखा
सुना है क्या कभी तुमने नया कोई आसमां देखा
पुराने हैं सितारे ये औ वही रातें पुरानी है
सिवा धरती के आँचल के कोई क्या आसना देखा।।

नया तब दौर आता है जब पुराना बीत जाता है
है समय का खेल कुछ ऐसा समय ही जीत जाता है
कहाँ ठहरी हैं ये राहें उमर संग बीत जाती हैं
भरो सागर से घट कितना समय संग रीत जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बावले कुछ गीत मन में चुभ गये
नैन थे बेचैन कुछ-कुछ कह गये
कुछ कपोलों पर गिरे कुछ मौन थे
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन, कितनी व्यथा का भार ढोते
शब्द के घाव का व्यवहार ढोते
हैं कलेजे पर चुभे तीर कितने
कह न पाये, मौन हर बार रोते
दर्द थे जितने सभी चुप सह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रुओं में भींगते मन हारते
देखा है कितने जीवन वारते
जीत के द्वार पे जितने खड़े थे
देखा कितनों को उनमें हारते
हार कर बात दिल जो कह न पाये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अंक में जो भाव हैं जो है कसक
छोड़ता है मन कहाँ कोई कसर
कंठ में जो शब्द की अब तक तपन
देखा है मन पे सदियों ने असर
कंठ में जो शब्द दब कर रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

क्या नहीं इस अश्रु ने अब तक किया
मौन रह कर बात कितनी कह दिया
किंतु जाने रेख में क्या था यहाँ
आँसुओं ने दर्द को पल-पल सिया
सी न पाए दर्द जो सब बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

भाग्य में जिनके व्यथा लिपटी रही
दर्द से उनका सदा नाता रहा
थी अभागे शब्द की कुछ तो व्यथा
आँसुओं में भींगता गाता रहा
शब्द कितने मौन झर-झर बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन पलकों में कभी आ जब कढ़े
था भला यदि टूट गिर जाते वहीं
जब न कोई दिल पसीजा क्या कहें
टूट कर यूँ ही बिखर जाते कहीं
छूट पलकों से अकेले रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बह चले जो शब्द दुखिया आँख से
इस जगत ने बस उसे पानी कहा
फिर जगत की लाज क्यूँ पलकें करें
जब किसी ने भी नहीं आँसू कहा
बूँद माटी में मिले गुम हो गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये। 

क्या कहें क्या बेबसी इनकी रही
साँस से कैसा सदा नाता रहा
जब कपोलों पर लुढ़क कर आ गिरे
नैन से क्यूँ नेह भी जाता रहा
सूख कर के भी हृदय में छप गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन लम्हों ने कई सदियाँ लिखी
मोड़ कितने और क्या गलियाँ लिखीं
उम्र भी जिस मोड़ पर आ थक गई
उस मोड़ पर आखिरी दुनिया लिखी
काँप कर के शब्द जिस पल दह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2022









आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।। 

घाव सारे आज मन के धुल गये
नैन जो कल तक मुँदे थे खुल गये
आज किस करवट हवायें चल रहीं हैं
बंद थे जो द्वार सारे खुल गये
सज गए सुर तार किसने बीन छेड़ी
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज लहरों ने मधुर संगीत गाया
दूर सागर से मिलन का पथ सजाया
चल पड़ी, मँझधार नौका कब रुकी है
दूर तारों ने मिलन का गीत गाया
चाँद करे सिंगार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

पौन ने छूकर मधुर संगीत गाया
दूर लहरों ने नया फिर सुर सजाया
दो दृगों में स्वप्न फिर नूतन सजे हैं
मौन लम्हों ने नया है राग गाया
मौन हैं उद्गार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2022




हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

प्रेम के व्यवहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने अश्रुधार के गीत हैं लिखे बहुत
क्या मिला नहीं मिला अब कोई गिला नहीं
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

चाहतों की रश्मियाँ ढूँढते रहे सदा
अंधड़ों में बस्तियाँ ढूँढते रहे सदा
भीड़ में रहे कभी या नीड़ में रहे कभी
मौन अपनी हस्तियाँ ढूँढते रहे सदा।।

वक्त के मनुहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

शीत में रहे जो तो धूप की कशिश रही
धूप में रहे जो तो छाँव की कशिश रही
पूर्णता के भाव क्यूँ मन को छलते रहे
मौन में पुकार की मन को इक़ खलिश रही।।

मौन के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

मन की सभी ख्वाहिशें पूर्ण कब हुई यहाँ
उम्र संग चली और कुछ उम्र में घुलीं यहाँ
कुछ ने रास्ते बुने राह में कुछ खो गए
कुछ को चित्रकार की तूलिका मिली यहाँ।।

चित्रों के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

रात जब हुई कभी भोर ने आवाज दी
शून्य जब हुए कभी मौन ने आवाज दी
कब कहो के रश्मियाँ सिमट कर रही कहीं
रश्मि के श्रृंगार ने जिंदगी को साज दी।।

रश्मि से श्रृंगार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05नवंबर, 2022



पास हम आने लगे।

पास हम आने लगे।  

शब्द अधरों पर हमारे गीत बन छाने लगे
बेकसी में जब कभी भी याद तुम आने लगे।।

बात पूरी हो न पायी दूर सबसे हो गए
दूरियाँ वो गीत बनकर होंठ पर आने लगे।।

सिलवटों ने माथ पर हैं लिखी जितनी कहानी
उम्र की दहलीज पर वो मौन समझाने लगे।।

कुछ अधूरे गीत उस दिन राह में भटके कहीं
देख कर तुमको यहाँ पर याद सब आने लगे।।

यूँ था सफर छोटा मगर दूरियाँ ऐसी बढ़ीं
दूरियों को पाटने में उम्र को जमाने लगे।।

जिंदगी की रेल का "देव" यूँ सफर चलता रहा 
दूर हम जबसे हुए हैं पास हम आने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03नवंबर, 2022


शर्वरी भी गा रही थी।

शर्वरी भी गा रही थी। 

द्वार पर मधुमास लेकर 
प्रेम का अनुप्रास लेकर
लाज का श्रृंगार ओढ़े
पास पल-पल आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी। 

दो दृगों में नेह लेकर
अंक में मृदु प्रेम भरकर
आस का आकाश ओढ़े
स्वप्न नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

सजल नयन में स्वीकृति थी
नवल नयन नव आकृति थी
झाँझरों के मृदु स्वरों से
साँसें सुर सजा रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

चाँदनी में आज लिपटी
दो पलों में रात सिमटी
ओस की चादर सुनहरी
पौन मद्धम आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

आँजुरी संसार सारा
अंक में आकाश तारा
भोर भी जिसके सहारे
आस नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02नवंबर, 2022



कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

साँझ ढले सागर के तट पर तरुवर है एकाकी
आस सिमटती चली जा रही कितना कुछ है बाकी
लहरों से भी शोर अधिक अब अंतस में उठता है
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कौन किनारा छोड़ सका जो छोड़ चले जाओगे
दूर कहीं भी जाओ सबसे यादों में आओगे
कहीं रागिनी मद्धम-मद्धम जब मन बहलायेगी
बरबस तब तस्वीर हमारी नयनों में पाओगे।।

नयनों के कोरों में अब भी कहीं नमी है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

टूटे कितने दफा किनारे लहरों से टकराए
कभी दूर से घात लगाया कभी पास तक आये
बिछड़े कितनी बार लहर से कितने दाग उठाये
दूर कहो कब हुए किनारे, पास लहर के आये।।

लहरों की हर घातों में कुछ, कहीं कशिश है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

छूटा अवसर जो हाथों से मुश्किल फिर आएगा
छूटा मन का साथ कहीं तो जीवन पछतायेगा
बिखरे मन से गीत भला कब कोई गा पाया है
सरगम गीतों से रूठी छंद सँवर कब पाया है।।

सरगम में फिर गीत सजाओ राग अभी भी बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01नवंबर, 2022




श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...