कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें

कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें                                     

राह कब मुश्किल यहां
फासले न थम सकें
मिट जाएंगी दूरियां
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।।

व्यर्थ है सब जिद्द यहां
व्यर्थ आडंबर सभी
खोल कर दिल की जिरह
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें।।

नफरतों का दौर हो जब
प्रीत का गागर लिए
आओ किसी पनघट पर
कुछ तुम भरो, कुछ हम भरें।।

स्वार्थ सिद्धि के लिए
मुंह मोड़ करके न चलो
कर्तव्यनिष्ठ मार्ग है ये
कुछ तुम डटो, कुछ हम डटें।।

हताश न होना कभी
विश्वास न खोना कभी
रिश्ते ये अनमोल हैं
रिश्तों के खातिर यहां
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

तारक बनो

      तारक बनो।                                          

शस्त्र हो या शास्त्र 
दोनों में पारंगत बनो
हो जब राष्ट्र की बात
राष्ट्रधर्म के वाहक बनो।।

है नही अस्तित्व हमारा
धर्म से विमुख होकर
धर्म रक्षा के लिए
धर्म के प्रचारक बनो।।

न भटको निज स्वार्थ में
प्रलोभनों में, अपराध में
ये राष्ट्र हमारी कर्मभूमि है
इसके तुम तारक बनो।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


गुल्लक

            गुल्लक                                            

जोड़ जोड़ कर लम्हे लम्हे
इक गुल्लक बनाया मैंने
छोटी छोटी सी खुशियों से
फिर इसको सजाया मैंने
सोचा फुर्सत मिलते ही खोलेंगे
अपने सब सपने जी लेंगे।

कितने ही पल गुजर गए
इस गुल्लक को बनाने में
कितने ही खुशनुमा पलों को
भुलाया मैंने इसे बनाने में।

एक दिन गुल्लक ने पूछा-
इतनी शिद्दत से मुझे बनाते हो
इस पल में क्यूँ नही
अपना जीवन सजाते हो

मैंने बोला- फुर्सत के पल में सोचेंगे
जब भी मुझको मिलेगा मौका
खुलकर के इसको जी लेंगे।
उसने बोला- ऐसे तो जाने
कितना वक्त गुजर जाएगा
और जो पल बीत गया है
वो लौट कहां फिर आएगा।

बीते पल दोबारा नही मिला करते
सिक्के हों या ज़िंदगी
जो इक बार छूट जाते हैं
फिर दोबारा नही चला करते।

इक दिन खाकर के ठोकर
वो गुल्लक फिर गिर गया
गिरकर न जाने कितने ही
टुकड़ों में वो बिखर गया।

बिखर के भी उसने सिखलाया
कड़वी सच्चाई से अवगत करवाया
जो कुछ है बस इस पल में है
न जाने किस ठोकर से
जीवन ये बिखर जाएगा
जिन खुशियों को बटोरा प्रतिपल
जाने कब वो बिछड़ जाएगा।
यही वक्त है खुल कर के जी लो हर पल
फिर जाने लौट के आये न आये ये पल।।

©️अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

मैं नारी हूँ

             मैं नारी हूँ।                                       

मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं अबला नही, नादान नहीं
मैं स्वाभिमान, खुद्दारी हूं।
मैं उपवन की क्यारी हूँ
मैं आंगन की फुलवारी हूँ।
मैं नारी हूँ , मैं नारी हूँ।।

मैं आसमान में उड़ती हूँ
मैं उन्मुक्त बहारें लिखती हूँ
फैलाकर अपनी बाहों को
मैं नील गगन में उड़ती हूँ।।

पुरुषों की दुनिया में मैंने
अपना मुकाम बनाया है
जिन कामों पर वर्चस्व था उनका
उनको करके दिखलाया है।।

स्वर्णिम था अतीत हमारा
भविष्य की उच्च अभिलाषी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं जननी हूँ, मैं पालक हूँ
मैं नवयुग की निर्माता हूँ
सब जन्मे हैं उर से मेरे
फिर भी कोख में मारी हूँ।।

कितने ही वज्रपात सहे मैंने
फिर भी नही मैं हारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं वेदों की ऋचाओं में हूँ
मैं संस्कारों की प्रणेता हूँ
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे
मैं ही गीता, कुरान, गुरुवाणी हूँ

मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

            हैदराबाद

मां तू याद बहुत आती है

 माँ तू याद बहुत आती है                     

अरे उठता हूँ, क्यों परेशान करती हो
आज तो छुट्टी है, फिर भी हैरान करती हो
एक दिन आराम का मिलता है
न खुद आराम करती हो, न करने देती हो
इसी उधेड़बुन में पड़ा था, कि अलार्म घनघनाया
सुबह के नौ बज चुके थे, सूरज सर चढ़ चुका था
बड़ी अजीब स्थिति है दोस्तों
पहले मां की मखमली छुअन हमें जगाती थी
अब शहर का शोर हमें जगाता है।
यूँ तो शहर की चारदीवारी तेरी गोद से भी बड़ी है
पर जाने क्यूँ जब भी शहर का खालीपन डराता है
सच कहता हूँ- माँ तब तुम याद बहुत आती हो।।

तू जल्दी से तैयार हो जा
वरना तुझे देर हो जाएगी
अभी तक यूँ ही पड़ा है
जल्दी से मुंह हाथ धो ले
मैं नाश्ता लाती हूँ।
अच्छा तू अपना काम कर
मैं ही तुझे नाश्ता कराती हूँ
कितना भी रोकूँ तुझे
पर तू कहां मानती थी
अपने ही हाथों से हर रोज़ 
निवाला खिलाती थी
अब तो सबकुछ है मेरे पास 
पर भूख नही जाती है
देखकर रसोई का सूनापन
सच कहता हूं- माँ तू याद बहुत आती है।।

मेरी हर छोटी बड़ी गलतियों पर
तू आंख दिखाती थी
आने दे तेरे पिताजी को, कहकर धमकाती थी
जब भी पिताजी डांटते थे, 
तू सामने आ जाती थी
ज्यादा बोलें तो उन्हें भी तू आंख दिखाती थी
यदि मार मुझे पड़ती तो आंसू तू भी तो बहाती थी
कोई देख न ले, आँचल में अपना मुंह छुपाती थी
पर अब तो रोज़ ही जाने कितनी बातें सुनता हूँ
सवाल ये नही के इनसे परेशान होता हूँ 
सुन सुन कर बातें सबकी हैरान होता हूँ
पर मां खुदगर्जी में दुनिया जब भी रुलाती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

होली में ज्यादा रंग न लगाना
अपनी आंख रंगों से बचना
दिवाली में पटाखे जरा दूर से ही बजाना
अभी तक नए कपड़े नही पहने
अरे शाम हो गयी दिया कौन जलाएगा
है राम इस नालायक को कब अक्ल आएगी
कब तक बच्चा बनकर रहेगा
तू कुछ समझता क्यूँ नही
मां मैं आज भी बच्चा बनना चाहता हूँ
पर जब कभी दुनिया समझदार बताती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

वो गर्मी की धूप में कमरे में बंद कर देना
जाड़े की सर्दी न लगे रजाई में दुबका लेना
फिर बारिश में भींग कर आया है
तुझे सर्दी लग जाएगी
तुरन्त तौलिए से सर सुखाती थी
तुझे कब समझ आएगी।
अब तो रोज़ ही सर्दी, गर्मी, बारिश झेलता हूँ
मौसम के हर पहलू से खेलता हूँ
इनसे बचने को सारे साधन पास हैं
माँ अब तो एसी में रहता हूँ
मखमली बिस्तर पर ही सोता हूँ
पर अब भी गर्मी की वो धूप
बरसात की वो बूंदें
और जाड़े की वो सर्दी जब भी सताती है
सच कहता हूँ- माँ तू मुझे याद बहुत आती है।।

पहले जब भी ठोकर खाकर गिर जाता था
तुम दौड़कर मुझे उठाती थी
पर अब तो रोज़ ही 
जाने कितनी ठोकरें खाता हूं
पर अब कोई नही उठाता है
जब भी उन ठोकरों से आत्मा कराहती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

बहुत बेफिक्र रहता था मैं
जब तू पास रहती थी
सारी हैरानी- परेशानी हमेशा दूर रहती थी
जब भी डर लगता था, तेरे गले लग जाता था
ऐसा नही के अब डर नही लगता है
ऐसा भी नही के अब डर से निकल नही पाता हूँ
पर सच तो ये है माँ, तेरा वो आँचल नही मिलता
अब बालों में हाथ फिराकर कोई ढांढस नही बंधाता।
लेकिन फिर भी जब अपनों से उपेक्षित होता हूँ
उनके कटुवचनों के बोझ को सहता हूँ
तब जाने क्यूँ इक सिहरन सी आती है
सच कहता हूँ- माँ तब तू याद बहुत आती है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद




कहां रुकेंगे पांव ये मेरे

          कहां रुकेंगे पांव ये मेरे।                                          

इक जिद्द है खुद को पाने की
इक जिद्द है खुद को समझाने की
जिस जिद्द की खातिर जिद्द को पाला
जाने कब उसने जिद्दी बना डाला।

निकल पड़ा उस जिद्द की खातिर
तोड़ के आडंबर बहुतेरे
न जाने कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

हौसलों को फौलाद बनाया
हर पाबंदी को परे हटाया
उम्मीदों का सागर लेकर
चल रहे हैं अविरल पथ पर।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सपनों को पहचान दिलाने
मंज़िल को अपना पता बताने
इक जिद्द है सीमाओं से आगे
खुद की खातिर राह बनाने।

निकल पड़ा हूँ अपनी ही धुन में
चाहे हों कितने ही फेरे
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सूरज छू पाऊं ये चाह नही
चंदा तक जाऊं चाह नही
बस आगे बढ़ने की जिद्द है
छोड़ हार जीत के फेरे।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



एलबम ज़िंदगी

     एलबम ज़िंदगी                                       

एलबम के किसी कोने में
मुस्कुराती है जिंदगी,
कभी खुशियों, कभी गमों
के पलों को सजाती है जिंदगी।

पन्ने पन्ने जोड़कर
इक किताब बनाती है
यादों की पोटली से
निकाल बीती फिर सजाती है।

अतीत के उन पलों को
इक मुकाम दिलाती है, ज़िंदगी,
एलबम के किसी कोने में
मुस्कुराती है जिंदगी।।

इच्छाओं के भींगे चाबुक खाकर
सबको बांधने की कोशिश करती है
टूटती है, गिरती है, संभलती है
फिर उसी राह चल पड़ती है।

कभी रंग-बिरंगे, कभी श्वेत-श्याम
पन्नों पे उकेरी जाती है जिंदगी,
एलबम के किसी कोने में
हर पल मुस्कुराती है जिंदगी।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

अब जग गया हूँ

             अब जग गया हूँ                                               

चलते चलते लगता है 
कि जैसे मैं थक गया हूँ
दुनियादारी के बोझ तले
शायद दब गया हूँ।

झुलसने लगे हैं
अब कानों के पर्दे भी
सुनकर सारे प्रलाप
अब पक गया हूँ।

सीख यही मिली मुझको
जमाने की ठोकरों से
राह कैसी भी हो मगर
अब सँभल कर चल रहा हूँ।

झुलसाया है इतना
वक्त के थपेड़ों ने
नींद से उठकर के
अब जग गया हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

दर्द से परे पुनर्वास

दर्द से परे पुनर्वास।                                      

मैंने दर्द के दर्द से इतना कहा
तेरे दर्द से अब दर्द नही होता

तू दर्द तभी देगा मुझे जब
तुझे दर्द देने की इजाज़त दूंगा।

वादा है, कोशिश करे कितना भी वो
मगर अब उसे दर्द की इजाजत नही दूंगा।

वो जब भी आएगा, दरवाजा खटखटाएगा
खाली हाथ वहां से लौट जायेगा।

वो कितना भी कठोर क्यों न हो
मैं दर्द से दर्द देने का अधिकार छीनता हूँ।

कर्मपथ पर कितनी भी बाधाएं आये
पार कर उन्हें अपना मार्ग खुद चुनता हूँ।

अब किसी भी दर्द का भय नही मुझको
अब दर्द से परे, पुनर्वास खुद लिखता हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

मौलिक भारत का आह्वान

मौलिक भारत का आह्वान                                                                          


ऐसा क्यों लगता है मुझको
मौलिक भारत छूट रहा
अभिव्यक्ति के नाम मानो
खण्ड खण्ड ये टूट रहा।

ये कैसी आज़ादी है
ये कैसा व्यवहार है
भारत के टुकड़े चाहने वालों
के कैसे पहरेदार हैं।।

भ्रष्ट हो चुकी आज व्यवस्था
कुंद पड़ी सरकार है
भारत को गाली देने वाले की
कैसी जय जयकार है।

मत भूलो एक जयचंद ने
कैसे भारत बर्बाद किया
मगर आज तो भारत में
जयचंदों की भरमार है।।

बहुत सुन चुके इनकी बातें
अब इनका प्रतिकार करो
गली मोहल्लों से चुन चुनकर
अब इनका संहार करो।।

कैसे कैसे लोग पड़े हैं
सत्ता के गलियारों में
गिरगिट जैसे रंग बदल रहे हैं
सत्ता के गलियारों में।

कुर्सी से चिपके रहने को
ये इतने बेताब हैं
गिरवी रखने को अपना
ज़मीर तक तैयार हैं।।

कितना अंतर आ चुका है
अब इनके व्यवहारों में
जैसे शकुनि चाल चल रहा हो
सत्ता के गलियारों में।

बंट रहा है अखण्ड भारत
अब जाति धर्म के नारों में
एकलव्य फिर ठगा जा रहा 
सत्ता के गलियारों में।।

कितने सपने चूर हो रहे
इनके झूठे वादों से
पर ये अलसाये पड़े हुए हैं
सत्ता के गलियारों में।।।

मज़लूमों का हमदर्द नही है
सत्ता के गलियारों में
सबके अपने स्वार्थ सधे हैं
सत्ता के गलियारों में।।

मेरा भी मन करता है
झूमूं, नाचूं, गाऊं में
अभिव्यक्ति की तथाकथित
आज़ादी वाले गीत सुनाऊं मैं।

पर क्या करूं मैं राणा प्रताप
शिवाजी का अनुयायी हूँ
शकुनि, जयचंदों जैसी
भाषा खुद में कहां से लाऊं मैं।।

में दर्पण टांगे फिरता हूँ
उनको कहां से भाऊंगा
उनके जैसी कुटिल भावना 
खुद में कहां से लाऊंगा।

जनता अब ये पूछ रही है
सत्ता के गलियारों से
कब तक सीना छलनी होगा
गद्दारों के वारों से।

हम गीता के अनुयायी हैं
पहला वार नहीं करते
पर जो भी मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

हमसफ़र

हमसफ़र                                                     

तुम बने जो हमसफ़र तो
रास्ता मुझे मिल गया
मंज़िलें क्या कारवां क्या
जग हमारा हो गया।

चाहे ओझल चन्द्रमा हो
कोई न तारक आज हो
कालिमा ही कालिमा हो
नीरवता का राज हो।

हाथ में जब हाथ तेरा
फिक्र की क्या बात है
ऐसे आलम में
अँधेरा भी सवेरा हो गया।

तुम बने जो हमसफ़र तो
रास्ता मुझे मिल गया।।

है यही चाहत मेरी
के हर पल में तेरा साथ हो
हो खुशी या ग़म हो कोई
बस ज़िंदगी की बात हो।

देख कर धड़के जिसे दिल
वो हमदम मेरा हमराज़ हो
ज़िंदगी का हर अधूरा
अब ख्वाब पूरा हो गया।

तुम बने जो हमसफ़र तो 
मैं भी पूरा हो गया।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

बेटी की विदाई


बेटी की विदाई।               

अश्रुपूरित नैनों से जिस पल
मैंने उसे विदा किया
क्षणभर को लगा मुझे यूँ
मेरा सबकुछ चला गया।

खुशियां घर की चली गयी 
घर का उत्सव चला गया 
कोयल की कुह  कुह  चली गयी 
बगिया का कलरव चला गया| 

पर ये प्रथा है बेटी 
जो मैंने आज निभाई है 
तू मुझसे कब अलग हुई है 
तू तो इस हृदयतल में समाई है | 

जब तेरे नन्हे हाथों ने 
ऊँगली मेरी थामी थी 
मरुधर से मेरे जीवन में 
उम्मीद नई इक जागी थी | 

तेरे उन नंन्हे क़दमों ने 
जब घर का कोना नापा था 
तेरे हर पदचिन्हों को हमने 
नैनों में अपने छापा था | 

जब तेरे तुतलाते बोलों ने 
नया व्याकरण गाया था 
अधरों पे मुस्कान लिए 
खुशियों का मौसम आया था | 

तेरी पायल की रुनझुन ने 
जब घर आंगन खनकाया था 
मन हर्षित हो झूम गया था 
सौभाग्य मेरा इतराया था |
बालपन से अब तक का जीवन 
चलचित्र की मानिंद घूम गया 
क्षणभर को लगा मुझे यूँ 
मेरा सबकुछ चला गया | 

पर मानस की  रीति यही है 
जो हमको भी अपनाना है 
तेरे जीवन की बगिया को 
खुशियों से महकाना है | 

महके जीवन तेरा हर पल 
खुशियों से दामन भरा रहे 
जीवन के हर पथ पर बेटी 
सौभाग्य तुम्हारा बना रहे || 

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
14फरवरी, 2020

ज़िंदगी-एक पहेली

ज़िंदगी - एक पहेली                                                                                    

ज़िंदगी 
एक अबूझ पहेली की तरह है 
कभी लगता है- यह नाम है 
रफ़्तार का,जोश का,उम्मीद का 
वक्त के साथ साथ चलने का 
मंज़िल दर मंज़िल आगे बढ़ना का | 

कभी लगता है - यह नाम है 
मुश्किलों का, कठिनायों का 
लड़ने का, जूझने का
खुद से, औरों से, समाज से 
कभी लगता है-
यह काँटों भरी है 
तो अगले ही पल फूल सी लगती है 
यह ज़िंदगी || 

कभी लगता है 
यह एक बोझ है 
हम जिसे ढोने को मजबूर हैं 
 अगले ही पल-फूल सी लगती है 
कभी अजनबी सी लगती है 
कभी अपनी सी 
यह ज़िंदगी || 

मौत तो सत्य है, अटल है 
पर यह एक मृगमरीचिका है 
हम जिसके पीछे भागते हैं 
जितना सुलझाने की कोशिश करो 
उतनी ही उलझती जाती है 
क्या है - पल-पल रंग बदलती 
यह ज़िंदगी ? 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

मौत

मौत                                                                                                            

मौत 
एक ठहराव है 
ज़िंदगी का 
उम्र की कठिनाइयों से 
जब थक हार जाते हैं 
लड़ने की इच्छा शक्ति 
समाप्त हो जाती है 
जब सारे आडंबर दूर हो जाते हैं 
माया रुपी बदल जब छंट जाते हैं 
तब साक्षात्कार होता है,
एक सत्य का - मौत का | 

यह एक सत्य है, कटु सत्य 
जानते हैं, पर मानते नहीं,
मिलना है,इससे 
मुझे,तुम्हें,हर किसी को 
स्वीकारना चाहते नहीं 
जितनी रफ़्तार से इससे दूर भागते हैं 
दूनी रफ़्तार से इसे अपने नजदीक पाते हैं| 

हम डरते हैं- मौत से 
मौत तो सत्य है 
अटल है 
डरने की चीज तो ज़िंदगी है 
जो हर कदम बांहे फैलाये 
अपनी आगोश में लेने को बेताब है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

अभिव्यक्ति की आज़ादी

अभिव्यक्ति की आज़ादी                                                                                   

माना अभिव्यक्ति की आज़ादी है 
जैसा चाहो वैसा बोलो 
पर ध्यान रहे इतना दिल में 
जब भी बोलो तोल मोल कर बोलो | 

दिल की साड़ी बातें बोलो 
पर शब्दों की तीक्ष्णता से 
शांत फ़िज़ा में ज़हर न घोलो 
जब भी बोलो तोल मोल कर बोलो | 

कल चौराहे पर महफ़िल देखी 
बात चल रही रही थी अभिव्यक्ति की 
गाली से संवाद पटा था 
देशद्रोह के नारों से 
शर्मिंदा आकाश हुआ था | 

अभिव्यक्ति का  मतलब - क्या 
 देशद्रोह  के नारे हैं 
ऐसे नारे देने वाले- क्यों 
कुछ नेताओं के प्यारे हैं | 

ऐसे नारों के कारण 
मेरा दिल भी भी दुःखता है 
कोई कितना प्रलाप करे  
ये तीर जिगर में चुभता है | 

क्या लगता है वो आतंकी 
गीत तुम जिसका गाते हो 
क्यों करते हो छेड़ वहां 
तुम जिस थाली में खाते हो | 

पाक परस्ती इतनी प्यारी 
के भारत को भूल गए 
जिस कोख ने जन्मा तुमको 
उसी कोख को भूल गए | 

आज़ादी का मतलब क्या 
भारत को खंडित करना है 
या आज़ादी  के नाम पे बोलो 
आतंकी को महिमामंडित करना है | 

पत्थरबाजों के साथ खड़े हो 
क्यों स्तर अपना गिराते हो 
इसी माटी ने पहचान तुम्हें दी 
क्यों इसको भूल जाते हो  | 

आज़ादी का असली मतलब 
वीर सुभास ने जाना था 
असली आज़ादी क्या होती है 
"आज़ाद " जी ने पहचाना था | 

जिसकी खातिर राणा प्रताप जी ने 
घास की रोटी खाई थी 
जिसके लिए लक्ष्मीबाई, मंगलपांडे जी ने 
अपना सब कुछ त्याग दिया | 

जिस आज़ादी की खातिर  
भगत सिंह जी ने बलिदान दिया 
उस आज़ादी के नारों का 
क्यों तुमने अपमान किया? 

भूल गए उस माटी को 
जिसने तुमको सम्मान दिया 
ऐसे नारों के वाहक को 
अब आज सीखना है 
अभिव्यक्ति की असली आज़ादी से 
उनका परिचय करवाना है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

संवाद नही करते

संवाद नहीं करते                                                                                               

मुल्क हमारा घिरा हुआ 
है अगणित तूफानों से 
सेहत इसकी बिगड़ रही 
है अवसरवादी अवसादों से | 

अभी न चेते आज अगर 
तो फिर आगे पछताना होगा 
कोई कितना भी दंभ भरे 
भारत को मोल चुकाना होगा | 

जब लोकतंत्र के  वाहक ही 
जातिवाद की बात करें 
जब भ्रष्टाचारी हावी होकर 
जनतंत्र का नाश करें | 

जब सत्ता की चौखट पर 
अवसरवादी उपवास करें 
जब मिथ्यावादी खुलेआम 
सत्यकाम का उपहास करें| 

ऐसे में तुम्ही कहो 
मैं कैसे चुप चाप रहूँ 
कलम को कैसे गिरवी रख दूँ 
मैं कैसे चुपचाप सहूँ | 

मैं दिनकर और निराला जी 
की पीढ़ी का वाहक हूँ   
मैं भारत की मूल आत्मा 
राष्ट्र धर्म का ध्वज धारक हूँ|   

पर मुझको ये जातिवाद 
अवसरवाद डराता है 
गली गली में उठने वाला 
राष्ट्रद्रोह तड़पाता है | 

 भारत मान का  दिल रोता है 
देख के इन करतूतों को 
नफरत होने लगती है 
देख के इन कपूतों को | 

मैं ऐलान यहां करता हूँ 
भारत  के गद्दारों से 
कान खोल सुन लें जयचंद सारे 
जो छुपे हुए हैं 
 सत्ता के गलियारों में | 

हम अहिंसा के अनुयायी हैं 
हिंसा की बात नहीं करते 
पर जब भारत माँ का 
सीना छलनी हो 
तब संवाद नहीं करते || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 


तेरा ही आँचल पाऊं

तेरा ही आँचल पाऊं                                                                                          

ओस की इक बूँद था मैं 
इसे मोती बनाया  तुमने 
नदी की इक उच्छृंखल धरा था मैं 
इसे सलीके से बहना सिखाया तुमने| 

इक नादान परिंदा था मैं 
मुझे उड़ना सिखाया तुमने 
शब्द तो बहुत मिले जीवन में 
उन्हें सूत्र में पिरोना सिखाया तुमने| 

ये मेरे पूर्व जन्मों का पुण्य है 
जो तुम्हारा आँचल मिला है मुझको 
यही प्रार्थना है ईश्वर से 
मैं जब भी दुनिया में आऊं 
हे मात-पिता मेरे 
मैं तेरा ही आँचल पाऊं || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

तिरंगा

                       तिरंगा                             

गगन चूमता शान बढ़ाता
मेरा है अभिमान तिरंगा।
तीन रंगों से शान इसकी
भारत की पहचान तिरंगा।।

केसरिया साहस बतलाता
हिम्मत का मान बढ़ाता है।
श्वेत धवल पहचान शांति की
सत पथ का अभियान तिरंगा।।

हरा रंग हरियाली का है
सुख समृद्धि जतलाता है।
बढ़ते रहना कभी न रुकना 
चक्र हमें समझाता है।।

हर पल बढ़ता रहता जीवन
ये ज्ञान हमें बतलाता है।
राष्ट्र प्रथम, एक सूत्र हो
उन्नति का पाठ तिरंगा।।

जात-धर्म को भुला सभी
राष्ट्रनीति स्वीकार करो
एक भारत श्रेष्ठ हो भारत
बस इतना आह्वान करो।।

इसकी शान सदा रखना
दिल के कोने कोने में
हर चेहरे पर बिखरी जो
वो स्नेहिल मुस्कान तिरंगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

              हैदराबाद

एक कहानी लिखूँ

एक कहानी लिखूँ                                        

तुम कथानक मेरे, मैं कहानी लिखूँ
तुम प्रियतम मेरे, मैं जवानी लिखूँ,
समर्पण की बात, जब भी चले,
राष्ट्रपथ पर मैं अपनी जिंदगानी लिखूँ।।

रक्त है धमनियों में या पानी भरा
भावनाएँ जो बहके तो फिर क्या धरा
जिंदगी है ये मिलती इक बार बस
क्यूँ न फिर राष्ट्र पर मैं जवानी लिखूँ।।

तुम कथानक मेरे, मैं कहानी लिखूँ
तुम वो प्रियतम मेरे, जिसपे मैं जवानी लिखूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

व्यंग्य-पति पत्नी के मध्य

पति-पत्नि के रिश्ते का व्यंगात्मक रूप।                           

शाम होते ही जैसे मैं दफ्तर से घर आया
मुस्कुराते हुए पत्नी को दरवाजे पे पाया।

मैंने पूछा-अरे भाग्यवान क्यों मुस्कुरा रही हो ?
तुम तो चाहते ही हो कि मैं परेशान रहूँ।

मैंने मन मे सोचा-जब भी मुझे देख तुम यूँ मुस्कुराती हो
कुछ न कुछ दस-पांच हज़ार का चूना लगाती हो।

अरे मैंने तो मज़ाक किया था,तुम नाहक ही परेशान होती हो
हैं अब मैं मज़ाक के लायक ही रह गयी हूँ।

पड़ोसन को देखकर तो खूब मुस्कुराते हो
पर मुझे देखते ही जाने कहाँ खो जाते हो।

बात बिगड़ती देख मैंने बात को संभाला
तुम्हे देखते ही मैं अपने होश खो जाता हूँ।

सच कहूँ जानू तो मैं तुम्हारी
लटभरी ज़ुल्फ़ों में खो जाता हूँ।

चलो जी बात बनाना कोई आपसे सीखे
आप हाथ मुंह धो लीजिये मैं चाय लाती हूँ।

मामला सेट होते देख मेरी जान में जान आयी
अभी बैठा ही था कि श्रीमती जी चाय लेकर आयीं।

पास बैठते ही उसने मुझे एक कागज़ थमाया
कागज़ नहीं वो दिशानिर्देशों का एक पुलिंदा था।

अगले सप्ताह उसे मायके जाना था
इसलिए मुझे उसे अपने कुछ नियम बताना था।

उसने कहा - मेरे जाने के बाद
फालतू कहीं न आना जाना
और हां घर खाली पाकर
रोज़ दोस्तों की महफ़िल न सजाना।

मेरी अनुपस्थिति में कामवाली कम ही आएगी
यदि तुम कुछ बोलोगे तो वो तुम्हे बुद्धू बनाएगी।

तुम तो हो ही बुद्धू, उसकी बातों में न आना
और हां उसके सहारे घर छोड़ के कहीं न जाना।
और हां पड़ोसन से जरा ज्यादा ही सावधान रहना
अकेला पाकर वो तुम्हें बहलायेगी।
तुम तो वैसे भी उस पर लट्टू हो
उसकी चिकनी चुपड़ी बातों में न आना।
उसका क्या वो तो तुमसे अपना काम निकलवाएगी
कुछ गलत होने पर सारा इल्जाम
तुम पर ही लगाएगी।

तब से मैं बड़ी ही पशोपेश में हूँ
ये उसकी सलाह थी या उलाहना
अगर इसे समझ सके कोई
तो मुझे भी समझाना।

खैर नियत दिन, उसे ट्रेन में बिठा के आया
घर आते ही जोर से दरवाजा खटखटाया।
वो अंदर होती तो दरवाजा खोलती
याद आते ही खुद ताला खोल घर के अंदर  आया।

न जाने घर क्यूँ सूना सूना लग रहा था
सब कुछ वैसा ही था पर
कुछ कुछ अधूरा सा लग रहा था।

यूँ तो घर मे संगीत लहरी बज रही थी
सच कहूँ तो मेरे कानों को
बिल्कुल नहीं जंच रही थी।

तब मुझे एहसास आया-
पति पत्नी गृहस्थी के दो पहिये हैं
एक के बिना गृहस्थी की गाड़ी अधूरी है
यदि पति राजा तो पत्नी रानी है
दोनों के सप्रेम मिलन से ही
बनती नए युग की कहानी है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

अनादर्श होती राजनीति

छंद - अनादर्श होती राजनीति                          

अनादर्शों का दौर है साहब
आदर्शों की बात कहां,
सत्ता का संघर्ष बड़ा है
अनुशीलन की चाह कहां।।

स्वाभिमानी पौरुष था जो
मन से शायद टूट गया,
सत्ता लोलुपता के कारण
नैतिकता से दूर गया।।

जन संपर्कों व मंचों से जिनको
यथार्थ की बातें करते देखा था,
सस्ती लोकप्रियता के पीछे
अब उनको पड़ते देखा है।।

राजनीति और आदर्श जैसे
एक दूजे से बेवफा होते गए,
रात भर गए रटाये
होते ही सुबह सफा हो से गए।।

ऐसे व्यवहारों के कारण
जन गण मन भी बहकता है,
आदर्शों को बिछते देख
मन बेतरतीब दहकता है।।

है लेखनी कुछ ऐसा लिखना
जिसकी अनुगूंज सुनाई दे,
हठधर्मिता सब ढह जाए
अंतरंग प्रकाश दिखाई दे।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


प्रेम ज़माने को खटकता था

   प्रेम ज़माने को खटकता था                        

हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।

पर्दों में उलझता था
नियमों पे अटकता था
कभी सोची बगावत तो
रुसवाई में जकड़ता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

भरी महफ़िल में वो 
जब भी सामने आए
पलकों की चिलमन से
जब भी वो मुस्कुराए 
उनका मुस्कुराना भी 
महफ़िल को खटकता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

निभानी थी वो जो रस्में
तुम्हारे साथ जीने की
कई वादे वफ़ा के थे
कई कसमें वफ़ा की थी
मगर लम्हों में उलझी तुम
मैं सदियों में गुजरता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

वो अंतिम बार तुम मेरे
जब पास बैठी थी
बेड़ी पैरों में थी तेरे
और बंधे हाथ मेरे थे
कहने को तो शामिल हैं
ज़माने की रवायत में
कहीं तुमको तड़पना था
कहीं मुझको तड़पना था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



लाक्षागृह

       लाक्षागृह       लाक्षागृह                                          

सिंहासन का मोह उसे था,
सत्ता सुख का लोभ उसे था।
पाण्डव की बढ़ती ख्याति देख,
अंतर्मन में द्रोह उसे था।

युधिष्ठिर गुणवान बहुत था,
सहृदय, चरित्रवान बहुत था।
आशीष पितामह का उसको,
प्रजाजनों में मान बहुत था।

सब प्रजाजनों की इच्छा से,
प्रबुद्ध जनों की मंशा से।
सहमति पाकर सभाजनों की,
वो जाकर तब युवराज बने।

हाथ से सत्ता गिरते देख,
स्वप्न को यूँ ही मिटते देख।
मन ही मन कुंठित हो बैठा,
क्रोधित मन चिंता कर बैठा।

जब उससे बर्दाश्त ना हुआ,
जब उसे लगा प्रतिघात हुआ।
वो मन बात पिता से बोला,
अपने मन की गाँठे खोला।

यदि सिंहासन उन्हें मिला
तो उनका राज्य हो जाएगा
हम लोगों को कुछ प्राप्त न होगा
वंश दास हो जाएगा।

युधिष्ठिर है बड़ा सभी से
इसलिए अधिकार उसी का है
ये निर्णय मेरा नही है
ये आदेश सभी का है।

तब शकुनी की कुटिल चाल से
दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को अपने वश किया
अपनी कुटिलता मनवाने हेतु
पुत्रमोह में विवश किया।

मेरी आप मदद ये करना
पुरोचन ने वारणावत में जो महल बनाया है
उसमे रहने व निवास को
है पिता उन्हें विवश तुम करना।

महल बना है लाख, मुंज का
व ज्वलनशील पदार्थों से
जरा आग सेे ही वो जल जाएगा
पांडवों का वंश समूचा उसमें जल जाएगा।

इस षड्यंत्र का पता, मगर
विदुर जी को चल गया
युधिष्ठिर से मिल विदुर ने
सचेत उन्हें था कर दिया।

कुशल कारीगर के हाथों
वो इक सुरंग बनवाने लगे
वारणावत में शिकार के बहाने
पांडव यदा कदा समय बिताने लगे।

कार्य पूरा होते ही
पांडवों ने वहां रहने का संकेत दिया
सफल योजना होती देख
दुर्योधन मन ही मन हर्षित हुआ।

घटना वाली रात पांडवों ने
पुरोचन को बहाने से बुला लिया
बंदी बना उसे लाक्षागृह में
भवन में आग लगा दिया।

सुनकर लाक्षागृह की आग
दुर्योधन मन ही मन हर्षित हुआ
मगर विदुर जी की सूझ बूझ से
पांडवों का न कुछ अहित हुआ।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                                 

कुरुक्षेत्र के रण में
एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति
सुरराज भी लज्जित हुआ।

घेर कर उस वीर को
कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सारे
भय के कारण त्यज दिया।

देख उसका रौद्र रूप
सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने
नर्क का भागी बना।

तब घेर कर कौरवों ने
ध्यान उसका भंग किया
चारों दिशा से वार कर
वीर को निःशस्त्र किया।

फिर भी हिम्मत थी कहां
कि पास उसके आ सके
प्रचंड वारों व प्रहारों से
पार उसके पा सके।

चक्रव्यूह बिखरता देख कर
शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीछे से
जयद्रथ ने निहत्थे वीर पर घात किया।

वार इतना तीव्र था
कि वीर सहन कर ना सका
कर्तव्यपालन की दिशा में
वीरगति को प्राप्त हुआ।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ
शत्रु का खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पाकर
सुरलोक भी मंडित हुआ।

वीरगति से वीर के
कौरवों में हर्ष छा गया
सर्वत्र पांडव पक्ष में
शोक था छा गया।

देख उसका हाल ऐसा
निःशब्द नव वधु हो गयी
नेत्र में भरे अश्रु सूखे 
वो धरा पर गिर गयी।

सुन सूचना वीरगति की
अर्जुन क्रोध से पागल हुए
आत्मदाह की की प्रतिज्ञा
जो अगले सूर्यास्त तक शत्रु का न वध किये।

थी प्रतिज्ञा घनघोर इतनी
भू-भाग भी गुंजित हुआ
देख पार्थ का रौद्र रूप
त्रिलोक तक कंपित हुआ।

करने जयद्रथ का दूर भय
दुर्योधन भी उपस्थित हुआ
करूंगा रक्षा तुम्हारी
सम्मुख सबके प्रण किया।

कुरु सेना के रक्षण में रहोगे
तुम तक वो पहुंच न पायेगा
प्रतिज्ञा पूरी न हुई तो
स्वतः ही आत्मदाह कर जाएगा।

भोर की पहली किरण पर
युद्ध का शंखनाद हुआ
दिन चला निर्वाध गति से
जयद्रथ न कहीं मिला।

निराश देख माधव ने कहा
पार्थ न विचलित बनो
रक्षा कवच में छुपा है वो
संहार करने शीघ्र तुम आगे बढ़ो।

सुनकर माधव के वचन
उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर विषाद के क्षण
उत्साह से लड़ने लगा।

सांध्य होने को चली
जयद्रथ तक पहुंच जब मुश्किल हुआ
वासुदेव ने माया रची
सूर्य बादलों में छिप गया।

सांध्य होने के भ्रम ने
कौरवों को हर्षित किया
आत्मदाह अब अर्जुन करेगा
अट्टहास जयद्रथ ने क्या।

देख शत्रु सामने
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा
पार्थ उठाकर गांडीव
शत्रु का तुम वध करो।

संध्या अभी भी शेष है
तनिक भी न विलंब करो
ध्यान रहे इतना तुम्हे कि
मस्तक धरा पर न गिरे।

देखते ही देखते सूर्य
बादलों से निकल गया
देख कर दृश्य ऐसा, प्राण
गले में शत्रु के अटक गया।

जैसे ही जयद्रथ
रणभूमि से भागने को हुआ
गांडीव उठा कर पार्थ ने
तत्क्षण में उसका वध किया।

जयद्रथ का शीश धड़ से हो अलग
जाकर गोद में, उसके पिता की गिरा
गोद में गिरते ही, सर उसके पिता का 
भी टुकड़ों में विभक्त हुआ।

हुई प्रतिज्ञा पूर्ण अर्जुन की
और शत्रु का वध हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी
इक पाप का था अंत हुआ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


तुम्हारे मंदिर में

तुम्हारे मंदिर में                                            

बन के दीपक में जलूं
तुम्हारे मंदिर में,
तेल हो प्रेम का
इच्छा की बाती मैं बनूं
तुम्हारे मंदिर में।।

भोर की पहली किरण पर
मंदिर का कपाट 
जब तुम खोलो
एक मद्धम सी चमक बन सजूं
मैं तुम्हारे मंदिर में।।

क्षणभर भी विमुख न हो
मन तुम्हारे भावों से
तुम बनो सागर
बन के गंगा
अविच्छिन्न मैं मिलूं
तुम्हारे मंदिर में।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

दर्द का रिश्ता

दर्द का रिश्ता                                                                  

दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है
चलना चाहूँ किसी ओर भी
वो स्वतः ही मुड़ जाता है।।

इक प्रयास सदा करता था
मूक ध्वनि वहां तक पहुंचे
पर मालूम नहीं था मुझको
इक सत्य विलग कर जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता 
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

रिश्तों में जब विश्वास पनपता
रिश्तों में तब जीवन बनता
दिल में जब रहते हैं दोनों
फिर फर्क कहां रह जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

ताने-बाने बुनते रहते 
सभी एक दूसरे की सीमा तक
जब मोती हैं इक माला के सब
फिर बिखर क्यूँ जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

कभी विनम्रता, कभी कठोरता
कभी कसैला, कभी मधुरता
जीवन का जब रूप यही है
फिर फर्क कहाँ पड़ जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

अब मेरी चोटों पे क्या, दर्द तुम्हें नहीं होता है
अब मेरी आँखों के अश्रु से
क्या हृदय तुम्हारा नही रोता है
इक दूजे की परवाह हमें जब
फिर हृदय उसे समझ क्यूँ नही पाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता, जाने कैसे जुड़ जाता है।।

शायद मेरा अपराध यही
झूठ का प्रतिपल प्रतिकार किया
जिस पर किया भरोसा पल पल
उसने ही संहार किया
दोष नही तब कहीं किसी का
जब भ्रम का पर्दा पड़ जाता है।
शायद ऐसे ही भ्रम के कारण
दर्द से रिश्ता मेरा जुड़ जाता है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

जो मैं पढ़ता रहा

जो मैं पढ़ता रहा।              

तुम ही वो पुस्तक मेरी
जो रोज मैं पढ़ता रहा
भाव बन मुझमें तुम सजी, 
उम्र भर जिसे सजाता रहा।

कविताओं में छंद की तरह
तुम गीतों में मर्म की तरह
तुम हो वो पुस्तक मेरी, 
जिसे हरपल मैं पढ़ता रहा।।

गद्य तुम मेरे, पद्य भी मेरे
पल पल जिसे मैं लिखता रहा
भाव बन पृष्ठ पर तुम सजी
जिनमे मैं खुद से मिलता रहा।

शब्द जो मैं तेरा, अर्थ हो तुम मेरे
बन अलंकार हर पंक्ति में तुम सजे
मैं जो मुखड़ा तेरा, अंतरा तुम मेरे
उम्र भर मैं जिसे गुनगुनाता रहा।

पग-पग में बन पुष्प बन मेरे बिछी
मार्ग के कंटकों को मैं भी बिनता रहा
शर्म के रेशमी दुशाले में सिमटी रही
पाश में तेरे मैं भी तो जकड़ा रहा।

गीत बन के जीवन में ऐसे सजी
उम्र भर मैं जिसे गुनगुनाता रहा
भाव बन मुझमें तुम सजी
उम्र भर जिसे सजाता रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
      

रूप को मैं कंवल लिख दूं

रूप को मैं कँवल लिख दूं।                                                

रूप को मैं तुम्हारे कँवल लिख दूं
तुम कहो तो मैं तुम पर गजल लिख दूं।

शब्दों से श्रृंगार ऐसा करूं
लेखनी से भी मनुहार ऐसा करूं
पास सम्मुख सदा मेरे बैठी रहो
तेरे हर भाव पर मैं गजल लिख दूं।।
रूप को मैं तुम्हारे कँवल लिख दूं
तुम कहो तो मैं तुम पर गजल लिख दूं।।

नैनों से जब तेरे नैना मिले
शर्म की लाज की सारी परतें खुलें
जो मेरा प्रणय तुमको स्वीकार हो
तो समर्पण से अपने श्रृंगार तेरा लिखूँ।
तुम कहो तो मैं तुम पर गजल लिख दूं
रूप को मैं तुम्हारे कँवल लिख दूं।।

मेरे एकाकीपन को जो तुमने चुने
मेरे संग तुमने, जो सपने बुने
उन सपनों में, मैं रंग भर दूं
तुम कहो तो मैं तुम पर गजल लिख दूं
रूप को मैं तुम्हारे कँवल लिख दूं।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


नयन क्यूँ सजल हो रहे हैं सजन

   नयन क्यूँ सजल हो रहे हैं सजन                                   

ये नयन क्यूँ सजल हो रहे हैं सजन
शब्द क्यूँ मौन हैं, भाव बेचैन हैं
करुण-कण से विचलित रहता है मन
क्यूँ न दुर्गमतम तल को गति से कर लें सरल।
ये नयन क्यूँ सजल हो रहे हैं सजन।।

इक मधुर सी कसक है हृदय में दबी
चाहा प्रतिपल तुझे कह न पाए कभी
प्रतिपल अमिट जो कहानी बनी
उस कहानी को समझ क्यूँ न पाया ये मन।
ये नयन फिर सजल क्यूँ न होएं सजन।।

तुम पावस ऋतु की प्रथम बूंद हो
तुम चंचल सुरसरि नीर हो
जो मैं नभ का हूँ अंतिम नक्षत्र
तो तुम भी उषा की हो पहली किरण।
फिर नयन क्यूँ सजल हो रहे हैं सजन।।

सत्य है या फिर है ये कोई भरम
स्वप्न है ये या फिर यथार्थ का प्रथम है चरण
जो भी पर शून्य अब न रहे
आओ मिलकर करें दूर सारे भरम।
आओ मिलकर करें दूर सारे भरम।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...