प्रेम ज़माने को खटकता था

   प्रेम ज़माने को खटकता था                        

हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।

पर्दों में उलझता था
नियमों पे अटकता था
कभी सोची बगावत तो
रुसवाई में जकड़ता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

भरी महफ़िल में वो 
जब भी सामने आए
पलकों की चिलमन से
जब भी वो मुस्कुराए 
उनका मुस्कुराना भी 
महफ़िल को खटकता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

निभानी थी वो जो रस्में
तुम्हारे साथ जीने की
कई वादे वफ़ा के थे
कई कसमें वफ़ा की थी
मगर लम्हों में उलझी तुम
मैं सदियों में गुजरता था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

वो अंतिम बार तुम मेरे
जब पास बैठी थी
बेड़ी पैरों में थी तेरे
और बंधे हाथ मेरे थे
कहने को तो शामिल हैं
ज़माने की रवायत में
कहीं तुमको तड़पना था
कहीं मुझको तड़पना था।
हमारा प्रेम जाने क्यूँ
ज़माने को खटकता था।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...