दर्द का रिश्ता

दर्द का रिश्ता                                                                  

दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है
चलना चाहूँ किसी ओर भी
वो स्वतः ही मुड़ जाता है।।

इक प्रयास सदा करता था
मूक ध्वनि वहां तक पहुंचे
पर मालूम नहीं था मुझको
इक सत्य विलग कर जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता 
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

रिश्तों में जब विश्वास पनपता
रिश्तों में तब जीवन बनता
दिल में जब रहते हैं दोनों
फिर फर्क कहां रह जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

ताने-बाने बुनते रहते 
सभी एक दूसरे की सीमा तक
जब मोती हैं इक माला के सब
फिर बिखर क्यूँ जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

कभी विनम्रता, कभी कठोरता
कभी कसैला, कभी मधुरता
जीवन का जब रूप यही है
फिर फर्क कहाँ पड़ जाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता
जाने कैसे जुड़ जाता है।।

अब मेरी चोटों पे क्या, दर्द तुम्हें नहीं होता है
अब मेरी आँखों के अश्रु से
क्या हृदय तुम्हारा नही रोता है
इक दूजे की परवाह हमें जब
फिर हृदय उसे समझ क्यूँ नही पाता है।
दर्द से मेरा रिश्ता, जाने कैसे जुड़ जाता है।।

शायद मेरा अपराध यही
झूठ का प्रतिपल प्रतिकार किया
जिस पर किया भरोसा पल पल
उसने ही संहार किया
दोष नही तब कहीं किसी का
जब भ्रम का पर्दा पड़ जाता है।
शायद ऐसे ही भ्रम के कारण
दर्द से रिश्ता मेरा जुड़ जाता है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...