हर बात सुनानी है हमको

हर बात सुनानी है हमको

इन चंद पलों के जीवन में, इक उम्र बितानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

शब्दों के आलोड़न से ही, अपने जीवन का नाता है,
गीतों गजलों से छंदों से, मन प्राण वायु ये पाता है।
साँसों की सरगम से चुनकर, इक उम्र बितानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

उस पथ से क्यूँ जाना मुझको, जिस पथ में तेरा द्वार नहीं,
चाँद किरण से कैसा नाता, जिसमें तेरा अहसास नहीं।
पुण्य प्रेम के अहसासों से, इक आस चुरानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

अनचाहे से अनुबंधों में, जीवन को उलझाना कैसा,
अभिशापित अधरों की पीड़ा, बार-बार क्यूँ गाना ऐसा।
रिश्तों में जुड़ने से पहले, हर बात बतानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जनवरी, 2024

डरते-डरते

डरते-डरते

दर्द न होता तो क्या करते,
या हम जीते या के मरते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

चाहे खुशियाँ चाहे आँसू,
अपने हिस्से जो कुछ आया।
चाहे सदमे या फिर आहें,
हमने हँसकर सब अपनाया।

खुद को अलग हम कर न पाये,
पास न आते तो क्या करते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

लाख जतन कर प्यार छुपाया,
भाव हृदय के रोक न पाये।
कितने पन्ने लिख कर फाड़े,
चाह के भी हम कह न पाये।

कहीं बचा कुछ बीच हमारे,
सोच रहे थे कैसे कहते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

तड़प रही हैं सदियाँ कितनी,
लम्हों की फिर कौन सुनेगा।
फैला हो चँहुओर उजाला,
अँधियारा फिर कौन चुनेगा।

आस किरण की लिए "देव" फिर
सम्मुख आया डरते-डरते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       27 जनवरी, 2024


दोहा

दोहा

भारत का जन-जन कहे, सबका हो ये गान।
जन गण मन का गीत हो, हम सबका अभियान।।

संविधान का भाव हो, राष्ट्र प्रेम आधार।
पुण्य तिरंगे के तले, ले भारत आकार।।

सदियों की पीड़ा कटी, दूर हुआ अँधियार।
नव युग के निर्माण को, जन गण मन तैयार।।

प्रेम भावना हो हृदय, सबका हो सम्मान।
सबके मन में प्रेम हो, सबमें सबका मान।

कहे देव कर जोड़कर, बस इतनी सी बात।
कर्तव्यों का बोध ही, देता है अधिकार।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26 जनवरी, 2024


 

अभियान तिरंगा भारत का

अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

युग युग से इसकी खातिर
है लाखों ने बलिदान किया
आज़ादी के पुण्य हवन में
अपना सब कुछ दान किया
यही कामना सबके दिल की
ऊँची हरदम शान रहे
घर घर में लहराये तिरंगा
गुंजित ये अभियान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा उद्देश्य यही
पल-पल हम दुहरायेंगे
याद शहीदों को करने को
घर-घर हम फहराएंगे
आज़ादी के मतवालों से
हर पल गूंजेगा नभ सारा
शान तिरंगे की खातिर है
अर्पित जीवन प्राण हमारा।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

अपनी है बस यही कामना
ये विश्व पटल पर लहराये
शांति सभ्यता मूल तत्व को
इससे ही दुनिया अपनाये
प्रतीक बने मानवता का
हर अधरों पर गुणगान रहे
जब तक ये सूरज चाँद रहे
दुनिया मे तेरा मान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा

क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा

शायद नजरों का धोखा था, कोई दोष नहीं तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

अपने हर एकाकीपन में, मन को साथ मिला तुम्हारा।
सदा जीतता आया सबसे, लेकिन मन तुमसे ही हारा।
लेकिन मिला छलावा मन को, जाने कैसी भूल हुई थी,
आँसू जब पलकों ने खोये, मिला नहीं तब उसे सहारा।

नहीं किसी पर दोष मढ़ा जब, कैसे कहूँ दोष तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

छूकर तुमको पवन चली जब, मेरे मन को कष्ट हुआ था।
चाँद किरण ने छुआ कभी जब, मेरा मन अभिशप्त हुआ था।
कभी किसी महफ़िल में कोई, लेकर तुमको नाम पुकारा,
समझ नहीं पाया था क्यूँ कर, मन ये मेरा तप्त हुआ था।

मैं ही तुमको समझ न पाया, सारा था अपराध हमारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

शपथ मुझे उन बीते पल की, अब उन्हें नहीं दुहराऊँगा,
अधरों पर प्रतिबंध लगा दूँ, के नाम नहीं अब लाऊँगा।
जितने मैंने गीत लिखे थे, ढाई आखर वाले तुमपर,
सौगंध मुझे उन गीतों की, अब कभी नहीं मैं गाऊँगा।

बिखरे मेरे सपने गिरकर, कोई दोष नहीं तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 जनवरी, 2024




श्री राम का प्रभाव

श्री राम का प्रभाव

स्वयं को संभाल कर दूसरों को तार दे।
स्वयं से भी पूर्व दूसरों को जो संवार दे।
औरों के लिए चले औरों के लिए पले,
औरों के लिए यहाँ स्वयं को भी वार दे।

ऐसे श्रेष्ठ पंथ का नहीं कहीं विराम है,
त्याग जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

प्रेम भाव का जहाँ पे स्वयं ही प्रभाव हो।
प्रेम का प्रवाह हो नहीं कोई दुराव हो।
सबसे एक भाव और सत्य का चुनाव हो,
श्रेष्ठ मन की वृत्ति और सबसे सद्भाव हो।

प्रेम सद्भावना का नहीं जहाँ विराम है,
प्रेम जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

अर्थ-लाभ द्रोह-मोह लोभ से जो हो परे।
क्षोभ-क्रोध व्यग्रता से मन रहे सदा परे।
वासना के भाव भी न ध्यान को डिगा सके,
जिसके बस प्रभाव से वर्जनायें हों परे।

वासनाओं का जहाँ पर न कोई काम हो,
धर्म जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

इक वचन के मान पे स्वयं को जो हार दे।
पा जगत की संपदा इक वचन पे वार दे।
शब्द-शब्द पुण्य पंथ भावना ही चेतना,
सत्य को स्वीकार कर स्वयं को भी हार दे।

सत्य की पुण्यता का नहीं जहाँ विराम हो,
सत्य जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

सूर्य के भी ताप में खुद को जो जला सके।
चाँद की रश्मियों में खुद को जो गला सके।
शीत-ताप जो भी हो न माथ पे शिकन रहे,
उच्चता के बोध में मन को भी मिला सके।

शुद्धता के बोध का नहीं जहाँ विराम हो,
शुद्ध जिसकी भावना, भाव उसके राम हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       21 जनवरी, 2024

ट्रेन मैनेजर के मन के भाव

ट्रेन मैनेजर के मन के भाव

हजारों ख्वाब आँखों में लिए हम रोज चलते हैं।
लाखों भावनाओं का लिए एहसास चलते हैं।
काँधों पर हमारे अनगिनत लम्हों की मुस्कानें,
इन लम्हों की बाहों में हमारे दिन निकलते है।

हमारी रात का दिन का नहीं कोई ठिकाना है।
बनाते रोज पटरी पर यहाँ अपना ठिकाना है।
हमारी रात की दिन की यही इतनी कहानी है,
अधूरी इक कहानी है अधूरा इक फसाना है।

नहीं है नींद आँखों में मगर इक आस पलती है।
समानांतर पटरियों के हमारी साँस चलती है।
लिखे हैं गीत कितने ही यहाँ हर रोज जीवन के,
इन गीतों के साये में हमारी आस पलती है।
 
लिए मुस्कान चेहरों पर समय का मान करते हैं।
के आया पास जो अपने हम सम्मान करते हैं।
मिलती हैं दुआओं में हमें अकसर जो मुस्कानें,
उन्हीं मुस्कानों में अपनी खुशी अनुमान करते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जनवरी, 2024

मुक्त रचना- हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

मुक्त रचना- हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

दो घड़ी का मिलन माना अपना मिलन,
कौन जाने कहाँ फिर किधर जायेंगे।
बस यही गीत ही अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

धड़कनों में सदा यादें बन हिचकियाँ,
साँस के साथ ही आती जाती रहेंगी।
भावनाएं हृदय की छुपा न सकेंगे,
साँसों में ये सदा छटपटाती रहेंगी।

बस यही हिचकियाँ अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

नींद पलकों को छूकर के रुक जाएगी,
रातें बन अनछुई छटपटाती रहेंगी।
स्वप्न के बोझ से आँख झुक जाएगी,
सिलवटें रात भर कसमसाती रहेंगी।

अनछुई सिलवटें अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

लम्हों ने जो लिखी सदियों ने वो पढ़ी,
जिंदगी की कहानी रुकी कब यहाँ।
आज है जो यहाँ कल कहीं और हो,
दासता बादलों ने सही कब कहाँ।

लम्हों की ये कहानी ही पहचान है,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जनवरी, 2024








मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

मैं जग को गीत सुनाऊँगा

जग के अंतस की पीड़ा से, शब्द पुष्प के भाव उगाकर,
साथ कोई गाये न गाये, अपने सुर से उसे सजाकर।
इस जीवन के हर भावों को, मैं युग-युग तक दुहराऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

गीतों की हर पंक्ति-पंक्ति में, भावों का सम्मोहन होगा,
आहों के हर अनुरोधों का, साँसों में अनुमोदन होगा।
पलकों का हर अश्रु गीत बन, हृदय पृष्ठ पर अंकित होंगे,
पीड़ाएँ सम्मानित होंगी, हर शब्द-शब्द स्पंदित होंगे।

इस पीड़ा के हर स्पंदन को, मैं जन-जन तक पहुँचाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

यादों के मानसरोवर से, कुछ दृश्य बहारें आयेंगी,
जिस तक जग की पहुँच नहीं है, उन दृश्यों को दिखलायेंगी।
रेतीले तट पर सागर के, लहरों का अनुरंजन होगा,
सागर की लहरों से मन के, गीतों का अनुबंधन होगा।

यादों को हृदय लगाकर मैं, लहरों के गान सुनाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

इन गीतों के सिवा जगत को, और नहीं कुछ दे पाऊँगा,
आया खाली हाथ जगत पर, खाली हाथ नहीं जाऊँगा।
आज नहीं तो कल होगा जब, मेरे गीत सुने जायेंगे,
पीड़ा जब सम्मानित होगी, मेरे गीत चुने जायेंगे।

पीड़ा के हर द्रवित भाव को, मैं गीतों से सहलाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 जनवरी, 2024

हम अभियंता

हम अभियंता

पल-पल भारत को पुण्य पंथ पर हम लेकर जाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

आदि काल से जीवन का हमने हर पंथ सँवारा है,
समय-समय पर बदलावों को हमने हर स्वीकारा है।
हम जीवन पथ के हर दुष्कर को सहज बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

इतिहास हमारा उन्नत है हमने जग को ज्ञान दिया,
किया सुलभ जीवन हमने नित नूतन अनुसंधान किया।
अपने अनुसंधानों से हम उन्नत राष्ट्र बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

हैं सपने अपने उच्च शिखर सभी बाधाएं निर्मूल हैं,
राहों के कंटक पत्थर सब अपने लिए बस धूल हैं।
हर बाधा को दूर करें हम हर पथ सुगम बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

रहे राष्ट्र का मान सदा अपनी केवल यही कामना,
रहे तिरंगा उच्च सदा करते हैं बस यही प्रार्थना।
जन गण मन के विजय गान पर हम ये शीश नवाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 जनवरी, 2024

ये पल आपके नाम कर जाऊँगा

ये पल आपके नाम कर जाऊँगा

दो घड़ी प्यार मुझसे जता दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

प्रीत के पृष्ठ से हम सजाते रहे,
उम्र की पुस्तिका आप ही के लिये।
कामना हर घड़ी हम जगाते रहे,
प्यास की तृप्ति तक आप ही के लिये।
दो घड़ी प्यास अपनी जता दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

सांध्य ने बादलों से कहा कुछ सुनो,
है नशीली यहाँ साँझ की रागिनी,
चाँद की रश्मियाँ अंक में कुछ चुनो।
खिल रही देख लो चाँद की चाँदनी।
चाँद की चाँदनी को सजा दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

कामना अश्रु की क्यूँ अधूरी रहे,
भावना का समंदर हृदय में भरो।
चाहतें फिर नहीं ब्रह्मचारी रहें,
भावनायें प्रणय की हृदय में भरो।
कामनायें हृदय की जगा दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 जनवरी, 2024




अवध में प्राण प्रतिष्ठा

अवध में प्राण प्रतिष्ठा

कितने सपने नयनों में भर, थीं सदियाँ देख रहीं रस्ता,
छोटे-छोटे निर्णय भारी, पर अडिग रही अपनी निष्ठा।
उस निष्ठा का पुण्य फलित है, पूर्ण हुई है सभी प्रतीक्षा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

आहुतियों से यज्ञ कुंड की, ये अग्नि नहीं बुझने पाई,
लाल हुआ सरयू का पानी, पर आस नहीं झुकने पाई।
त्याग, तपस्या और समर्पण, है ये सबके प्रण की रक्षा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

पूर्ण हुआ वनवास राम का, ये धरती फिर से मुस्काई,
जिसको नयना तरस रहे थे, वो घड़ी सुहानी है आयी।
आज राष्ट्र का पुण्य है जगा, कण-कण में है जागी निष्ठा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13 जनवरी, 2024

व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं

वेदना के गीत पलकों से बहे जब, व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

जब कली ने पुष्प का जीवन लिया है,
कंटको ने भी वहाँ अनबन किया है।
जब प्रणय ने गीत मन में गुनगुनाया,
वेदना ने भी वहाँ पर सुर सजाया।
क्यूँ प्रणय के गीत पलकों ने कहे जब,
वेदना से अश्रु खारी हो गये हैं।

साँस ने जब-जब मिलन का गीत गाया,
आह ने भी कण्ठ में आ सुर सजाया।
गूँजते हैं गीत अब अनुगूँज बनकर,
लौट आयी वेदना सब गीत बनकर।
गीत साँसों से लिपट कर हैं बहे जब,
अश्रु मन के ब्रह्मचारी हो गये है।

अब कहूँ क्या मौन मन की भावनाएँ,
सह रहा कैसा हृदय ये यातनाएँ।
गीत सारे रिक्त होकर लौट आये,
और बनकर अश्रु पलकों को सजाये।
वेदना का प्रीत से बंधन हुआ जब,
कोर के सब अश्रु भारी हो गये हैं।

वेदना के गीत पलकों से बहे जब, व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11 जनवरी, 2024



उम्मीद का सूरज

उम्मीद का सूरज

कई सपने हैं काँधों पर, कई आशा निराशा है।
कहीं काँधे हैं राहों में, यहाँ देता दिलासा है।
चलेंगे दूर तक हम सब, लिए सपने इन आँखों में,
सपनों के इन झुरमुट में, चमकती थोड़ी आशा है।

है खाली हाथ माना ये, मगर उम्मीद भी बाकी।
भले हों बंद एक राहें, मगर दूजी कहीं बाकी।
के ये नाक़ामियाँ भी बस, यही सन्देश देती हैं,
के हौसलों की परीक्षा है, अभी उड़ान है बाकी।

उम्मीदों का गगन अपना कभी छोटा नहीं करना।
कि मेहनत जब लिखे सपना कभी खोटा नहीं करना।
के ये उम्मीद का सूरज न डूबा है न डूबेगा,
छँटेगा ये अँधियारा मन कभी छोटा नहीं करना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जनवरी, 2024

अर्पण कर दूँ

अर्पण कर दूँ

कुछ शब्द बटोरे हैं दिल ने,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

कितनी ही सदियाँ बीती हैं,
तब जाकर अधिकार मिला।
कितनी ही साँसें रीती हैं,
तब जाकर ये प्यार मिला।
कुछ लम्हें हमने जोड़े हैं,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

कुछ सपने नयनों में ठहरे,
कुछ नयनों से बिछड़ गये।
कुछ कोरों में ऐसे उलझे,
पलकों से ही बिछड़ गये।
कह दो तो इन सपनों को मैं,
नयनों का दर्पण कर दूँ।

तेरी एक झलक पाने को,
पलकें अब भी हैं प्यासी।
कुछ तो ऐसा करो कि जिससे,
मन की हो दूर उदासी।
ऐसे पलकों पर छा जाओ,
खुद को आज समर्पण दूँ।

कुछ शब्द बटोरे हैं दिल ने,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
       12 जनवरी, 2024

मुक्तक- तेरी मेरी जुबानी

मुक्तक- तेरी मेरी जुबानी

बिना तेरे यहाँ कुछ भी मुझे अच्छा नहीं लगता।
लगे झूठा यहाँ सब कुछ मुझे सच्चा नहीं लगता।
भाती है न दुनिया की मुझे कोई भी सौगातें,
बिना तेरे मिले दुनिया मुझे अच्छा नहीं लगता।

साँसों में कहीं अब भी तुम्हारी याद बाकी है।
कि आहों में कहीं कुछ तो दबी फरियाद बाकी है।
कहीं कुछ तो बचा ऐसा हमारे बीच में अब भी,
कि मिट कर भी नहीं मिटती दिलों में याद बाकी है।

नहीं कुछ बात है बाकी बची जो है कहानी है।
नहीं कुछ पास है मेरे यही बाकी निशानी है।
कहो या न कहो ये बात मगर मालूम है मुझको,
कि जो मेरी जुबानी है वही तेरी जुबानी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09जनवरी, 2024

युयुत्सु

भाग 1

धर्मयुद्ध में खड़ा हुआ हूँ, मैं भी पात्र इक खास हूँ,
हूँ भ्रात मैं भी कौरवों का, हाँ, माना पुत्र दास हूँ।

मन झंझा में उलझा-उलझा, समझ नहीं कुछ आता है,
धर्म अधम के महा युद्ध में, मन मेरा घबराता है।

मेरे मन में गूढ़ व्यथा है, किससे मन  की बात कहूँ,
समझ नहीं पाता है मन ये, कैसे मैं आघात सहूँ।

हे नाथ तिहारे सम्मुख हूँ, मेरा भी उद्धार करो,
दूर करो शंका मेरी सब, प्रभु मुझपर उपकार करो।

एक तरफ है धर्म खड़ा, दूजे अधर्म की टोली है,
मैं जाऊँ किस ओर नाथ, दुविधा मन की भोली है।

दासी से जन्मा हूँ माना, पर भ्रात सभी हैं मेरे,
धर्मराज से भी रिश्ता है, सच से मुख कैसे फेरें।

कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध में, दुविधा मेरी भारी है,
जाने क्यूँ लगता है मेरी, इच्छा मन की हारी है।

लेकिन मैं कुरु ओर रहूँ, ये मुझको है स्वीकार नहीं,
धर्म की खातिर हत हो जाऊँ, इसमें मेरी हार नहीं।

भाग 2

भाई हैं वो सारे मेरे, नैतिकता पर कहीं नहीं,
सुलभ चेतना शून्य सभी में, प्रेम भावना रही नहीं।

उनके हर इक़ कृत्यों पे मैं, धर्मराज शर्मिंदा हूँ,
कैसे कह दूँ नाथ वहाँ मैं, घुट-घुट कर के जिंदा हूँ।

पर केशव मेरे इस मन में,  छाई दुविधा भारी है,
जिसके जालों में फँसकर के, साँसें मेरी भारी हैं।

एक तरफ हैं भाई मेरे, दूजी ओर सगे मेरे,
पर एक तरफ है धर्म ध्वजा, दूजी ओर अधम घेरे।

युद्ध करूँ उस ओर यहाँ मैं, मन को ये स्वीकार नहीं,
धर्म नीति पे प्राण त्यागना, इसमें मन की हार नहीं।

मेरे मन की इस दुविधा को, धर्मराज अब दूर करें,
साथ अधम का नहीं चाहिए, मन की इच्छा पूर्ण करें। 

निर्णय और अनिर्णय में फँस, जो मन समय गँवाता है,
समय अंक से झर जाता जब, पाछे बस पछताता है।

शेष समय रहने तक जो मन, अपनी भूल सुधारा है,
अंतर्मन के महा द्वंद्व में, कभी नहीं वो हारा है।

भाग 3

मान रहा इतिहास मुझे यूँ, याद नहीं रख पायेगा,
समय शेष रहते निर्णय में, नाम हमारा आयेगा।

नहीं विजय की चाह मुझे है, और नहीं अभिलाषा है,
धर्म ध्वजा से नभ लहराये, मन की इतनी आशा है।

सुनकर बात वीर की रण में, धर्मराज आगे आये,
तब दिया भार उसे रसद का, जहाँ योग्यता दिखलाए।

धर्म क्षेत्र में सभी खड़े हैं, अपना भाग निभाने को,
लेकिन कितने अड़ पाते हैं, पास सत्य के जाने को।

होते वीर नहीं केवल, जो युद्ध जिया बस करते हैं,
वो भी वीर कहाते हैं, जो सच पे जीते मरते हैं।

वर्तमान की देख दुर्दशा, कितने जो शर्माते हैं,
धर्म मार्ग पर चलने वाले, कटु निर्णय ले पाते हैं।

धर्म युद्ध कब खत्म हुआ, अरु होने का अनुमान नहीं,
लेकिन बने युयुत्सु यहाँ, क्या इतना भी आसान नहीं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2024

मील के पत्थरों का मर्म

मील के पत्थरों का मर्म

मील के इन पत्थरों ने राह को मंजिल दिखाई,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

चाह मन में है प्रबल तो क्या कहो मुश्किल यहाँ है,
प्रण प्रबल हो यदि यहाँ तो मुश्किलों का हल यहाँ है।
राह का जो मर्म समझा है इसे वो जान पाया,
तैरते उन पत्थरों के भाष्य को पहचान पाया।

प्रेम का ले भाव मन में राह को जो जान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

देख पाया सत्य वो ही स्वयं से जो मिल सका है,
सह सका जो भी समय को पुष्प सा वो खिल सका है।
हर घड़ी जिसके हृदय में सीखने की चाह होती,
कंटको में भी हमेशा कुछ न कुछ तो राह होती।

सत्य को जिसने जिया है कंटको से मान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

जीतने की चाह लेकर चल रहे सारे यहाँ पर,
पुण्य जिसकी साधना है वो सफल होता यहाँ पर। 
वासना से है परे वो स्वयं को जो बाँध पाया,
पार्थ वो ही बन सका है स्वयं को जो साध पाया।

है मिला आशीष पथ का पंथ जो पहचान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04 जनवरी, 2024


शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली

शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली

अभी अभी मन के आँगन में, एक कली मुस्काई है,
जैसे पतझड़ के मौसम में, दौर बहारें आयी हैं।
सूना-सूना था ये उपवन, अभी खिली है यहाँ कली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

सदी मिलन का बाट जोहती, तब जाकर ये दिन आया,
पुलकित मन के मृदु भावों ने, दिन ये हमको दिखलाया।
आज समर्पण के भावों से, जीवन को खिल जाने दो,
सदियों के इस पुण्य गान में, साँसों को मिल जाने दो।
सदियों से जो भाव मौन थे, चाहत उनकी आज फली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

दूर क्षितिज पर धरती अंबर, देखो कितने पास मिले,
जैसे सावन की बूँदों से, पपिहे का मधुमास खिले।
ऐसे मृदुल भाव जब मन के, रहे नहीं शंका किंचित
संग-संग जब समय चल रहा, वृथा हृदय क्यूँ है चिंतित।
जग के भरम जाल यदि घेरे, कैसे होगी प्रीत भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

बरस रही हैं नेह रश्मियाँ, आज चाँदनी के आँगन,
चलो समेटें प्रेम सुधा रस, भर जाये अपना दामन।
लिखें प्रेम का गीत नया हम, प्रकृति जिसके साथ चले,
गूँजे जिसके बोल युगों तक, जहाँ प्रणय की बात चले।
मन के पृष्ठभूमि पर लिख दें, रीत वही जो सदा भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2024

ये नया कैलेंडर वर्ष है

ये नया कैलेंडर वर्ष है

घना धुंध है सूर्य छुपा है,
सभी भोर का कार्य रुका है।
ओढ़ रजाई भारी-भारी,
काँप रहे सारे नर नारी।
जन-जन में नया उत्कर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

एक हाथ में बोतल भारी,
दूजे में है बोतल खाली।
झूम रहे सारे मदमाते,
छेड़ रहे सब आते-जाते।
गली-गली हुआ अपकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

नहीं हाथ को हाथ सूझता,
मुश्किल है अब हाल पूछना।
कुहरे की छाई है चादर,
उल्लासों में छाया बादल।
ये कैसा नया आकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

नहीं द्वार पर कहीं अल्पना,
अलसायी है सभी कल्पना।
ठिठुर रहे हैं भाव हृदय के,
बदले-बदले हाल समय के।
ये कैसा नया आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

जब धुंध सभी छँट जाएँगे,
जब खग मृग सारे गाएँगे।
प्रकृति नव निर्माण करेगी,
अधरों पर मुस्कान सजेगी।
नया संवत्सर आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

रंगों का मौसम आने दो,
मंदिर में गान सुनाने दो।
नव पल्लव खिल जाने दो,
खलिहान यहाँ मुस्काने दो।
तब चेहरों पे नया आकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

चैत्र शुक्ल की पहली तिथि से,
दिवस शुरू हो नूतन विधि से।
मंत्रों से नभ सज जायेगा,
तब अपना नव वर्ष आयेगा।
यहाँ समय वही आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2024

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