वसुधैव कुटुंबकम।

वसुधैव कुटुंबकम।  

विश्व पटल पर ऊँची प्रतिपल
धरती माता की शान रहे
शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता
पर सबको अभिमान रहे।।

ऊंच नीच का भेद नहीं हो
जाति धर्म  अवरोध नहीं हो
सबके हों अधिकार सुरक्षित
मन में कहीं विरोध नहीं हो।।

घृणा भाव से ऊपर उठकर
जन-जन के मन में प्रेम रहे
सम्मान करें इक दूजे का
बस मानवता ही श्रेष्ठ रहे।।

एक धरा है एक विश्व है
हम सबको इसका भान रहे
वसुधैव कुटुंबकम मंत्र सभी का
गुंजित सदा अभियान रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31जुलाई, 2022


नदिया और समंदर।

नदिया और समंदर।  

चली है आज नदिया फिर समंदर में समाने को
मचलते भाव ले मन में नया फिर गीत गाने को
उसे अब इन हवाओं से नहीं कोई  शिकायत है
चली है आज जीवन से खुद मिलने मिलाने को।।

नहीं नदिया महज व्याकुल समंदर में सिमटने को
नहीं राहें महज व्याकुल निगाहों में सिमटने को
मंजिल की भी है चाहत कि राहें पास तक पहुँचे
समंदर की भी ख्वाहिश कि नदिया आये मिलने को।।

नदिया ये समंदर की नहीं यूँ ही दीवानी है
कि नदियों ने समंदर में बसायी राजधानी है
लिख डाले हैं कवियों ने मिलन के गीत कितने ही
गीतों को जो महकाये नदिया का ही पानी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

अभिमान तिरंगा भारत का।।

अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

युग युग से इसकी खातिर
है लाखों ने बलिदान किया
आज़ादी के पुण्य हवन में
अपना सब कुछ दान किया
यही कामना सबके दिल की
ऊँची हरदम शान रहे
घर घर में लहराये तिरंगा
गुंजित ये अभियान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा उद्देश्य यही
पल-पल हम दुहरायेंगे
याद शहीदों को करने को
घर-घर हम फहराएंगे
आज़ादी के मतवालों से
हर पल गूंजेगा नभ सारा
शान तिरंगे की खातिर है
अर्पित जीवन प्राण हमारा।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

अपनी है बस यही कामना
ये विश्व पटल पर लहराये
शांति सभ्यता मूल तत्व का
इससे ही दुनिया अपनाये
बने प्रतीक मानवता का
हर अधरों पर गुणगान रहे
जब तक ये सूरज चाँद रहे
दुनिया मे तेरा नाम रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             1
कितना दूर अभी चलना है
रुकना है आगे बढ़ना है
पग नाप रहे मोड़-मोड़ को
जीवन के हर छोर-छोर को
कहीं धूप है छाँव कहीं है
मौसम में बदलाव कहीं है
अब बोलो क्या तुमको प्यारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              2
सिरहाने तुम आन खड़े हो
पकड़े बाँह मेरी खड़े हो
कितनी बार यहाँ पूछा है
शब्द कहो क्यूँ कर सूखा है
कह दो अपनी बात हृदय की
चाह नहीं क्या कहो अमिय की
कह दो जो है और सहारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              3
कभी लिया आलिंगन मुझको
कभी माथ लगाया पग धूल
तुमने जो सम्मान दिया है
उसे कैसे मैं जाऊँ भूल
दीप सजाया जो राहों में
आ ,उसको कभी जला जाओ
अपने उन सारे वादों को
आओ इक बार निभा जाओ
तेरे वादों पर सब हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          4
हर गाँवों की चौपालों से 
संसद के उन गलियारों तक
दूर भागती इन सड़कों से
कहीं ठहरते चौराहों तक
हमने नजर जहाँ तक डाली
देखी बस रातें अँधियारी
थोड़ी लाली इधर बिखेरो
अपने उन वादों को तोलो
दे दो अब तो साथ हमारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             5
कितनी सदियाँ बीत गयी हैं
पर वैसा बदलाव न आया
आरोपों के रथ पर चढ़कर
क्या तुमने बस समय गँवाया
केवल अपनी बात कही है
प्रश्नों से प्रतिपल दूर रहे
प्रतिपल सदियों ने देखा है
लम्हे सत्ता में चूर रहे
लम्हा जीता लम्हा हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          6
गहराती जा रही रात है
अधरों पर अनकही बात है
कौन पूछता जग में बोलो
अवरोधों को खुद ही खोलो
लिखो रात की नई कहानी
हो जाये दुनिया दीवानी
रचो भाव कुछ ऐसा सुंदर
रहे नहीं अब कोई अंतर
तुमसे पूछे स्वयं सितारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जुलाई, 2022



गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

शब्दों के पैमाने लेकर आज मिले हो मैखाने में
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

अनगिन लोग यहाँ मिलते हैं भावों का घट ले फिरते हैं
अंतस के सूने भावों को कुछ कहते हैं कुछ सुनते हैं
फिर भी कितने शब्द बिछड़ कर रह जाते हैं वहीं कहीं पर
जिनको मन ढूँढा करता है आशाओं में यहीं कहीं पर
जो भावों को समझ न पाये मोह भला उनसे क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

ऐसे कितने जीवन भी हैं पथ आसान नहीं जिनका
ऐसे कितने सपने भी हैं पलकों को भान नहीं जिनका
ऐसे जीवन के सपनों को छोड़ भला क्या रह पाओगे
छूट गिरा जो स्वप्न पलक से दर्द भला क्या सह पाओगे
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर चाह भला फिर क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

मौन पथ पर जीवन के माना चला रहा अब तक अकेला
कहो कौन है दुनिया में ऐसा मौन पल जिसने न झेला
अब तुम कहो है कौन ऐसा जिसने बस जीवन में पाया 
तुम ही कहो है कौन ऐसा कुछ भी नहीं जिसने गँवाया
खोना पाना रीत जगत की मोह यहाँ फिर क्यूँ कर करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24जुलाई, 2022

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

दूर देश एक बस्ती जहाँ, न कोई आता है न जाता है
भूली बिसरी राहों को कहो, क्या कोई यहाँ अपनाता है
पग-पग दौड़ रही ये सड़कें कब कहो गाँव को आती हैं
गाँवों की पगडंडी ही अब तक शहरों को आती जाती हैं
मोड़ सड़क की राहों को आज यहाँ हम गाँवों के छोर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

सूख रही हैं बावड़ियाँ सारी सूख रहे सब ताल तलैया
सूख रही धरती की माटी औ सूख रही बरगद की छइयां
सूनी-सूनी गलियाँ सारी औ सूने लगते त्यौहार सभी
मौन पड़ी खलिहान की हलचल जहाँ लगते थे चौपाल कभी
भीड़ भरे तहखानों से हट हम सब गलियारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

महज शहर की चकाचौंध से ही ये देश नहीं बन जायेगा
जो खलिहानों से दूर हुए तो ये जीवन क्या पल पायेगा
बूढ़ी झोंपड़ियों से अब भी वही प्रेम की खुशबू आती है
जिस माटी ने जीवन पाला वो कब छोड़ हमें रह पाती है
लोभ-मोह और स्वार्थ से हटकर सदव्यहारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पास पाकर तुम्हें जिंदगी खिल गयी।।

सुन समय छुप चला बादलों में कहीं
साँझ ढलने लगी राह में ही कहीं
चाँदनी ओट से बादलों के चली
मन के आगोश में जिंदगी है खिली
एक अहसास से बंदगी खिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पलकों में स्वप्न की स्वर्ण रेखा सजी
भाव मे मोहिनी रूप रेखा सजी
गीत अधरों पे आकर सजे इस तरह
नेह के पृष्ठ पर गीतिका है सजी
गीत ऐसे सजे ताजगी मिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

आस की पाँखुरी फिर निखरने लगी
रूप की रोशनी में सँवरने लगी
एक पल, एक क्षण, ये सदी, वो सदी
प्रीत की रश्मियाँ फिर बरसने लगी
मन के भावों में सादगी घुल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।


मन उपवन की कुंज गली में पिय आओ आकर मिल जाओ
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

इच्छाएँ फिर पर फैला कर मन को दूर कहीं ले जाती
सपने पलकों पर छाते हैं आशाएँ मृदु गीत सुनाती
कह लें मन की सारी बातें आ अंतस में यूँ मिल जाओ
साँसों की सरगम को छू लो फिर  मन हो जाये नवल मुकुल
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

मन मृदु स्पर्श तुम्हारा पाकर पल-पल यूँ स्वप्न सँजोता है
बरखा की प्यासी धरती को जैसे मधु मेघ भिंगोता है
छू ले अंतस के भावों को अंतर्मन में यूँ घुल जाओ
उर से उर का संगम हो यूँ अधरों पर हो नव गान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

जिस सुख की मन करे प्रतीक्षा उसको तकता रहता प्रतिपल
निज मन की है यही कामना फैलाता कर नव दल हरपल
आशा के नव अंकुर फूटे यूँ सम्मुख आकर मिल जाओ
मिल जाये जीवन से जीवन इच्छाओं का सम्मान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जुलाई, 2022

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

यादों के मानसरोवर पे कितने बादल मँडराये
कुछ बरसे हैं आँसू बनकर कुछ भावों में गहराये
अंतस में घिरते बादल को गीतों से मैं बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

लहरों की बहती धारा में दूर किनारे तक जाऊँ
चाहे मुझको छोड़ चले सब मैं तो सबको अपनाऊँ
अपने और पराये का कभी भेद समझ न पाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

नहीं दूर तक जाना मुझको नहीं चाहता सब पा लूँ
इस छोटे से जीवन के जो गीत चुनूँ उसको गा लूँ
गीतों में मन के भावों को छूता हूँ सहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

बहुत कर लिया मन की बातें अब कोई अधिकार नहीं
झंझाओं में उलझे मन से अब कोई प्रतिकार नहीं
खुद से ही बातें करता हूँ खुद को ही बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20जुलाई, 2022

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

जो पुष्प डाली से बिछड़ कर गिर पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

मुक्त होने को मुखर हैं सब यहाँ पर
बंधनों से दूर दुनिया है जहाँ पर
पास जाकर देखते ही सब विकल है
कौन किसको पूछता सोचो वहाँ पर।।

बंधनों को तोड़ कर जो है चल पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है जो पुष्प बस पाया यहाँ पर
कौन तपन में न कुम्हलाया यहाँ पर
स्वेद बूंदों ने लिखे जब गीत मन के
कंटकों में गीत मन गाया यहाँ पर।।

कंटकों से राह के जो डर गया है
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

पुष्प चरणों मे चढ़े या फिर माथ पर
पुष्प आँचल में भरे या फिर हाथ पर
भावनाओं से सजी है सृष्टि सारी
है सत्य, सारा पथ सँवरता साथ पर।।

निज स्थान के जो भाव को समझा नहीं
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई,2022

छाँव।

छाँव।   

एक माटी एक स्थल है एक सी धरती यहाँ
जन्म लेती भावनायें एक सी हरपल यहाँ
एक ही जीवन यहाँ पर एक ही है पालना
एक सा सींचा यहाँ क्यूँ द्वेष मन में मानना।।

नेह बरसाया गगन ने एक सा सब पर यहाँ
और धरती ने बिछाई है पुष्प की चादर यहॉं
कैसे फिर अंतर यहाँ मन में कोई पालता
जब एक सी ही चाँदनी चाँद सब पर डालता।।

जन्म के क्षण में जीवन बोलो कब है सोचता
लड़ के मृत्यु से यहाँ वो सत्य को है पोसता
काँटे चुन आँचल में वो पुष्प पथ पर डालती
लड़ती प्रकृति से यहाँ वो ऐसे हमें पालती।।

उम्र भर प्रतिपल बरसता नेह उसका शीश पर
छोड़ती है कब यहाँ वो प्रीत की कोई कसर
देव उसके त्याग को संसार ऐसे पूजता
ताउम्र उसकी छाँव को देवता भी खोजता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई, 2022

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

आस जो मन में दबी थी फिर उठी इक टीस बनकर
गीत अधरों पर सजे सब दर्द का आशीष बनकर
साँस भी तब धड़कनों से कुछ यूँ उलझ कर रह गयी
आँसुओं में बह चले सब पीर पलकों से मचलकर।।

इस क्षितिज से उस क्षितिज तक ये वक्त कुछ ऐसा घिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

सिंधु को गहराइयों तक बस दर्द का संसार था
अंक में सिमटा हुआ निज स्वप्न का पारावार था
कामनायें भी ठिठककर रुक गयीं मन के द्वार पर
क्या कहे उस एक पल में मन में जो हाहाकार था।।

रह गयीं ख्वाहिश अधूरी था टूट कर तारा गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

संदर्भों के सब सिलसिले सहसा सिमटने से लगे
गीत अधरों पर सजे जो टूट कर झरने लगे
शब्दों में सिमट न पाये भाव अंतर्मन के सभी
अवशेष यादों के सभी आँसुओं में बहने लगे।।

बह गए सब आस के क्षण तम टूट कर ऐसे गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जुलाई, 2022


मन जो बात नहीं कह पाता कविताओं में कह लेता हूँ।।

मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

खुद के मन की बातें सारी
खुद ही खुद से कर लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

छंदों की पहचान नहीं है
मात्राओं का भार न जानूँ
गजलों, दोहों, चौपाई की
मैं कोई पहचान न जानूँ
दग्ध हृदय में उमड़ रहे सब
भावों को मैं सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

व्याकुलता के पल में कितने
मन में बहती हैं धाराएं
पीड़ा के निस क्षण में मन ने
रच डाली कितनी रचनायें
रचनाओं के इर्द-गिर्द में
डूबा खुद में रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

जगती के सब ताने सारे
बन शब्द तड़पने लगते हैं
पीड़ित मन जब कह ना पाये
मन बूँदों में कहने लगते हैं
उन बूँदों के दर्द सभी वो
पलकों में ही सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

कंटक में उलझे मन लेकिन
श्रृंगार सृष्टि का करना चाहे
अवसादों में भले घिरा हो
सत्कार सुरभि से करना चाहे
काँटे मन में भले चुभे हों
हँसते-हँसते सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

शब्द बाण से मन हो घायल
चाहा जब प्रतिकार किया
अपने हों या भले पराये
मन ने सबका सत्कार किया
प्रतिकारों के दोष सभी तब
मन में लेकर रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

पग-पग कितने आरोपों में
ये जीवन उलझा जाता है
पग-पग कितना गरल पिया है
फिर भी न सुलझ ये पाता है
अनसुलझे सारे प्रश्नों को
पलकों में ही दह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2022

लिख सके न हम मन की बातें।

लिख सके न हम मन की बातें।  

जब लिख सके न हम मन की बातें
तुमने बोलो कैसे पढ़ डाला।।

जो बातें कभी निकली ही नहीं
तुमने बोलो कैसे सुन डाला।।

इक बात पकड़ कर जो बैठे हो
मन ही मन में क्या-क्या रच डाला।।

तुम शोषित हो हम शोषक माना
सोचो, तुमने क्या-क्या कह डाला।।

तुम मन तक कभी पहुँच कब पाये
कहते हो मेरा मन पढ़ डाला।।

कुछ शब्द गिराये होंगे हम सब
वक्त यूँ ही नहीं सब कढ़ डाला।।

क्या दोष यही है मेरा बोलो
बातें तेरी तुमसे कह डाला।।

अब ये नजर की बातें हैं "देव"
जिसने यहाँ रिश्ता बदल डाला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2022

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।


नैन में भरकर प्रतीक्षा अंक में मृदु गीत भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

छुप रही हैं रश्मियाँ भी दूर देखो अब क्षितिज पे
छा रही हैं बदलियाँ भी मौन भावों के हरिज पे
पक्षी भी अब उड़ चले हैं आसरे की ओर देखो
और सूरज लिख रहा कुछ शब्द पृष्ठों पर जलज के।।

सांध्य से कुछ पल चुराकर नैन में कुछ स्वप्न भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

चिमनियों से सांध्य चूल्हे लिख रहे नूतन कहानी
सूर्य की अंतिम किरण भी कर रही पल को  सुहानी
धूम्र भी कुछ गढ़ रहे हैं बादलों में तूलिका से
देख फिर खिलने लगी है भाव में अब रातरानी।।

दृष्टि का विस्तार करके प्रेम अंगीकार कर के
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

द्वार पर आकर पुकारा रात का पहला सितारा
चाँदनी भी खिल उठी है देखकर सुंदर नजारा
जुगनुओं ने छेड़ दी चौपाल पर फिर इक कहानी
तेज होती धड़कनें सुन कर रहीं हमको इशारा।।

अंग का विन्यास करके पाश में मधुमास भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2022

कुछ शब्दों में जीवन भर के मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

जीवन इतना सरल रहा कब
के कोई सब कुछ लिख डाले
पल-पल यहाँ बदलते देखा
जगती ने किस्मत को पाले।।

इस पाले से उस पाले तक
सफर अधूरे रह जाते है
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

हाँ, सही कहा जो कहा नहीं
गलती पर, लेकिन झुका नहीं
जग ने तो बस शब्द चुने इक
पर, रुक कर कुछ भी सुना नहीं।।

खुद ही कथ्य बनाने वाले
हो प्रखर सत्य कब सुन पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

क्षण भर को बादल छाने से
कब सूर्य छुपा जो यहाँ छुपेगा
बाधाएँ कितना पथ रोकें
पुण्य पथिक जो, निडर चलेगा।।

निज संबंधों की बेदी पर
बर्फ कहो कब टिक पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11जून, 2022

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।


अंक में कुछ शब्द भर लो छंद को फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

मैं हृदय में पुण्यता भर प्रीत का विश्वास पालूँ
दग्ध भावों को सँभालूँ मन के सारे दाह धो लूँ
आज खोलूँ बंधनों को मोह को अनुरंजनों को
नैन भर तुमको निहारूँ श्वास में अहसास पा लूँ।।

श्वास में संगीत भर लो साज को फिर से उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

इन कपोलों पर बिखरती ये नेह की कुछ बदलियाँ
बूँद जल की हैं चमकती जैसे मेह की हों तितलियाँ
अधरों से मधुरस छलकते नयनों से है चाँदनी
जैसे पुलकित हो थिरकती साजों पर ये उँगलियाँ।।

गात का कण-कण पुकारे आ मुझे फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

उर निलय के भाव सुरभित प्रेम का आसक्त गहना
स्वप्न की मृदु पाँखुरी को फिर नयन में आज पढ़ना
राग गुंजित हो पवन में खिल उठे मधुमास फिर से
नख से शिख तक राग मधुरिम साजों में आज गढ़ना।।

निज निशा से भोर तक फिर चाँद धरती पर उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जुलाई, 2022

अपनी हो सूरज से यारी।।

अपनी हो सूरज से यारी।।

रक्तिम रंजित भाव प्रकट कर
पृष्ठों पर कुछ दृश्य सँवारे
इन नैनों में चाहत भर कर
दूर किया सारे अँधियारे
पलकों के लालायित सपने
जोह रहे हैं अपनी बारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

अगणित पथ हैं अगणित बाधा
अगणित मन की अभिलाषाएँ
रह-रह कर प्रतिबिंबित होती
भावों में सारी गाथाएँ
प्रखर प्रेम की नव ज्वाला में 
अभिलाषाएँ पंख पसारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

समय चक्र के साथ चलूँ मैं
जैसे चलते चंदा तारे
लिख डालूँ नव गीत गगन में
प्रकृति का जो रूप निखारे
आशाओं को पथ मिल जाये
अपनी हो इतनी तैयारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जुलाई, 2022

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

सफर में अकेला नहीं मैं मुसाफिर
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

भोर से साँझ तक बस तपन ही तपन थी
मगर आस में एक मीठी छुअन थी
वो मीठी छुअन से हुआ भाव पावन
कि मरुधर में लहराया है आज सावन।।

ये पावस की रातें मुखर हो चली हैं
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।✅

हवाओं के झोंकों ने है राग छेड़ा
कलियों ने हंँसकर के अनुराग छेड़ा
सजने लगी जिंदगी बन सयानी
लिखी आज मौसम ने नूतन कहानी।।

कहानी सुनों आज भी मनचली है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

कैसे अकेला चला इस सफर में
यादों की बदली है छायी  डगर में
वो भीनी सी खुशबू महकती कहीं हो
है मालूम संग-संग मेरे तुम यहीं हो।।

 कि यादों में मेरे घुली जिंदगी है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

 ©✍️ अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        06जुलाई, 2022

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

अनजान नगर अनजान डगर
अनजानी राहों का नरतन
कहीं रुकी हैं कहीं मुड़ी हैं
भटका-भटका सा लगता मन
इन राहों के चक्रव्यूह से
सोच रहा कैसे निकलूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

जिसे पूजना था मंदिर में
उसने ही मन को तोड़ दिया
जिससे मन की डोर बँधी थी
जाने बीच राह में छोड़ दिया
भूलों से जो घाव मिले हैं
उसे अकेला मौन सहूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

सींचा था जिसको मृदु मधु से
इस जीवन की फुलवारी में
कैसे कह दूँ काँटे बोये
हैं, पग-पग उसने क्यारी में
उपवन के कुछ शुष्क पात हैं
किसको छोड़ूँ किसे चुनूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

रीत गया मधुऋतु घट सारा
अब शेष रहा क्या बोध नहीं
अंतस के भावों को प्रकटूँ
अब ऐसा भी अनुरोध नहीं
बिखर चले जब स्वप्न सुनहरे
खारे जल से पग धोऊंगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई, 2022

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