वक्त की रेत पर निशाँ।

वक्त की रेत पर निशाँ।  

वक्त की रेत पर कुछ नये हैं निशाँ
कुछ है बात तेरे मेरे दरमियाँ
छोड़ कर मैं चलूँ तुम कहो किस तरह
नजर आ रहीं कैसी कहो बदलियाँ।।

आ जाओ यहाँ अब भी अहसास है
दूर हैं हम भले दिल मगर पास है
दूर से ही सही एक आवाज दो
सूने जीवन में फिर नया साज दो।।

फिर रचें गीत हम तुम नये, रीत का
भाव जिसमें हो भरा वही प्रीत का
फिर मिले हम वहीं, थीं जहाँ रश्मियाँ
वक्त की रेत पर कुछ नये हों निशाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2022

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

दिनकर का तेज नभ में जब तक ये रहेगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

माना घनेरे धुंध में बादल यहाँ घिरा
आस के आकाश से, पर विश्वास कब गिरा
जो  तने हैं दर्प में सूखे पेड़ की तरह
सब आँधियों के वेग से हैं टूट कर गिरा।।

अकड़े हैं यहाँ जो भी खबरदार करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

जो भी यहाँ पे राष्ट्र का अपमान करेगा
ना-पाक इरादों की जो भी बात करेगा
गायेगा जो कभी दुश्मनों के गीत यहाँ
अभिव्यक्ति के नामों पर उत्पात करेगा।।

ऐसे निठल्ले लोग को आगाह करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

घर-घर में राष्ट्रवाद गीतों में गूँजेगा 
भारत की माटी को हर कोई पूजेगा
जिसको भी ऐतराज हो चेतावनी यही
है वक्त सँभल जाओ, पांचजन्य बोलेगा।।

भारत प्रेमियों का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

गूँजेगा गीत बस यहाँ भारत के नाम का
सदियों तक ऊँचा रहेगा मस्तक मान का
जब भी चलेंगी बातें कहीं स्वाभिमान की
चरचा वहाँ होगा बस भारत के नाम का।।

भारत के मान का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27फरवरी, 2022

पलकों से ही कह देना।

पलकों से ही कह देना।  

मुझको अपने दर्द का तुम बस इक टुकड़ा ही दे देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

जग के बहुतेरे फेरे कहाँ चलेंगे कहाँ रुकेंगे
खुद को भी मालूम नहीं लहरों के पग कहाँ रुकेंगे
लहरों ने जो पंथ चुना अविरल बहते जाना उसपर
ये अविरल पथ जीवन में अनुमानों के गीत रचेंगे।।

गीतों में जो भाव बुने मुस्काना अरु कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

उम्मीदों ने गीत लिखे हैं तारों की परछाईं में
चली चाँदनी आस ओढ़कर सपनों की अँगनाई में
मन को अपने आज मना लो ऋतुओं में रम जाओ तुम
खोल हृदय के द्वार बहो उन्मुक्त यहाँ पुरवाई में।।

मधुमासों के गीत सभी तुम अहसासों में कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

मुझको अपना भाव बना लो या मुझमें घुल जाओ तुम
मुझको मिलने दो खुद से या मुझमें ही मिल जाओ तुम
दूर रहें फिर गीत नहीं, जो अधरों पर हैं सजे यहाँ
शब्द बनूँ मैं जो गीतों का भाव यहाँ बन जाओ तुम।।

अपने गीतों के भावों में मुझको तुम रख लेना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24फरवरी, 2022

घर में धर्म कहाँ से होगा।

घर में धर्म कहाँ से होगा।  

जब जब धर्म प्रभावित होगा
सोचो सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

आवाजों के केंद्रबिंदु में
क्यूँ आवाज दबी रह जाती
ऐसा क्यूँ लगता है जग में
आह कंठ में दब रह जाती
नहीं मुखर होंगी जब आहें
फिर मुक्त कंठ कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

चहुँ ओर चीखती आवाजें 
कब तक मौन धरे बैठें सब
चीर खींचता दुःशाशन है
क्यूँ कर मौन धरे बैठे सब
जब तक न चीर सुरक्षित होगा
सोचो शर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अगणित शत्रु नजर गड़ाये
देख रहे हैं सुख शांती पर
अवसादों में स्वयं गड़े हैं
फैलाते मन में भ्रांती पर
जब कटुता का सागर विशाल
मन कहो नर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अब जितने शत्रु सीमा पर हैं
उससे ज्यादा भीतर बैठे
राष्ट्र भावना छलने खातिर
कदम कदम पर देखो ऐंठे
दीमक का साम्राज्य बढ़ा तो
सच्चा कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अँधियारे में एक बिन्दु सी
दीपक रेख बना बैठी है
कैसे कह दूँ इस जीवन में
आशायें घबरा बैठी हैं
आशायें जब मुक्त नहीं हों
फिर सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22फरवरी, 2022

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

जो था निश्चय यहाँ सब अधूरा रहा
आस का हर सफर भी न पूरा हुआ
धूप की अलगनी पर टँगे रह गये
दिन ने चाहा मगर कब पूरा हुआ।।

धूप सिमटी यहाँ बादलों में कहीं
कि चाह कर धुँधलका वो हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

नैन में स्वप्न आये मगर रुक गये
दो कदम चल न पाये मगर थक गये
जोहते ही रहे साँझ तक द्वार पर
रात की ओढ़नी ओढ़ कब खो गये।।

नैन पे स्वप्न आकर गिरे इस तरह
चाहा पर, नींद उसको बचा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

राह भर रोशनी खोजते ही रहे
जब मिली रोशनी राह ही थक गये
राह में फासलों से बिखर सी गयी
क्यूँ थकी राह, हम सोचते ही रहे।।

राह की करवटों में घिरे इस तरह
माथे की सिलवटों को हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22फरवरी, 2022

मन की वीणा।

मन की वीणा।   

संध्या के निज सूने पल में एकाकी हो चले हृदय जब
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

भावों के सागर में जब जब
लहरों का तूफान मचा हो
नैनों के कोरों पर जब जब
जीवन का अरमान रुका हो
नहीं किनारा भावों को जब लहरों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

नदिया की धाराओं पर जब
कश्ती ये मचले अकुलाकर
ताने दे जब तीर नदी का
शब्द चुभे कानों में आकर
लहरों के फिर साथ बहो तुम नदिया से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

अनायास जब लगे मचलने
भाव नजर की परछाईं में
विधना भी जब लगे बदलने
सहसा मन की अँगनाई में
अनुमानों से दूर निकलकर भावों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर ले।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19फरवरी, 2022

कुछ अभिव्यक्ति अभी बाकी है।

कुछ अभिव्यक्ति अभी बाकी है।  

पग पग जीवन अरमानों के तिल तिल कर के भेंट चढ़ रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

मन के प्रतिबिम्बों में कितने
भाव छुपाये बैठे सारे
प्रतिपल छाँव बदलते लेकिन
उम्मीदों के पथ कब हारे
प्रतिबिम्बों में घुलता जीवन छाँवों का संदेश दे रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

आस समेटे अनुमानों के
अंतर्मन की अँगनाई में
पग पग डग डग दूर चल रहे
पीछे पीछे परछाईं के
मिली सांत्वना अनुमानों से पलकों में संकेत दे रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

जब भी दीपक जला आस का
अकुलाहट सी नयन कोर पर
आशायें तब पंख पसारीं
संभाव्यों के मृदुल छोर पर
अभिलाषाएँ अभिसारित हैं उम्मीदें संकेत दे रहीं
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

मिलने को तो मिल जाता है
आहों को आराम एक दिन
पलकों के ताखों पर ठहरे
सपनों को विश्राम एक दिन
रुके भाव बन शब्द अधर पर गीतों का संकेत दे रहे
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18फरवरी, 2022

तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।

तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।  

मन में उमड़ रहे भावों को आशाओं के भोजपत्र पर
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

मैंने अपनी पलकों पर
कुछ स्वप्न सजाये हैं अब भी
मैंने अपने अधरों पर
कुछ गीत सजाये हैं अब भी
उन गीतों की धाराओं में तुम कहो अगर बहा लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

गूँज रहे हैं शब्द तुम्हारे
कानों में मधु घोल रहे 
ऐसा लगता भाव मचल कर
मन का आँचल खोल रहे
अपने मन के मृदु आँचल में तुम कहो अगर समा लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

भावों की धरती पर कब तक
गीत अकेले गाऊँगा
तुम जो साथ नहीं होंगे तो
कैसे खुद को पाऊँगा
अपने मन के साथ तुम्हारा मन कहो अगर मिला लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      16फरवरी,2022




पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।

पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।  

भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

साँस की डोरियाँ सुर सजाती रहीं
प्रीत का भाव ले गुनगुनाती रहीं
स्वप्न बुनती रहीं पुतलियाँ रात भर
नींद की पालकी वो सजाती रहीं।।

नींद पर रात भर हमको आयी नहीं
कहना चाहा मगर कुछ भी कह न सके
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

इक नए गीत की आस में सब सहे
काँटों से जो मिले दर्द सहते रहे
हर नई आहटें भाव बुनती मगर
जो लिखी पँक्तियाँ नीर में सब बहे।।

नीर ऐसे बहे कि रोक पाये नहीं
नीर का दर्द चाह कर भी कह ना सके
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

तुम कहो अब नया गीत कैसे रचूँ
जो छुये भावों को वो कैसे कहूँ
थी सहज कब यहाँ जिंदगी बिन तेरे
बात मन की बोलो मैं कैसे कहूँ।।

थी सहज कब यहाँ भावों की पालकी
कुछ ना कहते बना देखते बस रहे
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12फरवरी, 2022

भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।

भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।  

पृष्ठ पर बादलों के लिखी गीतिका
पौन झोंके न जाने उड़ा ले चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

साँझ के साथ में इक मुलाकात थी
दूर तारों की मानो बारात थी
रश्मियाँ धुँधलके से मिली इस तरह
यूँ सदियों से बिछड़ी कहीं रात थी।।

धुँधलके ने लिखी जो कथानक वहाँ
रश्मियाँ वो कहानी कहाँ ले चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

लड़खड़ाते कदम जो बढ़े रात में
साँस ने साँस से कुछ कहा रात में
रात भर रश्मियाँ गीत लिखती रहीं
भोर ने भी रचा पीत के पात में।।

साँस ने साँस से जो कहा रात भर
गात बस गीत वो गुनगुनाते चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

जो समय ने रचे गीत विस्तृत हुए
पलकों के स्वप्न सभी परिस्तृत हुए
तृप्ति गीत अधरों ने लिखा इस तरह
गात के भाव सारे सुसज्जित हुए।।

खुशबुएँ प्रीत से यूँ नहाई वहाँ
भाव की रागिनी हम सजाते चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11फरवरी, 2022

मैं जलियाँवाला बाग हूँ।

मैं जलियाँवाला बाग हूँ।  

इतिहासी पन्नों में मुखरित
भावों का अविरल राग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

आजादी के मतवालों का
जीवन मैंने देखा है
रिपु के पैरों से कुचला
मैंने उपवन देखा है
नन्हें नन्हें शिशुओं के 
पलकों से रिसता पराग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

राष्ट्रप्रेम का ध्वज वाहक मैं
आजादी की मृदु चाहत मैं 
नैनों में जो स्वप्न पले थे
उन सपनों का वाहक मैं
रक्तिम भावों से घट घट का
मतवाला अनुराग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

कण कण रक्तिम भाव सुगंधित
पुष्पाच्छादित प्रभाव सुगंधित
आजादी के महातीर्थ मैं
प्रेम समर्पण भाव समर्पित
आजादी के महासमर में
बलिदानियों का त्याग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2022

बुने जाल में अंतर्मन।

बुने जाल में अंतर्मन।   

मन की आशायें पग पग पर कितने रूप सजाती हैं
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

भावों के आँगन में मन ने
सपनों के कुछ पुष्प खिलाये
आशाओं की कलियाँ चुनकर
पग पग मन ने पंथ सजाये।।

भावों की फुलवारी पग पग काँटों पर बिछ जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

आवाजों के मेले बोलो 
अब कैसे कहूँ अकेला हूँ
झाँझ मँजीरे नाद कहीं पर
अरु कहीं मौन से खेला हूँ।।

आवाजों के मेलों में ये मौन मचल रह जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

जग से जो कुछ पाया हमने
कब उससे ज्यादा दिया यहाँ
इच्छायें जब भारी मन पर
पग पग पर केवल जाल बुना।।

बुने जाल में अंतर्मन ये कहो निकल कब पाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09फरवरी, 2022






खुशियों की गागर।

खुशियों की गागर।   

प्राची से आ रही सवारी
दिनकर भी मुस्काया है
पंछी ने आवाज लगायी
सूरज सर चढ़ आया है
चलें निकलकर पनघट तक हम
अब कैसी ये दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

शाखों पर नव पुष्प खिले हैं
कलियाँ भी मुस्काई हैं
पुरवा के झोंके भी हमतक
नव संदेशा लायी हैं
सुनो गा रही सभी दिशायें
गाते कँगना चूड़ी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

भोर तटों पर मिले रात दिन
जीवन नव राग सुनाये
पंछी के कलरव में सुन लो
जीवन संगीत समाये
खुशियों से भर लें अब गागर
बस थोड़ी सी दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2022



बूँद गिर कर कह गये।

बूँद गिर कर कह गये।   

नीर पलकों से मचलकर बूँद बनकर झर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

छुप गया सूरज क्षितिज पर मौन है सब रश्मियाँ
बस थके हारे कदम के रह गये थोड़े निशाँ
चल पड़े फिर मौन पथ पर दूर कितना पर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

यादों के पृष्ठों में था पुष्प मुरझाया हुआ
सूखी थी पत्तियाँ अरु भाव कुम्हलाया हुआ
थे मुखर पर भाव अब भी जो बिखर कर रह गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

कलियों से सुरभित रहा मृदु अश्रु जीवन का यहाँ
स्मृतियों में अब तक अमिट हैं गीतों की सब पंक्तियाँ
कुछ शब्द आहों से सजे कुछ आह में मिट गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08फरवरी, 2022




पृष्ठों की धरा।

पृष्ठों की धरा।  

भाव जिनको गीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

इस हृदय की भावनाओं ने था रचा नवगीत इक
और उम्र ने भी आगोश में भर कर रचा था गीत इक
उम्र ने लिखे जो गीत सारे मौसमों में ढल गये
रोकता फिर कैसे बोलो जब दूर सब निकल गये।।

भाव जिनको प्रीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

द्वार तक आयीं निरंतर रश्मियाँ जाने कहाँ हैं
स्वप्न सजने थे पलक पर छूट कर जाने कहाँ हैं
अक्षरों के खेल से यहाँ जो दृश्य मुखरित थे कभी
जाने किस आकाश में वो गुम हुए जाकर सभी।।

वो स्वप्न जिनको था निखरना इस खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

जिसने सदियों को समेटा लम्हों में संचित किया
जिसने पथ के कंटकों को पुष्पों से सिंचित किया
जिसने अँधियारे में बिखेरी आस की उजली किरण
जिसने खुद काँटे चुने अरु बाँटे जग को बस सुमन।।

जिनको बनकर सूर्य चमकना था खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2022



मन की सारी कह लेता।

मन की सारी कह लेता।   

कुछ पल रात ठहर जाती जो
मन की सारी कह लेता
सुन लेता जी भरकर तुमको
और दर्द सभी सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

अंतिम प्रहर रात का देखो
रह रह कर के पिघल रहा
तारों से आच्छादित नभ में
मन का चंदा मचल रहा
दूर कहीं टूटे तारे की
मन की पीड़ा सुन लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

सोते क्या जब रात जाग कर
श्वेत धुँए से भर डाली
लेकिन पलकें बंद रात भर
की सपनों की रखवाली
करती रहीं प्रतीक्षा वो तो
बस थोड़ा तो रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

निशि भर भाव पलक पर बैठीं
आशायें यूँ मँडराती
थकी उदासी धीरे धीरे
काश हृदय को छू पाती
छू पाती जो हृदय कभी तो
आहों में भी रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

बुझी राख की यादें लेकर
रात सिमटने को आतुर
आकाशों को देख रहीं अब
बोझिल पलकें हो व्याकुल
व्याकुलता के भाव सभी ये
काश हृदय ये सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2022



पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।

पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।  

पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन
मुस्कुरा रही डाली डाली कह रही कुछ ये पवन।।

तार गूँजे हैं हँसी के खिल गया संसार सारा
पंछियों के मृदु स्वरों से गूँजता आकाश सारा
हो गईं हैं मदमस्त देखो आज सारी वादियाँ
लगता धरती पर है उतरा झूम कर स्वर्ग सारा।।

लिख गये नवगीत पथ पथ खिल रहे सभी अंतर्मन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

नेह पलकों से झरे अधरों पे नवल मुस्कान है
देखो प्रकृति के अंक ने पाई नई पहचान है
उच्च शिखरों से चमकता ये सूर्य भी कुछ कह रहा
पंछियों के कलरवों में सब गूँजते गुणगान हैं।।

हुई धरा पुलकित बहुत केसर सम रंगे वन सघन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

ठहरे हैं जो शब्द अधरों पर उन्हें अब बोल दो
मन के भावों को ना रोको वक्त है ये खोल दो
कह दो मन की बात सारी अब मौन ऐसे न रहो
जो किसी से न कही हो वो बात खुलकर के कहो।।

चलो हम गायें गीत ऐसा पुण्य हो जाये मिलन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04फरवरी, 2022

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं
ये पलक जब भी हुई है इन वीथियों पे सजल
इक गीतिका होंठों तक आई आकर जम गयी।।

पृष्ठ पर जो भी लिखे वो गीत जाने गुम हुए
शब्द भावों से चुने न जाने कहाँ वो गुम हुए
जो लिखे थे गीत हमने छंद के सत्कार के
पँक्तियाँ खोई सभी अरु भाव जाने गुम हुए।।

चाहा कितना कि रचूँ बस प्रीत का नव पंथ मैं
न चल सके मेरे कदम ये राहें थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।


भोर को शैशव समझ मेल उससे कर सके ना
जब हुआ थोड़ा उजाला तेज भी सह सके ना
अब क्षितिज पर देख कर जाती हुई उजली किरण
रोकता कैसा कि मन जब व्यक्त भी कर सके ना।।

कह सके न भाव खुल के जाने कैसी द्वंद थी
लिख सके ना गीत कोई लेखनी थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

रात ने देकर सहारा भोर को आवाज दी
चाँद किरणों ने मचल कर इक नई शुरुआत दी
तारों ने भी झिलमिलाकर हौले से कुछ कहा
अब कहो कि किस्मतों ने हमको भी ये रात दी।।

रात मन की कह सकी ना या रश्मियाँ मंद थीं
भाव बन नीर पलकों के किनारे तर कर गयीं
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04फरवरी, 2022


भाव की अलोड़नाएँ।

भाव की अलोड़नाएँ।  

स्वप्न हैं ठहरे नयन में तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लाज ने रोका अधर पर भाव जो छाये कभी
कहते कहते रुक गये शब्द कुम्हलाये सभी
दृष्टि पड़ते ही नयन के भाव सब झंकृत हुये
और भूले गीत सारे याद फिर आये सभी।।

शब्द जो ठहरे अधर पर तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लिख रहे हैं गीत हम तो आस के अनुबंध के
शब्दों का लेकर सहारा बिना किसी प्रतिबंध के
कल कही जो बात तुमने यहाँ बांधे हुए है
अन्यथा मैं लिख न पाता गीत मृदु संबन्ध के।।

आस के अनुबंध को जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

एक ही जीवन मिला है तुम कहो तो वार दूँ
एक तुम्हारा साथ हो मैं सभी कुछ हार दूँ
क्या करूँगा वो जगत जिसमें तेरा साथ न हो
कामना बस है यही ये जिंदगी उपहार दूँ।।

उम्र का संबन्ध है जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03फरवरी, 2022

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...