कितने आँसू बह ना पाये।

कितने आँसू बह ना पाये।  

जाने कितने मेघ गगन के
आँसू बने पलक पर ठहरे
जाने कितने शूल ह्रदय में
चुभे यहाँ पर आकर गहरे
घाव मिले पर कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पग पग संशय के बादल थे
हम भी पर कितने पागल थे
चले कदम दर सपने लेकर
भावों में कुछ अपने लेकर
चाहा लेकिन कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

घिरा रहा प्रश्नों में जीवन
मरुथल में महकाया उपवन
सहमे उत्तर विश्राम नहीं था
घट घट रीता हृद का मधुवन
रीते हृदय सँभल ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पलकों ने कुछ कहा नहीं पर
आहों में प्रतिकार किया है
मन के टूटे सब भावों को
आँसू का आकार दिया है
सुनी मगर कुछ कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

यादों के ताखों में कितने
प्रश्न उलझते चले गए हैं
मुड़े तुड़े पन्नों के भीतर
भाव सिमटते चले गए हैं
इतने सिमटे सह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30अक्टूबर, 2021

चलो आज नवदीप जलायें।

चलो आज नवदीप जलायें।  

जीवन की उलझन से खुलकर
चलो आज हम खुद से मिलकर
नव प्रभात की अगवानी में
आशा का संदेश जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

माना तिमिर घना हो कितना
पग पग रोध बड़ा हो कितना
अवरोधों के पार चलें हम
उम्मीदों की किरण जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

नवल आस हो नव प्रभास हो
जीवन का पल पल उजास हो
पुष्पित हों सब भाव हृदय के
ऐसा नव संकल्प जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

दुविधाओं के समर में घिरा
रुका यहाँ तो नाकामी है
जीवन बहती इक धारा है
बढ़ा वही, जो अनुगामी है

आगत विगत द्वार पर मिलकर
आशाओं के संधिपत्र पर
हर्षित पुलकित भाव हृदय भर
मिलें सभी को मीत बनायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अक्टूबर, 2021

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन।

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन

नमन करूँ मैं कण कण तेरा
और करूँ मैं तेरा वंदन
हे जननी है भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

भारत बस भूभाग नहीं है
ये दुनिया का मुखरित स्वर है
अभिव्यक्ति के भाव प्रस्फुटित
ऐसा जन गण मन का स्वर है।।

अखंड एकता बल है जिसका
अरु प्रेम समर्पण मर्यादा है
जहाँ भाव सब सम्मानित हैं
आशाओं का बल ज्यादा है।।

यहाँ सभ्यता घट घट बसती
हिय संस्कृति भाव समाहित है
निर्मल पावन चंचल धारा
गंगा की धार प्रवाहित है।।

राम कृष्ण अरु गौतम नानक
मनुज प्रेम का पोषण करते
वेद पुराण उपनिषद गीता
मन का घना अँधेरा हरते।।

मंगल ध्वनि है धर्म परायण
सब देवों में है नारायण
प्रचुर भाव भाषा विस्तारित
विस्तृत निखिल विश्व वातायन।।

शांति घोष का वाहक भारत
सत्य प्रखर आवाहन भारत
न्याय धर्म का पोषक भारत
ज्ञान दीप का द्योतक भारत।।

पग सागर है शीश हिमालय
कण कण जिसका है देवालय
जिसने जग को प्रीत सिखाया
है तन पावन मन पदमालय।।

वाणी वाणी वेद मुखर है
जन जन का आह्लादित स्वर है
नभ आच्छादित ज्ञान दीप से
धर्म दीप प्रज्ज्वलित शिखर है।।

प्रकृति जिसका रूप सँवारे
पुलकित सुष्मित सुरभित चंदन
हे जननी हे भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2021



सत्य संवाद।



सत्य संवाद।   

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु मान कर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

सत्य संवाद।

कर के नमन माँ शारदे 
कुछ भाव अपने रख रहा
शब्दों का ले आसरा 
 मैं पंक्तियां कुछ गढ़ रहा।।1।।

है प्रचुर इतिहास अपना
प्रभु नीति से व्यवहार से
और रचते हैं धरा पर
प्रेम का संसार ये।।2।।

ज्ञान का भंडार मिलता ,
धर्म का आधार है
कण कण में माँ भारती से
पाया अतुल उपहार है।।3।।

इतिहास के उस पृष्ठ से
कुछ भाव सुरभित कर रहा
भावनाओं के सहारे
पुष्प अर्पित कर रहा।।4।।

है जिंदगी का सार ये
है मोक्ष का व्यवहार ये
भक्ति का अधिकार ले मैं
 भाव अपने रख रहा।।5।।

मध्य द्वापर काल के जब
सत्य हो धूमिल पड़ा था
कामनाओं से विवश हो
द्वार पर वंचित खड़ा था।।6।।

द्यूत का परिणाम था या
फिर समय का  फेर वो
कब किया अपराध कोई 
न्याय में फिर देर क्यों।।7।।

कब कहा था सत्य बोलो
 राज्य उसको चाहिए
जिंदगी सामान्य हो
अधिकार इतना चाहिए।।8।।

झूठ का आतंक था या
थी परीक्षा सत्य की वो
स्वार्थ में मद लोभ के वश
जो चल रहा कुकृत्य वो।।9।।

मौन कैसे सह रहे थे
शब्द के कटु वाण सारे
थी शरण किसकी मिली जो
कूदता जिसके सहारे।।10।।

शब्द धूमिल हो चुके थे
संबंध बस अब नाम का
धूर्तता के आगे वहाँ
बस युद्ध ही परिणाम था।।11।।

क्रमशः--

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु बनाकर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

 *गतांक से आगे--* 

रथ ले चलो माधव वहाँ
अब मध्य में रण क्षेत्र के
इक बार मैं देखूँ यहाँ
जो हैं खड़े कुरुक्षेत्र में।।12।।

देख कर अपने सगों को
 आज इस रण भूमि में
व्यग्र इतना हो गया 
छूटा धनुष रण भूमि में।।13।।

सोच कर परिणाम रण का
दिल दहलने जो लगा
स्वयं से कैसे लड़ूँ ?
मन में बिखरने वो लगा।।14।।

हैं खड़े सम्मुख पितामह
गुरु द्रोण भी हैं सामने
हैं खड़े प्रियजन सभी वो
जो कभी संग संग पढ़े।।15।।

क्या करूँ कैसे लड़ूँ 
अब सामना कैसे करूँ
शत्रु नहीं हैं ये हमारे
गांडीव क्या धारण करूँ।।16।।

हाथ,  जिसने है दुलारा
औ खिलाया गोद में
कैसे  कहो मैं अब लड़ूँगा
पड़ गया इस सोच में।।17।।

क्या फायदा ऐसी विजय का
जो  मिले प्रतिकार से
क्या करूँ उस राज्य का
जो ना मिले व्यवहार से।।18।।

है कुटिल व्यवहार माना
भाई है पर वो मेरा 
घात कैसे मैं करूँ 
इस सोच में मन है घिरा।।19।।

ना मिला उत्तर कोई जब,
जब पार्थ कुंठित हो चला 
ब्रह्म के अवतार का फिर
मृदु आसरा उसको मिला।।20।।

 क्रमशः-- 

 
कर जोड़ कर पार्थ बोले
पाप ये कैसा हुआ है
क्या करूँ माधव कहो किस
अपराध का फल मिला है।।21।।

कैसे अपने शस्त्रों से 
शीश इनका भेद पाऊँ
कुछ कहो मुझको बताओ
रक्त मैं कैसे बहाऊँ।।22।।

आज इस रणभूमि में यदि
रक्त इनका जो बहेगा
सोचता हूँ जग हमें क्या
कुलनाशक नहीं कहेगा।।23।।

पार्थ को विचलित देखकर
यूँ मोह उसका देखकर
श्री कृष्ण ने विचार किया
और रूप विकराल किया।।24।।

पार्थ से श्री कृष्ण बोले
देख मैं संसार में हूँ
मैं सभी दिक्काल में हूँ
मोक्ष के व्यवहार में हूँ।।25।।

तुम में हूँ मैं उसमें हूँ
जग के मैं कण कण में हूँ
मैं अवनी अंबर में हूँ
प्रलय में हूँ पवन में हूँ।।26।।

जीव में निर्जीव में हूँ
और इस गांडीव में हूँ
आकाश में पाताल में
मैं सृष्टि के हर काल में हूँ।।27।।

जगत का पालनहार हूँ
मैं यहाँ हर बाण में हूँ
निर्माण हूँ संहार हूँ
इस सृष्टि का आकार हूँ।।28।।

प्रेम हूँ आभार हूँ मैं
मोक्ष का आधार हूँ मैं
भावनाओं के सफर का
सार हूँ विस्तार हूँ मैं।।29।।

वाद हूँ विवाद में हूँ
हर किसी संवाद में हूँ
शब्द की इस जटिलता के
हर सरल अनुवाद में हूँ।।30।।

क्रोध भी मैं लोभ भी मैं
प्रेम का अनुरोध भी मैं
जो कहीं अन्याय है तो
न्याय का अनुरोध भी मैं।।31।।

मान में अपमान में हूँ
जो मिला सम्मान में हूँ
है मन में जो तुम्हारे
उस सभी अनुमान में हूँ।।32।।

इस जगत का ब्रह्म हूँ मैं
आदि हूँ मैं अंत हूँ मैं
है क्या शुरू अरु क्या खतम
प्रसार हूँ अनंत हूँ मैं।।33।।

है पार्थ तुम मुझको सुनो
जिस राह बोलूँ तुम चलो
तुम सभी में प्रिय मुझे हो
जो सत्य है उसको चुनो।।34।।

सत्य का संज्ञान हूँ मैं
अरु क्षमा का दान हूँ मैं
भय अभय का भाव भी मैं
मुक्ति वाला ज्ञान हूँ मैं।।35।।

वेदों में सामवेद हूँ
भावों की अभिव्यक्ति हूँ
चेतना का मूल भी मैं
अरु प्राणियों की शक्ति हूँ।।36।।

मैं महर्षियों में भृगु हूँ 
मैं अक्षर ही ओंकार हूँ
सब यज्ञ का जपयज्ञ भी मैं
अचल हिमालय पहाड़ हूँ।।37।।

शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ
गायों में कामधेनु हूँ
शास्त्रोक्त से उत्पत्ति हो
मैं ही वो कामदेव हूँ।।38।।

हार में हूँ जीत में हूँ
मैं जगत की रीत में हूँ
हृदय की भावनाओं के
मैं मचलते गीत में हूँ।।39।।

हैं प्रिय माना तुम्हारे
इनका अधर्म आधार है
जो है किया इनको मलिन 
इनका ही अहंकार है।।40।।

सत्य इनके द्वार सोचो
जब हाथ जोड़े खड़ा था
इनके कुटिल व्यवहार से
धर्म संकट में पड़ा था।।41।।

यही सत्य यही धर्म है
नारी की रक्षा कर्म है
द्यूत क्रीड़ा में घटा जो
मात्र दंड ही अब धर्म है।।42।।

सब मोह माया त्यागकर
तू कर्म यहाँ निष्काम कर
असत्य जब सम्मुख खड़ा
तू न सोच बस प्रहार कर।।43।।

अब आर कर या पार कर
तू आस का उद्धार कर
कर्तव्य पथ पर हो खड़े
मन भाव पर अधिकार कर।।44।।

है खड़ा रण में यहाँ तू
कुछ सोच मत हुंकार भर
धर्म संस्थापना के लिए
तू अधर्म पर प्रहार कर।।45।।

ये हैं अधर्मी मान ले
अब सत्य को पहचान ले
ग्लानि मन से त्याग कर के
तू लक्ष्य का संधान ले।।46।।

कटु सत्य को स्वीकार लो
अपराध मन से त्याग दो
है नियति का खेल सारा
अब ऋण समस्त उतार दो।।47।।

आज जो विचलित हुआ तो
धर्म का अपमान होगा
झूठ को प्रश्रय मिलेगा
सत्य केवल नाम होगा।।48।।

हे पार्थ इस व्यवहार को
क्या नहीं कायर कहेंगे
द्वार पर जो नव सदी है
सोचो क्या गल्प गढ़ेंगे।।49।।

कहते कहते माधव फिर
मौन सोच में डूब गए
विचलित हुआ मन पार्थ का
और पसीने छूट गए।।50।।

हाथ जोड़ कहा पार्थ ने
है माधव मन तृप्त हुआ
जो थी ग्लानि भरी मन में
उससे मन ये मुक्त हुआ।।51।।

लोभ मोह अरु माया से
मन जातक बन जाता है
बुद्धि विकल हो जाती है
मन चातक हो जाता है।।52।।

मिला ज्ञान अब मुझे यहाँ
मन का संशय दूर हुआ
अँधियारा जो घना यहाँ
मन से मेरे दूर हुआ।।53।।

शस्त्र उठाऊँगा मैं अब
ये विश्वास दिलाता हूँ
न्यायोचित जो मार्ग यहाँ
वही मार्ग अपनाता हूँ।।54।।

सौगंध मुझे माटी की
धर्म पुनः स्थापित होगा
झूठ यहाँ जितना चाहे
सच नहीं पराजित होगा।।55।।

फल की चिंता नहीं मुझे
निष्काम कर्म ही मेरा है
छोड़ दिया परिणाम सभी
सत्य धर्म अब मेरा है।।56।।

धर्म विमुख जो हुए यहाँ
उन्हें मार्ग दिखलाना है
सत्य अहिंसा और धर्म का
उनको पाठ पढ़ाना है।।57।।

धर गांडीव धनंजय ने
कहा नहीं विलंब करो
रथ लेकर चलो वहाँ पर
युद्ध यहाँ अविलंब करो।।58।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26अक्टूबर, 2021




लौट आओ तुम प्रिये।

लौट आओ तुम प्रिये।  

शब्द के अनुरोध पर नवगीत अब रचने लगे हैं
पंक्ति का आकार पाकर गीत मृदु सजने लगे हैं
गीत को आधार मिलता और प्रेम को आकार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

तुम गए जबसे यहाँ से जिंदगी ही खो गयी है
मौन हैं अब भाव सारे बंदगी भी खो गयी है
आस को आकार मिलता अरु शब्द को व्यवहार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

बिन चाँदनी तुम ही कहो इस रात का क्या मोल है
जब पलकों से ही गिर गए फिर अश्रु का क्या मोल है
भाव को संचार मिलता अरु आँसुओं को प्यार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

मौन जब लहरें हुईं तो क्या करे बोलो किनारा
टूटते तटबंध हों जब कौन देगा फिर सहारा
तुम बनो अधिकार मेरा अरु ले चलो उस पार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

सुन पलक में नीर भरकर क्या कह रही हैं सिसकियाँ
हैं घिरे बादल हृदय में अरु गिर रही हैं बिजलियाँ
क्या कहो अपराध मेरा बस बोल दो इक बार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2021

कैसे बदलेंगी दशायें।

कैसे बदलेंगी दशायें।   

मन में कितने घाव गहरे और कितनी हैं व्यथायें
दिल ने जो भी दर्द सहे हैं तुम कहो किससे बतायें।।

थे तुम्हारे हम कभी और तुम हमारे थे यहाँ
बात बस इतनी है यहाँ तुम कहो कैसे बतायें।।

है ये कर्म कैसा बोलो और है कैसा धरम ये
दर्द है आकाश तक जब बदली नहीं क्यूँ प्रथायें।।

सब दिशायें कह रही हैं दर्द की कितनी कहानी
जाने क्यूँ मचली नहीं हैं अब तक संवेदनाएं।।

क्या हुआ हासिल यहाँ पर क्या हुआ बदलाव बोलो
मौन तोड़ो आवाज दो के क्यूँ नहीं बदली प्रथायें।।

ऐसे तो मुश्किल "अजय" है शब्दों का फिर अर्थ पाना
जब तलक आगाज ना हो कैसे बदलेंगी दशायें।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अक्टूबर, 2021


जीवन में नूतन प्रयोग।

जीवन में नूतन प्रयोग।  

साथी सत्य की राहों में हैं कदम कदम कितने संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

जीवन मृत्यु के मध्य ये कैसा 
पग पग पर संवाद छिड़ा है
सत असत्य के खेमों में भी 
हार जीत का वाद छिड़ा है
वाद विवाद भरी जगती में 
पग पग पर अगणित अभियोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

कभी सजाकर थाल तिलक का 
करता जीवन का अभिनंदन
कभी विदाई के क्षण में ये 
लगता करता मौन नियंत्रण
मिलन विदाई के जीवन में 
पग पग पर बनते संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

वांछित फल की चाहत में ये 
जीवन प्रतिपल विकल रहा है
लिए स्वप्न पलकों में नूतन 
कदम कदम ये मचल रहा है
आशाओं अभिलाषाओं में 
नित खोजा करते सहयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

मिल जाएगा पुण्य यहाँ पर 
यदि मन से मन का गर वंदन
भावों को आकाश मिले अरु 
इच्छाओं को अभिनंदन
सबके मन में आस पले अरु 
नित्य बने मधुरिम संयोग
साथी लगता जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
     20अक्टूबर, 2021

केवल दिल का हाल न पूछो।

केवल दिल का हाल न पूछो

कैसे कैसे मंजर देखे इन आँखों ने साँझ सवेरे
हँसते रोते जीवन देखे इन गलियों में बहुतेरे
क्या खोया क्या मिला यहाँ पर पास कभी तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कैसे बीते दिवस हमारे कैसे बीती रातें सारी
पग पग कितने कष्ट सहे हैं संघर्ष अभी तक है जारी
संघर्ष भरे इस जीवन के छालों को तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

मन के सूने पनघट पर अब नहीं खनकती कोई पायल
नर्तन करते भाव अकेले बरसे ना सुधियों के बादल
मेरे मन को पुनः समझने सुधियों में ही आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

हर रोज सिमटते देखा है टुकड़ा टुकड़ा धूप यहाँ पर
हर रोज बरसते देखा है टुकड़ों में बादल को आकर
टुकड़ों वाली बारिश इस में कभी मचल कर तुम भी देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कभी यहाँ पर तुम भी आओ बैठो कुछ पल साथ हमारे
सुनो हमारे मन की पीड़ा समझो क्या हैं भाव हमारे
मन के सूने गलियारे में चार कदम तुम चलकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।


©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2021

गीत लिखे जो कदमताल से।

गीत लिखे जो कदमताल से।  

चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

लिए तूलिका हाथों में कोशिश करता हूँ बार बार
पंखुड़ी पंखुड़ी रंग भरा पर आया ना फिर भी उभार
लगता ढीली ना हो जाये पकड़ तूलिका पर हाथों की
कहीं धुंध में खो ना जाये धुंधला पड़ जाए आकार
रह ना जाये विम्ब अधूरे रचे कभी जो विषयकाल में
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

नित किरणों ने जीवन देकर साँसों की इक डोर सजायी
रूप निखारा पल पल छिन छिन आशा अरु संचार जगायी
रुका नहीं राहों में पल पल साथ चला है साथ उठा है
मन के सूनेपन में जिसने पूजा वाली थाल सजायी
कहीं अधूरी रह ना जाये मन की वीणा मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सुधियों की डोरी से जकड़े रहता मन का एकाकीपन
स्मृतियाँ मन के द्वार खड़ी हो मौन बढ़ाती हैं तड़पन
मृदुल भाव ले पाँव पखारे पलक सजाए स्वप्न सुनहरे
नित नूतन मृदु भाव सजाता रहता मन का सूना आँगन
मन के इस सूने आँगन को चलो सजायें मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सूरज का रथ चला क्षितिज को गीत चलो नूतन रच डालें
टूटे मन के तारों को फिर जोड़ें हम नव साज सजा लें
खाली अंजुलि लेकर बोलो कैसे होगा संध्या वंदन
मन के सूने अँधियारे में चलो चलें नव दीप जला लें
अँधियारा ये मिट जायेगा ज्ञान दीप के मृदुल ज्वाल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अक्टूबर, 2021

सुहानी वो मुलाकातें।

सुहानी वो मुलाकातें।  

मिले उस रोज जब हम तुम मिली जीवन को सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

हवाओं के मृदुल झोंके तुम्हारे केश लहराए
वो कुंतल के खनक से यूँ लगा नव गीत थे गाये
तुम्हारे माथ की सिलवट पे लिखी मृदु कहानी थी
हृदय के भाव वो सारे इन अधरों पर उतर आये।।

बड़ी मदहोशियों में थी तुमसे वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

सिमट आये था आँचल में गिरे जो पुष्प तारों से
खिला फिर मधुमास का जीवन उन रिमझिम फुहारों से
हुए सभी दूर एकाकी खिले नव पुष्प उपवन में
हुआ अनमोल ये जीवन तुम्हारे मृदु इशारों से।।

स्मृतियों में बसी अब भी तुम्हारी दी वो सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

नजारों ने बहारों संग लिखी नूतन कहानी फिर
अदाओं ने फिजाओं में रची नूतन कहानी फिर
वो घूँघट में सिमट कर जब भिंगोयी प्रीत की बारिश
सजायी गीतों से हमने हृदय की रात रानी फिर।।

बसी हैं आज तक अब भी पलकों में वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अक्टूबर, 2021

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।   

तुम कहो तो आज कह दूँ भावनाओं में भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

तुम कहो मैं भावनाओं को यहाँ कब तक समेटूँ
और जो दिल में छुपा है दर्द वो कब तक सहेजूँ
काल के निश्शेष क्षण में क्या रहा बाकी यहाँ पर
तुम कहो उस काल क्षण को अंक में कब तक सहेजूँ।।

हैं प्रहर छोटे यहाँ पर अरु शब्द हैं कितने बड़े
और पग पग देखता हूँ ये प्रश्न कितने हैं खड़े
तुम कहो वो प्रश्न कह दूँ मौन में मेरे भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

प्यार के अहसास को उस प्रतिपल हृदय में देखता 
और भरकर पीर कितने बस मौन खुद को खोजता
नैन की उठती तरंगें भावनाओं को पुकारें
शब्द की बेचैनियों को है पंक्तियों में खोजता।।

पंक्तियों में भाव जितने वो गीत में सारे जड़े
फिर भाव के आकाश में वो प्रश्न बनकर क्यूँ खड़े
तुम कहो तो आज कह दूँ प्रश्न मन में है भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

शेष न रह जाये सारे भाव इस व्याकुल हृदय में
और कुछ भी कह न पायें बीतते इस पल समय में
सोचता इस काल में अब रंग ये कैसा भरा है
डूब ना जाये कहीं वो भाव प्रश्नों के प्रलय में।।

काल फिर छल कर न जाये सब भाव रह जायें पड़े
मौन अधरों पर मचलते कुछ शब्द पीड़ा से जड़े
दे रहा हूँ आज मैं सब अंक से तेरे गिरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2021


सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।

सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।  

शब्दों में आकाश उतारा, अंजुलि भर कर पुष्प चढ़ाया
अर्ध्य चढ़ाया मंत्र उचारा, पग पग है आभार जताया
कर जोड़े हर बार खड़ा वो, बोलो कब उसकी सुध आई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

पलकों में ले स्वप्न सुनहरे, बस आश्वासन में जिया किया
घनी रात हो या उजियारा, बस अनुशासन में जिया किया
मिला दिलासा पग पग उसको, वादों का आशीष मिला है
निज पलकों में सपने लेकर, बस सबके मन की सुना किया। 

अपने भावों को पुचकारा, सपनों में उम्मीद जताई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


कितने जीवन बीत गए हैं, राह जोहते उजियारों की
रात रात भर जाग जाग कर, बातें करती मृदु तारों की
आशाओं अरु अभिलाषा को, पर मिला यहाँ अवकाश कहाँ
वीथी पर लिख डाले कितने, बीती बातें व्यवहारों की।

वीथी पर कुछ प्रश्न सिमटते, नजरें जिन पर जा ना पाईं
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


बोलो क्या अपराध किया है, दिनकर जो नाराज हुआ है
सूरज, चंदा, तारों ने क्यूँ, उनसे क्या अवकाश लिया है
चलो खिलायें नव पुष्प वहाँ, नव वितान का सूरज लायें
कुटिया के कोनों में झाँकें, खुशियों के नव दीप जलायें।

नव गीत लिखें उन विषयों पर, जिनकी अब तक याद न आई
अपनायें उस जीवन को हम, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अक्टूबर, 2021



शायद कुछ मिल ही जाए, चलो चलें उस ताल किनारे।

शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।  

बैठे बैठे मन में मेरे, इक भाव अचानक जाग उठा
सूने मन के गलियारे में, फिर से इक अनुराग उठा
कितनी सदियाँ बीत गयीं हैं, उन गलियों को छोड़े हमको
कितने जीवन बीत गए हैं, खुद से ही मुँह मोड़े हमको
दूर हुए पदचिन्ह सभी जो, पैरों से दबकर कभी बने
भरी दुपहरी या बरसातें, मिट्टी से हरदम रहे सने
पग पग पर खिलती थी दुनिया, कदम कदम पर स्वप्न बुहारे
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

मैदानों में बैठ वहाँ पर, हँसी ठिठोली करते सारे
जाने कितनी बातें करते, हँसते गाते मिलते सारे
कंचे, गिल्ली, डंडे हंसते, गली गली हर मोड़ मोड़ पर
कभी पतंगें उड़ती जातीं, आकाशों के छोर छोर पर
मंदिर की घण्टी से हरपल, भाव भक्ति के पलते रहते
अँधियारे को दूर हटाने, दीप हमेशा जलते रहते
मंदिर की मधुर घण्टियाँ, लगता अब भी राह निहारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

वो बरगद का पेड़ पुराना, बैठ जहाँ हँसते गाते थे
छावों में जिसकी लेट सभी, हम पंछी से बतियाते थे
जहाँ मुँडेरों पर मृदु किरणें, हौले से सहला जाती थीं
जहाँ मचलती पवन सुहानी, जीवन का राग सुनाती थी
जहाँ अभी भी खुशियों वाले, कुछ पुष्प हमें मिल जायेंगे
जहाँ अभी भी जीवन वाले, कुछ मरम हमें मिल जायेंगे
चलो चलें इक बार वहाँ फिर, हम स्मृतियों को पुनः दुलारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2021

तू पूजता किसको बता।

तू पूजता किसको बता।  

धूप चंदन हाथ लेकर तू खोजता किसको बता
मारीचिका मन प्राण ले तू सोचता किसको बता
कौन है इस पंथ में जो मोह से वंचित रहा हो
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

कौन है जो इस जगत में भावनाओं से न हारा
और जीवन के सफर में वर्जनाओं का ना मारा
मुक्त कर आकाश अपना जाना कहाँ तुझको पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

लिए असथाओं का कलश पंथ कितने हैं बुहारे
और चुनकर कंकरों को पंथ कितने हैं निखारे
जो था करम तुमने किया है क्या धरम तुझको पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

आसनों पर बैठकर के ना सोचना खुद को बड़ा
है कौन वो जिसका यहाँ ना वक्त से पाला पड़ा
वक्त के इस खेल में जब तू ढूँढता अपना पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2021

मिलन।

मिलन।   

मुदित मन प्रीत भरकर आई जब जब द्वार तिहारे
प्रेम की बाँछे खिली हैं भाव भर संध्या सकारे
साँस में सरगम सजी है अरु प्रीत हिय में है भरी
मुग्ध मन ये गा उठा पा कामनाओं के सहारे।।

जो नहीं मिलता सहारा गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

स्नेह का अनुप्रास पाकर अधरों ने नर्तन किया है
भाव का अहसास पाकर शब्द ने चुंबन किया है
सब गीत नूतन सज गये अरु रागिनी बजने लगी
मृद मधुर मधुमास पाकर प्रेम आलिंगन किया है।।

जो न मिलते स्वर हमारे गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

प्रीत का आकाश लेकर दो कदम हम भी चले तब
मौन पलकों ने इशारों में बात दिल की कहे जब
भाव कितने हैं खिले अरु प्रीत का आँगन खिला फिर
मुग्ध मन झूम गाया गीत अधरों पर सजे तब।।

जो न मिलते भाव को अर्थ गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अक्टूबर, 2021


वो तेरे खत।

वो तेरे खत।   

तू नहीं तो तेरी यादों से ही गुजर कर लूँगा
कतरा कतरा ही सही मैं जिंदगी बसर कर लूँगा
कैसे कह दूँ के बेख़याली में जी रहा हूँ मैं
साँसों में बसे तेरे खत से मैं खबर कर लूँगा।।

वो जो तेरे खत हैं उन्हें सीने से लगा रखा है
उनकी खुशबू को अब भी साँसों में बसा रखा हूँ
यूँ तो इल्जाम सहे हमने जाने कितने लेकिन
तेरी यादों को अब भी सीने में सजा रखा है।।

कैसे कहोगी अब मुझसे कोई वास्ता ही नहीं
कैसे कहोगी मेरी जानिब अब रास्ता ही नहीं
कैसे झुठलाओगी चाहतें जो दबी हैं दिल में
दिल पे रख के हाथ जरा कह दो कि राब्ता ही नहीं।।

है ये मालूम मुझे के तुझको जरूरत है मेरी
दिल के किसी कोने में बसी अब भी चाहत मेरी
ये नजरें उठा के जरा इक बार कहो तो मुझसे
चला जाऊँगा जो कह दो नहीं है आदत मेरी।।

है मुझको मालूम के भरोसा अब भी बाकी है
चाहत की खुशबू और वो नशा अब भी बाकी है
तेरे खत से आ रही खुशबू बता रही है यही
कि तिरे दिल में मिरे दिल का पता अब भी बाकी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       09अक्टूबर, 2021










गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।

गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।  

तुम जो चाहो अगर फिर बुलाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही
कि राह तेरी क्षितिज तक देखूँगा मैं
जब भी चाहो मुझे आजमाना वहीं।।

मैं चलूँगा तुम्हारे कदम दर कदम
दूर करूँगा मैं सब तुम्हारे भरम
बात दिल में जो तेरे सुनाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

रात की चाँदनी का मैं इक गीत हूँ
तुम ये मानो मुझे मैं वही मीत हूँ
जिस पे तुमने हमेशा भरोसा किया
जो भरोसे से उपजा वही प्रीत हूँ।।

प्रीत की राह की एक नई रीत हूँ
दिल को भाये यहाँ जो वही जीत हूँ
जीत की राहें तुम भूल जाना नहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

शब्दों का हार हूँ एक व्यवहार हूँ
प्रीत के गीत का मैं भी श्रृंगार हूँ
जिस विधाता ने तुमको गढ़ा प्यार से
उसी के हाथ का मैं भी आकार हूँ।।

मौसमों का मधुर मैं भी संगीत हूँ
मन भींगोये यहाँ बूँद की रीत हूँ
कितने सपने बुने भूल जाना नहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

छोटा जीवन बड़ी है कहानी यहाँ
हँस के बीते वही जिंदगानी यहाँ
कुछ कहो प्यार से और सुनो प्यार से
पास सबके हैं कितनी कहानी यहाँ।।

आसमानों से बादल हट जाएंगे
धुंध छाये हैं जो भी छँट जाएंगे
हँस के फिर तुम जरा बुलाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अक्टूबर, 2021

मैंने इक गीत लिखा।

मैंने इक गीत लिखा।   

चाँद की आगोश में प्रीत की हल्की छुअन
कल्पनाओं के गगन में भर हृदय का सुमन
भाव को विस्तार दे शब्द में संचार भर
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

भोर के आकाश ने जिंदगी को साज दी
पंछियों की गूंज ने मौन को आवाज दी
नींद से जागी कली जब शाख मुस्कान लगी
रात का घूँघट हटा रश्मियाँ गाने लगीं
गीत को विस्तार दे भाव को श्रृंगार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

चूड़ियों की खनक में राग नव रचने लगे
पायलों की छमक से पंथ सब सजने लगे
बिंदियों के तेज से रोशनी आने लगी
शब्द अधरों पर सजे गीतिका गाने लगी
रूप को संस्कार दे भक्ति को आकार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

फूल की पाँखुरी से अंजुली भरने लगी
मंत्र का संचार पा जिंदगी खिलने लगी
कुनकुनी धूप में फिर वादियाँ गाने लगीं
राहों के संग संग जिंदगी चलने लगी
जिंदगी को प्यार दे शब्द को व्यवहार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अक्टूबर, 2021

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...