फिर से चलो डूब जाते हैं हम

  फिर से चलो डूब जाते हैं                                              

आओ फिर से चलो डूब जाते हैं हम
फिर कहानी वही दोहराते हैं हम।

धार अमृत की देखो पुनः आ रही
प्यार की चांदनी भी पुनः छा रही
इस अमृत सुधा को अधरों पे धरो
गीत अपने मिलन की चांदनी गा रही।।

चाह मेरी तुम्हीं आस मेरी तुम्हीं
जो मैंने बुनी वो कहानी तुम्हीं
तुम ही मेरी निशा, प्रभात भी हो तुम्हीं
सुरभित उपस्थिति का उल्लास तुम्हीं।।

इस रात के बाद जो भी होगी सुबह
वो स्नेहिल, सुनहरा प्रभात होगा
स्वर्ग सा उल्लास भर दें यहां
जो होगा समर्पण का वरदान होगा।।

ये अनुरोध है, है ये आराधना
उपासना है ये, नहीं है वासना
इसकी आगोश में डूब जाते हैं हम
कहानी अमिट लिख जाते हैं हम।।

आओ फिर से चलो डूब जाते हैं हम
फिर कहानी वही दोहराते हैं हम।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

उसी मोड़ पर

  एक गीत- उसी मोड़ पर                                               

कल मुझे फिर मिली वो उसी मोड़ पर
मुड़ गयी थी जहां वो मुझे छोड़कर।

देखकर सामने यूँ वो शर्मा गयी
याद बातें पुरानी वो फिर आ गईं।
क्या मैं कहता उसे क्या हुआ था हमें
बात दिल की जो थी वो दबी रह गयी।।

कल मुझे फिर मिली वो उसी मोड़ पर
मुड़ गयी थी जहां वो मुझे छोड़कर।।

उसकी आँखों का लहजा शिकायत भरा
मेरी आँखों का लहजा दिखा ही नही।
क्या मैं कहता उसे क्या हुआ था हमें
जब मुलाकात को उसने समझा नहीं।।

कल मुझे फिर मिली वो उसी मोड़ पर
मुड़ गयी थी जहाँ वो मुझे छोड़कर।।

अब मैं कैसे बताऊँ जुदा क्यूँ हुए
मैंने चाहा उन्हें, वो न मेरे हुए
इक कशिश सी कहीं पर दबी रह गयी
न मैं कह सका, न वो कह सकी।।

कल मुझे फिर मिली वो उसी मोड़ पर
मुड़ गयी थी जहाँ वो मुझे छोड़कर।।

©️अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

एक गीत-वादा करो

                    एक गीत-वादा करो।                                       

तुम्हे देख दिल का मचलना है क्या
पलकों का शर्मा के झँपना है क्या।
गुम सुम सी तुम भी हो बैठी मगर
कँपकँपाते अधरों का खुलना है क्या।

अब तक समझ ही न पाया इसे
भावों का पल-पल बदलना है क्या।

सत्य हो  या हो कोई कल्पना
या मंगल अवसर की हो अल्पना
न अब चुप रहो, कुछ तो आवाज़ दो
मिलने की मुझसे करो संकल्पना।

जो बिछड़े अभी फिर मिलेंगे कहां
तुम रहोगी कहीं, मैं रहूँगा कहां
जो इक प्राण हैं हम दोनों अगर
तो बिछड़ करके दोनों रहेंगे कहां।

न अब चुप रहो, मुझको आवाज़ दो
शीश काँधे पे रख घन का अहसास दो
तृप्त हो जाएगी ये प्यासी धरा
प्रेम भाव की ऐसी घनसार दो।

गर जो कहीं तुम कोई स्वप्न हो
तो स्वप्न की किरण मुझको दो
मेरी सृष्टि भी है समर्पित तुम्हें
मेरी पलकों पे सजने का वादा करो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

प्यार का मौसम

प्यार का मौसम बार बार आता नही                                  

प्यार का मौसम बार बार आता नही
आंखों में सपना बार बार छाता नही
न ठुकराओ स्नेह निमन्त्रण
ये आलिंगन, ये आमंत्रण
ये महज आकर्षण नही
ये पुष्प है जो बार बार खिलता नही
प्यार का मौसम बार बार मिलता नही।।

तुम लगती हो किरण प्रभात की
मासूम सी छुवन कपास की
तुम पावस का प्रेम राग हो
तुम स्नेह, अनुरक्ति, अनुराग हो।
अनुरक्ति का ये नभ बार बार छाता नही
प्यार का मौसम बार बार आता नही।।

ये पवित्र पुंज है, पूण्य धाम है
मोहन की मुरली, सीता का राम है
ये अमृत स्रोत है, प्राण वायु है।
असफल यत्नों से अधरों का भाव छुपता नही
प्यार का ये मौसम बार बार मिलता नही।।

पूर्ण सत्य ये, पूर्ण स्वप्न ये
ये ही जीवन की परिभाषा
क्षण मिलन का भाव हवन का
बार बार आता नही।
प्यार का मौसम बार बार आता नही।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

नया उजाला लाना है

                   नया उजाला लाना है।                                

जीवनपथ पर चलते चलते
जग ने कुछ अंधियारे देखे,
उन अंधियारों को दूर भगाने
 इक अलख नई जगाना है।
नवयुग के निर्माण के लिए
 नया उजाला लाना है।।

जीवन की पथरीली राहों पर
सँभल कर कदम बढ़ाना है,
राह में मिले जो शूल कहीं तो
चुनकर उन्हें हटाना है।
नवयुग के निर्माण के लिए
इक नया उजाला लाना है।।

सांसों की निर्मल स्याही से
नवजीवन ग्रन्थ रच जाना है
अंधियारे मावस के पल को
प्रकाशवान कर जाना है।
नवयुग निर्माण के लिए
इक नया उजाला लाना है।।

महलों से कह दो झोंपड़ियों
में भी इक दीप जलाना है,
अंधकार सब दूर हो मन का
सबको अधिकार दिलाना है।
नवयुग के निर्माण के लिए
इक नया उजाला लाना है।।

चित्त शांत हो, मन निर्मल हो
निज लोभ, मोह में बंधे न कोई,
कण कण से हर ले अज्ञ जो
ऐसा अभियान चलाना है।
नवयुग के निर्माण की खातिर 
इक नया उजाला लाना है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

गुजरते रहे

गुजरते रहे                                                                  

वक्त रफ्तार से अपनी चलता रहा
राह दर राह मैं भी गुजरता रहा
वक्त की चोट से जो भी घाव मिले
उन घावों से हम तो गुजरते रहे।

प्रतिक्षण वक्त की कसौटी पे हम
जीवन की परीक्षा से गुजरते रहे
नीति व नैतिकता की जब बात की
जाने क्यूँ लोगों को हम अखरते रहे।

मानकर शूल मुझसे जो नज़र फेर ली
पुष्प बन राह में उनकी बिखरते रहे
जिनके हर भाव पर सर झुकाया कभी
निष्करुण बन के वो ही कुचलते रहे।

यूँ तो दुश्मन कभी भी नहीं था कोई
अपनों के भावों से हम तो डरते रहे
पास थी सदा मेरे मन्ज़िल मगर
पांव रखने से भी हम तो डरते रहे।

उनके वादों व वचनों से क्या वास्ता
जो कह कह के उनसे मुकरते रहे
अब शिकायत नहीं किसी से रही
अब तो खुद ही खुद से उलझते रहे।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

विश्वास गंवाए

   विश्वास गंवाए                                                                

चंचल हृदय तुम्हारा था
ये सारा खेल तुम्हारा था
तुमने तो परिहास किया
पर जीवन मरण हमारा था।

हम तो सदा परे रहते थे
जीवन में तुम मेरे आये
शुष्क परित्यक्त मरुभूमि में
स्नेहिल, आत्मिक स्वप्न जगाये।

अमूल्य निधि था अपना जीवन
जो किया समर्पित स्नेह भाव से
पर भ्रम से वशीभूत होकर के
तुम ही इसका मोल लगाए।

प्रतिक्षण श्रमकण बन अश्रु गिरे हैं
मेरी जिस निज नीरवता पर
भान नही है तुझे बावली
तूने जो विश्वास गंवाए।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

चले चलो

          चले चलो                                                           

चले चलो, चले चलो
कर्मपथ पर चले चलो
भोर की किरण सदृश
निशा को तुम हरे चलो।

चले चलो, चले चलो।।

कब सरल रहा ये जीवन
कांटों भरा भले हो उपवन
कर्मबल के तप से तुम
जीवन सहज करे चलो।

चले चलो, चले चलो।।

मनुष्य हो तो कैसा भ्रम
न फँसो मदांध वित्त चित्त में
मनुष्यता की राह में
वही मनुष्य जो मनुष्य के लिए मरे।

चले चलो, चले चलो।।

अतर्क राह हो भले
सतर्क मगर हों पथिक
समर्थ भाव से सभी
अभीष्ट तारते चलो।

चले चलो, चले चलो।।

अनंत देव हैं यहां
अखण्ड आत्मभाव हैं
सजीव उदार कीर्ति से
सभी को पूजते चलो।

चले चलो, चले चलो।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

गीत सुनाने आया हूँ

     गीत सुनाने आया हूँ                                                                             

मैं लोकतंत्र का प्रहरी हूँ 
मैं राष्ट्रवाद की स्वर लहरी हूँ 
मैं खुद को गाने आया हूँ 
एक गीत सुनाने आया हूँ | 

गीत जो निकला गंगा की जल से 
गीत जो निकला विंध्याचल से 
गीत जो निकला हिम पर्वत से 
गीत जो निकला सागर तल से | 
मैं उन शब्दों के सीपों को 
आज पिरोने आया हूँ 
मैं भारत हूँ ,तुम सबको 
एक गीत सुनाने आया हूँ || 

अगणित काल से खड़ा हूँ 
लाखों हैं झंझावत झेले 
कभी हूणों, कभी शुंगों 
कभी चंगेज़ों के हमले झेले 
हमने मुग़लों का शासन देखा 
अंग्रेज़ों का शोषण देखा 
इन सारे कालखंड में मैंने 
अगणित,अमित घाव हैं झेले (बंटवारे तक)
आज मैं तुमको उन घावों की 
टीस बताने आया हूँ | 
मैं भारत हूँ तुम सबको 
एक गीत सुनाने आया हूँ || 

( अब एक एक करके भारत की टीस पर ध्यान दीजिये)

कल मैंने भारत के घर में 
एक नए भारत को देखा 
कहीं पे खेल-तमाशे,ढोल-नगाड़े 
और कहीं मातम है देखा 
कहीं अन्न की बर्बादी देखी 
कहीं कुपोषित आबादी देखी 
कहीं-कहीं पर दंगे देखे 
कहीं जाति धर्म के झगडे देखे 
नासूर बन रहे इन घावों का 
मैं दर्द बताने आया हूँ | 
मैं भारत हूँ तुम सबको 
एक दर्द सुनाने आया हूँ | 

मैं गाँवों की माटी हूँ 
मैं झोंपड़ियों में बसने वाली 
माताओं की छाती हूँ 
सीमाओं पे तैनात जवानों के घर में 
जलने वाली दीपों की मैं बाती हूँ ,
मैं श्रमिक हूँ,कर्मकार हूँ 
मैं अपना धर्म निभाता हूँ 
अपने आन बान की खातिर 
बिन सोचे मिट जाता हूँ ,
छलनी होता है दिल मेरा 
जब कोई इनका तिरस्कार करे 
पंच सितारा संस्कृति से जब 
कोई इनका उपहास करे,
सत्ता का कोई लोभ नहीं इन्हे 
ये खुद्दारी को जीते हैं | 
ऐसे खुद्दारों की खुद्दारी की 
मै आवाज़ सुनाने आया हूँ| 
मैं भारत हों तुम सबको 
इक गीत सुनाने आया हूँ || 

सत्ता के दरबारों में 
जाने कैसे लोग मिले 
कहीं पे ज़िद ,कहीं पे अहंकार 
कहीं अपराधों के गठजोड़ मिले 
कुर्सी की चाहत में पल पल 
व्याकुल,विह्वल लोग मिले | 
बदल बदल कर दल अपना 
सब नैतिकता को भूल गए 
संविधान की जो शपथ कभी ली 
उस शपथ को भूल गए | 
धन-बल व् सत्ता को जो 
अपना अधिकार मान कर बैठे हैं
 जनतंत्र की मासूमियत पर 
विश्वासघात कर बैठे  हैं,
ऐसे सब लोगों को मैं 
एक सीख बताने आया हूँ | 
मैं भारत हूँ तुम सबको 
इक गीत सुनाने आया हूँ || 

चाह नहीं सत्ता की मुझको 
चाह नहीं है शासन की 
चाह नहीं है संचित धन की 
चाह नहीं है सम्मानों की | 
मैं संस्कारों की पूँजी हूँ 
मैं धर्म-संस्कृति का अक्षयवट हूँ 
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम की धरती हूँ 
मैं मुरलीधर की मुरली हूँ 
मैं गीता की धरती हूँ 
मैं तुलसी की रामायण हूँ 
मैं वेद, पुराण, उपनिषद 
मैं सर्वज्ञान का अधिष्ठाता हूँ| 
हर्षित पल हो या विशद के क्षण 
मैं जी भर कर जीता हूँ 
मानव कल्याण की खातिर 
नीलकंठ बन विष पीता हूँ | 

छला गया बार बार भले ही 
पर खुद को मैंने संभाला है 
अपने नंगे पदचिन्हों से 
मैंने राह बनायी है | 
अपने मेहनतकश हाथों से 
अपना भाग्य संवारा है ,
आज उन्ही पदचापों की 
आवाज़ सुनाने आया हूँ || 
अपनी इन आवाज़ों को 
हुंकार बनाने आया हूँ | 
राष्ट्र निर्माण की हवन यज्ञ 
की बेदी मैं आज बनाने आया हूँ | 
मैं भारत हूँ तुम सबका 
आवाहन करने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबका 
आवाहन करने आया हूँ || 


अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

क्या विचार है ?

     क्या विचार है ?                                     


और कहो फिर क्या विचार है 
गहन हो रहा क्यूँ अंधकार है ?
निज लाभ से गुंठित होकर 
बिखर रहा क्यूँ संस्कार है ?
और कहो फिर क्या विचार है 
गहन हो रहा क्यूँ अंधकार है ?

अधीर हो रहा है यौवन 
गढ़ता नित नया मोहपाश है ,
त्वरित निष्कर्षों की आशा में 
दिशाहीन हो रहा नैतिक प्रयास है | 
और कहो फिर क्या विचार है 
गहन हो रहा क्यूँ अंधकार है ?

जाने किधर जा रहा है जीवन 
किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे सब अनुबंध 
संबंधों की देहरी पर 
आ रहा कैसा ठहराव है | 
और कहो फिर क्या विचार है 
गहन हो रहा क्यूँ अंधकार है ?

टूट रही वर्जनाएं सारी 
खंड खंड हो रही सीमायें सारी  
मर्यादा के आसमान में 
नहीं दिख रहा अब कोई दिनकर 
अभिव्यक्ति के नाम पे देखो 
उच्छृंखल हो रहा आहार -व्यवहार है | 
और कहो फिर क्या विचार है 
गहन हो रहा क्यूँ अंधकार है ?

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

संपन्न करो

              सम्पन्न करो।                            


तुम सतत विज्ञान रूप
तुम अविच्छिन्न ज्ञान धूप
तुम प्रभात की फेरी हो
तुम वासस्थान की देहरी हो।

तुमसे है जीवन पाया
तुमसे ही निज पहचान बनी
प्रतिपल गुंठित चक्रव्यूह की
तुम ही तारणहार बनी।

जीवन जो प्रातःकाल है
तो तुम ही सूर्योदय बने
मृगतृष्णा के सब रेशमी दुशाले
तुम्हारे ज्ञान से ही है छंटे।

इस जीवन का यथार्थ तुम्ही हो
तुम ही हो जीवन की अंगड़ाई
गहराते इस तमस का
पथप्रदर्शक प्रकाश तुम्ही हो।

मानवता की यज्ञ वेदी यह
श्रद्धा, विश्वास, आस्था की लौ
वो छाया, वो माया, वो काया
आकर सब पूर्णाहुति बनो।

जीवन रूपी इस यज्ञ को
अपने सुविचारित,सुमधुर,
सुनियोजित, स्वच्छ प्रयास से
पुनः इसे तुम सम्पन्न करो।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

एक सवाल

  एक सवाल                             

 ज़िंदगी के प्रश्नपत्र का एक ही सवाल है 
 आज इस जहां में क्यूँ हर शख्स बेहाल है ,

हर तरफ भागमभाग और तेज रफ़्तार है 
कब कहाँ क्या मिले बस यही ख्याल है | 

हर ख़ुशी मिल सके बस यही प्रयास है 
आज नहीं तो कल मिले मन में ये विश्वास है | 

आज के हसीन पल मन में यूँ बसा लें हम 
जो होना था हो गया, आज सब भुला दें ग़म | 

आज है जो ये शमा कल ये फिर हो न हो 
काल का है क्या पता कब हमें पुकार ले | 
इस हसीन पल में चलो ज़िंदगी गुज़र दें || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

परदेसी

  परदेसी                                  


बोझिल साँसें , भाव शून्य चेहरा 
उदास कदमों से वो चला जा रहा था 
उसे देख मैंने पूछा -
क्या बात है, क्यूँ उदास हो तुम 
इस कदर क्यूँ परेशान हो तुम ?
उसने बोला - क्या यही है वो ज़मीन 
जिसकी आज़ादी के लड़े थे हम 
ये बंगाली,वो पंजाबी 
हम मद्रासी, तुम बिहारी 
इन वर्गों में नहीं बंटे थे हम 
फिर  ये भेद कैसे आ गया 
कल तक जो साथ चले 
आज न जाने कहाँ खो गए 
क्षेत्रवाद की ऐसी आंधी चली 
अपने ही देश में हम परदेसी हो गए || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

जीवन को गुलज़ार बनाएं

जीवन को गुलजार बनाएं                                   


आओ रंग भरे ज़िंदगी में 
जीवन को गुलजार बनाएं | 
ग़म के अंधियारे को दूर कर 
खुशियों के दीप जलाएं | | 

हर आँखों से आंसू पोंछें 
हर चेहरे पर मुस्कान जगाएं | 
आओ रंग भरे ज़िंदगी में 
जीवन को गुलजार बनाएं || 

वो अपना है ये बेगाना 
छोड़ के पीछे ये अफसाना 
प्यार के  बंधन में बंधकर 
एक नयी पहचान बनाएं || 
आओ रंग भरे ज़िंदगी में 
जीवन को गुलजार बनाएं || 

धर्म जाति के झगडे में पड़कर 
 व्यर्थ न अपना वक्त गंवाएं ,
रंग, नस्ल, लिंग भेद दूर कर 
प्यार की नई ज्योति जलाएं | 
आओ रंग भरे ज़िंदगी में ,
जीवन को गुलजार बनाएं || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद


बिकता है

बिकता है                                  


नीचे धरती, ऊपर खुला आसमान 
दोनों के बीच खड़ा है इंसान | 
कहीं कोई सीधा, कहीं कोई सच्चा 
कोई है शरीफ तो कोई बे-ईमान| 
पर दुनिया के बाजार में 
हर किसी को खुद पे है अभिमान | 
पर यही तो दुनिया है साहब 
जित जैसी नज़र डालो वैसा ही दिखता है | 
इस बाजार में इंसान ही नहीं 
अब तो खुदा भी बिकता है || 

बड़ी ही विडंबना है यहां 
कहने को तो हर सामान टिकाऊ है ,
पर जाने क्यूँ -
इक ईमान ही यहां नहीं टिकता है 
मैंने हिन्दू भी देखे, मुस्लिम भी देखे 
सिख भी देखे,ईसाई भी देखा,
पर जाने क्यूँ आजतक हिंदुस्तान में 
मुझे हिंदुस्तानी नहीं दीखता है || 

अब तो पैसों से ही 
नाम और शोहरत मिलती है,
जिसकी जैसी हैसियत 
उसमें वैसा ही रब दिखता है || 

रिश्तों की भी बोली लगती है यहां,
अब तो हर घर का अभिमान बिकता है ,
बहु अपनी सी लगेगी या परायी 
ये फैसला दहेज़ के सामान पर टिकता है || 

अब तो नक्कारों की धुन पे लगती है वोटों की बोलियां,
अब इंसान- इंसान कम सामान दिखता है,
अजीब चलन का शिकार बन रहे हैं सारे 
अब तो नैतिकता में भी ठहराव दिखता है || 

ऐसा खुला बाजार बन चुकी है ये दुनिया ,
दीन ईमान की बातें क्या करना ,
अब तो हर मजहब 
और उसका भगवान् बिकता है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

है नाथ रक्षा कीजिये

हे नाथ रक्षा कीजिये                                        


करुणा निधान भगवान तुम  हो 
हे नाथ रक्षा कीजिये | 
हम दीन हीन, दाता  तुम्ही हो 
हे नाथ रक्षा कीजिये || 

हम मोह माया से ग्रसित हैं 
तुम ही तारनहार हो ,
हम बंधे निज स्वार्थ पाश में 
तुम ही मुक्ति का मार्ग हो ,
लेकर अपनी शरण में 
हे नाथ मुक्ति दीजिये || 

संसार के इस सिंधु की 
तरंगें घनघोर हैं,
मैं हूँ मूरख अज्ञानी 
न दिखता मुझे कोई छोर है,
बनकर के मेरे पथप्रदर्शक 
अर्जुन सदृश ज्ञान दीजिये | 
करुणा निधान भगवान् तुम हो 
मुझे भी मुक्ति का ज्ञान दीजिये || 

मानसिक विप्लव हर रहे हैं 
क्रूर कुविचारित वार से ,
असह्य पीड़ा हो रही है 
प्रतिपल कुटिल आघात से | 
हे नाथ बनकर सारथी मेरे 
झंझावातों से रक्षा कीजिये || 
करुणा निधान भगवान तुम  हो 
हे नाथ रक्षा कीजिये || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद


क्या अर्पण कर दूं

क्या अर्पण कर दूँ                 

है पास मेरे क्या जो अर्पण कर दूँ
दिल को भावों का दर्पण कर दूँ ,
प्रतिबिंबित हो जिसमें जग सारा   
पुरुष पुरातन मानस सारा ,
नाच रहा जिसमें हो अंबर 
ऐसा भावों का दर्पण कर दूँ | 

है पास मेरे क्या ..............||    

तुम धनिकों के लोकतंत्र हो 
मैं वंचित का मूक समर्थन ,
एक दृष्टि बीती पर डालो 
अपने सब वादों को खंगालो|| 

प्रजातंत्र की चौखट पर 
सौगंधों की माला फेरी ,
अब इतना  उपकार करो फिर 
उन सौगंधों को पूरा कर दो || 

है पास मेरे क्या.......|| 

पल पल विकल हो रहा जन गण मन 
वचन भंग व्यवहारों से,
बिखर रहा है जनादेश अब 
वारों से प्रतिकारों से ,
उन वारों को चिन्हित कर के 
उनको आज कुपोषित कर दो || 

है पास मेरे  क्या    ...... ... || 

लोकतंत्र बलहीन हुआ है 
कुछ बचकाने अभियानों से ,
शुचिता भी विक्षिप्त हुई है 
कुछ मनमाने अरमानों से,
ऐसी समस्त क्रूर व्यवस्था का 
सब मिलकर के तर्पण कर दो || 

है जन गण की यही भावना 
कुछ नूतन परिवर्तन कर दो,
सदियों से पड़े रिक्त ह्रदय को 
अविरल ऊर्जा से तुम भर दो | 
अविरल ऊर्जा से तुम भर दो || 

है पास मेरे क्या जो अर्पण कर दूं
दिल को भावों का दर्पण कर दूं।।

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...