बिकता है

बिकता है                                  


नीचे धरती, ऊपर खुला आसमान 
दोनों के बीच खड़ा है इंसान | 
कहीं कोई सीधा, कहीं कोई सच्चा 
कोई है शरीफ तो कोई बे-ईमान| 
पर दुनिया के बाजार में 
हर किसी को खुद पे है अभिमान | 
पर यही तो दुनिया है साहब 
जित जैसी नज़र डालो वैसा ही दिखता है | 
इस बाजार में इंसान ही नहीं 
अब तो खुदा भी बिकता है || 

बड़ी ही विडंबना है यहां 
कहने को तो हर सामान टिकाऊ है ,
पर जाने क्यूँ -
इक ईमान ही यहां नहीं टिकता है 
मैंने हिन्दू भी देखे, मुस्लिम भी देखे 
सिख भी देखे,ईसाई भी देखा,
पर जाने क्यूँ आजतक हिंदुस्तान में 
मुझे हिंदुस्तानी नहीं दीखता है || 

अब तो पैसों से ही 
नाम और शोहरत मिलती है,
जिसकी जैसी हैसियत 
उसमें वैसा ही रब दिखता है || 

रिश्तों की भी बोली लगती है यहां,
अब तो हर घर का अभिमान बिकता है ,
बहु अपनी सी लगेगी या परायी 
ये फैसला दहेज़ के सामान पर टिकता है || 

अब तो नक्कारों की धुन पे लगती है वोटों की बोलियां,
अब इंसान- इंसान कम सामान दिखता है,
अजीब चलन का शिकार बन रहे हैं सारे 
अब तो नैतिकता में भी ठहराव दिखता है || 

ऐसा खुला बाजार बन चुकी है ये दुनिया ,
दीन ईमान की बातें क्या करना ,
अब तो हर मजहब 
और उसका भगवान् बिकता है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

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