गुजरते रहे
वक्त रफ्तार से अपनी चलता रहा
राह दर राह मैं भी गुजरता रहा
वक्त की चोट से जो भी घाव मिले
उन घावों से हम तो गुजरते रहे।
प्रतिक्षण वक्त की कसौटी पे हम
जीवन की परीक्षा से गुजरते रहे
नीति व नैतिकता की जब बात की
जाने क्यूँ लोगों को हम अखरते रहे।
मानकर शूल मुझसे जो नज़र फेर ली
पुष्प बन राह में उनकी बिखरते रहे
जिनके हर भाव पर सर झुकाया कभी
निष्करुण बन के वो ही कुचलते रहे।
यूँ तो दुश्मन कभी भी नहीं था कोई
अपनों के भावों से हम तो डरते रहे
पास थी सदा मेरे मन्ज़िल मगर
पांव रखने से भी हम तो डरते रहे।
उनके वादों व वचनों से क्या वास्ता
जो कह कह के उनसे मुकरते रहे
अब शिकायत नहीं किसी से रही
अब तो खुद ही खुद से उलझते रहे।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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