गीत सुनाने आया हूँ
मैं लोकतंत्र का प्रहरी हूँ
मैं राष्ट्रवाद की स्वर लहरी हूँ
मैं खुद को गाने आया हूँ
एक गीत सुनाने आया हूँ |
गीत जो निकला गंगा की जल से
गीत जो निकला विंध्याचल से
गीत जो निकला हिम पर्वत से
गीत जो निकला सागर तल से |
मैं उन शब्दों के सीपों को
आज पिरोने आया हूँ
मैं भारत हूँ ,तुम सबको
एक गीत सुनाने आया हूँ ||
अगणित काल से खड़ा हूँ
लाखों हैं झंझावत झेले
कभी हूणों, कभी शुंगों
कभी चंगेज़ों के हमले झेले
हमने मुग़लों का शासन देखा
अंग्रेज़ों का शोषण देखा
इन सारे कालखंड में मैंने
अगणित,अमित घाव हैं झेले (बंटवारे तक)
आज मैं तुमको उन घावों की
टीस बताने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबको
एक गीत सुनाने आया हूँ ||
( अब एक एक करके भारत की टीस पर ध्यान दीजिये)
कल मैंने भारत के घर में
एक नए भारत को देखा
कहीं पे खेल-तमाशे,ढोल-नगाड़े
और कहीं मातम है देखा
कहीं अन्न की बर्बादी देखी
कहीं कुपोषित आबादी देखी
कहीं-कहीं पर दंगे देखे
कहीं जाति धर्म के झगडे देखे
नासूर बन रहे इन घावों का
मैं दर्द बताने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबको
एक दर्द सुनाने आया हूँ |
मैं गाँवों की माटी हूँ
मैं झोंपड़ियों में बसने वाली
माताओं की छाती हूँ
सीमाओं पे तैनात जवानों के घर में
जलने वाली दीपों की मैं बाती हूँ ,
मैं श्रमिक हूँ,कर्मकार हूँ
मैं अपना धर्म निभाता हूँ
अपने आन बान की खातिर
बिन सोचे मिट जाता हूँ ,
छलनी होता है दिल मेरा
जब कोई इनका तिरस्कार करे
पंच सितारा संस्कृति से जब
कोई इनका उपहास करे,
सत्ता का कोई लोभ नहीं इन्हे
ये खुद्दारी को जीते हैं |
ऐसे खुद्दारों की खुद्दारी की
मै आवाज़ सुनाने आया हूँ|
मैं भारत हों तुम सबको
इक गीत सुनाने आया हूँ ||
सत्ता के दरबारों में
जाने कैसे लोग मिले
कहीं पे ज़िद ,कहीं पे अहंकार
कहीं अपराधों के गठजोड़ मिले
कुर्सी की चाहत में पल पल
व्याकुल,विह्वल लोग मिले |
बदल बदल कर दल अपना
सब नैतिकता को भूल गए
संविधान की जो शपथ कभी ली
उस शपथ को भूल गए |
धन-बल व् सत्ता को जो
अपना अधिकार मान कर बैठे हैं
जनतंत्र की मासूमियत पर
विश्वासघात कर बैठे हैं,
ऐसे सब लोगों को मैं
एक सीख बताने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबको
इक गीत सुनाने आया हूँ ||
चाह नहीं सत्ता की मुझको
चाह नहीं है शासन की
चाह नहीं है संचित धन की
चाह नहीं है सम्मानों की |
मैं संस्कारों की पूँजी हूँ
मैं धर्म-संस्कृति का अक्षयवट हूँ
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम की धरती हूँ
मैं मुरलीधर की मुरली हूँ
मैं गीता की धरती हूँ
मैं तुलसी की रामायण हूँ
मैं वेद, पुराण, उपनिषद
मैं सर्वज्ञान का अधिष्ठाता हूँ|
हर्षित पल हो या विशद के क्षण
मैं जी भर कर जीता हूँ
मानव कल्याण की खातिर
नीलकंठ बन विष पीता हूँ |
छला गया बार बार भले ही
पर खुद को मैंने संभाला है
अपने नंगे पदचिन्हों से
मैंने राह बनायी है |
अपने मेहनतकश हाथों से
अपना भाग्य संवारा है ,
आज उन्ही पदचापों की
आवाज़ सुनाने आया हूँ ||
अपनी इन आवाज़ों को
हुंकार बनाने आया हूँ |
राष्ट्र निर्माण की हवन यज्ञ
की बेदी मैं आज बनाने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबका
आवाहन करने आया हूँ |
मैं भारत हूँ तुम सबका
आवाहन करने आया हूँ ||
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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