बाज़ार

        बाजार               


दुनिया इक बाजार है 
हर शख्स खरीदार है।

कहीं बिक रही इंसानियत
कहीं बिक रहा इमान है।

अपने पराये का भेद इतना गहरा गया 
हर रिश्ते पे लटक रही तलवार है।

जिधर नज़र डालो, कहीं बिक रही मजबूरी 
कहीं बिक रहा प्यार है।

आधुनिकता की दौड़ में इस कदर अंधे हुए 
खोखले होते जा रहे सारे संस्कार हैं।

बाज़ारवाद में इस कदर मशरूफ हुए 
के छूट गया वो आँचल 
जिससे कभी बही दुग्धधार है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

विश्वास

                  विश्वास              

समय चक्र चलता है, हर शय बदलता है 
दुनिया बदली लोग बदले, 
लोगों के सोच का अंदाज़ बदला 
पर हासिल क्या हुआ, सब तो वैसा ही है 
बरसों पहले जैसा था | 
चोरी,डकैती,अपहरण,छेड़छाड़,बलात्कार,
क्या यही है बापू के सपनों का आकार 
रामराज्य आएगा,चंहु ओर सुख शांति लाएगा | 
पर कहाँ है राम, कहाँ है वो राज्य 
जिस ओर नज़र डालो,
 फैला है अराजकता का साम्राज्य 
क्या ये चिरकाल तक चलता रहेगा 
हर शख्स  यूँ ही  डरता रहेगा 
कभी तो दिन बहुरेंगे 
कभी तो अँधेरे छटेंगे 
पर कलयुग में है किसका इंतज़ार 
क्या फिर से लेगा कोई कृष्ण अवतार 
बहुत हो चूका अब तो जागो  
कोई देगा साथ ये विचार मन से त्यागो 
पाप-पुण्य का भेद को आज जता दो 
हर दिल से आतंक मिटाकर, 
प्यार की ज्योति जगा दो 
हमें है विश्वास के हम होंगे कामयाब 
मिलेगी मंज़िल हमें, फिर से आएगा रामराज्य || 

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद 


एहसास

         एहसास                   


कब, कहाँ, कैसे क्या हो जाए 
कोई भी न जान पाए 
ज़िंदगी का ये फलसफा कौन समझाए | 
ज़िंदगी  है , होता है, चलता है 
बस यही जान पाए | 
समझने की कितनी ही कोशिशें  की 
पर समझ न पाए 
क्यूँ होता है ऐसा 
कोई तो बतलाये | 
आज जो है कल वो नहीं 
कल जो हुआ आज भी होगा 
ऐसी आस नहीं 
आगे जो होगा अच्छा होगा 
है विश्वास यही | 
हमें यूँ ही नहीं रुकना है 
मंज़िल दर  मंज़िल दर आगे बढ़ना है 
हर रस्ते को छोटा करना है 
हर मुश्किल आसान करना है | 
दूर है मंज़िल,कठिन है डगर 
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलना है मगर 
मिलेगी मंज़िल  है यही विश्वास 
क्यूंकि हर पल होता है यही एहसास || 


अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

पीड़ा

                पीड़ा                    


मन जाने क्यों व्याकुल है
स्मृति पटल विह्वल है
गुमसुम गुमसुम हैं आंखें
चेहरों की पड़ी लकीरें
आभास दे रही पीड़ा की।

था दर्द से सना ये जीवन
अनजानी त्रुटि के कारण
समझ नहीं पाया  मन
क्यूं उजड़ रहा ये उपवन।

दिल के कोने कोने से
उठ रही ध्वनि पीड़ा की
पीड़ा के भाव छुपाता
पर चेहरा सब बतलाता।

रह रह यादों के छाले
फूट फूट दहलाते
इस घनीभूत पीड़ा को
असफल प्रयास से छुपाते।

ये आंखें हैं पैमाना
पल पल पीड़ा मापन की
क्यूं समझ नही पाया वो मन
इस पावन मन की पीड़ा को।

क्यूं भूल गया ये जीवन
ये तन भी है इक उपवन
खुशियों की चाहत में ,वो
छोटी त्रुटियां कर बैठा।

उन त्रुटियों के वारों से
कर बैठा छलनी जीवन
अब पीड़ा है और मैं हूँ
एकाकी बना ये जीवन।

पीछे मुड़ मुड़ जब देखा
थी स्मृतियों की एक रेखा
उन रेखाओं की पगडंडी पे
खुद को तन्हा ही पाया।

अब मैं हूं और तन्हाई
व्याकुल गुमसुम आंखों के
भावों की अनुभूति
स्वीकार कर चुका अब मैं
उस पीड़ा की गहराई।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


क्या फायदा

           क्या फायदा           


दिल की दिल में दबा ली तो क्या फायदा
जो कह ही सके न तो क्या फायदा
बात जो दब के रह गयी तेरे मेरे दरमयान
बाद उसको बताने का क्या फायदा।।

बात दिल में जो तेरे थी कह न सके
साथ वालों के भावों को पढ़ न सके 
सत्य बनकर के जब भाव आहत किये
फिर दर्द से छटपटाने का क्या फायदा।।

स्वनिर्मित उपालंभ से जो घायल हुए
दूर हटने लगे जो भी चाहत हुए
अपनी त्रुटियों का खुद बोझ जो सह न सके
बाद लांछन लगाने का क्या फायदा।।

अपने ही मन में जब पाप बढ़ने लगे
स्वार्थ, लालच व संताप बढ़ने लगे
मुक्ति की इससे राह जब न मिली
फिर अकारण ही क्रंदन का क्या फायदा।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

भूलना आसान नही

         

             भूलना आसान नहीं               


मुसाफिर हो गयी ज़िंदगी तेरे जाने के बाद 
भटक रहा हूँ आज भी मंज़िल की तलाश में | 
कहाँ तो मेरी सूरत से भी नफरत होती थी कभी 
सुना अब मेरे ख्वाब का भी इंतज़ार है तुम्हें | 
कोई बात तो होगी मुझमें के न भुला पाए मुझको 
चलो खुद को ही सजा दी, हर बात भुला के तेरी | 
कशिश बाकी है आज भी, जानकर भूल गए हैं सब 
तेरे दिए ज़ख्म सारे फूल हो गए हैं अब | 
खैरियत की खबर से ही तेरे खुश हो लेता हूँ मैं 
कैसे कह दूँ की फ़िक्र नहीं है तेरी मुझे | 
लम्हों के खता की सजा मिली है मझे 
तेरे ज़िक्र तक का हक़ खो चुका हूँ मैं | 
अब यही ख्वाहिश है-सुनूं के सुकून मिल गया तुझको 
मैं भी तो सुकून से निकल सकूं सुकून की तलाश में || 

अजय कुमार पाण्डेय 


आग़ाज़

      ग़ज़ल - आगाज़                   


आवाज़ों के बाजार की इक खामोश आवाज़ हूँ मैं ,
दिल को झिंझोड़ दे इक वही साज़ हूँ मैं 
न समझना के थक गया हूँ मैं ,
ज़िंदगी तेरी हर महफ़िल का आगाज़ हूँ मैं || 


चलो आवाज़ों की नई शुरुआत तो हो 
कोई कुछ न कहे मगर बात तो हो 
चाहत का मौसम फिर आ जायेगा 
जो मेरे पास तू आ जायेगा | 
न बैठो बंद कमरे में इस कदर 
इक नज़र उठाकर तो देखो 
गुज़रा ज़माना फिर याद आ जायेगा || 

वो बचपन की बातें जो समझी न थीं 
वो रहत की बातें जो समझीं न थीं 
मन बदल गया सब मगर संसार वही है 
तेरी मेरी चाहत की आवाज़ वही है 
इन आवाज़ों को जो तू सुन पायेगा 
तो चाहत का मौसम फिर आ जायेगा || 

माना ज़माने की रुसवाई रोकती है तुम्हें 
रस्मों की रवायतें रोकती हैं तुम्हें 
दूर ही सही मगर जज़्बात वही हो 
खामोश ही सही मगर आवाज़ वही हो 
तुम भी वही हो मैं भी वही 
यादों में ही सही चाहत का का अंदाज़ वही हो || 

अजय कुमार पाण्डेय  


सपने

           सपने              


खली हाथ आया हूँ 
कुछ सपने साथ लाया हूँ 
सपने- कुछ खट्टे, कुछ मीठे ,
कुछ अपने, कुछ पराये| 
उन्हें पूरा करना है,
खली झोली भरना है| 

सपने पूरे होंगे, है विश्वास 
हाथ खली है, पर फिर भी है आस 
राह कठिन है, मीलों चलना है 
कोई साथ दे या न दे 
फिर भी आगे बढ़ना है, क्यूंकि 
हमसफ़र मेरे साथ है | 

ये माना के काँटों पर चलना है 
कड़ी धुप में तपना है 
हंसना है, रोना है,
कुछ पाना है, कुछ खोना है 
पर चलते रहना है, क्यूंकि 
सभी सपनों को यथार्थ में बदलना है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

एक मजदूर की तलाश

       एक मजदूर की तलाश           

वो मजदूर है
अपनी माथे की 
लकीरों से मजबूर है
सपनों की खातिर 
वो चलता है
अगणित उम्मीदें
ले पलता है।

भोर की पहली 
किरण के साथ ही 
निकल पड़ता है वो,
तलाश में -
एक वक्त की रोटी के ,
चाहता है कुछ करना , 
कुछ पाना,
पर तलाश सिमट जाती है-
एक वक्त की रोटी तक | 

सपने देखता है- महल का, 
आशियाने का,
बनता है- महल, 
दूसरों के लिए 
बदले में चाहता है
एक वक्त की रोटी | 

सैर करता है- दुनिया की 
देखता है अनगिनत 
संस्कृतियों को 
पर तलाशता है-
एक वक्त की रोटी | 

दिन की चकाचौंध 
से दरकार नहीं 
रात क उजालों से 
सरोकार नहीं 
भीड़ भरी तन्हाइयों में 
तलाशता है - बस
एक वक्त की रोटी || 

©️अजय कुमार पाण्डेय

 हैदराबाद



आंसू

              आंसू                  


आंसू- दिल की जुबां है 
दिल हँसता है-तो हंसते हैं आंसू | 
दिल रोता है- तो रोते हैं आंसू 
हर अनकही जज़्बात की पहचान हैं - आंसू | 

जीत की ख़ुशी हो, या 
हार का हो दुःख,
सफलता की सूचना हो, या 
असफलता की खबर ,
बरबस ही आँखों को भिंगोते हैं- आंसू | 

मिलन की घडी हो- या 
बिछोह का हो वक्त,
जन्म की ख़ुशी हो , या 
हो मौत का गम ,
आँखों को नम करते हैं आंसू | 

हैं तो ये महज खारा पानी 
पर हमारे दिलों की जज़्बात 
ये आंसू || 

अजय कुमार पाण्डेय 



यादें

                  यादें                      


हर घडी , हर वक्त 
हर गली , हर मोड़ पर 
हर जगह , हर छोर पर 
आती हैं - बस यादें | 

भूले-बिसरे, मिले बिछड़े 
जाने-अनजाने लोगों की यादें | 
तन्हाई में चुपके दबे पाँव आकर 
झिंझोड़ जाती हैं, तन-मन को 
ये यादें | 

ज़िंदगी की सूनी राह  की हमसफ़र 
अपनों के जाने के बाद 
कुछ साथ है अगर 
तो वो हैं -यादें | 

लोग आते हैं,
चले जाते हैं ,
पर पास रह जाती हैं -
सिर्फ- यादें ||

अजय कुमार पाण्डेय 

प्यार

             प्यार                    


प्यार
एक एहसास है, मीठा एहसास
जो महसूस होता है, 
जीवन की अंधी दौड़ में 
तपती धुप में,
लू के थपेड़ों से जूझता इंसान 
तलाशता है - एक छाँव 
शीतल छाँव - प्यार | 

प्यार - एक सहारा है 
उनके लिए- जो थक गए हैं - कठिनाइयों से 
भटके हैं- जीवन की राह में | 
मार्गदर्शक हैं- उनके लिए 
जो तलाश रहे हैं - मंज़िल को | 

प्यार पुष्प है 
महकता है जीवन को 
संगम है- दिलों का 
बयार है बसंत की 
इसका कोई नाम नहीं 
इसकी कोई पहचान नहीं 
ये बसता है- दिलों में हमारे ||

अजय कुमार पाण्डेय 

सुबह कभी तो आएगी

   सुबह कभी तो आएगी         


जब रात का आँचल ढलकेगा
जब भोर की किरण चमकेगी
जब नव पल्लव उपवन महकायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब मजलूमों पर जुल्म न होंगे 
जब इंसान मजबूर न होंगे
सबको अपना अधिकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब ऊंच-नीच का भेद मिट जाएगा
अमीर-गरीब का दाग हट जाएगा
जग में सामाजिकता फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब लिंग भेद खत्म हो जाएगा
जब दहेज के दानव मिट जाएगा
जब बहुएं जिंदा न जलायी जाएंगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब आंखों में आंसू न होंगे
लोग भूख से व्याकुल न होंगे
सबके सपनों को आकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब जग से आतंकवाद मिट जाएगा
जाति-धर्म का भेद हट जाएगा
चंहुओर सुख शांति फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय

जंग

          जंग                   


सूरज आता है 
रात के स्याह अँधेरे को चीरते हुए 
अपनी अरुणिमा से संसार को सराबोर करता है 
एक नई उम्मीद, एक नई प्रेरणा देता है,
हमें, हम सबको 
जो जीवन की कठिनाइयों से थक गए हैं | 

कहता है -
उठो , ये वक्त नहीं है थकने का 
ये वक्त है आगे बढ़ने का | 
जीवन एक जंग है , हर कदम 
लड़ना है इससे, जीतना है- जंग को 
एहसास देता है 
हर रात की सुबह होती है 
वैसे ही,हर असफलता के बाद सफलता होती है 
फिर क्या सोच रहे हो,
कोई नहीं है जो आएगा 
जो आगे बढ़ेगा वही मंज़िल पायेगा || 

अजय कुमार पाण्डेय 




महंगाई/ व्यंग्य

  एक व्यंग्य

          महंगाई               


काफी समय बाद मैं बाजार गया 
सोचा कुछ खरीदारी ही कर लूं 
दुकानदार से चीनी का भाव पूछा 
४५ रुपये किलो , उसने बोला 
हम तो चीनी के उत्पादन में सबसे आगे हैं 
फिर इसके दाम क्यों इतने भागे हैं | 
साहब जब से जीवन में कड़वाहट बढ़ गया 
तब से चीनी का भाव भी बढ़ गया 
संबंधों में वो मिठास नहीं रह गया 
इसलिए चीनी का ही सहारा रह गया | 

अच्छा नमक का भाव क्या है- मैंने पूछा 
वो तो चीनी से भी महंगा हो गया 
क्यों - मैंने पूछा 
चीनी से मिठास ज्यादा हुई तो कीड़े पद गए 
इसलिए नमक की जरूरत हुई - 
तो उसके भी भाव बढ़ गए| 

साहब भाव क्यों पूछते हो 
अब तो बाजार में पानी भी बिकता है | 
पर उसपर तो सबका अधिकार है-मैंने बोला 
ऐसी बात तो सोचना भी बेकार है 
हर चीज़ पर टैक्स की भरमार है 
अब तो ज़िंदगी भी डिब्बाबंद हो गयी 
क्यूंकि महंगाई सुरसा जैसी हो गयी || 

अजय कुमार पाण्डेय 





भटकाव

            भटकाव                


दूर तलाक फैला हुआ आकाश 
आभास देता है,
असीमित है दुनिया | 
पर पृथ्वी तो गोल है 
इसका भी एक छोर है | 

क्या सचमुच आकाश असीमित है 
दूर क्षितिज नजर आता है 
लागत है अंत है दुनिया  का | 
पर वो तो भ्रम है ,
क्या हम भ्रम में जी रहे हैं ?

जीवन भी तो भ्रम है , एक जाल है 
संबंधों का , जिसमें हम उलझे हैं | 
नित नए सम्बन्ध बनते हैं, बिगड़ते हैं 
 फिर भी हम भटकते हैं ,
सुकून की तलाश में ,
सुकून नज़र आता है 
क्षितिज की तरह 
दीखता है, पर महसूस नहीं होता ,
हर वक्त कमी महसूस होती है | 

आकाश तो अंतहीन है ,
पर जीवन का अंत है ,
फिर क्यों है -
ये अंतहीन भटकाव || 


अजय कुमार पाण्डेय 


छत

                 छत                    

           

हर किसी को तलाश है
एक छत की,
हर किसी को आस है
एक छत की,
छत जो सहारा दे
आंधी से, तूफान से, बरसात से
इंसान जन्म लेता है
छत के नीचे
खत्म होता है - जीवन
छत के नीचे
फिर भी तलाश है
एक छत की

अजय कुमार पाण्डेय


राम वनगमन व दशरथ विलाप

राम वनगमन व दशरथ विलाप माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया। युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।। जब स्वार्थ हृदय म...