है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।।

भेंट कर अपनी जवानी उम्र को जीवन दिया,
पुष्प राहों में बिछा कर कंटकों को चुन लिया।
है हमें जिसने दिखाया भोर की पहली किरण,
अंक में जिसने हमारे हैं भरे सुंदर सुमन।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ बलिदानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

हैं सँवारे स्वप्न जिसने हर सिसकती आह में,
और तन को है सँवारा हर दहकती आग में।
जिनके जज्बों ने दिखाया दर्द को भी रास्ता,
जिनके मन में राष्ट्र से बस प्रेम का था वास्ता।

है नमन उस अंक को जिस अंक बलिदानी पले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

जिसने मृत्यू से सदा पूछा क्या उसका पता,
मृत्यू खुद सम्मुख रही जिसके नतमस्तक सदा।
दौड़ता जिनकी नसों में राष्ट्र का अभिमान था,
और जिनके नैन में नव स्वप्न का निर्माण था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ अभिमानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

है दिया जिसने हमेशा मंत्र केवल जीत का,
राष्ट्र को जिसने सिखाया मंत्र सबसे प्रीत का।
साँस में जिनकी हमेशा राष्ट्र का गुणगान था,
राष्ट्र ही अभिमान था बस राष्ट्र ही सम्मान था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सम्मानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2023
 

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।


जीवन के कुछ प्रतिमानों के नए-नए नित अनुमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ में मन के मीत लिखे हैं
कुछ में मन क्यूँ हुए पराए
कुछ में छूटा संग किसी का
कुछ में मन ने जो अपनाए
जीवन में कुछ व्यवधानों के नए-नए नित प्रतिमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

सावन में बूँदों को गाया
पतझड़ में पातों को हमने
कुछ में है खुशियों को गाया 
तो कुछ में घातों को हमने
कभी मिले कुछ अपमानों के और कभी कुछ सम्मानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

शब्दों से कुछ शब्द निकाले
और समय से कुछ पल हमने
आये जितने प्रश्न उभरकर
उनसे ही ले कर हल हमने
मन के सारे अरमानों के साँझ ढले कुछ अवसानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26फरवरी, 2023

तुम मन के द्वारे आये हो।

तुम मन के द्वारे आये हो।  

सुप्त हो चलीं जब-जब स्मृतियाँ ये मन भटका अँधियारों में
तब यादों का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।

किन सपनों ने मुझे डुबोया किन सपनों ने दिया सहारा
किसमें जीता किसमें हारा मुझको कुछ मालूम नहीं था
पल दो पल का साथ मिला था या जनमों का संग हमारा
कितना समय हमारा रहता मुझको कुछ मालूम नहीं था
गरल सिक्त की पीड़ाओं में मन जब मूर्छित हुआ जा रहा
तब अमृत का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।।

जब सर्पीले स्वप्न पलक के कोरों में कुछ चुभे जा रहे
आशाओं के पंख झुलसकर कहीं बदन में छुपे जा रहे
लगे दोष माथे पर सारे मन को जिसका भान नहीं था
पुष्प बिछा काँटों पर सोना ऐसा भी अनुमान नहीं था
विरह वेदना शापित नख से मन जब छलनी हुआ जा रहा
तब मधुगंधों का कोष लिये तुम मन के द्वारे आये हो।।

कितने देहरी कितने चौखट और कितनी हैं सीमाएं
हर जीवन की अपनी रेखा है सबकी अपनी परिभाषाएं
लक्ष्मण रेखा जब-जब खींची सब रिश्ते नाते रूठ गये
समय ने ऐसे लाँघी देहरी बंधन बाँधे छूट गए
एकाकी का घाव लिए जब सांध्य क्षितिज में छुपा जा रहा
तब अनुबंधों की संधि लिए तुम मन के द्वारे आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23फरवरी, 2023

एक गीत मुझको दे सके न।

एक गीत मुझको दे सके न। 

एक तुमसे गीत जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक गीत मुझको दे सके न।।

थी बड़ी लंबी डगर और रास्ते भी थे हजारों
पर उभरते प्रश्न मन के रोकते थे राह मेरे
चाहता था मन यही इक बार तुमको फिर पुकारुँ
पर अधूरे शब्द कुछ थे चुभ रहे थे कंठ मेरे
एक तुमसे शब्द जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक शब्द मुझको दे सके न।।

अंजुरी थी रिक्त लेकिन पुष्प तुमको सौंपना था
दूर राहें हो न जायें एक पल को रोकना था
रोक पर मैं न पाया आवाज थी कितनी लगाई
पर रुँधे थे शब्द शायद दे न पाये जो सुनाई
आस के कुछ पल वहाँ पर हमने कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के इक पल भी मुझको दे सके न।।

एक अंतिम भेंट की उम्मीद पग बाँधे हुए थी
इसलिए नजरें अभी तक द्वार पर ठहरी हुई हैं
भोर की उम्मीद मन में रात भी बाँधे हुए थी
इसलिए कुछ चाँदनी की रश्मियाँ पसरी हुई हैं
बस यही उम्मीद लेकर ये रात थी जागी मगर
है यही अफसोस एक उम्मीद भी तुम दे सके न।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21फरवरी, 2023



तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर छुपाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

आस पास जितने घेरे थे सबमें कुछ तो बहस छिड़ी थी
घूर रहीं थीं कितनी नजरें कितनी नजरें झुकी पड़ी थीं
कुछ में था अफसोस उमड़ता कुछ में थोड़ा सा अपनापन
कुछ नजरों में आस भरी थी कुछ नजरों में था सूनापन
कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर बचाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

हमने कितने व्योम उड़ाए सपनों के निज आसमान में
मन ने भी थे राह सुझाये मन को मिलन के अनुमान के
अभिलाषित भी हुआ हृदय ये झुरमुट से जब चाँद खिला था
तारों ने भी राह सजाई जुगनू को सम्मान मिला था
मन ने कितनी बार पुकारा मन को मन ही मन अकुलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

जितनी बार जलाये हमने दीपक मन के अँधियारों में
उतनी बार हुई है खंडित बाती मन के गलियारों में
फिर भी हमने मन को अपने बार-बार जितना समझाया
मन को सब कुछ रहा विदित पर चाहा लेकिन समझ न पाया
बिखरे मन को जोड़ रहा था तेरी आहट से बहलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

मुझे पता है तुम आओगी सांध्य ढले जब थक जाओगी
माथे पर कुछ खड़ी लकीरें लिए दूर तक क्या जाओगी
शायद मैं फिर रहूँ ना रहूँ गीत हमारे पर गाओगी
पलकों से बस नीर बहेंगे चाह के भी न सो पाओगी
कितनी बार जताना चाहा मन ने गीतों में गा गाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19फरवरी, 2023

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।  

आज वीथियों पर यादों के मुड़े-तुड़े कुछ पन्ने देखा
धुँधले अक्षर उन पन्नों के सुना रहे थे कोई कहानी।।

हाथ लगाया उस पन्ने को जमी धूल को जैसे झाड़ा
उभर के अक्षर नैन में चुभे जैसे तैसे उसे सँभाला
रुँधे कंठ से सारे बोले बतलाओ क्या दोष हमारा
समय जो लिखा नाम पटल पर हमने तो बस उसे पुकारा

माथे की रेखायें उभरी अंतस भी बोला अकुलाकर
कितनी रहीं अधूरी बातें साँसों को है जिसे सुनानी

कुछ ने मन का द्वार खँगाला औ कुछ ने मन का वातायन
कुछ ने मन को दुत्कारा है औ मन का कुछ ने अभिवादन
छपे प्रेरणा बन नयनों में कुछ में थोड़ी नींद रह गई
एक पृष्ठ में कितनी बातें कुछ धुँधली उम्मीद रह गईं

उम्मीदों को दिया सहारा कुछ सूने मन को समझाकर 
कुछ धुँधली बातें खिल आयीं कुछ बातें रह गईं बतानी

कुछ अक्षर इतने धुँधले थे जो नयनों को दिख नहीं पाये
कुछ की साँसें घुटी-घुटी थी मन की बात नहीं कह पाये
कुछ उमड़े अधरों को छूकर कुछ ने आँखों को फुसलाया
कुछ ने मन को राह दिखाई कुछ ने मन को फिर बहलाया

कुछ आँसू का रूप धर लिये गिरे बूँद नयनों से बहकर
कुछ माटी में कहीं खो गये कुछ की बाकी रही निशानी

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18फरवरी, 2023

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।  

मन में सुमिरन कीजिये, सदा नाम हनुमान।
स्वास्थ्य सुख समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

जय जय जय हनुमान पुकारें।
कष्ट मिटे जीवन उद्धारे।।1।।

जिनके मन में बसे प्रभु राम,
उनके कष्ट हरें ये तमाम।।2।।

तन सिंदूरी लाल लँगोटी।
इनकी कृपा सबहि पर होती।।3।।

कलयुग के प्रभु एक अधारा।
जीवन के सब संकट टारा।।4।।

अंग वज्र है काँध जनेऊ।
सबपर कृपा न कछु संदेहू।।5।।

हाथ गदा है भाव कृपालू।
प्रभु से बड़ा न कोय दयालू।।6।।

शंकर सुवन केशरी नंदन।
कोटि कोटि है प्रभु अभिनंदन।।7।।

वेद पुराण उपनिषद ज्ञाता।
तुम्हरी शिक्षा जग विख्याता।।8।।

मंगलवार धरा पर आए।
सबका मंगल करते जाए।।9।।

भिन्न-भिन्न धरि रूप दिखाए।
दुर्गम काज सब सुगम बनाए।।10।।

सियाराम के तुम रखवारे।
हम भी आये प्रभु के द्वारे।।11।।

हमको अपनी भक्ति दीजिए।
इतनी कृपा हमपर कीजिए।।12।।

अतुलित बल है बुद्धि विशाला।
सकल जगत के प्रभु रखवाला।।13।।

संकट मोचन अंतर्यामी।
हम सबके प्रभु तुम हो स्वामी।।14।।

भक्त पियारे राम दुलारे।
सबके मन के काज सँवारे।।15।।

जो भी द्वार तिहारे आता।
बिन माँगे वो सब फल पाता।।16।।

सच्चे मन से जो भी आवे।
मनचाहा वो सब फल पावे।।17।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
बड़हि विवेक ज्ञान सुख होई।।18।।

जिनपर होए सत्य सनेहू।
पूरन काज न कछु संदेहू।।19।।

हम याचक हैं प्रभु तुम दाता।
तुम ही हो प्रभु भाग्य विधाता।।20।।

हम अग्यानी बालक तेरे।
दूर करो प्रभु सकल अँधेरे।।21।।

ज्ञान ध्यान का दीप जलाओ।
जग के सब अँधियार मिटाओ।।22।।

तुम्हरे भजन जे मन गाँवहि।
मनचाहा जीवन फल पाँवहि।।23।।

तुम हो जग के कष्ट निवारक।
प्रभु तुम दुख दरिद्र के नाशक।।24।।

रघुपति के सब कष्ट निवारे।
मैं भी आया द्वार तिहारे।।25।।

मुझ पर भी अब दृष्टि करो प्रभु।
मेरे भी सब कष्ट हरो प्रभु।।26।।

तुम हो सत्य जगत ये झूठा।
तुमसा और नहीं है दूजा।।27।।

तुमको भजे ज्ञान वो पावे।
जीवन में सुख समृद्धि आवे।।28।।

तुम्हरी शरण जे भी आवे।
रोग व्याधि से मुक्ती पावे।।29।।

जिन पर अपनी किरपा दीन्हा।
उनकर सबहिं कष्ट हर लीन्हा।।30।।

जे भी राम नाम को गावे।
तुमसे प्रतिपल किरपा पावे।।31।।

तुम ही हो प्रभु के रखवाले।
सकल कष्ट को हरने वाले।।32।।

हम अनपढ़ नादान बड़े हैं।
द्वार तिहारे आन खड़े हैं।।33।।

हमको भी प्रभु बुद्धि दीजिए।
अवगुण सभी प्रभु हर लीजिए।।34।।

यहिं जीवन को तुम ही तारो।
भवसागर से पार उतारो।।35।।

भटक रहा मन कौन सहारा।
तुम ही प्रभु बस एक अधारा।।36।।

सूझ रहा नहिं अब पथ कोई।
तुम्हरे सिवा नहिं है कोई।।37।।

तुम्हरे सिवा और न जानूँ।
तुमको ही मैं सबकुछ मानूँ।।38।।

करहुँ कृपा हमपर भी दाता।
तुम्हरे चरण नवाहुँ माथा।।39।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
सकल काज सम्पूरण होई।।40।।

घट-घट में प्रभु व्याप्त हो, तुम ही एक महान।
हमरी ये विनती सुनो, देहु भक्ति का दान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16फरवरी, 2023




एक किनारा।

एक किनारा।  

मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा
कभी मिलेगा साहिल इसको कहीं मिलेगा इसे सहारा।।

जीवन के हर पथ पर कितने
स्वप्न खड़े हैं हाथ पसारे
कुछ नयनों में आन बसे हैं
कुछ पलकों को करे इशारे
कुछ बूँदों में बहे बिखर कर कुछ ने आकर इसे सँवारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

जग में कितने मेले सारे
कब जाने मन किसमें हारे
किसमें जाने क्या मिल जाये
किसमें जाने कौन पुकारे
जग के इस मेले में जाने क्या लग जाये मन को प्यारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा
धरती से आकाश मिल रहा
सांध्य पलों में जीवन में अब
मन से मन को मौन पल रहा
देर रात धीरे से आकर सिमटा लेती है जग सारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13फरवरी, 2023

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

वही डगर है जहाँ कभी हम
छोड़ चले थे बचपन अपना
इसी राह पर चलते-चलते
टूटा था जो देखा सपना
थी सपनों की रात सुहानी जाग रही थी रैन तरसते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

कहीं कसक थी मन के भीतर
धड़क रही थी जो धड़कन में
रही सुलगती प्यास हृदय की
आशाएं मन की सावन में
बूँदें झर-झर रहीं बरसते प्यासा मन पर रहा तड़पते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

हाथों की रेखाओं में भी 
जाने कैसी जंग छिड़ी थी
लिए लेखनी वक्त खड़ा था
मगर वक्त की किसे पड़ी थी
किया बेरुखी वक्त से हृदय देख रहा मन उसे बिखरते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

आज शून्य में विचर रहा है 
सिमट गईं सब आहें मन की
सन्नाटे में बिखर रहा मन 
बिछड़ रहीं अब साँसें तन की
हाय कहूँ क्या दूर हुए क्यूँ प्रेम डगर पर चलते-चलते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11फरवरी, 2023

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

वसुधैव कुटुंबकम के पोषक जग को राह दिखाने वाले
ऊंच-नीच का भेद छोड़ कर हम सबको अपनाने वाले
त्याग धर्म है मूल हमारा हम कुरुक्षेत्र के नायक हैं
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं

हम धीर धरा सा रखते हैं औ हम संयम के पाले हैं
कैसी भी बाधाएं आये हम नहीं बिखरने वाले हैं
जीवन पथ की बाधाओं को हँस-हँस कर झेला करते है
कुरुक्षेत्र के रणभूमि में भी हम अरि से खेला करते हैं

अपने सम्मुख जो भी आया हम हँस कर गले लगाते हैं
धर्म-जाति से ऊपर उठकर हम तो सबको अपनाते हैं
नहीं किसी से बैर मानते हम सबसे मिलकर रहते हैं
शरणागत पर वार कभी हो हम आगे बढ़कर सहते हैं

सत्य सनातन मूल मंत्र है पहले हँसकर समझाते है 
कुरु वंश के दरबारों में हम देवदूत बन जाते हैं
अनुचित वारों प्रतिकारों को इक हद तक ही हम सहते हैं
नीति नियम के पालन करते हम मर्यादा में रहते हैं

शास्त्र हमारे दिल में रहता हम शस्त्र हाथ में रखते हैं
हम अमृत के पोषक हैं पर बन नीलकंठ विष चखते हैं
हम मुरली की तान छेड़ते पर नाग नाथना आता हैं
सागर की उच्छृंखल लहरों पर सेतु बाँधना आता है

हम गोपालक हम मनमौजी पर चक्र सुदर्शन धारी हैं
जब-जब विपदा पड़ी धरा पर हमने ही धरती तारी है
हम गीता के अनुयायी हैं हम पहला वार नहीं करते
लेकिन दुश्मन बात समझ ले हम दूजा वार नहीं सहते

साधु संत ऋषियों मुनियों से हमने तो जीना सीखा है
अपने धर्म ग्रन्थ से हमने ये जीवन जीना सीखा है
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं
श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10फरवरी, 2023

कौन है जो इस निशा में लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रूप की कैसी छटा है 
चाँदनी शरमा रही है
रात भी अपने सफर में
स्वयं ही भरमा रही है
ये पौन मद्धम मनचली
बह रही क्यूँ आज रुककर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

नैन ये किसके यहाँ पर
कर रहे हैं छेड़खानी
कौन है जिसने सिखाया
मौसमों को बेइमानी
हर रहे है भाव मन के
गीत ये किसके निखरकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रश्मियाँ भी देखती है
रूप सुंदर आज छुपकर
लग रहा जैसे घुला हो
चाँदनी में आज केसर
आज मेघों की घटाएं
झर रही हैं नेह बनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

द्वार पर है रात ठहरी
सौम्य मन की आस लेकर
आँजुरी में पुष्प भर कर
अंक में मधुमास लेकर
लग रहा है स्वयं रतिपति
दे रहे हों छंद चुनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2023

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कितने सपने सिमट रहे हैं दीप तले अँधियारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

भूख कहीं है कहीं गरीबी और कहीं मारामारी
दूर खड़ी हो राह देखती बंद द्वार पर बेकारी
लेकिन अवसर सिमट रहे हैं चंद चुने मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

महँगाई की बात यहाँ अब कोई मोल नहीं रखता
जनता के टूटे सपने का शायद मूल्य नहीं रहता
अपने खाते काजू किशमिश थाली गिनते नारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

एक समस्या सुलझ न पायी दूजी नई बना लेते
ध्यान हटाने को जनता के वादा नया सुना देते
वोट के लिये मौन तोड़ते चौकों में चौबारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कहीं गूँजते नारे कैसे कहीं टूटती मर्यादा
जोड़-तोड़ के खेल-खेल में वोटों की चिन्ता ज्यादा
पहले मुख के बोल बिगड़ते झुकते फिर मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2023

त्याग किसे कहते हैं।

त्याग किसे कहते हैं।  

चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।
जिसने जीवन सौंप दिया, उससे अनुराग किसे कहते हैं।।
पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

जिसके छूने भर से माटी पल में सोना हो जाता है
जिसका आँचल मिल जाने से दुनिया का सब सुख आता है
जिसकी एक झलक पड़ते ही खुद कष्ट सभी मिट जाते हैं
जिसकी एक छुअन अंतर्मन के कष्ट सभी हर जाता है
दुख में जिसने सुख को पाला, सुख का राग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसे नेह से नैन निहारा उसका ही सम्मान हो गया
जिसकी नजर उतारी पल-पल पूरण सारा काम हो गया
गीले बिस्तर में भी जिसको सुख का सब अहसास मिला है
उँगली जो भी पकड़ चला है वो जीवन में राम हो गया
अंगारों पर चली उम्र जो उससे दाग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसने नभ सा प्रेम जताया दूर खड़ा हो दिया सहारा
जिसने प्रस्तर काट-काट कर सपनों का है पंथ बुहारा
जिसकी स्वेद बूँद जीवन के काँटों में पुष्प खिलाती है
जिसने भाव छुपा कर सारे ओट खड़ा हो पंथ निहारा
जिसकी उबटन स्वेद बूँद उससे तनुराग किसे कहते हैं
हो चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2023

दिल क्यूँ लगाया।

दिल क्यूँ लगाया।  

तुमने कैसा है साथ मुझसे निभाया
जाना ही था जो तो ख्वाब क्यूँ दिखाया

दो कदम साथ चलना मुनासिब नहीं जब
क्यूँ साथ रहने की हसरत दिल में जगाया

छोड़ना ही था दिल को यूँ मँझधार में
उल्फत का यकीं फिर इसे क्यूँ दिलाया

जिन गीतों में तेरे कहीं भी नहीं था
गीत अधरों पे मेरे क्यूँ फिर सजाया

देव अंजाम से अब परेशान क्यूँ हो
खुद ही बेदर्द से जब दिल था लगाया

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05फरवरी, 2023

सपनों को आज जलाया।

सपनों को आज जलाया।  

कल तक आहें रहीं खोजती
जिन यादों के धुँधले पन्ने।
जिनमें पल-पल रहीं उलझतीं
पलको के कुछ खोये सपने।।
यादों के उन अवशेषों को
ढोता कब तक आज भुलाया।
निज पलकों पर सजे नहीं जो
उन सपनों को आज जलाया।।

रात-रात भर जाग-जाग कर
सुबह सवेरे झाँक-झाँक कर।
मन के द्वार चले आते थे
भावों को जो तड़पाते थे।।
पल-पल अंतस जो घिसते थे
उनको मैंने आज सुलाया।
जिसने मन को घाव दिया है
उन सपनों को आज जलाया।।

पल-पल कितने प्रश्न खड़े थे
अवरोधों से मौन पड़े थे।
राहें जैसे बंद पड़ी थीं
उम्मीदें सब मौन खड़ी थीं।।
पल-पल जो चुभते रहते थे
उन प्रश्नों को आज जलाया।
जिसने अंतस को भेदा है
उन सपनों को आज जलाया।।

जब संकल्पों की थी बारी
नहीं लिया कुछ जिम्मेदारी।
लेकिन जिसने दंश दिया है
लेगा उनकी कौन सुपारी।।
पल-पल जिसने दर्द दिया है
रात-रात भर मुझे रुलाया।
जिसने मेरी नींदें लूटीं
उन सपनों को आज जलाया।।

आज स्वयं को जान सका हूँ
अपना मन पहचान सका हूँ।
आज किसी से नहीं शिकायत
जग से कुछ भी नहीं अदावत।।
भींगीं पलकें रहीं सिसकती
पोंछ नयन उनको समझाया।
जिनसे पलकें-बोझिल-बोझिल
उन सपनों को आज जलाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02फरवरी, 2023


दोहे।

दोहे।।

ज्ञान दान प्रभु दीजिये, सबका हो सम्मान।
मंगलमय सब काज हो, दो इतना वरदान।।1।।

सकल पाप का नाश हो, बढ़े सत्य का मान।
मिल जुल कर सब जन रहें, नहीं रहे अभिमान।।2।।

सिरहाने पर है खड़ी, देख सुनहरी भोर।
नवयुग के निर्माण को, आलस सारे छोड़।।

गई निशा नव दिन चढ़ा, नई करो शुरुआत।
नया-नया अनुमान हो, नई-नई हो बात।।

मन ही स्वयं का शत्रु है, मन ही मन का मीत।
जैसी मन की भावना, वैसी बनती रीत।।

ढूँढे मन जो आपना, कितना कुछ मिल जाय।
गहरे पानी बीच से, जैसे मोती पाय।।

संतों की संगत मिले, मिटे सकल अभिमान।
सफल मनोरथ हों सभी, बढ़े ज्ञान सम्मान।।

दूर कुसंगति से रहें, करें नहीं अभिमान।
कीर्ति सकल जग में बढ़े, बढ़ता जग में मान।।

ज्ञान मिला सम्मान भी, हुआ जगत में नाम।
लेकिन मन के मैल को, मिला नहीं आराम।।

ज्ञानी अतिज्ञानी बना, हुई ज्ञान से रार।
अर्ध ज्ञान ने कर दिया, सब कुछ बंटाधार।।

भटक-भटक कर दिन ढला, तड़प रही है रैन।
मैं के चक्कर में सभी, भूल रहे सुख चैन।।

मनवा तो चंचल यहाँ, उड़ि-उड़ि इत उत जाय।
मन पर जो काबू करे, सच्चा सुख वो पाय।।

जैसा मन का भाव है, मिलता वैसा संग।
मन की इच्छा के बिना, होत नहीं सत्संग।।

ज्ञान धन संपत्ति बढ़े, करे नहीं अभिमान।
अभिमानी जो मन हुआ, मिलत नहीं सम्मान।।

सत्य सनातन सर्वदा, जहाँ धर्म का मान।
जीवन फलता फूलता, विश्व करे यशगान।।

प्रकृति ने सबको दिया, एक बराबर धूप।
जैसा मन में भाव है, वैसा खिलता रूप।।

सच्चे मन से लीजिए, हरपल प्रभु का नाम।
सुख वैभव समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

प्रेम दिनन मत बाँधिये, ये वो जीवन डोर।
रिश्तों को सुंदर करे, जैसे पावन भोर।।

प्राची की पहली किरण, आयी मन के द्वार।
धीरे-धीरे खुल रहे, बंद हृदय के द्वार।।

द्वार हृदय के खोलकर, सबका करिये मान।
भाव हृदय के शुद्ध हो, स्वतः बढ़े सम्मान।।

बीते कल को भूलकर, नूतन हो शुरुआत।
आशायें हों सारथी, नई बने फिर बात।।

लोभ मोह मद क्रोध सब, करते मन की हानि।
जीवन सुंदर चाहिये, ये अवगुण पहचानि।।






©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01फरवरी, 2023

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