राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

देख खुशियाँ आ रही हैं।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सोचते ही रह गये।

अंक में बस प्यार लिखना।

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

चंचल नदिया लहराने दो।।

साथी पर अब चलना होगा।।

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

गात का नव आवरण हो।

देख संध्या ढल रही है।
देख संध्या ढल रही है।
मुक्त हो कर बंधनों से मिल रहे धरती गगन
झूमती हैं नाचती हैं बदलियाँ भी हो मगन
सज रहे गीत मनहर देख सागर के किनारे
चाहतों की तितलियाँ गीत में तुमको पुकारे
आज फिर से मिलन की आस मन में पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
ढल रहा है सूर्य देखो बादलों के अंक में
घुल रही है सांध्य देखो चाँदनी के रंग में
सांध्य का चमका सितारा कह रहा है पास आ
आ मिलें हम इस सफर में देखो अब न दूर जा
इस सफर की राह भी साथ अपने चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
रश्मियाँ भी चाँद की देखो धरा को चूमती
ओढ़ कर आँचल गगन का मस्त हो कर झूमती
पंछियों के शांत स्वर भी कुछ इशारे कर रहे
दूर मन को छाँव के, सुंदर नजारे हर रहे
आस के आकाश की चाह मद्धम पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
चाहता है दिल यहाँ अब बात सब कुछ बोल दूँ
बंद सदियों से हृदय के द्वार सारे खोल दूँ
बोल दूँ भाव सारे जो बसे दिल में हमारे
तुम कहो पंक्तियों में आज भर दूँ चाँद तारे
देख तुमको गगन की बदलियाँ भी जल रही हैं
देख संध्या ढल रही है।।
है तमन्ना चाहतों के गीत सब अर्पित करूँ
और अधरों पर हृदय के प्रीत मैं अंकित करूँ
स्वप्न सिन्दूरी सजाऊँ नैन की पाँखुरी में
और भर दूँ नेह बस इस सुकोमल आँजुरी में
स्वप्न सिन्दूरी लिए चाँदनी भी चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
रात से निस्तार होकर चाँदनी बिखरी यहाँ
रूप का श्रृंगार पाकर कामना निखरी यहाँ
आ भी जाओ गीतों की पंक्तियाँ खो न जायें
रात की आगोश में रश्मियाँ भी सो न जायें
सो न जाये प्रीत की दीपिका जो जल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09अक्टूबर, 2022

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

कुछ तो लगाव है।

कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

चुप को हथियार बना।

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

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