राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

कितनी घड़ियाँ बीत गईं
 इक दूजे के भाव समझते
कितनी कड़ियाँ छूट गईं
इक दूजे का राग समझते
इक युग बीत गया हमको 
इक दूजे को गीत सुनाते
इक युग बीत गया हमको 
इस ड्योढ़ी तक आते जाते।।

राह भटकने से पहले गीतों का संसार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मन के भाव कहे हर कोई 
इतना तो अधिकार सभी का
मन के भाव समझ पायें 
इतना हो सत्कार सभी का
सबकी रेखों ने कब पाया 
दुनिया का अनमोल खजाना
किंतु समय का मर्म समझना 
हाय, न अब तक सबने जाना।।

समय छिटकने से पहले आहों का व्यवहार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मोल विजय का क्या बोलो
जीत माथ जब चढ़ कर बोले
हारा पर वो जीत गया
जिसने मन के भाव झिंझोड़े
जीत कभी जो कहा नहीं
हार बात वो कह जाती है
आवाजें जो कही नहीं
मौन हृदय के कह जाती है।।

हार-जीत के निस पल में रिश्तों का आधार सँभालो
राग उतरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2022




पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

बाँध मुझको आज अपने नेह के नव बंधनों में
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

रोक मुझको न सकीं संसार की घातें कोई भी
बाँध मुझको न सकीं अवसाद की रातें कोई भी
माना मेरे पथ में केवल कंटकों के जाल थे
जंजीर थी इक पाँव में औ अंक में जंजाल थे
दूर आया हूँ सभी से लौट अब जाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

धूल के कुछ कण उड़े जो शीश पर मेरे गिरे थे
सिलवटें कभी मिट सकी न भाल पर ऐसे सटे थे
किंतु मेरी भावनाओं ने मुझे बाँधा यहाँ पर
थे भरे जब नैन मेरे दोष था आधा वहाँ पर
बहुत बिखर का दर्द पाया और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

मुक्त हूँ सब बंधनों से मुक्त आहों के सफर से
मुक्त हैं अब सब किनारे मुक्त सागर की लहर से
आज मन की रागिनी निर्बाध निर्झर बह रही है
संग पा कर के मधुर सब भाव मन के कह रही है
कह रही है चाह मन की और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अक्टूबर, 2022

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

नभ के सारे पंछी थककर
तरुवर को अपने लौट रहे
सागर में बलखाती नौका
फिर तटबंधों को ओर चले
पश्चिम की गोदी में जाकर
थक कर किरणें कहीं छुप रहीं
दबे पाँव संध्या भी आकर
रातों को आवाज दे रहीं
कितना कुछ दिन ने ढोया है
उफ्फ तक लेकिन किया नहीं।।

दिन के कितने काम अधूरे
चाहे लेकिन कर ना पाये
अधरों तक कितनी ही बातें
आईं लेकिन कह ना पाये
पलकों ने था किया इशारा
औ साँसों ने स्वीकार किया
पर कुछ बातें रहीं अधूरी
आ रातों ने सत्कार किया
मन से मन की डोरी बाँधी
नव सपनों को पर दिया यहीं।।

रवि का रजनी से आलिंगन
संध्या साक्षी स्नेह मिलन का
उपवन का हर कोना महका
ऐसे बहका झोंक पवन का
आज प्रतीक्षा में यादों ने
फिर से मन का दीप जलाया
आलिंगन में पिय को पाकर
पपिहे ने मधुमास जगाया
दिन का चाहे ताप गहन था
रातों ने उफ्फ किया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अक्टूबर, 2022

देख खुशियाँ आ रही हैं।

देख खुशियाँ आ रही हैं।  

दीप की जगमग लताओं ने कुहासों को मिटाया
रात की गुमनामियों से देख पर्दा है उठाया
आज खुशियाँ स्वयं चल कर द्वार देखो आ रही है
और चादर जो तिमिर की दूर देखो जा रही है
दीप आशा के जगे हैं जिंदगी भी गा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

रोशनी से जगमगाया औ गेह वंदनवार से
झूम कर दिल मिल रहे हैं इस दीप के त्यौहार में
आज आशा की किरण भी देख नर्तन कर रही है
और ये बहती हवायें आस नूतन भर रही हैं
दीप की लड़ियों में सजकर रात मुस्कुरा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

आज हम भूलें दिवस के ताप थे जो भी हठीले
आज मिलकर गुनगुनाएं राग जीवन के सुरीले
अवसादों के अंधेरे अब आज सारे त्याग दो
वीथियों पे नेह लिख दो औ गात को नव साज दो
गात का श्रृंगार करने की घड़ी अब आ रही है
देख खुशियाँ आ रही है।।

भाव को चंदन करें हम थाल पूजा के सजाएँ
आंजुरी में आस भरकर नेह से हम पथ सजाएँ
जब मिलेंगे दिल सभी के गीत अधर ये गाएंगे
प्रेम को आशय मिलेगा देव धरा पर आएंगे
रात का श्रृंगार करने दीपमाला छा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2022

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सत्य हो या कल्पना हो या फिर कोई अभ्यर्थना हो
स्वप्न हो माधुर्य कोई भावों की अभिव्यंजना हो
व्यर्थ आशाएं सभी कहो मन से क्यूँ कर रार ठानूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आज रोना व्यर्थ होगा आँसुओं का कुछ न अर्थ होगा
जब बूँद माटी में मिलेगी चाँदनी पल-पल जलेगी
जब चाँदनी अपनी नहीं फिर क्यूँ कहो श्रृंगार साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आएगा मधुमास फिर से, फिर से पपीहे गायेंगे
चाहे तुम जितना पुकारो पर हम नहीं फिर आएंगे
गीत ही जब ना रहेंगे कैसे कहो नव राग साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अक्टूबर, 2022

सोचते ही रह गये।

सोचते ही रह गये।   

कल्पना के पृष्ठ अंकित नेह की कुछ पंक्तियाँ
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

प्रश्न लाखों उठ रहे नेह की संवेदना पर
उँगलियाँ भी उठ रही गेह की अवचेतना पर
हैं दिलासे लाख लेकिन पास सम्मुख कुछ नहीं
दूर तक इन वीथियों पे दीखता भी कुछ नहीं
मौन सब संवेदनाएँ वीथियों में ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

चाहतें हर पल रही दूर हैं जो पास आएं
जो कभी बिछड़े सफर में साथ मिल गुनगुनाएं
सोचता हर पल यही दिल आज उसको क्या मिला
क्यूँ नहीं टूटा अभी तक हादसों का सिलसिला
हादसों के सब निशाँ वो साँस में ही घुल गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

हूक कभी उठी हृदय में कंठ में ही रुक गयी
नैन बरबस भींग कर के क्या कहे बस झुक गये
आज जाना हर कहानी ढूँढती है छाँव क्यूँ
और पगडंडी अकेली ढूँढती है गाँव क्यूँ
छाँव की मारीचिका में स्वप्न सारे ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20अक्टूबर, 2022

अंक में बस प्यार लिखना।

अंक में बस प्यार लिखना।  

स्वप्न का चुंबन पलक पर नेह का आधार लिखना
रात कितनी भी घनेरी अंक में बस प्यार लिखना।।

इस हृदय से उस हृदय का मेल माना के कठिन है
पास से गुजरो कभी तो पंथ का विस्तार लिखना।।

भूल हो चाहे जिधर की या दर्द की स्मृतियाँ पुरानी
भाव कुछ भी हो हृदय में आस का संसार लिखना।।

रूठ कर जो जा रहे हैं आज जीवन के सफर में
लौट कर आओ कभी तो नेह का अधिकार लिखना।।

रात माना है घनेरी कुछ नहीं जब दिख रहा हो
खोल पलकों के किनारे इक नया भिनसार लिखना।।

कौन कहता बादलों को दर्द कभी होता नहीं है
बूँद छूटी बादलों से टूटता अधिकार लिखना।।

उम्र कब ठहरी है बोलो "देव" सदियों के सफर में
मौन लम्हों में, पलों में स्नेह का विस्तार लिखना। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2022

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

बहुत सुनी हमने गीतों में
अनुरागों की मधुर कहानी
बहुत सुनी है जग से हमने
प्यार मुहब्बत और जवानी
मैं काश पलों के भावों को अपने गीतों में गा पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

नाजुक लम्हों में जीवन का
भूले से पल वो बिछड़ गया 
बसने से पहले सपनों का
पलकों से रिश्ता उजड़ गया
काश स्वप्न के बिखरे पल को मैं नयनों में फिर ला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

कुछ अश्रु तुम्हारे पलकों में
कुछ मेरी पलकों में आये
संध्या के उन मौन पलों ने
जाने तुमको क्या दिखलाये
काश नयन की निज पीड़ा को मैं तुमको फिर बतला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

सूरज मौन क्षितिज में जाकर
जब सागर तल में डूब गया
सांध्य सिमटती रही अकेली
तब अंजुलि से पल छूट गया
बिखरे पल की उस पीड़ा का मैं घाव अगर दिखला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

गात खंडहर वीराना सा
मन में लेकिन शोर उठ रहा
रात उनींदी पलकों में क्यूँ
पल-पल कोई कोर चुभ रहा
काश हाथ से छूटे पल से मैं पलकों को नहला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2022

चंचल नदिया लहराने दो।।

चंचल नदिया लहराने दो।।

मुक्त धरा उन्मुक्त गगन है
मुक्त भाव उन्मुक्त पवन है
मुक्त नयन में मौन सपन है
फिर क्यूँ ऐसी आज तपन है
मन भावों को महकाने दो
चंचल नदिया लहराने दो।।

कौन लहर का कहाँ किनारा
कहती कब नदिया की धारा
दूर क्षितिज पर तटबंधों का
कहो यहाँ है कौन सहारा
पल-पल ये बलखाती नदिया
विकल समंदर को पाने को।।

संध्या के इन मौन पलों में
कितना कुछ तुमसे कहने को
जो तुम मेरे पास नहीं हो
यादों को कुछ पल रहने दो
यादों के मानसरोवर में
मेरे मन को खो जाने दो।।

माना पथ में रात हुई है
दूर भोर किरणों की नगरी
अब भी पनघट की राहों पर
भोर खड़ी सर पर ले गगरी
दो बूँद प्यार की गागर के
मेरे अधरों को पाने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16अक्टूबर, 2022


साथी पर अब चलना होगा।।

साथी पर अब चलना होगा।।

बहुत हुईं बातें मृदुवन की
जगती के संवेदन मन की
तुमने मन की बात कही है
मैंने सारी बात सुनी है
मैंने भी कुछ तुमसे बोला
तुमने बंद हृदय को खोला
जीवन पथ पर मन जब हारा
इक दूजे का बने सहारा
ऐसे ही तो पलना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

कैसे बाँधूँ तुमसे बंधन
मन पर बोलो किसका शासन
मन तो प्रतिपल चला अकेला
साथ भले दुनिया का मेला
मन ने मन की बात सुनी है
तब जाकर ये राह चुनी है
जगती में है कौन हमारा
वादों का ही एक सहारा
वादा फिर से करना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

तकदीरों का कैसा नर्तन
संसृति का ये कैसा शासन
सागर के लहरों की जाने
तटबंधों से कैसी अनबन
टकराते हैं दूर किनारे
इक दूजे को मगर पुकारें
लहरों पर मन का नौकायन
खोल द्वार, सारे वातायन
लहरों सा ही बहना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

साथी हम दूजे को मानें
ऊंच-नीच क्या है पहचानें
इक दूजे का मान करें हम
इक दूजे का ध्यान धरें हम
अपनी सीमाओं को जानें
संकेतों को हम पहचानें
निजता का सम्मान करें हम
आहों में गुणगान करें हम
पल का मूल्य समझना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13अक्टूबर, 2022

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

माना तेज बहुत है धारा
पथिक वही जो थका न हारा
पग-पग जिसने पंथ बुहारा
आहों का ना लिया सहारा
जिसने जीवन क्या समझाया
आहों में भी जिसने गाया
उसके सपने हैं सुखदाई
जिसने मन की प्यास बुझाई
ऐसे ही पथ को अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

मरुथल जिसने पीछे छोड़ा
बिखरी सांसों को फिर जोड़ा
छोड़ा जिसने सभी निराशा
मन में भरकर नूतन आशा
जिसने सपनों को अपनाया
जिसने पलकों को सहलाया
जिसने राहें नई सुझाईं
जिसने की मन की सुनवाई
ऐसा जीवन तुम अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

कौन कहो जो सदा रहेगा
समय कहो क्या यहाँ रुकेगा
कौन कहो जो यहाँ अमर है
मिला यहाँ जो सब नश्वर है
जीवन छोटा पग-पग आशा
बड़ी, उमर से है प्रत्याशा
दूर दृष्टि वीथी पर डालो
अपना पथ तुम स्वयं सजालो
मन से मन को स्वयं मिलाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अक्टूबर, 2022

गात का नव आवरण हो।

गात का नव आवरण हो।  

शब्द का अवतार पा भाव में व्यवहार ला
शब्द को विस्तार देकर भाव में व्यवहार लाकर
गीत की नव कल्पना हो औ सुनहरी अल्पना हो
हाँ, भरे कुछ रंग मन में नेह का आशय गगन में
मौन का फिर से क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

वो मनुजता व्यर्थ होगा आहों का क्या अर्थ होगा
नेह किंचित जिसमें होगा स्वार्थ सिंचित जिसमें होगा
संशयों का भाव होगा प्रतीति का अभाव होगा
संशयों का फिर क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

सत्य तो लाचार कैसा झूठ का अधिकार कैसा
हैं निपुण जब पंथ सारे राह में पाषाण कैसा
दृष्टिगोचर कल्पना जब व्यर्थ सारी जल्पना तब
दुस्साध्य का फिर वरण हो गात का नव आवरण हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अक्टूबर, 2022


देख संध्या ढल रही है।

देख संध्या ढल रही है। 

मुक्त हो कर बंधनों से मिल रहे धरती गगन
झूमती हैं नाचती हैं बदलियाँ भी हो मगन
सज रहे गीत मनहर देख सागर के किनारे
चाहतों की तितलियाँ गीत में तुमको पुकारे
आज फिर से मिलन की आस मन में पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

ढल रहा है सूर्य देखो बादलों के अंक में
घुल रही है सांध्य देखो चाँदनी के रंग में
सांध्य का चमका सितारा कह रहा है पास आ
आ मिलें हम इस सफर में देखो अब न दूर जा
इस सफर की राह भी साथ अपने चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रश्मियाँ भी चाँद की देखो धरा को चूमती
ओढ़ कर आँचल गगन का मस्त हो कर झूमती
पंछियों के शांत स्वर भी कुछ इशारे कर रहे
दूर मन को छाँव के, सुंदर नजारे हर रहे
आस के आकाश की चाह मद्धम पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

चाहता है दिल यहाँ अब बात सब कुछ बोल दूँ
बंद सदियों से हृदय के द्वार सारे खोल दूँ
बोल दूँ भाव सारे जो बसे दिल में हमारे
तुम कहो पंक्तियों में आज भर दूँ चाँद तारे
देख तुमको गगन की बदलियाँ भी जल रही हैं
देख संध्या ढल रही है।।

है तमन्ना चाहतों के गीत सब अर्पित करूँ
और अधरों पर हृदय के प्रीत मैं अंकित करूँ
स्वप्न सिन्दूरी सजाऊँ नैन की पाँखुरी में
और भर दूँ नेह बस इस सुकोमल आँजुरी में
स्वप्न सिन्दूरी लिए चाँदनी भी चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रात से निस्तार होकर चाँदनी बिखरी यहाँ
रूप का श्रृंगार पाकर कामना निखरी यहाँ
आ भी जाओ गीतों की पंक्तियाँ खो न जायें
रात की आगोश में रश्मियाँ भी सो न जायें
सो न जाये प्रीत की दीपिका जो जल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

         हैदराबाद

        09अक्टूबर, 2022

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तेरी पलकों के आँसू को अपनी पलकों में लेता हूँ
अपने हिस्से की खुशियाँ सब तेरी झोली में देता हूँ
कितना कुछ पाया है तुमसे उसको हँसकर के सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

धूप-छाँव में इस जीवन के माना तुमने सबकुछ पाया
पर तुमको मालूम नहीं है तुमने कितना कुछ ठुकराया
मुझमें जो अवशेष बचे हैं उसको मुझको ही सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमको क्या जब भी चाहोगी नए बहाने मिल जाएंगे
जिस पथ तेरे कदम पड़ेंगे नए ठिकाने मिल जाएंगे
माना तेज बहुत है धारा लहरों में मुझको बहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमसे कुछ भी प्रश्न करूँ मैं आहों को स्वीकार नहीं है
कैसे तेरा नाम पुकारूँ अधरों को अधिकार नहीं है
साँसों में कुछ ताप बसे हैं उनको साँसों में बसने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

कागज पर अब कलम चला कर अंतरतम को रीत रहा हूँ
जब से तुमसे दूर हुआ हूँ खुद से लड़ना सीख रहा हूँ
जीता जो पल पास नहीं है हार गया जो पल सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अक्टूबर, 2022

कुछ तो लगाव है।

कुछ तो लगाव है। 

कदम-कदम पे रास्तों में कैसा ये दुराव है
न ओर है न छोर है न दिख रहा पड़ाव है।।

क्या अर्थ है, अनर्थ है क्या कहें क्या व्यर्थ है
हर घड़ी न जाने कैसा मोह का घेराव है।।

पलकों में भरे हैं स्वप्न कितने भोर के लिए
नींद से नयन का फिर जाने क्यूँ दुराव है।।

चल रहे हैं रास्ते यहाँ साथ में मेरे मगर 
हैं पूछते कदम मेरे दूर कितना गाँव है।।

अब थक गई है साँझ भी कठिन रहा सफर यहाँ 
सिलवटों पे माथे के अब रात का कसाव है।।

दूर आ गये कहाँ हम छोड़ कर गलियाँ सभी
जाने रास्तों से अब भी कैसा ये खिंचाव है।।

रात जोहती रही यहाँ भोर की कुछ रश्मियाँ
भोर का भी रात से, "देव" कुछ न कुछ लगाव है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         06अक्टूबर, 2022

कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।


कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

घने अँधेरे गलियारों में छोटा सा इक द्वार तलाशो
अंतरतम आह्लादित कर दे ऐसा कुछ उपकार तलाशो
निपट दूसरों की आहों में अपने गीत नहीं सुनना
दूजे के गीतों में भी अपने कुछ व्यवहार तलाशो।।

गीतों में जो मिला यहाँ उपहार कहो मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

अनुरोधों औ अनुदानों के मध्य झूलता जीवन सारा
जीवन की बाजी में जीवन कितना जीता कितना हारा
अवसादों के गायन में बस व्यर्थ नहीं ये जीवन करना
बहता पानी मीठा होता रुका यहाँ जो होता खारा।।

पानी सम जीवन का है क्या व्यवहार यहाँ मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

कद ऊँचा या पद ऊँचा हो समय सभी का न्याय किया है
अनुकंपा कब किया किसी पर कब बोलो अन्याय किया है
रुकी यहाँ लहरें नदिया की औ बंद हुए जब मार्ग कभी
दूर किनारे के कोरों से आशा का संचार किया है।।

आशाओं से जो पाया क्या आकार यहाँ मालूम नहीं
क्यूँ कर प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अक्टूबर, 2022

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

जगती के कितने कोने हैं
कुछ जाने कुछ पहचाने 
कुछ ने कुछ से आप मिलाया
कुछ अब तक भी अनजाने।।

उस अनजाने जीवन में जो पका नहीं था सीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन दर्पण से मन का दर्पण रीझ गया।।

जीवन की मुश्किल राहों ने
पग-पग खेल रचाये हैं
चले साथ राहों के जो भी
वे आहों में गाये हैं।।

आहों के गायन में देखा मन का उपवन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

रातों में सूनी पगडंडी
मौन दूर तक जाती है
सूने कितने हों गलियारे
रात भोर को पाती है।।

सूनी पगडंडी का नरतन अंतरतम तक बींध गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

नदिया की लहरों पर नौका
डगमग-डगमग जाती है
माना दूर किनारा कितना
लहरें फिर भी आती हैं।।

लहरों पर नौका का नरतन देखा सावन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

पलकों पर कितने सपने हों
नयनों को अफसोस नहीं
आहों ने कितना कह डाला
साँसों को अफसोस नहीं।।

साँसों के इस अपनेपन से आहों का मन रीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02अक्टूबर, 2022



चुप को हथियार बना।

गांधी जयंती एवं लालबहादुर शास्त्री जी के जन्मजयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
आज मैं आप सभी के समक्ष अपनी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैं इन महापुरुषों को समर्पित करता हूँ, आप के सम्मुख समीक्षा हेतु प्रस्तुत है--
********************

चुप को हथियार बना।  

चुप को अब हथियार बना कर
चुपचाप यहां रहना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

आवाजों का शोर बहुत ही
फैला हो जब दरबानों में
लगे भटकने मुखर चेतना
सांझ ढले जब मैखानों में।

तब चुप को हथियार बना कर
प्रतिकार यहां करना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

संवादों का दौर बहुत है
संवाद नहीं पर दिखता है
संसाधन के सम्मुख बोलो
खबरनवीस कहीं झुकता है।

लेकिन खबरों की दुनिया भी
जब मौलिक राह भटकती है
लिए मशाल हाथ मे तब-तब
उजियार यहां करना होगा।

खबरों की नैतिकता पर जब
शंका के बादल छाते हैं
लोकतंत्र दिग्भ्रमित हुआ तब
बस कुटिल जन प्रश्रय पाते हैं।

खबरों के व्यवहारों पर
विचार पुनः-पुनः करना होगा
जहाँ मिले नहीं मार्ग कोई
प्रतिकार हमें करना होगा।

लोकतंत्र में चुप्पी भी अब
है जनता का हथियार बड़ा
इसे बनाकर शस्त्र यहां पर
कितनों ने पग-पग युद्ध लड़ा।।

मुश्किल हो जब कहना कुछ भी
मौन भाव से कहना होगा
इसको ही हथियार बनाकर
कुत्सित से फिर लड़ना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अक्टूबर,2022

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

इस जिंदगी की वाटिका में उम्र के कुछ पल मिले
और कितने पात बनकर राह में ही खो गये
वक्त की पगडंडियों पर चाहतें कुछ यूँ बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कब दिवस कब रात आयी ये समझ पाई नहीं
मेघ तो बरसे यहाँ पर आस मुरझाई रही
वक्त की थी जिद यहाँ या राह की मजबूरियाँ
जो पास था समझे नहीं दूर सुनवाई नहीं।।

चाह हर पल जीत की ले ख्वाहिशें ऐसी बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

साँस की हर आस पल-पल द्वार पर ठहरी रही
अंक से यूँ पल गिरे सब चाहतें बिखरी रहीं
अहसास कोरों से पलक के बूँद बन यूँ गिरे
आँजुरी से चाहतें सब रेत बन झरती रहीं।।

खोलने जब द्वार के पट चाहतें आगे बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कंठ से कुछ शब्द निकले वीथि पर आगे बढ़े
होंठ तक आये मगर न जाने क्यूँ वो रुक गए
और जो निकले अधर से कामनाओं में घुलीं
ताप में जिनके झुलस कर रास्ते सभी दह गये।।

ओर जब कहने कहानी शब्द अधरों ने धरे
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अक्टूबर, 2022

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