नग्न प्रदर्शन


चित्र चिंतन- नग्न प्रदर्शन                                   
नग्न प्रदर्शन, खून खराबा
कहीं शोर गुल कहीं सियापा
भय का अप्रत्याशित परिप्रेक्ष्य बड़ा है
डरा सहमा वो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है।।

हर कोई कोशिश कर रहा
खुद बचने को काठ हो रहा
नीति-अनीति के उहापोह से परे
अंतर्द्वंद्व से दो चार हो रहा।।

इक सनक भाव धारणा बदल रही
पथभृष्ट विचारों से पहचान खो रही
ध्वस्त हो रहे हैं मानक सारे
विश्वासों से आघात हो रहा।।

जनमत को तब कौन पूछता
सत्ता की जब धाक बड़ी हो
बर्बादी की परवाह कहां तब
जब केवल बकवास हो रहा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
31मार्च, 2020




प्राकृतिक त्रासदी

             प्राकृतिक त्रासदी

कैसी त्रासदी कैसा कहर है
मौन दिशाएं मौन पहर है
बंद हैं खिड़की, बंद दरवाजे
इक दूजे की किसे खबर है।

हर कोई बेजार हो रहा
लड़ने को तैयार हो रहा
इनको कैसे क्या समझाएं
मातृ हृदय सतत रो रहा।

कहीं हैं भूखे कहीं है प्यासा
कैसे दिलाएं उन्हें दिलासा
सपनों की जो गठरी बांधी
टूट कर तार तार हो रहा।

दिल बैठा जाता है उनके इस हाल पे
हुई ख़ता क्या आज हम इंसान से।।

रोकूँ कैसे जो बढ़े कदम हैं
अनजाने हो रहे सितम हैं
जिधर भी देखो मची है भगदड़
व्याकुल विह्वल असहाय हुआ है।

किस पत्रग ने डँसा चमन को
क्या हुआ है चैनो अमन को
जिधर भी देखो जीवन रुद्ध है
भाव शून्य चेतना अवरुद्ध है।

सामने सब कुछ टूटा जा रहा
मन ही मन में घुटा जा रहा
क्या हो गया है आज शहर को
किसने घोला इसमें ज़हर को।

हो करके मजबूर हम इसको जी रहे
घूंट घूंट कर के ज़हर को पी रहे।।

प्रकृति ने उपहार दिया है
लोभ मन ने घात किया है
काट दिए हैं जंगल सारे
बेघर हुए पशु पक्षी बिचारे।

रो रही है धरती सारी
व्याकुल हैं सारे नर नारी
शुद्ध हवा के लिए तरसते
बादल बदले नैन बरसते।

प्रकृति का ये दर्द बड़ा है
मानव पर भी कष्ट बढ़ा है
गर अब भी न हम संभलेंगे
कैसे इस मुश्किल से लड़ेंगे।

जो किया देर तो फिर हम सब पछतायेंगे
प्रकृति के इस कहर से कैसे बच पाएंगे।।

भूकंप, बाढ़, सूखा व सुनामी
करेगा तब प्रकृति मनमानी
आओ सब मिल जुल कर सोचें
प्रकृति का संरक्षण सोचें।

नदी झील जंगल सारे
हम सबका जीवन सँवारे
बिन इनके जीना मुश्किल है
मानवता है इनके सहारे।

आओ फिर मिल जाएं सारे
मिल जुल कर उपाय विचारें
प्रकृति क्षरण जो रोक पाएंगे
तभी त्रासदी से बच पाएंगे।

फिर देर नही करना अपने व्यवहार का
वरना कारण बन जायँगे अपने संहार का।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2020

संघर्षों की राह

              मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र               

         चित्र चिंतन- संघर्षों की राह                              
जो मानवता से प्रीत है सच्ची
तो संघर्षों की जीत है पक्की
चलते जाना रुक मत जाना
संघर्षों की राह है सच्ची।।

अगणित भले बाधाएं आएं
भोग-विलास मन भरमाएं
अटल इरादे  हैं जो तेरे
संघर्षों की राह है सच्ची।।

कर्मठता पर्याय मनुज का
आलस्य है पर्याय दनुज का
कर्मपथ पर अविराम चला चल
संघर्षों की राह है सच्ची।।

भौतिकता खोने का भय कैसा
पथ के शूलों से घबराना कैसा
खोने को है पास तेरे क्या, पर
जीत से तेरी कीर्ति है पक्की।।

चल उठ फिर आगे बढ़ तू
संघर्षों की ज्वाला बन तू
जितेंद्रिय जो आज बना तो
संघर्षों की जीत है पक्की।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29मार्च, 2020

पलायन

                 मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र
चित्र चिंतन-पलायन।                                      
पलकों में इक दर्द लिए
उर में सांसें सर्द लिए
बोझिल कदमों से चला जा रहा
पल-पल तिल तिल मरा जा रहा।

हर धड़कन इक चोट सी लगती
हर पदचाप पे इक हुक सी उठती
कहीं कोई तो होगा अपना
जो दिखलाता आत्मीयता का सपना।

थके समेटे सपनों की गठरी
आस की चाहत, विश्वास की छतरी
चक्षु विकल हैं, नम हैं ग्रीवा
टूट गयी जो करी प्रतिज्ञा।

नीड़ छूटता जाता है क्यूँ
नन्हा सपना व्याकुल है क्यूँ
नही कहीं है उत्तर अब तक
सब कुछ छूटा जाता है क्यूँ।

झर झर बहते आंसू नैनों से
ढांढस उसे बंधाऊँ कैसे
पूछ रहा हूँ मैं खुद ही से
पलायन उसका रोकूँ कैसे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28मार्च, 2020

मां जब तू लोरी गाती थी...


जब तू लोरी गाती थी।                                                              
नींद मुझे तब आती थी
मा जब तू लोरी गाती थी।।

दूर देश तू गयी कभी न
पर तू सैर कराती थी
मीठे-मीठे प्यारे सपने
लोरी में भर गाती थी।
नींद मुझे तब आती थी
मां जब तू लोरी गाती थी।।

चंदा तारों की लोरी
मीठे सपनों की डोरी
परियों के देश पहुंचकर
नींद आती तब चोरी चोरी।

घुनघुना बजाती, बाल सहलाती
चूम-चूम माथे को पल पल
तू ही नींद बुलाती थी।
नींद मुझे तब आती थी
मां जब तू लोरी गाती थी।।

जब तक तेरी गोदी में मैं था
दुनिया की कोई खबर कहां थी
छूट गयी है गोदी जब से
रह रहकर टीस सताती है।
मां नींद मुझे तब आती थी
जब तू लोरी गाती थी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28मार्च, 2020





हंसों का जोड़ा

                  मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र
चित्र चिंतन-हंसों का जोड़ा।                              
दो हंसों का जोड़ा 
नैनों में यूँ समाया है
लगता है फुर्सत से जैसे 
ईश्वर ने बनाया है।।

नील गगन की छांव तले
खुली हवा के झोंकों में चहके
झूम-झूम अठखेलियाँ करते
सुरम्य दृश्य बनाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

रंग-बिरंगी, जगमग दुनिया
पर पल-पल रंग बदलती दुनिया
ऐसे मायावी जग में भी
सुघड़ श्वेत रंग पाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

पवित्र आत्मा, पवित्र है रिश्ता
पवित्र भाव है, पवित्र है दृढ़ता
अवसादों में भी संग-संग रह
दृष्टांत यही समझाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27मार्च 2020

निर्झर

मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र

चित्र चिंतन-निर्झर।      
                                                     
झर झर झरता रहता निर्झर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

नील गगन की छांव में बहता
मौन शिखर के चरण में बहता
सद्य विहंगम दृश्य यह सुघर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

प्रशस्त पथ है मुक्त मुखर
प्राणों का स्वर भावों में भर
रजत सनात सौंदर्य है अमर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

नही कोई अवरोध बड़ा है
जीवन की गति है ये निर्झर
इठलाती लहरें मिलती झीलों में
नही देखता पर पीछे मुड़कर।।

चलना है चलते रहना है
जीवन नही ठहरता पलभर
यही सीख बतलाता रहता
बिना रुके बहता है निर्झर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27मार्च 2020


हौसला रख तू ज़िन्दगी

हौसला रख तू ज़िन्दगी।                                                                
हौसला रख तू ज़िन्दगी
फिर सुबह मुस्कुराएगी
आज जो कैद है तू
तो कल फिर बाहर आएगी।

इक संकट ने निःशक्त किया 
तेरे अस्तित्व पर घात किया
रख तू हौसला प्रतिपल
इनसे ही जंग जीती जाएगी।
हौसला रख तू ज़िन्दगी
फिर सुबह मुस्कुराएगी।।

जो आज कैद है कमरों में
दूर कर अपने मन के अंधेरों को
इरादे जो  बुलंद रहेंगे तेरे
तो सपने सच होंगे सारे।

अंधेरी राहों में दीप जला
राहों को आसान बनाएगी
हौसला रख तू ज़िन्दगी
सुबह फिर मुस्कुराएगी।।

क्या निशा प्रभात को कभी रोक पाएगी
इतना कमजोर तो नही तू कि
विपदाएँ तेरे हौसलों को तोड़ पाएंगी
तुझमें जीतने की शक्ति है
उठ चल पड़ेगा जब तू
मंज़िल भी मिलेगी तुझको
मिलने का आनंद फिर आएगा।।

हौसला रख तू ज़िन्दगी
हौसलों से तू हर जंग जीत जाएगा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25मार्च 2020

नव संवत्सर

नव संवत्सर।                                                    
भोर की बेला यह पावन
सिंदूरी-सिंदूरी आंगन
अवनी से अंबर तक फैला
नूतन संवत्सर यह पावन।।

पूरब दिश से मधु किरणें आईं
मानस मन में खुशियां छाईं
सुरभित मन का कोना कोना
हर्षित प्रभात ले किरणें आईं।।

उपहारों से भरा हो प्रतिपल
देवों का आशीष हो प्रतिपल
मात-पिता के चरणों मे अर्पित
सुखद बनाएं जीवन प्रतिपल।।

शाख-शाख पर नवपुष्प खिल रहे
शीतल प्रभात उपहार बांट रहे
नदियों की कल कल धाराएं
निर्झर संग मिल गीत गा रहे।

पंछी के मंगल कलरव ने
आलस्य सारे दूर भगाया
स्फूर्ति चेतना भावों में भर
नवप्रभात लिए नव संवत्सर आया।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25मार्च 2020

मैं हिंदुस्तान हूँ




मैं हिंदुस्तान हूँ।   
                                             
मैं हिंदुस्तान हूँ
मैं तुलसी की चौपाई हूँ
मैं खय्याम की रुबाई हूँ
मैं कबीर का दोहा हूँ
मीर की ग़ज़ल हूँ मैं
मैं रसखान का छंद हूँ
मैं ही मीरा का भजन हूं
मैं वेद और पुराण हूँ
मैं बाइबिल और कुरान हूँ
मैं गीता का ज्ञान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं दीपावली का प्रकाश हूँ
मैं मुक्त आकाश हूँ
मैं होली की मस्ती हूँ
भाईचारे की बस्ती हूँ
मैं क्रिसमस की रौनक हूँ
मैं ईद का अजान हूँ
मैं अगणित त्यौहारों की खान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं काशी का घाट हूँ
चिश्ती की दरगाह हूँ
बुद्ध के उपदेशों का प्रकाश हूँ
मैं तीर्थराज प्रयाग हूँ
मैं ही नानक का जन्मस्थान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं हिमालय का प्रभाव हूँ
मैं गंगा का प्रवाह हूँ
मैं सागर सा विशाल हूँ
मैं नभ का प्रसार हूँ
शिक्षा संस्कृति का प्रसार हूँ
विविधता में एकता का भंडार हूँ
मैं नैतिकता का आह्वान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हूँ
मैं प्रेम की स्वीकार्यता हूँ
मैं अपनेपन का एहसास हूँ
मैं सभी के दिलों के पास हूँ
मैं लोगों के दिलों में बसा प्यार हूँ
मैं सहनशीलता का प्रतिमान हूँ
जी हां मैं हिंदुस्तान हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

कसौटी

कसौटी                                                         

तिरस्कार मन विह्वल करता
अविश्वास मन विक्षत करता
ठहरेगा पर वही यहां
कसौटी पर जो खरा उतरता।

अगणित थापों को है सहता
तप करके ही सोना बनता
तब जाकर मानस मन की
कसौटी पर वह खरा उतरता।

शंका तो मानव स्वभाव है
पल-पल, प्रतिपल गहरा प्रभाव है
खरा उतरता वही कसौटी पर
जिसका प्रबल मनोबल है।

सत्य मार्ग माना दुष्कर है
पग-पग में अगणित कंटक हैं
पर अमूल्य निधि ये जीवन धन है
जो इस धन को धारण करता
वही कसौटी पर खरा उतरता।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19 मार्च 2020

भोर का स्वागत करो

भोर का स्वागत करो।            
                           
भोर की पहली किरण
जब धरा पर आयी
सिंदूरी रंग रँगी धरती
नव बेला मुस्काई।

पनघट पर पंछी चहके
नभ में लाली छाई
आलस्य के बादल छंटे 
तन मन में स्फूर्ति आयी।

शीतल-शीतल मंद पवन ने
जीवन की बगिया महकाई
बाग-बगीचे सब झूम उठे 
खेतों में फसलें लहराईं।

दूर शिवाला की ॐ ध्वनि
नव चेतना जगाती है
सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर 
एहसास यही दिलाती है।

नई सुबह है, नया जोश है
नवजीवन अलबेला है
त्याग शैथिल्यता स्वागत करो
ये नवप्रभात की बेला है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18 मार्च, 2020


जिंदगी कभी तो मुस्कुराएगी

जिंदगी कभी तो मुस्कुराएगी।                             
कल मैंने देखा उसको
गली के मोड़ से कुछ चुनते
आंखों में एक आस लिए
शायद कुछ सपनों को बीनते
देर से देखता रहा मैं उसको
अपनी ही उंगलियों पर कुछ गिनते।

जब नही रहा गया तो मैंने पूछा-
इस ढेर में तुम क्या चुनती हो
रह रहकर अपनी उंगलियों पर
तुम क्या गिनती हो।
बड़े ही भोलेपन से उसने कहा-
साहब मैं अपने दर्द को गिनती हूँ
भूख से तड़पते अपने मन को गिनती हूं।

मैंने कहा- पुनर्वास की कितनी ही योजनाएं बनी
क्या तुमने अभी तक कोई योजना नही सुनी,
सुनी तो बहुत मगर साहब
हमारी कौन सुनता है
यहां जाने कितने ऐसे लोग हैं
जो हमसे भी पहले अपने सपनों को गिनते हैं।
योजनाएं चाहे जो भी हों
पहले वो अपना हिस्सा ढूंढते हैं।
नीचे से ऊपर तक रोज़ हज़ारों वादे मिलते हैं
उन्हीं वादों के पैबन्दों से हम
अपने सपनों को सिलते हैं।

उसकी आँखों में व्यंग्य था 
और मेरी आंखों में शर्मिंदगी
सोचा कैसे कैसे रंग दिखाती है जिंदगी।
हम भी तो दो वक्त की रोटी
की जद्दोजहद में लगे रहते हैं
कभी खाना ज्यादा हो जाये 
तो उसे हम फेंकते हैं।
हम बासी नहीं खाते हैं
कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।
कभी नही सोचा कि कुछ लोग
इन्ही टुकड़ों में अपने सपनों को बीनते हैं।

वो कहते थे कि वे अध्यादेश लाएंगे
देश से गरीबी,कुपोषण व भुखमरी हटाएंगे
जल्द ही समाजवाद लाकर
आर्थिक असमानता को मिटायेंगे।
पर जब भी उन वादों की हकीकत को तोला है
हर बीतते वादों में पाया अगणित घोटाला है।

सालों साल हम घोटालों में जीते आये हैं
उनके चाहे-अनचाहे वादों की घुट्टी पीते आये हैं
इस उम्मीद में कभी तो सबकी जिंदगी जगमगाएगी
महलों की जगमग के साथ ही
दिए की एक रोशनी टिमटिमाएगी
उन गगनचुंबी अट्टालिकाओं के साथ ही
झोपड़ियों की झांकती दीवारों से ही सही
कभी वो जिंदगी भी मुस्कुराएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
15 मार्च 2020



कैसे चला पाओगे

कैसे चला पाओगे।     
                                     
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे
ज़िंदगी की राहों में
अगणित पड़ाव आते हैं
हर पड़ाव में कुछ सिमटा है
क्या सब समेट पाओगे
यदि समेट भी लिया तो
क्या संभाल पाओगे।
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

ज़िंदगी में बोझ उठाओ, बोझा नही
बोझ- जिम्मेदारियों का, 
बोझ-उत्तरदायित्वों का
बोझ-सांस्कारिक आत्मनिर्भरता का।
लोगों का क्या 
वो तो त्रुटियां ही निकालेंगे
लोगों की बातों में आये
तो कैसे जी पाओगे।
कितना बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

कल किसी के धोखे से 
घायल हो गए थे
किसी के अनदेखेपन से 
आहत हो गए थे
ये तो उनका ही आचरण है
फिर तुम क्यों पछताते हो
जब उन्हें रोकना तुम्हारे वश में नही
व्यर्थ ही अपना रक्त जलाते हो।
क्यों इसका बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

सफल तो वो होते हैं
जो दर्द से परे 
पुनर्वास निकाल लाते हैं
मिलती चोटों के 
आप ही मलहम बन जाते हैं
उपहास व रोना उनका काम है
जो औरों को नीचा दिखाते हैं
जो तुम सन्मार्गी ठहरे तो
व्यर्थ, इन पर वक्त नहीं गँवाओगे।
क्यों लेते हो इतना बोझा 
कैसे चला पाओगे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

साथ नहीं छोड़ेंगे



साथ नहीं छोड़ेंगे

संग संग चलना है हमको
हम  साथ  नही  छोड़ेंगे
इक दूजे की छांव बने हैं
अब  छांह  नही  छोड़ेंगे।

आंधी  आये तूफां आये
कितनी ही बाधाएं आएं
पुनर्मिलन ये हो के रहेगा
कितनी ही विपदाएं आएं।

जन्मों जन्मों बाद मिले हैं
सांस-सांस में फूल खिले हैं 
उर से उर का संगम  है ये
एहसास  के  दीप जले हैं ।

तुमसे है अब श्वास का रिश्ता
जीवन भर विश्वास का रिश्ता
बंधन  ये अनमोल  है  अपना
उम्मीदों के विन्यास का रिश्ता।

आव कहीं हो या दुराव
हम विश्वास नही तोड़ेंगे
संग संग चलना है हमको
अब ये साथ नहीं छोड़ेंगे ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       


रंग दो कान्हा

रंग दो कान्हा                                                    
मोहे रंग दो कान्हा
अपने ही रंग में
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं
रम जाऊं तुझमें आज।।

जो रंग रंगी राधा रानी
जिसमें झूमी मीराबाई
जो रंग में कबीरा नाचा
नाचे खुसरो और रसखान।
मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया
डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।

तुम बिन है अब कौन सहारा
तुम ही करो उद्धार
कौन है आपन कौन पराया
तुम ही सबका आधार।
अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो
बन  जाऊं चैतन्य जैसा आज।।

मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब
रम जाऊं तुझमें आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


होली

होली                                                              
ग्रीष्म ऋतु की आहट हुई
शीत ऋतु का अवसान
होली की आहट हुई
रंगों में डूबा हिंदुस्तान।।

मन में कोई मैल न रहे
दिलों में कोई बैर न रहे
मिलो इक दूजे संग ऐसे
खत्म हो जाये सब अभिमान।।

उम्र की रफ्तार तेज ही रही
कर्तव्यों की धार तेज हो चली
इन सबमें सामंजस्य बिठाकर
स्थापित करो नया प्रतिमान।।

रंग, अबीर, गुलालों से
भींग रहा है हर घर आंगन
प्रेम-प्यार और समर्पण से
सराबोर है सब मानव तन।।

मन में कोई भेद न रहे
दिल को कोई खेद न रहे
अंतर्मन पावन हो जाये
संशय का अवशेष न रहे।।

लगा कपाल पर रंगों का चंदन
करो आज इक दूजे का वंदन
निकलो बन मस्तों की टोली
प्यार का प्रतीक है ये होली।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

प्रातः वंदन

           

  प्रातः वंदन।           
                             
उठो मनुज स्वागत करो
स्नेहिल, सुरभित प्रभात का
त्याग कर आलस्य सारे
प्रभात का स्वागत करो।

क्यूँ सो रहा है अभी तक 
स्वयं से साक्षात्कार कर
हो रही है नवीन भोर
इस भोर का स्वागत करो।

व्यतीत निशा अब हो गयी
तम की चादर हट चुकी
छोड़ कर प्रमाद सारे
हर्ष से स्वागत करो।

बन चुनौती खड़े रहो
प्रतिपल कराल काल के
बन के दीपक ज्ञान का
दिव्य ज्योति प्रसारित करो।

है पल ये शंखनाद का
धर्म राष्ट्र के प्रसार का
अपने शंखनाद से तुम
विदीर्ण व्योम को करो।

उठो हिमाद्रि गिरी श्रृंग से
है माँ भारती पुकारती
त्याग कर अज्ञान सारे
स्वदेश के लिए जियो
स्वदेश के लिए मारो।

त्याग कर आलस्य सारे
नव प्रभात का स्वागत करो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

बनो स्थिर, न बनो अधीर

बनो स्थिर अचर, न बनो अधीर।                     

दृष्टिगत होता जब हिमगिरि
प्रश्नों का अंबार मचलता
प्रकृति के अगणित झंझावत भी
क्यों कर सके न इसे अधीर।।

मन में भर उत्साह नियत नित
कौतूहल वश हृदय सत्य ढूंढता
यूँ तो है सिकुड़न धरा का
फिर भी न कभी होता अधीर।।

कितनी सरिताओं का उद्गम है
निर्झर-झीलों का संगम है
नित्य पवित्रता के भाव दर्शाता
नहीं कभी होता अधीर।।

है कितना कुछ अध्ययन को इससे
व्यर्थ भटकता मन संशय में
अटल-अविचल भाव सिखाता
बनो " अजय " स्थिर-अचर, न बनो अधीर।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



जरासंध वध

      जरासंध वध।                                        

मय दानव के सहयोग से
सभाभवन का निर्माण किया
शुभ मुहूर्त देख के तब
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया।।

राजसूय यज्ञ की आवश्यकता
नारद श्री ने तब सलाह दिया
पर जरासंध है यज्ञ का बाधक
माधव ने तब संकेत किया।।

बड़ा क्रूर , निर्दयी है वो
उसने आतंक मचाया है
वीरों से अतिवीरों को
उसने बंदी बनाया है।।

राजसूय यदि करना है
तो खुद को तैयार करो
यज्ञभूमि जाने से पहले
जरासंध को परास्त करो।।

युद्ध विजय का उद्देश्य लिए
तब ब्राम्हण का वेश धरे
सहित अर्जुन-भीम के, माधव
जरासंध के दरबार गए।।

ब्राह्मण समझ करके उनको
जरासंध ने सत्कार किया
राजसूय यज्ञ की खातिर तब
भीम ने युद्ध के लिए ललकार दिया।।

कई बार अवसर वो आया
जब भीम ने उसे हराया था
चीर करके धड़ को उसके
उसे नर्क लोक पहुंचाया था।।

पर था ऐसा वरदान उसे
सशरीर पुनः वो जुड़ जाता
युद्ध विजय की हर कोशिश को
भीम के वो मिटा जाता।।

उन दोनों का युद्ध बड़ा था
सबके पसीने छूट गए
लड़ते-लड़ते दोनों को 
जब तेरह दिन बीत गए।।

किया इशारा तब माधव ने
ऐसे न उसे हरा पाओगे
चीर के अलग दिशा में धड़ को
जब फेंकोगे तब विजय पाओगे।।

दिन चौदहवाँ जब आया
तब जरासंध कुछ थका दिखा
चीर के धड़ को दो भागों में
भीम ने अलग दिशा में फेंक दिया।।

जरासंध की मृत्यु से हर्षित
तब सारा साम्राज्य हुआ
मुक्त हुए बंदी सब राजा
राजसूय का सम्मान किया।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...