रखता हूँ

         रखता हूँ         

ऐ ज़िंदगी तेरे हर प्रश्नों का जवाब रखता हूँ
तेरे हर गुज़रे पन्नों का किताब रखता हूँ।
तुझे संवारने में गुज़र गए जो हसीन पल
उन सभी पलों के हिसाब रखता हूँ।।

हर रिश्ते में मैंने खुद को ही ढूंढा है
तस्वीर किसी की भी रही हो
उसका अक्स खुद में ही ढूंढा है
खुद को भूल न जाऊं कभी
इक आईना हमेशा पास रखता हूँ।।

ऐ ज़िंदगी तेरे बीते हर पल का हिसाब रखता हूँ।।

चंद लम्हे पहले साथ चल रहे थे
चंद लम्हों में ही बेज़ार हो गए
सुनकर भी उनके सारे गिले शिकवे
मैं होठों पर हर पल मुस्कान रखता हूँ।।

ये सोचकर के बड़े अनमोल रिश्ते हैं ये दुनिया के
मैं इन सभी रिश्तों का मान रखता हूँ
डरता हूँ कि कहीं रूठ न जाएं ये रिश्ते
इसलिए अकसर चुपचाप रहता हूँ।।

ये न समझ ऐ ज़िंदगी
के तुझसे मैं डर गया हूँ
सच तो ये है कि
मैं तेरे दिए हर ज़ख्मों का हिसाब रखता हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय





अभी शुरुआत है

   ये अभी शुरुआत है      


हौसला रख ऐ ज़िंदगी
ये अभी शुरुआत है
किसको कब कब क्या मिला
ये मुकद्दर की बात है।।

साथ चल तू वक्त के
हौसलों की थाम कर
आएगी मंज़िल नज़र
बस तू यूँ ही प्रयास कर।।

लोग ताने दें तुझे
या फिर करें कटाक्ष कहीं
तेरी है ये जिंदगी
बस इतना तू खयाल रख।।

तू जो राहों पर चला
तो न बाधाओं का विचार कर
जो भी बाधाएं मिलें
उनकी अंगीकार कर।।

रिश्तों की उलझन यहां
अपनों का सम्मान भी
चाहे जैसी भी घड़ी हो
खुद पे तू विश्वास कर।।

शब्दों की हो वेदना 
या झूठ का प्रहार हो
ज़िंदगी का गीत है ये
बस तू यही आभास कर।।

अर्थ मेरे हैं कई
और कई विस्तार भी
जिसने जैसा पढ़ लिया
वैसी ही इक किताब हूँ।।

हौसला रख ऐ ज़िंदगी
ये अभी शुरुआत है।।

अजय कुमार पाण्डेय




जी लेते हैं

       जी लेते हैं       


जब जो भी सोचा कर लेते हैं
ज़िंदगी कैसी भी हो , जी लेते हैं।

यूँ तो बेखौफ खेला करते हैं हम
पर जाने क्यों अपनी ही जीत से डरते हैं।

क्या सच्चा था क्या झूठा था
अब ध्यान नही रहता ,
जिसको भी परखा था
सब भूल गए हैं।।

अब तो चारों तरफ 
एक धुंधली सी तस्वीर नज़र आती है,
सूरत जो भी बनाई थी जहन में
सब भूल गए हैं।।

सुनता रहा सबों के शिकवे खामोशी से
जब अपनी बारी आई तो सब भूल गए हम।।

छुप के रोते हैं हम ज़माने की नज़रों से
अब तो शिकवा भी खुद से ही किया करते हैं।।

वक्त मिले तो कभी ढूंढ लेना
मेरी वफाओं को,
शायद तुम्हे ही मिल जाये
तुम्हारे जानिब किसी रस्ते में।।

अजय कुमार पाण्डेय



समझना होगा

    आज समझना होगा


दिल की अद्भुत भाषा है
इसको आज समझना होगा
कर प्रखर मस्तिष्क को अपने
दिल पर संयम रखना होगा।

बनकर मूक बधिर इस जग में
उपालंभ सारे सुनना होगा
जो दिल को आज समझना है तो
खुद को आज परखना होगा।

कौन है अपना कौन पराया
इससे आज उबरना होगा
सम्बन्धों में बनी दीवारों को
फिर से आज दरकना होगा।

सम्बन्धों को जो आज समझना है तो
खुद को आज परखना होगा।।

सन्देहों के आसमान से 
षड्यंत्रों की बू आती है
अहंकार के अवशेषों से
दीवारों को दरकाती है
अवसादों की शैया को
फिर से आज सिमटना होगा।

षड्यंत्रों से जो निबटना है तो
फिर से आज सम्भलना होगा।।

ढाई आखर प्रेम छोड़कर
स्वार्थी सब अनुबंध हुए
ढलने लगा जब कोख का जीवन
अर्थहीन  सम्बन्ध हुए
कोख की बढ़ती इस पीड़ा को
सबको आज समझना होगा

खुद की आज समझना है तो
कोख का दर्द समझना होगा।।

अजय कुमार पाण्डेय


मौसम बदला न बदला नसीब

गौतम गोविंदा फ़िल्म का गाना 
इक रुत आये इक जाए
मौसम बदले न बदले नसीब...
की तर्ज पर  गीत----

मौसम बदला न बदला नसीब

सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदला न बदला नसीब।

जब जब आये यही दोहराए
मैं बदलूँगा देश का नसीब 
पर सालों से वैसा है सब
मौसम बदला न बदला नसीब।।

आंख तरस जाती दर्शन को 
नहीं आते हैं
पर बाद पांच बरस के
खुद ही आ जाते हैं
इक-इक वोट की खातिर वो
पग पग शीश नवाते हैं
क्या ऊंचा क्या नीचा
क्या अमीर और क्या गरीब
पर सालों से सब वैसा ही है
मौसम बदला न बदला नसीब।।

बंजर होती धरती 
पर प्यासा है गरीब
तक तक तरसे आंखें
कोई न आता करीब
बरस बरस वादे दरद बढाये
सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदले न बदले नसीब।।

मिल जुल करके रहना था
पर भूल गए
स्वार्थ में अंधे हो करके
सब टूट गए
राजनीति के चंगुल में पड़ 
भूल गए सब अपना वजूद
सत्ता आये सत्ता जाए 
मौसम बदले न बदले नसीब।।

भूख कुपोषण और गरीबी
अपमान कराए
विश्व पटल पर कैसे
अपना मान बढ़ाएं
जन गण मन के हे रखवालों
अब तो करो तुम कोई उपाय।
सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदला पर
क्यूँ न बदला नसीब।।

अजय कुमार पाण्डेय

कैसे भुला पाओगे

   कैसे भुला पाओगे           


माना मेरी ख़ता 
माफी लायक नही
पर ख़ता क्या थी
कभी तो बतला देते
मैं भी समझ जाता
यदि मुझे समझा देते।।

तुमने तो हमेशा 
मुझे छोड़ दोगे कहा
जो वही बात 
एक बार मैंने कही
तो बुरा मान गए।

इक वो भी दौर था
जब मेरी खामोशी 
भी समझ जाते थे
एक ये दौर है
मेरी आवाज भी 
सुनाई नही देती।

यूँ तो मैंने कभी
तुम्हारा बुरा नही चाहा
शायद यही बात मैं तुम्हें
कभी समझा नही पाया।

हम दोनों ही डरते रहे
एक दूजे से बात करने से
कहीं किसी बात पर
फिर से दिल न दुःख जाए।

जाना ही था तो 
कुछ तो बता जाते
झूठा ही सही कोई 
इल्ज़ाम ही लगा जाते
अब क्या बताऊँ
सबको तेरे जाने का सबब
मेरे लिए न सही इक बार 
ज़माने के लिए ही आ जाते।

तुम्हे चाहना
माना मेरी ख़ता ही सही
इक बार इस ख़ता की
सज़ा देने के लिए ही आ जाते।

अपनी हस्ती ही क्या है
 इस ज़माने में
इक ख्वाब हूँ
आंख खुलते ही 
बिखर जाऊंगा।

मेरी गीतों को इतनी
शिद्दत से न पढा करो
गर समझ गए तो
कभी मुझे भुला न पाओगे।।

अजय कुमार पाण्डेय

होई कइसे गुजारा

     होइ कैसे अब गुज़ारा        

 नगरी नगरी गली चौबारा
सगरो गूंजे एक्कई नारा
भूख गरीबी अउर अशिक्षा
से होइ कैसे अब छुटकारा।
नगरी नगरी........

पढ़ाई लिखाई सब महंग भयल हौ
दवा दवाई महंग भयल
टूटी फूटी खपरैल से झांके
टूटी फूटी खपरैल से झांके
एक तिहाई जन बेचारा।
अइसन ही जो हाल रही त
कैसे होइ अब गुज़ारा।।
नगरी नगरी....…...

खेती में अब मोल नही हौ
विह्वल हौ हलधर बेचारा
रोज़ बज़ारे जाइ जाई के
लौटत हौ ख़लिहर बेचारा
लरिका और मेहरारू ताकें
लरिका और मेहरारू ताकें
मारि के आपन मन के सारा
छोटकी भी अब बड़ी हो गयल
लाई कहां से दहेज बेचारा,
अइसन ही जो हाल रही तो
होई कैसे अब गुज़ारा।।
नगरी नगरी गली चौबारा......।।

सीमा पे जो जवान डटल बा
मन में ओकरे खयाल इहे बा
जाने कौन आखिरी पल हो
मन मे हरदम सवाल इहे बा
लरिका-बच्चा और मेहरारू
के गुजरत होइ कइसे दिन सारा
माई बाबू के चिंता में
हियवा हुलके रहि रहि सारा।।
नगरी नगरी........।।

चुन चुन के जेकरा भी भेजलीं
बहुधा देखलीं वोट के मारा
जाति धरम के नारन से
गूँजत हौ अब संसद सारा
मूल भूत सुविधा के चर्चा
मूल भूत सुविधा के चर्चा
लुकाई गयल राजनीति में सारा
सड़क किनारे कथरी गुदरी में
बइठल जइसे भारत सारा
अइसन ही जो हाल रही तो
होइ कइसे अब गुज़ारा।
नगरी नगरी................।।

अपने सुविधा बदे एक होइ जइहें
भटकई जनता चाहे बिना सहारा
दिल्ली अब कुछ अइसन करता
निफिकर हो जाये जनता सारा
कहे अजय अब सोचि समझि के
चुनिहा तू सरकार दोबारा।।

नगरी नगरी गली चौबारा
गूंजई सगरो एक्कई नारा
भूख गरीबी अउर अशिक्षा
से होइ कइसे अब गुज़ारा।।

अजय कुमार पाण्डेय


मैंने दर्द जिया

         मैंने दर्द जिया         


अलिखित पीड़ा सहन किया
मैंने तो हर पल दर्द जिया
हर आती जाती सांसों ने
प्रतिपल यूँ स्तब्ध किया
मैंने तो पल पल दर्द जिया।।

यादों का सागर विशाल
स्मृतियों ने ही छल किया
हर आती जाती लहरों ने
नख से शिख तक तरल किया।
मैंने तो प्रतिपल दर्द जिया।।

इक मुट्ठी आकाश की चाहत में
स्वअस्तित्व को अविच्छिन्न किया
न  मीरा थी, न थे कान्हा
फिर भी पल पल गरल पिया।
मैंने तो प्रतिपल दर्द जिया।।

मूक परिस्थितियों के अधीन
अंतर्मन से निःशब्द चीत्कार किया
पर अविरल कशमकश चक्रवात में
मैंने ढलना सीख लिया।
हाँ मैंने दर्द में जीना सीख लिया।।

अजय कुमार पाण्डेय


तुम वतन हो मेरे

     तुम वतन हो मेरे      


ज्ञान गीता का है
ध्यान गौतम का है
धैर्य धरती सा है
मान अंबर सा है
तुम सपन हो मेरे
तुम रतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

पांव सागर पखारे
हुस्न सावन सँवारे
चन्द्रमा कर रहा सिर पे अठखेलियाँ
गंगा की धार से मान तेरा बढ़ा।
तुम वतन हो मेरे 
तुम वतन हो मेरे।।

नभ को छूता शिखर
शान से है खड़ा
तेरे आलिंगन में मैं
शान से पल रहा
तुम ही मंदिर मेरे
मैं पुजारी तेरा।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

राम हो तुम मेरे
श्याम भी हो मेरे
तुम ही पूजा की थाली
मैं सजाऊँ जिसे।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

तुम ही काशी के तुलसी
रसखान वृंदावन के
तुम ही विदुर नीति हो
तुम ही हो चाणक्य मेरे।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

तुम ही बचपन मेरा
तुम जवानी मेरी
तुम ही जीवन मेरा
तुम ही श्वासें मेरी
कुर्बान जो हुआ मैं तेरी राह में
तो होगी सफल ज़िंदगानी मेरी।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

अजय कुमार पाण्डेय


कुछ जतन करो

  कुछ जतन करो


जिसको देखो विशृंखल है
व्यथा में अपनी भाई
एक से अब खर्च चले न 
दोनों करे कमाई।

ला सको तो वापस ला दो
रामराज्य को भाई
भ्र्ष्टाचार दूर हो जाये
कम हो जाये महंगाई।।

घपले और घोटालों पर
होंगी बातें तब तक
रोकथाम के लिए कड़े कदम
उठें न इन पर जब तक।।

परेशान है जनता इससे
ये बनी बड़ी बीमारी
अब तो कोई जतन करो
मिट जाए हाहाकारी।।

गंगा कब तक तरसेगी
तरसेंगी कब तक नदियां सारी
अरबों खरबों खर्च हो चुके
दूर हुई न ये महामारी।

ये केवल सरकार की नही 
है ये सबकी जिम्मेदारी
मोक्षदायिनी निर्मल हुई जो
तो ही होंगे सब संस्कारी।।

दिल मे शोले पनप रहे हैं
देख के ये मक्कारी
लिपट तिरंगे में ताबूतों को
देख बिलखती मातृभूमि हमारी।

माना कि हम सत्य 
और अहीसा के हैं पुजारी
पर राष्ट्र सुरक्षा की खातिर
कुछ भी दे सकते हैं कुर्बानी।

अब भी वक्त है सुधर जाओ तुम
छोड़ो ये सब मक्कारी
हम अपनी पर आ बैठे तो
मिट जाएगी हस्ती तुम्हारी।।

माना चरित्र और मर्यादा की
हूँ मैं मूरत संस्कारी
पर समाज के प्रति क्या
तुम्हारी नही है कुछ जिम्मेदारी।

छींटाकशी और दुर्व्यहारों से 
पटा हुआ है अंबर
गर समाज को सबल बनाना है
तो तोड़ो सारे आडम्बर।

गर नारी को सम्मान नही तो
मिट जाएगी संस्कृति सारी
नहीं कहीं नैतिकता होगी
मिट जाएगी हस्ती सारी।।

धरा का सीना चीर चीर कर
फसलें खूब उगाईं
कई रात खुद भूखे रहकर
सबकी भूख मिटाई।

चाहे दुष्कर मौसम हो
या हो आपदा आसमानी
कड़क दुपहरी हो या सर्दी
करता रहा खलिहानी।

ज़रा ध्यान हमपर भी दे दो
सुन लो दिल्ली वालों
अगर किसानी खतम हुई तो
क्या खाओगे बोलो।

ऐसे हालातों में रह जायेगी 
धरी तरक्की तुम्हारी
इसीलिए कहता हूँ सोचो
खतम हो ये हाहाकारी।।

अब किससे फ़रियाद करें
तुम ही बोलो सारे
जब संसद में चुनकर बैठे हैं
प्रतिपालक सारे।

ऐसी कोई नीति बनाओ
हो दूर अराजकता सारी
राष्ट्र ये खुशहाल बने
हर्षित हों सब नर नारी।।

अजय कुमार पाण्डेय

हंस कर चलना होगा

हंस कर चलना होगा


फूल खिले हों पथ में
या कांटों का अंबार मिले
सहज भाव से सब मिल जाये
या संघर्षों की राह मिले
तुझे हर पल इसपे डटना होगा,
जीवनपथ चाहे जैसा हो
तुझे हंसकर इसपे चलना होगा।।

हार मिले या जीत मिले
या जीवन अमृत मिले
क्या ग़ैरों से और क्या अपनों से
मान मिले या अपमान मिले
ये सब तुझको सहना होगा।
कैसा भी हो ये जीवनपथ
तुझे हंसकर इसपे चलना होगा।।

जीवन है आकाश के जैसा
संघर्ष तेरा है ध्रुवतारा
आत्मबल को शस्त्र बना
कवच बना तू स्वाभिमान को
अपनी इस ताकत से तुझको
विपदाओं को निःशस्त्र करना होगा।
जीवनपथ कैसा भी हो
तुझे हंसकर इसपर चलना होगा।।

अजय कुमार पाण्डेय

सबको अपने हिस्से का आसमान मिलता है

सबको अपने हिस्से का आसमान मिलता है


सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है
किसी किसी को अधिक किसी को कम मिलता है
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

विपदाओं का धरणीधर हो
या शूल भरे हों राहों में
उम्मीदें जो साथ अगर हैं
तो मुश्किलों में भी राह निकलता है।
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

लाख करे कोई चतुराई
विधि का लिखा ही पायेगा
कुटिलता जहां भी आदर पाएगी
अशांति का महाभारत वहीं पर आएगा।
कोई कितना भी जतन कर ले
समय अपनी ही गति से चलता है।
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

जितनी भी पूंजी थी लगा दिया तुमने
कभी दिल तो कभी दिमाग भी चला लिया तुमने
जो हिस्से का था तुम्हारे वही तुम्हे मिलता है
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

अपने अपने पसंद के सपनों को
हर कोई संजोना चाहता है
सहेज कर उम्र को अपने
खुशियों को अपने आँचल में समेटना चाहता है
अपनी उन्ही ख्वाहिशों की खातिर
वो अविराम चलता है,
जबकि मालूम है उसे भी के
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

जीवनपथ पर रोज़ अगणित लोग निकलते हैं
कुछ धीमे धीमे तो कुछ तेज़ पग रखते हैं
कुछ ठोकर खाकर गिरते हैं
कुछ ठोकर खाकर सम्भलते हैं
कर्मपथ की पगडंडी पर
अगणित पदचिन्हों का निशान मिलता है,
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

राह मैखाने की

        राह मैखाने की                 


अभी अभी तो आया हूँ
तुम पूछते हो जाना कहां है
तलाश में जिसकी भटक रही हैं आंखें
तुम्ही बताओ वो मैखाना कहां है।।

हर रास्ते पे पत्थरों की दीवारें
रोकती हैं राह राहगीरों की
आओ मिलकर हटाएं उन पत्थरों को
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

न तुम मुझसे मेरी जात पूछो
न मैं तुमसे तुम्हारा धरम पूछूं
चलो बनकर अजनबी ढूंढें
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

मैं जानता हूँ कि तू भी प्यास है
तू जनता है कि मैं भी प्यासा हूँ
चलो संकोच की इस दीवार को लांघ जाएं
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

आरजूओं का साथी बनने
चलो मंदिरों-दरगाहों पर हो आएं
किसी बहते आंसू को पोंछने से
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

ज़माना हरदम मुझे साकी बुलाता रहा
फिर भी मेरे हिस्से कोई पैमाना नही आया
ऐ खुदा न बंद करना दरवाज़ा-ए-दुनिया 
जब तलक मिल न जाये राह मैखाने की।।

अजय कुमार पाण्डेय

हिसाब देना होगा

                   हिसाब देना होगा।             


मैं लिखने की तकनीक न जानूं
कुछ कहने का व्यवहार न जानूं
इक आँखों की भाषा को
बस पढ़ने का प्रयास पहचानूँ।

इक अंतर्द्वंद से घिरा हुआ हूँ
फिक्र हमेशा बनी हुई है
वैचारिक लाठी के तड़ तड़ की
गूंज से विचलित हुआ जा रहा।।

तेरी हर बातों को हमने
स्वीकार किया भले मजबूरी में
छोड़ नही सकता कुछ भी 
सहना पड़े भले कुछ भी अब।।

खो रहा है दिशा ज्ञान सब
विह्वल हैं सब भाव भंगिमा
इन भावनाओं का मज़ार बना
इक चादर पल पल चढा रहा हूँ।।

सब कुछ है पर यथार्थ नही
झांसे और ऐयारी से तकलीफ बढ़ रही
काली होती वादाई लहरों से
तटबन्धों की ताबीर झड़ रही।।

अपने भीतर सर्वेक्षण कर डालो
सारे स्वप्निल उन वादों का
धूल धूसरित भले ही कर दो
राजनीतिक व्योम पटल को
देना होगा हिसाब तुम्हें 
अपना, सबका, जन तन के मन का।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

स्वार्थी सत्ता के मतवाले

          चन्द स्वार्थी सत्ता के मतवालों को रेखांकित करती एक रचना जिनके कारण जनता राजनीति और से कई कई बार विश्वास खोने लगती है--

       जनतंत्र की अभिलाषा           

ऐ स्वार्थी सत्ता के मतवालों
कलुषित कुंठित मनोदशा वालों
स्वरचित मोहपाश में
एक दिन तुम बंध  जाओगे
जो चले बेचने लोकतंत्र को
एक दिन तुम खुद बिक जाओगे।।

कुर्सी का है खेल निराला
समझो न इसे निज मय का प्याला
मत भूलो हर घूंट से इसकी
नशा अधिक गहराता है
खुद पर कोई ज़ोर चले न
मन परतंत्र हो जाता है।।

चंद स्वार्थी लोगों ने
लोकतंत्र का मान घटाया है
खुद की नाकामी ढंकने को
जनता को भरमाया है।।

सत्तामोह में पड़कर मुफ्तखोरी
की जो आदत डाल रहे
मत भूलो संसाधनों पर तुम
अपनी कुदृष्टि डाल रहे।।

मुफ्तखोरी की आदत
व्यवहार में जो रच बस जाएगी
भारत की संपूर्ण व्यवस्था
स्वतः पंगु हो जाएगी।।

मत भूलो निज स्वार्थ में पड़कर
तुम जनता को बांट रहे
नासमझी की पराकाष्ठा यही है
जिस डाली पर बैठे हो
उसी डाली को काट रहे।।

नित नए घोटाले कर के
शुचिता तक को खा गए
भ्र्ष्टाचार की बेदी पर
जनता की बलि चढ़ा गए।।

राजधर्म की मर्यादा को
जब चाहा तुमने तोड़ा है
रक्षक बनकर लोकतंत्र के
इसे न कहीं का छोड़ा है।।

जागो है मतवालों जागो
गली चौक चौराहे जागो
कब तक भोले बनकर के
उनकी इक्क्षा के बटन दबाओगे
कब बनकर पाञ्चजन्य तुम
शुचिता की अलख जगाओगे।।

जन गण मन ये पूछ रहा
सत्ता के पहरेदारों से
भूख कुपोषण और गरीबी
जब उनको नही सुहाती थी
तब जनता की करुण पुकार क्यूँ
उन तक पहुंच ना पाती थी।।

जिस देश के गमलों में
करोड़ों की गोभी  उग जाती है
उस देश की तिहाई जनता
कैसे भूखी रह जाती है।।

महलों के आगे जब
झोंपड़ियों के आंसू का कोई मोल नही
नैतिकता बेमानी हो जाती तब
शुचिता का भी मोल नही।।

तब जगता है फ़र्ज़ कलम का
अत्याचारों से लड़ने का
आत्ममुग्ध सत्ता के आगे
तानकर सीना अड़ने का।।

जिस दिन हो निष्पक्ष लेखनी
अपनी पर आ जायेगी
उस दिन ही ये भूखी जनता
सत्ता को खा जाएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय


श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...