थोड़ा अहसास करा दो।

थोड़ा अहसास करा दो। 

मेरे मन के अरमानों को
बस तुम इतना आस धरा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

ये भौतिक उपहार सभी हैं
जैसे बरखा रुत का पानी
जड़ जग के व्यवहार सभी हैं
बिन भावों के जैसी वाणी।।

मेरे भावों में बस जाओ
मन का मेरे मान बढ़ा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

करी परिक्रमा डगमग पग से
इसमें मेरा दोष नहीं है
मेरे अंतस को झकझोरा
क्या तुमको अफसोस नहीं है।।

अनुभवहीन नहीं मैं इतना
इतना बस विश्वास दिला दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

अपना कोई गीत सुना दो
जीवन भर जिसको मैं गाऊँ
बस इतना उपकार करो तुम
इस जग से परिचित हो जाऊँ।।

हुआ योग्य जब यहाँ जगत में
बस इतना आभास करा दो
अपने होने का अब मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मई, 2022

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।


यादों के मानसरोवर से कुछ मुक्तक गिर कर बिखर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

लय का जब कुछ भान नहीं था 
गीतों में कैसे कह पाता
सरगम से जब रहा अपरिचित
गीत कहीं मैं कैसे गाता
जब भाव सजे ही नहीं पटल पर कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जब अपना अध्याय नहीं था 
लिखता कैसे कहो कहानी
कैसे लिखता सारी बातें
जिनसे सुधियाँ थीं अनजानी
जब रहा कथानक का अभाव फिर कैसे कह दूँ बिसर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

कितना चाहा के कह डालूँ
बातें मन के मौन सफर की
कितना चाहा आज जता दूँ
प्यास मैं अधरों को अधर की
पर मधु से संपर्क नही जब कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

यहाँ वहाँ से शब्द उठा कर
कैसे लिखता मन की बातें
कैसे लिखता भाव सभी वो
कैसे लिखता बीती रातें
जब रातों का इतिहास अधूरा कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28मई, 2022

वीथियों में उलझा मन।

वीथियों में उलझा मन।  

प्रिय सुधियों के कितने बादल आये आकर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

नहीं कामना देखूँ तुझमें मैं नित नूतन रस धारा
मेरे नयनों को भाया प्रतिपल अल्हड़ रूप तुम्हारा
आस लगाये नैना प्रतिपल हर आती राह निहारें
उम्मीदें भी रहीं ढाँकती पल-पल ये जीवन सारा।।

उम्मीदों के साये में मन मचल-मचल कर छले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

रखी सजा कर छवि तुम्हारी मन में बरबस झूम लिया
हर आहट को मैंने प्रतिपल पलकों से है चूम लिया
जितने गीत लिखे यादों के मैंने इस तन्हाई में
उन गीतों को अंग लगाकर सब अक्षर-अक्षर चूम लिया।।

मन के मौन समंदर में वो हलचल दे कर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

मन में कितने झंझाओं ने पग-पग पर डेरा डाले
वीथियों पर व्योम की प्रतिपल थे कितने उल्का पाले
जितने प्रश्न उमड़ते मन में वो सारे रहे निरुत्तर
मन वीथी में अब तक उलझा है ढोये भाव निरन्तर।।

हाथ आहुती लेकर बैठे समिधाएँ पर सिमट गये
कुछ बरसाए नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24मई, 2022

हृदय का अनलिखा भाव।

हृदय का अनलिखा भाव।।

उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
मैं हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

थरथराती रहीं उँगलियाँ रात भर
नयन के नीर ठहरे अधर चूम कर
मेज पर पृष्ठ बिखरे इधर औ उधर
मैं उसी मेज का अनदिखा भाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

यादों के झील में है कैसी लहर
छटपटाती रही तितलियाँ रात भर
रोक पाया नहीं मैं जिसे चाह कर
बिछड़े उस चाह का मौन प्रभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

मौज से जो किनारे गए हैं बिछड़
स्वप्न पलकों से जो गये हैं बिखर
कहे अनकहे गीत रुके अधरों पर
अनकहे गीत का मैं तो स्वभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मई, 2022

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

तन्हाई लिख रही गीत थी
पग-पग मेरे जीवन में
कैसा तुमने गीत सुनाया
भाव जगे इस तन मन में।।

क्यूँ मेरे भावों को तड़पाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे साँसों की धड़कन में
अनजाने कुछ गीत सजे थे
मेरी आहों की तड़पन में
सूने मन के गीत सजे थे।।

सूने मन का भाव जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

अर्द्धरात्रि में चंदा तारे
मधुर मिलन का गीत सुनाते
काश मिलन की इस बेला में
बस कुछ देर ठहर तुम जाते।।

क्षण भर क्यूँकर प्रीत जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे अधरों पर अधरों का
तेरे चुंबन अब तक अंकित
मेरे मन के मंदिर में भी
भाव तुम्हारे हैं प्रतिबिंबित।।

क्षण भर क्यूँ कर नेह जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

निज यादों की पर्णकुटी में 
उन्हें सँजो कर अब भी रखा
मैंने अपनी साँसों में वो
महक तुम्हारी अब तक रखा।।

फिर से क्यूँ भावों को जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई, 2022



सपनों का क्या दोष।

सपनों का क्या दोष।  

पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या अपराध कहूँ मैं अपना
पलकें निस दिन रहीं खोजती
दोषी है क्यूँ मन ये अपना
प्रतिपल बस ये रहीं सोचती।।

भ्रम में बिखरे भाव सभी थे
चाहा बहुत पर चुन न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

सपनों को अभियुक्त बना कर
पलकों को कटघरा बना दूँ
इतना दोष नहीं है इनका
जिसकी खातिर इसे सजा दूँ।।

आकांक्षाओं का भार बहुत
चाहा बहुत पर सह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

रहा व्याकरण से अनजाना
प्रतिपल मन संघर्ष किया है
नैनों के कोरों की बूँदें
प्रतिपल बस संघर्ष जिया है।।

चाहा कितना बूँद रोक लें
पलकें बहुत पर रह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या परिणति है उन सपनों की
नयनों में जो कभी सजे थे
इक मूरत जो बनी हृदय में
पलकों ने जो कभी गढ़े थे।।

सपनों का फिर दोष नहीं है
चाह के परिचय कह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मई, 2022

प्रतीक्षा।

प्रतीक्षा।  

निस चौखट की प्रहरी पलकें ये हिय उन पर आभारी
सत्य सनातन निष्ठा पर तेरे हम तो हैं बलिहारी
सदियों से कर रही प्रतीक्षा पलकें जिस के दरसन की
है समीप वो पल अपने होगी पूर्ण प्रतीज्ञा सारी।।

पलकों पर कितने ही सावन आये आकर बीत गए
पलकों के निस पनघट के कितने ही आँसू रीत गए
पर विश्वास नहीं खोये इक बस उम्मीद रही बाकी 
अनुमानों में समय चक्र के आखिर हम तो जीत गए।।

तुम आये पलकें भर आयीं मन को भी विश्राम मिला
तपती धरती पर बूँदों से जैसे है आराम मिला
पूर्ण प्रतीक्षा हुई समय की द्वार पलक के खुले सभी
जैसे शबरी के भावों को घट-घट में श्री राम मिला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2022

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

पलकों के कुछ स्वप्न सजीले
अधरों पर आए हैं खुलकर
जैसे प्यासा पनघट आए
उम्मीदों की गागर सिर धर।।

काश कि पनघट पर प्यासे को शीतल जलधारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

चली चाँदनी धीरे-धीरे
तारों ने भी पंथ सजाये
मद्धिम-मद्धिम पौन चल रही
पावस ऋतु सा मन अकुलाए।।

बूँदें गिरती काश गात पर जीवन ये सारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

व्याकुल मन के भाव सँभाले
पलक चाँद की ओर तक रही
मन के पृष्ठों पर कुछ लिखकर
बार-बार कुछ बात कह रही।।

मेरी भग्न कुटी खिल जाती जो साथ तिहारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2022

हृदय के भाव सारे बोल दो।

हृदय के भाव सारे बोल दो।  

भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

पाप क्या पुण्य क्या इस धरा पे तुम कहो
है प्रेम क्या औ क्या घृणा तुम ही कहो
जो लिखे हैं ग्रन्थ में या जगत का चलन
मुक्त है ये पल के मन की तुम भी कहो।।

भर के नयनों में मृदुलतम भाव अपने
आज बंद पलकों के किनारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

है तुम्हारे नैन में जो स्वप्न सारे
उन को मैं साकार करना चाहता हूँ
जो कुछ रची है आकृति तुमने हृदय में
उनको मैं आकार देना चाहता हूँ।।

चाहता हूँ जिंदगी में हों रंग जितने
जिंदगी में वो रंग सारे घोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

मैंने कब कहा कि देवता बन कर रहूँ 
मैंने कब कहा है दर्द जगती के सहूँ
इतना बस एलान करना चाहता हूँ
ज्योति बनकर दिल में जलना चाहता हूँ।।

छोड़ कर के मन के सारे भ्रांतियों को
अब हिय के अपने द्वार सारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15मई, 2022



देवता भी उस जगह 
चाहता हूँ तूलिका में रंग भरो तुम





झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।

झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।  

मैं इस जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है, देव ने एक रूप दे मुझको निखारा
और भर कर भाव हृदय में उसको सँवारा
फिर दिए कुछ शब्द भाव अंतस के कहूँ मैं
जिसमें रच कर गीत मैंने प्रतिपल पुकारा।।

अब ये है मुझपर कि लिखूँ प्रेम के गीत मैं
या लिखूँ विरह के गीत औ ख़ुद को भुलाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है कौन सी ये ज्वाल जगत में जल रही है
मोहती जो किसी को, किसी को खल रही है
मोहती बूँद कहते ओस के सब यहाँ पर
फिर किसी को बूँद ये भला क्यूँ खल रही है।।

जो लतायें झुक गयी हों ओस के निज भार से
उन लताओं को सँभालूँ या कहो भूल जाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

क्या नहीं फर्ज जानूँ पास में क्या हो रहा
जागता कौन पल-पल, कौन पल-पल सो रहा
कौन है जो जगत का भार काँधों पर लिये
कौन जगती के लिये आस पग-पग ढो रहा।।

क्या यही पुरुषार्थ है जो मिला हमको यहाँ
छोड़ दूँ तुम कहो या कहो इसको निभाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2022

कोई पीछे से आवाज दे रहा।

कोई पीछे से आवाज दे रहा।  

चला जा रहा मैं तो प्रतिपल
थाम समय की डोर हाथ में
ऐसा क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

पग-पग जीवन गलियारों में
नूतन प्रतिमान लिखा मैंने
अवसादों में अवरोधों में
जीवन गतिमान लिखा मैंने
जब जो भी राह चुनी मैंने
लिया सभी का संग साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

अनुचित बंधन सभी तोड़ के
सुविधाओं का छोड़ा आँगन
मन में प्रण निश्चित कर हमने
बस दिया प्राण को नव स्पंदन
जीवन जीने की इच्छा में
चला समय के साथ-साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

कैसे चल दूँ उसे छोड़ के
जब स्वर जाना पहचाना सा
फिर क्यूँ मुझसे छुपता फिरता
जैसे मैं हूँ अनजाना सा
एकाकी इस जीवन में जब
लक्ष्य दिख रहा मुझे पास में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

जब हम सबको इस जीवन में
चुनने का अधिकार मिला है
कहने, सुनने औ रचने का
सुंदरतम उपहार मिला है
रच डालें नवगीत यहाँ हम
लेकर सबका हाथ-हाथ में
फिर भी क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मई, 2022


थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।


तूफानों में झंझाओं में या बेमौसम विपदाओं में
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

निज पलकों के स्थापित सपने
विश्वासों में हो दृढ़ निश्चय
संकल्पित भावों का चंदन
आस अडिग हो अटल औ अक्षय
संदर्भों के भाव अलग हों मन ऐसा कहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

कदम-कदम हों घातें कितनी
या उमस भरी हों रातें कितनी
ताप दिवस का गात जलाये
धूल भरी बरसातें कितनी
कंटक पथ-पथ बिछे हुए हों कब पग ने यहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे स्वेद बूँद से सींची
बंजर धरती मुस्काई है
जब-जब तेरे कदम बढ़े हैं
बाँह स्वप्न की खिल आयी है
जब तेरे सारे सपनों को पलकों ने अंगीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे पग की चिनगारी में
क्षमता, पथ रोशन करने की
तेरी दृढ़ता में वो बल है
निज संकट मोचन बनने की
तेज धार कितनी लहरों की कब तट ने है चीत्कार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

जिस मिट्टी को तुमने सींचा
वो उपवन महकायेगी ही
मरुथल में भी तेरा उद्द्यम
जल बूँदें बरसायेंगी ही
तेरा तेज गगन तक छाया जब रवि ने है स्वीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मई, 2022

भारतीय रेल- दोहे।

भारतीय रेल- दोहे।  

गाड़ी सीटी दे रही, यात्री सब तैयार
अपने जन से मेल हो, सबका यही विचार।।

रात-दिवस चलती रहे, कभी न करे विश्राम
मंजिल-मंजिल नापती, पहुँचाती सब धाम।।

रात-रात भर जाग कर, सारे करते काम
यात्रा जब पूरी हुई, तभी मिले आराम।।

नियमों का सम्मान है, जनसेवा है धरम
समय, सुरक्षा मूल तत्व, अपना तो है करम।।

इंजन की सीटी सुने, सबका मन हरषाय
जंगल, नदिया नापती, सबको घर पहुँचाय।।

राष्ट्र की जीवन रेखा, सब कोई अपनाय
मुस्कानों के साथ ये, सबको गले लगाय।।

रेल संपत्ति राष्ट्र की, सेवा ही सम्मान
आओ सब मिल प्रण करें, सदा रखेंगे मान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06मई, 2022

मौन भला क्यूँ कर रहना।

मौन भला क्यूँ कर रहना।  

गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

अब तक जीवन भटका-भटका
घूम रहा था भूला-भूला
जैसे कोई भटका राही
अपने मंजिल का पथ भूला
पर शीतल छाया मिल जाये
घने ताप में फिर क्यूँ रहना
गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

कहीं शोर हो कहीं शांति हो
मन के भीतर कहीं भ्रांति हो
बूँदें पलकों पर हो ठहरे
या यादों के सागर गहरे
मन के भीतर शोर बहुत हो
अरु पलकों से चाहे बहना
तब भावों से नेह लगा लो
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

धन्य हुआ उपहारों से मैं
संवादों में तुमने बाँटे
धन्य हुआ मेरा मन पाकर
तुमसे कंटक छल अरु काँटे
तुमसे कितना कुछ पाया है
अफसोस यहाँ फिर क्या करना
तुम पर अब ये गीत निछावर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05मई, 2022



दीपक के मनोभाव।

दीपक के मनोभाव।  

दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

लौ की ताप सभी ने देखी
पर बाती को कब है जाना
जिसको तुमने जलना समझा
सच वो ही उसका मुस्काना
राख हुई जलकर वो बाती
न चेहरे पर संताप दिखा
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

जीवन के घुप अँधियारों ने
सच, मेरा मान बढ़ाया है
लेकिन जैसे हुआ सवेरा
फूँक मार मुझे बुझाया है
आभारी हूँ अँधियारों का
जिसने मेरा मान रखा है
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

है मुझको मालूम यहाँ पर
कोई नहीं किसी का साथी
दीपक तब तक ही जलता है
जब तक जलती उसकी बाती
पल-पल जलते दीपक में पर
बाती को सम्मान दिखा है
लेकिन दीपक जला यहाँ जब
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

अपनी तो किस्मत में जलना
जल कर भी आकाश सजाया
मैने पग-पग जीवन पथ पर
तम को पथ से दूर हटाया
हाँ, खुश हूँ बुझने से पहले 
अधरों पर मुस्कान दिखा है
क्यूँ कर के अफसोस करूँ अब
दुनिया को जो ताप दिखा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मई, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...