गजल-मुझसे कहते यहाँ

🌷ग़ज़ल- मुझसे कहते यहाँ

गर शिकायत थी तो मुझसे कहते यहाँ
न यूँ दूर तो मुझसे रहते यहाँ

बात ऐसी न थी जिसका हल ही न हो
बात दिल में जो थी दिल से सहते यहाँ

पास जो था हमारे तुम्हें भी दिया
क्या तुम्हें चाह थी मुझसे कहते यहाँ

दोष किस्मत का हरदम तो होता नहीं
जो मिला उसमें ही सुख से ही रहते यहाँ

 
तोड़ देना ही हरदम मुनासिब नहीं
दिल से दिल जोड़ कर फिर से रहते यहाँ

✍️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     25 अगस्त, 2024


क्यूँ जान न पाया कोई

क्यूँ जान न पाया कोई

हर बार बिखरते शब्दों को हर बार बटोरा है सबने,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

सपनों की हर फुलवारी से पलकों का संबन्ध पुराना,
भावों के आलोड़न से ही बनता है अनुबंध सुहाना।
साथ-साथ मन की बगिया में ये पुष्प पात सब खिलते हैं,
इक आँचल ही के छाँव तले हर पुण्य पाप सब पलते हैं।

पाप-पुण्य की परिभाषा को शायद जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कितने टूटे शब्द व्याकरण पर मुश्किल जोड़ हुआ पाना,
हर बार छंद जब बखरे हैं मुश्किल होता है अपनाना।
जब शब्द पिरोए मोती में तब जाकर माला पूर्ण हुई,
क्यारी गीतों की लहराई जब वर्णों की आशा पूर्ण हुई।

गीतों का मन्तव्य अधर पर क्यूँ है जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

हँसकर कहने भर से केवल अपवाद बना लेते हैं क्यूँ,
मुस्काकर यदि देख लिया तो अफवाह बना लेते हैं क्यूँ।
दो बातें कर लेने भर से अधिकार नहीं बन जाता है,
दो चार बार मिल लेने से स्वीकार नहीं हो जाता है।

हाँ और न का भेद जगत में क्यूँ कर जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

खाल भेड़िए की ओढ़े हैं कितने ठहरे चौराहे पर,
संस्कारों के मूल तत्व सब औंधे क्यूँ हैं दोराहे पर।
लोकतंत्र का कैसा साया जब संस्कारों की बली चढ़े,
चौराहे पर शुचिता दूषित जन गण मन क्या तब कहो करे।

घुटी हुई चीखों की पीड़ा अब तक जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कुछ वहशी लोगों ने मिलकर संस्कारों का लहू पिया है,
भूल गये क्या इस धरती ने दुःशासन का हश्र किया है।
आखिर कब तक भारत माता अत्याचारों को झेलेगी,
राजनीति दूषित शैया पर यूँ बोलो कब तक लेटेगी।

शुचिता छलनी हुई सभा में क्यूँ मन जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 अगस्त, 2024

हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक



 हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक

सदियों की सिलवट माथे पे चेहरे पर इक आस लिए,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

केतनी कथा कहावत केतनी केतनो बात पुरानी हो,
केतनो यादें भूल जायें सब एक्को कहाँ भुलानी वो।
घर के कौनो बात चले बुआ के बिना अधूरी हौ,
चौखट पर सावन के बारिश उनके बिना न पूरी हौ।

बिना बात के बात निकाले नवके का अहसास लिए,
कनबतिया दुहरा जाती है दालानों की पौड़ी तक, 
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

माई-बाबू, भइया-भाभी से बात-बात पे रिसियईहैं,
उनके केउ अगर सुने ना तो देखत-देखत खिसियइहैं।
दुइ चार बूँद आँखिन में भरि के केतनी बात सुना देइहैं,
फिर अगले ही मौके पे दुसरे पे दोष लगा देइहैं।

एक जबानी गारी देइहैं दूसरे जबान मिठास लिए,
उनकी मुस्कानों से निकली जाती है जो त्यौरी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आँखन में मोतिया पसरी हौ मुँह में दाँत नहीं एक्को,
घुटने भले बतास लगल हौ मुश्किल कदम चलल एक्को।
भले कमर केतनो झुक जाए भले सहारा लाठी हो,
धन दौलत अउर हीसा कूरा उनके बदे सब माटी हौ।

यहिं माटी में ऊ भी जन्मी बस इतना अधिकार लिए,
मन के कितनै रंग रंगाये दंतकथा की खौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

घर के कौनो मौका हो या भले तीज त्योहारी हो,
बुआ के काँधे पे लागत सगरो जिम्मेदारी हौ।
भतीज-भतीजिन के शादी में ऊ सबसे ज्यादा नाची है,
झोली में आशीष हौ जितना उनके खातिर बाँची है।

खोंईछा के चाउर में भरिकर जग के प्यार दुलार लिए,
हाथों की मेंहदी से लइ के मखमल की वर जौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

गुस्सा के मूरत हौ बुआ कब जाने भृकुटी तन जाए,
जइसे गोदी में ले लो तो पल भर में ही मन जाये।
घर के भीतर से बाहर तक उनकर ही अधिकार रहे,
अंतिम बात ओहि के माना भले नहीं स्वीकार रहे।

नइहर के हर बेचैनी में खुशियन के उपहार लिये,
धेला पैसा और जुगाड़े  सवा लाख की कौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आपन सब कुछ छोड़ चली है प्रेम भाव बस मुट्ठी ले,
उम्र के अंतिम साँझ भले हौ लेकिन नाहीं छुट्टी ले।
अपने आँचल में लम्हों की यादें हर पल पाली हौ,
बुआ के आशीष प्रेम सब जात कबहुँ न खाली हौ।

साँझ ढले से पहले तन के दो बूँद प्रेम की प्यास लिये,
तारों का किमखाब दुपट्टा गोटा जारी चौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 अगस्त, 2024





मैंने रीत लिखे

मैंने रीत लिखे 


मैंने मर्यादित भावों से शब्द चुने फिर गीत लिखे
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।।

सूरज से ली तपिश यहाँ पर चंदा से शीतलता ली।
लिया पवन से मुक्त भाव अरु तारों से चंचलता ली।
शब्दों का आलिंगन कर के अपने मन के मीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया पुष्प से खुशबू मैंने पातों से हरियाली ली।
अवनी से संबल पाया है अंबर की रखवाली ली।
पात-पात पिय पुष्प चुने तब प्रीत गढ़े नवगीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया प्रखर भावों को जग से अंतस में प्रिय भाव जगाया।
पल-पल बीते लम्हों से जो पाया गीतों में गाया।
जग से लेकर जग को देकर जग की प्रचलित रीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय

मुक्तक, शायरी

मुक्तक

मेरे जीवन के साँसों की तू डोर है।
मैं हूँ राही तो मंजिल का तू छोर है।
कब अकेला रहा मैं इस दिल के सफर में,
जो मैं हूँ पतंग तू ही मेरी डोर है।
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तकदीर का रुख इस कदर मोड़ लूँ
तू मुझे ओढ़ ले मैं तुझे ओढ़ लूँ
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बिन तेरे रास्ते अजनबी है सभी।
रिश्ते नाते यहाँ अजनबी हैं सभी।
एक तुझसे जुड़ी सारी साँसें मेरी,
बिन तेरे साँसें भी अजनबी हैं सभी।
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बिन तेरे खुद से ही खुद को खोया हूँ मैं
देख न ले कोई आँसू मेरे इसलिए बरसात में रोया हूँ मैं

भींग जाता हूँ यादों की बारिश में जब
तेरी यादों को संग-संग भिंगोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ के सपना कोई देखा नहीं
तेरे सपनों को अब तक सँजोया हूँ मैं

दूर जा कर भी देखा मैं यादों से तेरी
दूर रह कर भी यादों में खोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ मैं रोया नहीं आज तक
फिर उसी मोड़ पर जा के रोया हूँ मैं
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कुछ भाव हृदय के बाहर हैं कुछ भाव हृदय के भीतर।
कुछ आह दूर से दिख जाती कुछ आह हृदय के भीतर।
बाँध सका कब बंध जलधि को कितने जतन उपाय किये,
एक जलधि बाहर लहराया और एक हृदय के भीतर।
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भोर की उर्मियों में नया गीत है।
साँस की नर्मियों में नई प्रीत है।
राह जो बंद थी अब सभी खुल रही,
रश्मियाँ लिख रहीं नया संगीत है।
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छुपाओगे कहो कब तक दर्द, ये आँखे बोल ही देंगी।
तुम्हारे दिल में है जो बात, ये बातें बोल ही देंगी।
कोई होगा जो समझेगा के दिलों में दर्द है कितना,
अब छुपाओ लाख दर्द कितना ये आँखें बोल ही देंगी।
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छुपाना भी तुम्हीं से है दिखाना भी तुम्हीं को है।
हटाना भी तुम्हीं से है जताना भी तुम्हीं को है।
रहेंगे दूर कब तक हम जो रस्ता एक है अपना,
निभाना भी तुम्हीं से है बताना भी तुम्हीं को है।
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हाँ कभी यूँ ही तुम पास आकर के देखो।
बात दिल में जो है वो बताकर के देखो।
यूँ बेसहारा रहेंगे मिरे गीत कब तक,
साथ मेरे इन्हें गुनगुनाकर के देखो।
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जाने कितनी हसरत लिए जीया करता हूँ।
खुद से वादा मैं हर रोज कीया करता हूँ।
जख्म कितने भी मिले मुझे जमाने में यहाँ,
सारे जख्मों को हर रोज सीया करता हूँ।
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एक तन्हा नहीं मैं अकेला सफर में,
और भी मेंरे जैसे मुसाफिर यहाँ हैं।
आ चलें साथ में दो कदम उस गली तक,
कहने वाले यहाँ अब मुसाफिर कहाँ है।
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मौन नयनों की चितवन से कहने लगे।
अश्रु पलकों की चिलमन से बहने लगे।
चाहा जो दर्द अधरों पे आया नहीं,
इन पंक्तियों में वही गीत रचने लगे।
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जिस घड़ी आँख मेरी ये नम हो गयी
पीर इस दिल की थोड़ी सी कम हो गयी

बात यूँ ही जो निकली थी लब से मेरे
बात वो ही मेरी अब कसम हो गयी

तुझसे मिलने की ख्वाहिश अधूरी रही
शुरू हो न पाई कहानी खतम हो गयी

मुझसे लमहा सँभाला गया न वहाँ
मेरी वो ही खता अब सितम हो गयी

अब देखता हूँ क्षितिज को बड़े गौर से
उम्र की एक और शाम कम हो गयी

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खुशियों का प्याला

 खुशियों का प्याला

चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो,
मेरे देश तू हँसते रहना खुशियों का प्याला कम न हों।

गाँवों-गाँवों बस्ती-बस्ती सपनों की अँगड़ाई हो,
पलकों के हर कोरों में खुशियों की परछाईं हो।
हर सपनों को पृष्ठ मिले अक्षर की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

हर घर के आँगन में पल-पल किलकारी की गूँज उठे,
सबके अधरों पर गीतों के रागों की अनुगूँज उठे।
गीतों के हर शब्दों में वर्णों की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण भारत का गुणगान रहे,
इस दुनिया से उस दुनिया तक केवल भारत नाम रहे।
हर भूखे का पेट भरे और कभी निवाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

मुक्त धरा हो अवसादों से कहीं कभी उन्माद न हो,
अधिकारों-कर्तव्यों के मध्य कोई वाद-विवाद न हो।
संबंधों की ड्योढ़ी पर कभी प्रेम पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

राष्ट्र प्रथम के भावों से गुंजित ये आकाश रहे,
भारत माता के चेहरे पर खुशियों का अनुप्रास रहे।
हर नयनों में स्वप्न सजे सपनों का पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 अगस्त, 2024

समर्पण-गीत की पँक्तियाँ

समर्पण- गीत की पँक्तियाँ

तुम ना मिलती तो भी मैं उस द्वार तक आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

थे अधूरे गीत जो भी पूर्ण सब तुमसे हुए हैं,
गीत के हर शब्द सारे पांखुरी बन मन छुए हैं।
एक पुष्पित भाव का अनुरोध मन पल-पल पनपता,
नैन में पल-पल सनेही भाव का सागर छलकता।

गीत रचने तक प्रतीक्षा मैं द्वार पर करता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

भोर की पहली किरण से सांध्य की अंतिम किरण तक,
नेह का अनुरोध पलता आत्म के अंतिम मिलन तक।
पुण्यता के दीप में अनुरोध की बाती जलाता,
हों घनेरे धुंध गहरे दीप बनकर झिलमिलाता।

सांध्य की अंतिम किरण तक मैं साथ में आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

है नहीं संभव हृदय की भावना से पार पाना,
चाहे रहे कितना जटिल नेह का बंधन निभाना।
जोड़ता हर तार मन से स्वयं को आहूत करता,
पंथ के हर कंटकों को नेह से ही दूर करता।

जब तक न मिटती दूरियाँ हर बार मैं आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 अगस्त, 2024

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

एक अधूरी आशा लेकर एक अधूरापन जीना,
पलकों द्वारा आँसू अपने घूँट-घूँट कर के पीना।
सूने तन की दीवारों पर अंकित है कहीं निशानी,
कुछ यादों तक सीमित है तेरी मेरी सभी कहानी।

जब रही अधूरी सभी कहानी वादा कोई क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

बिखरे ख्वाब अधूरी रातें पुष्प सभी मुरझाए थे,
खंडित चंदा की चौखट पर तारे शीश झुकाए थे।
मौन सफर पर चली अकेली कब तक रात ठहर पाती,
रहे अधूरे गीत अधर पे रात उसे कैसे गाती।

रात अधूरी गीत अधूरे गाकर के मन क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

अनकहे विदाई गीतों में गीत हमारा शामिल है,
बलखाती लहरों को अब भी तकता कोई साहिल है।
गीतों के उस मुक्त छंद में कोई गीत अधूरा है,
गीत अधर पर जो खिल जाए वही गीत अब पूरा है।

रह गए अधूरे गीतों से कोई कब तक मन भरता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024

देश मेरे

देश मेरे

मेरी साँसों की आहट में बस नाम बसा है तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

मुकुट हिमालय माथ सजा है चरणों में सागर तेरे,
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण सपनों के लाखों घेरे।
तेरी मुस्कानों से होता सारे जग में उजियारा,
साँसों का हर कतरा-कतरा हमने तुझ पर है वारा।

तेरे चरणों में अर्पित है हर कतरा-कतरा मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

गंग यमुन की धार हृदय को सिंचित कर करती पावन,
दक्षिण गंगा कावेरी से होता भारत मन भावन।
विंध्य सतपुड़ा अंग सजाते जीवन की अँगनाई में,
कितने भाव मनोहर पनपे बहती इस पुरवाई में।

साँसों का हर तार समर्पित हर सपना-सपना तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

शस्य श्यामला धरती माता औ हरियाली है गहना,
माटी-माटी सोना उगले हर पलकों में है सपना।
प्रेम समर्पण सार ग्रन्थ के इस जीवन की परिभाषा,
सत्य शिवम सुंदर भावों से है गुंजित नभ की भाषा।

ज्ञान ध्यान का तुंग शिखर तू जो करे दूर अंधेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

तेरी माटी में मिल जाऊँ बस इतना सा है सपना,
सारे जगत में कोई नहीं है तुझसा मेरा अपना।
करूँ गीत सब तुझे समर्पित बस तुझको ही मैं गाऊँ,
जब भी मैं मानव तन पाऊँ तेरी ही गोदी पाऊँ।

साँस-साँस मेरे जीवन की सब कतरा-कतरा तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

देश मिरे तेरे कदमों में साँस समर्पित मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024


ऐसा अपना प्रेम नहीं

ऐसा अपना प्रेम नहीं

होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ शब्दों के अनुबन्धन में,
पर शब्दों में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

प्रेम हमारा पूर्ण गीत है सारे छंद समर्पित हैं,
शब्द व्याकरण के बौने इसके सम्मुख अर्पित हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम मात्राओं के अनुबन्धन में,
पर मात्रा में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

कुछ यादें हैं कुछ वादें हैं कुछ में स्नेहिल बातें हैं,
कुछ में भाव प्रतीक्षा के हैं कुछ में नेहिल रातें हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ यादों के अवगुंठन में,
पर यादों तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

उत्सुकता में प्रेम मिलन की पल-पल रातें जागी हैं,
पलक पाँवड़े द्वार बिछाये उम्मीदें भी माँगी हैं।
होगी आश्रित कहीं रात बस प्रेम मिलन के बंधन में,
प्रेम मिलन तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

पथ में काँटे कहीं मिलें अवरोध कहीं पर पर्वत से,
कहीं विपत का गहरा सागर कहीं पंथ के कंटक से।
कितने कंटक भले पंथ में अपने इस जीवन वन में,
अवरोधों से डर जाए ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       04 अगस्त, 2024

गीतों में कहानी

गीतों में कहानी

साथी गीतों के मधुवन में हमने भी बोये गीत नए,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

दो चार कहानी नयनों की दो चार कहानी सपनों की,
दो चार कहानी जख़्मों की दो चार कहानी अपनों की।
साथी गीतों के मधुवन में कुछ यादें नई पुरानी हैं,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

किसी गीत में त्याग समर्पण औ किसी गीत में अभिलाषा,
किसी गीत में नेह लिखा है प्रिय कहीं लिखी मन की भाषा।
साथी गीतों के मधुवन में मन की अपनी रजधानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

कुछ शब्द मुखर हो गिरे कहीं कुछ रिश्तों में ही उलझ गए,
कुछ शब्द हृदय में चुभे कहीं कुछ पलकों में ही झुलस गए।
साथी गीतों के मधुवन में ये कैसी आना कानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

कितने साथी पथ में आये औ कितने साथी छूट गए,
कितने रिश्ते गीत बनाये औ कितने रिश्ते टूट गए।
साथी गीतों के मधुवन में रिश्तों की अलग निशानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       03 अगस्त, 2024

बात अधूरी है

बात अधूरी है

कुछ और ठहर जाओ, कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

दिन वादों में बीता यादों में रात गयी,
पलकों के कोरों की सपनों में बात हुई।
सपनों ही में आ जाओ कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

जो छूट गए लम्हे कल और न आयेंगे,
मैं आज सुनाता हूँ कल और सुनायेंगे।
इन लम्हों को जी लें कैसी मज़बूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

कल की बातें झूठी कल किसने देखा है,
आ आज यहाँ जी लें जो सपना देखा है।
क्यूँ मौन प्रहर अब भी कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03 अगस्त, 2024

रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात

रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात


दिन बैरागी हुए हमारे बैरन हो गयी रात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

थका हुआ मन लेकर लौटे दिन के मौन उजाले में,
सपनों का घट खाली-खाली नयनों के दो प्याले में।
पलकों की चौखट पर ठहरी यादों की बारात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

बात अधूरी रहे अगर तो यादों का कुछ मोल नहीं,
पूरे जो ना हो पायें तो वादों का कुछ मोल नहीं।
यादों के सूने में खोये सब वादों के अनुपात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

उम्र सिसकती रही रात भर दिन सारे बंजारे,
दूर-दूर तक मरुथल फैला किसको हृदय पुकारे।
सारी रात छुपाते बीती ऐसी थी बरसात
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      02 अगस्त, 2024

राम वनगमन व दशरथ विलाप

राम वनगमन व दशरथ विलाप माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया। युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।। जब स्वार्थ हृदय म...