अंतिम सफर

अंतिम सफर

मुक्त हो सब बंधनों से अब आज वो उड़ने चला

दौड़ थी ऐसी अनूठी, उम्र भर वो रुक न पाया,
पास था सागर मगर, दो घूँट भी वो पी न पाया।
एक ही थी रट अधर पर, और कितना और पाना,
हाय कैसे बैठ जाऊँ, जब अभी है दूर जाना।
अब जो मिला इस दौड़ से, सब छोड़ अब पीछे चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

जोड़ कितनी राह मन ने, आस की मंजिल बनाई,
मंजिलों के पास था पर, राह मन को मिल न पाई।
थक गया जब दौड़ कर, मन वो उम्र से लड़ने लगा,
क्या, हाय पीछे छोड़ आया, वो उम्र से कहने लगा।
उम्र भर थी जो शिकायत, सब भूल कर खिलने चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

शोर में खामोशियाँ थीं, कुछ मौन था आधार था,
स्वयं से थी जंग जब-जब, मन खेलता हर बार था।
अब हार हो या जीत हो, फर्क कब उसको पड़ा है,
इस जिंदगी की जंग में, हर बार देखा खड़ा है।
खामोशियों को शोर दे, हो मौन अब आगे चला
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

सब मिट गये हैं फासले, पर छूटता जाता नगर,
चार काँधों पर पड़ा वो, अब चल पड़ा अंतिम डगर।
आज उसके मौन में भी, मृदुल नेह का स्वभाव है,
जिंदगी के इस सफर में, ये मौत इक ठहराव है।
अब खुश रहे तू जिंदगी, वो स्वयं से मिलने चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30सितंबर, 2023



दायित्यों को पूजन समझा

दायित्यों को पूजन समझा

जगती से जो मिला ज्ञान, उसको मन ने जीवन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले दायित्यों को पूजन समझा।

रहा अपरिचित भाव सदा, कितने मौन मचलते देखा,
रात-रात भर बाती को, जग ने मौन पिघलते देखा।
रात फिसलती रही वहाँ, मन ने केवल फिसलन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

कुछ शब्द जगत से मिले कभी, कुछ घाव बने कुछ मलहम,
कुछ अनुभव का भाग बने हैं, कुछ की अब तक है अनबन।
कुछ बिसरे कुछ धूल हुए, कुछ को मन ने साधन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

रजनी के अलसित भावों का, सदा यथोचित मान किया,
नयनों के अरुणिम भावों को, अरुणोदय का मान दिया।
दिवस निशा में भेद न समझा, कर्तव्यों को प्रण समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29सितंबर, 2023



पाँव ठहरने लगते हैं

पाँव ठहरने लगते हैं

देख किनारे सागर के जब भाव विचरने लगते हैं,
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

उस पार क्षितिज के जीवन के कुछ प्रश्न अधूरे मिल जायें
जो खुले नहीं हैं भाव अभी तक शायद सारे खुल जायें
बंद हृदय के द्वार खुलें सब मन शायद सहज वहीं पर होगा
जो प्रश्न अधूरे हैं अब तक शायद उनका उत्तर भी होगा
धरती अंबर का मिलन देख अहसास उमड़ने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

उस पार कहीं पर शायद नभ गंगा का तीर मिलेगा
शुभ्र चंद्रिका सा लहराता मृदु मनमोहक चीर मिलेगा
अलकों से कहीं झलकता हो वहाँ शिशिर विमल बन कर स्वेद
शायद करुणा छप जाती हो स्मृति पटल पर बनकर निर्वेद
शुभ मंगल के मधुर भाव से अनुराग मचलने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

शतदल का चुम्बन पाकर के जल खुद पर इतराता होगा 
भ्रमरों के गुंजन से शायद नभ भी शीश झुकाता होगा
शायद मन के करुण भाव को मृदु नेह इशारा मिल जाये
शायद इन तपते अंगारों से वहीं सहारा मिल जाये
मन में पनपे नेह बिंदु से मन भाव सँवरने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28सितंबर, 2023


व्यस्तता ऑनलाइन

व्यस्तता ऑनलाइन

नजर जिधर भी डालिये सब मोबाइल में मस्त हैं,
इक दूजे की कौन सुने सब ऑनलाइन ही व्यस्त हैं।

ट्रेन भले हो बस हो चाहे, स्टेशन या कहीं  पार्क हो,
कहीं रोशनी ज्यादा हो या, फिर कहीं अँधेरा डार्क हो।
नजर जिधर भी डालिए, बस रील बनाने की होड़ है,
रिकिम-रिकिम के कंटेंट हैं, रिकिम-रिकिम की दौड़ है।

चाहे पूजा पाठ हो या फिर शादी हो बारात हो,
भले अकेले हो कोई या, संगी-साथी साथ हो।
मेमोरी के नाम पर खुद को ऐसे-ऐसे मोड़ रहे,
पाउट कहीं, कहीं पर एक्शन, अच्छे तन को तोड़ रहे।

आज घरों से निकल सड़क तक रील की होड़ा-होड़ी है,
कल तक जिसके पैसे लगते वो स्वयं द्वार तक दौड़ी है।
पल भर में फेमस होने की ये गली-गली तकरार है,
फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर अब इनकी ही भरमार है।

रील बनाने के चक्कर में, कितने ट्रेन के नीचे आये,
कितने जीवन दूषित हो गये, पूछे कौन कि क्या-क्या पाये।
हो कहीं सड़क पर कोई घटना, बस पहले रील बनाना है,
मोबाइल के दौर में पहले, खुद ही न्यूज़ चलाना है।

न तथ्यों की परख यहाँ है, सब बातों को तोड़ रहे हैं,
एक ग्रुप से माल उठाते, दूजे ग्रुप में छोड़ रहे हैं।
झूठ-साँच की परख के बदले, अफवाहों का दौर है,
ऐसा लगता चोट कहीं पर, दर्द कहीं पर और है।

बदला समय बड़ी तेजी से, अनुभव की अब कौन सुने,
पहले आओ पहले पाओ, घड़ी प्रतीक्षा कौन चुने।
सस्ती लोक लुभावन बातें, करती मन को विकल यहाँ,
ऐसा ही जो दौर चला तो, किसको पूछे कौन कहाँ।

सब मोबाइल का दोष नहीं, ये सारा दोष हमारा है,
आज दिखावे की दुनिया में, सब फिरते मारा-मारा हैं।
सुविधाएं जब सिर पर चढ़कर, अपना रूप दिखाएंगी,
फिर तार-तार शुचिता होगी, फिर  नैतिकता पछताएगी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25सितंबर, 2023

मन की बात

मन की बात

इस रात की तन्हाइयों में भी कहीं कुछ बात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

ये रात लगती क्यूँ दिवस के बोझ से मजबूर है,
ऐसा लगता है कि ये भी थक के मुझसा चूर है।
वो टूटता आकाश तारा कर रहा है इशारा,
लग रहा मन की धरा से आकाश अब भी दूर है।

फिर भी खुद को है झुकाया जाने कुछ तो बात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

स्वप्न का मन देख कर पलकों को मनाती रह गई,
मधुमास के मृदु गीत मलयानिल सुनाती रह गई।
ये रात रानी चाँदनी की रश्मियों में जल गई,
रात बरबस ओस छुप-छुप आँसू बहाती रह गई।

यूँ लग रहा है आँख से पल-पल गिरी बरसात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

मन कहता है पूर्ण कर ले आज अधूरी कामना,
और सफल हो जाये शशि की अनसुनी आराधना।
याचना अब गीत बनकर आधरों से चल पड़ी है,
गूँजते हैं भाव मन के बन आदि कवि की साधना।

साधना कवि के हृदय की बस प्यार की सौगात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2023

यादें सुहानी

यादें सुहानी

नहीं मुमकिन सिमट जाये किताबों में कहानी ये
बहुत भटका हूँ तब पाया हूँ मैं जिंदगानी ये

शहर ये छेड़ता अब भी पुरानी याद गीतों में
कई यादों से गुजरा हूँ मिली है तब निशानी ये

नहीं मुमकिन भुला पाना गुजारे साथ लम्हों को
कि यादों में महकती है सुहानी रात रानी ये

चलो इक बार फिर से हम उन्हीं राहों में हो आयें
जहाँ पर छोड़ कर आये अधूरी सी कहानी ये

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2023


मुक्तक

मुक्तक

छू सकूँ दिल को कलम से मुझे दुआयें देना,
मैं छू सकूँ दर्द दिलों के ये दुआयें देना।
मेरे मालिक बस इतनी मेहरबानी कर दे,
लिखूँ गीतों में मैं मन को ये दुआयें देना।
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इस मौन को विश्राम दें कुछ तुम कहो कुछ मैं कहूँ,
भावनाओं का समर है कुछ तुम गुहो कुछ मैं गुहूँ।
अब दूर हों सब फासले फिर एक हम-तुम हो यहाँ,
अब दुख मिले या सुख मिले कुछ तुम सहो कुछ मैं सहूँ।
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पलकों के किनारों ने लिखी कितनी कहानी,
काजल के इशारों ने लिखी कितनी कहानी।
पलकों के कोरों में कहीं कुछ बात छिपी है,
नयनों ने बहारों की लिखी उतनी कहानी।
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शाख से उजड़ा हूँ पर कमजोर नहीं हूँ,
सबसे हूँ बिछड़ा मगर कमजोर नहीं हूँ।
हालात कैसे भी हों अफसोस नहीं है,
टूट के सँभला हूँ मैं कमजोर नहीं हूँ।
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लिखूँ कितनी कहानी मैं कुछ किस्से छूट जाते हैं,
भरूं कितना भी चित्रों में कुछ हिस्से छूट जाते हैं।
जाने क्या कमी है जो मेरे हिस्से में आई है,
रहूँ कितना सँभल कर भी ये रिश्ते टूट जाते हैं।
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मुझे उनसे मुहब्बत है मगर कहना नहीं आया,
मिले जो दर्द उल्फत में कभी सहना नहीं आया।
कहीं कुछ तो कमी होगी लकीरों में हथेली की,
हुए जब पास हम दोनों हमें रहना नहीं आया।
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मिले जो जख्म हैं तुमसे मुझे उनसे मुहब्बत है।
चुभे जो शब्द इस दिल पर मुझे उनसे मुहब्बत है।
नहीं कोई शिकायत है नहीं कोई गिला उनसे,
हमसे रूठे हैं वो पर हमें उनसे मुहब्बत है।
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तुम्हारे दर्द को अपना बनाने की गुजारिश है,
तुम्हारे ज़ख्म पर आँसू बहाने की गुजारिश है।
नहीं चाहत मुझे कोई मगर है प्रार्थना इतनी,
तुम्हारे साथ मरने और जीने की गुजारिश है।
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मेरी आँखों के आँसू को कभी तो पढ़ लिया होता,
नए सपने निगाहों में कभी तो गढ़ लिया होता।
बिछड़ते ना कभी हम-तुम यहॉं इस मोड़ पर आकर,
पकड़ कर हाथ दूजे का आगे बढ़ लिया होता।
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भाव उसके हृदय को छुआ ही नहीं।
दर्द का बोध उसको हुआ ही नहीं।
जानेंगे क्या तड़प वो किसी और की,
प्रेम जिसके हृदय में हुआ ही नहीं।
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दिल में क्या आपके है जता दीजिये
मौन कब तक रहेंगे बता दीजिए
दिल का अपने मुझको पता दीजिये
दूर कब तक रहें आपसे हम यहाँ

मौन को तोड़िये सब बता दीजिये


तुम्हारे साथ जो बीती वही अपनी कहानी है







शुभ घड़ी आयी

शुभ घड़ी आयी

तोरण सजाओ, जलाओ दीप की लड़ियाँ
आज पूरी हुई हैं प्रतीक्षा की घड़ियाँ।
हाथ पूजा की थाली शुभ दीप जलाओ,
आयी शुभ घड़ी आयी सब मिल-जुल आओ।

माथ टीका लगाओ गीत मंगल गाओ,
दोनों हाथों से सब मिल मोती लुटाओ।
आई द्वारे पे मोरे पी की सवारी,
भरी नयनों में मोरे छवि न्यारी-न्यारी।

मुझे मिल सजाओ हाथ मेंहदी लगाओ,
आँख काजल लगा काला टीका लगाओ।
उनके नयनों के कोर में यूँ बस जाऊँ,
जहाँ पलकें खुलें बस नजर मैं ही आऊँ।

आज सपने सभी मेरे पूरे हुए हैं
कई जनमों के वनवास पूरे हुए हैं।
गीत खुशियों के अब चाँदनी गा रही है,
पिया मिलन की घड़ी पास अब आ रही है।

मुझे आशीष दो मेरा जीवन सँवारो,
सखियों मिल जुल सब मेरी नजरें उतारो।
मेरे जीवन की बगिया यूँ सजती रहे,
हर घड़ी मन की ये बगिया महकती रहे।

गीतों की पालकी से मधुर गीत गाओ,
आयी शुभ घड़ी आयी सब मिल-जुल आओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18सितंबर, 2023

दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।

दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।

प्रेम का अहसास सारा दर्द बिन पूरा हुआ कब,
बिन विरह के गीत की हैं पंक्तियाँ सारी अधूरी।
आह साँसों से लिपट कर ना कहे जब तक कहानी,
चाहतों के पृष्ठ पर है लेखनी तब तक अधूरी।

अहसास जब सम्मान पाया नेह उतना ही खिला है,
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

वेदना का वेद लिखकर ग्रन्थ तब पुलकित हुआ है,
वेदना का वेद जब-जब साँस में छापा गया हो।
भूख का इतिहास भी तब पृष्ठ पर पूरा हुआ है,
मापनी में जिंदगी के स्वेद जब मापा गया हो।

मापनी में वेदना के माप को जीवन मिला है,
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

भाग में चाहे लिखा हो बूँद अमृत या गरल की,
सत्य के विश्वास खातिर वक्त ने सब कुछ पिया है।
द्यूत क्रीड़ा जिन्दगी के मोड़ पर जब-जब छिड़ी हो,
दाँव पर इस जिन्दगी ने स्वयं को तब-तब किया है।

दाँव में कुछ भी रहा हो सत्य को ही पथ मिला है
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर, 2023




दूर बड़ी रहिया

दूर बड़ी रहिया

कवने घाटे जिनगी जाई, कवने घाटे देहिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

जनम मरल के फेरा, जग में लगल बा
विधना के आगे बोला, केकर चलल बा
हाथ के लकीर में ही, लिखल सारी बतिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

सुख-दुख आये जाये, न केहू के सगा है
मन में वहम जेकरे हौ, वही तो ठगा है
धीरे-धीरे बीते ई भी, जइसे दिन रतिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

धन के ही सङ्गे-सङ्गे, मन जब बढ़ल बा
शंका के करिया बादर, मन के ढँकल बा
मन के सम्हारे में ही, बीते ई उमरिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

पद, मान, धन, दौलत, सब यहीं रह जाई
चार जन के काँधा ही हौ, सगरौ सच्चाई
फिर काहे मनवा मन से, करे बरजोरिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2023

सनातन

सनातन

है बिखराया किसने चमन में जहर को,
के कलियों से रौनक मिटी जा रही है।
है दिया घाव किसने लहर को नदी की,
के कश्तियाँ लहर में फँसी जा रही है।

जहर किसने घोला है बहती हवा में,
के सभी फूल उपवन झुलसने लगे हैं।
है कैसी ये फिसलन फिजाँ में कहो कुछ,
जाने क्यूँ रास्ते ही फिसलने लगे हैं।

कुरु की सभा में मौन बैठे हैं सारे,
उपहास धरम का जो किये जा रहे हैं।
हो चले बाँधने राष्ट्र की आतमा को,
रसातल में स्वयं को किये जा रहे हो।

जो कहते घृणा का ना है धर्म कोई,
घृणा धर्म से वही अब करने लगे हैं।
जो चले थे कभी जोड़ने इस वतन को,
जाने क्यूँ रास्ते से भटकने लगे हैं।

सदियों में जिसकी लिखी गयी न कहानी,
लम्हों में उसको बाँधने चल रहे हो।
नहीं भान तुमको सुनो, क्या कर रहे हो,
के जीवन को ही बाँधने चल रहे हो।

सनातन है ये अब न इसे और समझो,
चाह कर भी जड़ों को हिला ना सकोगे।
के गीता का जिसने पढा पाठ रण में,
चाह कर भी उसे अब हरा ना सकोगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16सितंबर, 2023

कब तलक आँख अपनी ढूँढेगी परछाइयों को

कब तलक आँख अपनी ढूँढेगी परछाइयों को

और कब तक आँख अपनी छाँव बरगद की तकेगी
और इच्छाएं हमारी दूर जा कितनी रुकेगी
और कब तक मौन होकर स्वयं को चलते रहेंगे
और कब तक बरगदों की छाँव में पलते रहेंगे
चाहतें कब तक छुपेंगी मौन हो गुमनामियों में
कब तलक....।

धार जब तक ही रहेगी दूर तक नदिया बहेगी
साथ कितने रास्तों के शूल कंटक भी सहेगी
धार जो ठहरी कभी तो नीर दूषित हो पड़ेगा
चुप्पियाँ ठहरीं अधर पर शब्द शोषित हो रहेगा
वक्त रहते चीख लेना दूर कर तन्हाइयों को
कब तलक.....।

सपनों का न मोल होगा और नहीं कोई वास्ता
ढूँढेगी न स्वयं आँखें खुद आगे बढ़कर रास्ता
कर मिथक सब दूर कल के साकार हो कल्पनाएं
रोक न पायेंगी तुझको ध्येय पथ पर वर्जनाएं
तोड़ कर पाखंड सारे मुक्त कर बदनामियों को
कब तलक......।

आ रही देखो सुहानी भोर प्राची की दिशा से
नाचती हैं रश्मियाँ भी मुक्त हो कर के निशा से
लिख रहा सुंदर सवेरा गीत की नव पंक्तियाँ अब
बंधनों से मुक्त कर दो मन की अभिव्यक्तियाँ सब
मुक्त हो अब बंधनों से दूर कर रुसवाइयों को
कब तलक.......।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08सितंबर, 2023


भावों को सहलायेंगी

भावों को सहलायेंगी

सांध्य क्षितिज पर जब शरमाये तुम अपना आँचल लहराना
तब गीतों की मधुर पंक्तियाँ भावों को सहलायेंगी।

भाव निखर बाहर जब आयें आहें भी जब गीत सुनायें
जब अक्षर-अक्षर बिखरे होंगे बीते पल के कतरे होंगे
साँसों में जब विचलन होगी आहों में भी फिसलन होगी
पलकें सारी बात कहेंगी तन्हाई में रात बहेगी
तब आहों को गीत बनाकर तुम मेरे मन को बहलाना
तब गीतों....।

जब यादों के बादल छायें वादे जब मन को तड़पायें
इक धुँधली पर घनी लकीरें लुक-छिप लुक-छिप आये जायें
जब बादल के अंक सिमट कर सांध्य कहे कुछ फिर शरमाये
जब हल्की सी छुअन पौन की मन में इक सिहरन दे जाये
उम्मीदों की पाँखी बनकर मेरी पलकों को सहलाना
तब गीतों....।

तन्हाई मन को तड़पाये परछाईं धूमिल पड़ जाये
कही-अनकही, भूली-बिसरी बात हृदय को जब तड़पाये
खुद से जब मन कहना चाहे खुद को जब मन सुनना चाहे
पलकें जब खुद ही झुक जायें कहे बिना ही सब कह जायें
मन से मिल जब मन सकुचाये, मन ही मन, मन को समझाना
तब गीतों......।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06 सितंबर, 2023


कोई अधिकार नहीं

कोई अधिकार नहीं

माना कई उपासक तेरे अपना कोई और नहीं
होंगे लाखों बाँह पसारे अपना कोई ठौर नहीं
तिनका माना महासमर का तुमसा मैं अवतार नहीं
पर मेरे जीवन पर तुमको है कोई अधिकार नहीं।

सुबह किया आरंभ कहीं पर रात कहीं विश्राम किया
कभी दुपहरी को अपनाया संझा का बलिदान किया
पैरों ने कितने पग नापे तब आहों में गाया है
जितना जाना अपने मन को उतना ही अपनाया है
माना जगती के फेरों में तुमसा है व्यवहार नहीं
पर मेरे........।

जब-जब जैसा चाहा तुमने वैसा ही वरदान जिया
चाहे जितनी राह कठिन हो तुमने तो पहचान जिया
तुम धरती का उगता सूरज हम डूबे के प्रहरी हैं
सांध्य ढले इस जीवन पथ पर आँखें हम पर ठहरी हैं
तुम्हें मिले उपहार बहुत हमें कोई उपहार नहीं
पर मेरे...... ।

तुम सत्ता के शीश मुकुट, हम धरती पर रहने वाले
पुष्पादित पथ के राही, धूप-ताप हम सहने वाले
लोकतंत्र की परिभाषा में पर है अपना स्थान बड़ा
स्याही की इक बूँद गिरी जब सजे मुकुट का मान बढ़ा
लोकतंत्र है व्यवहारों का कभी यहाँ उपकार नहीं
पर मेरे जीवन.....। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2023



श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...