बाकी है वरदान अभी

बाकी है वरदान अभी

जीवन के कितने बसंत औ कितने पतझड़ बीत गए,
कभी भरे थे घट जीवन के और कभी ये रीत गए।
आधी गुजर चुकी सदियाँ आधी और गुजर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

कितने सपने जोड़े मन ने कितने सपने टूट गए,
कितने अंकित हुए हृदय में कितने पथ में छूट गए।
इन हाथों ने कितने पकड़े कितने रिश्तों को जोड़े,
कितने श्वेत कबूतर मन ने नील गगन में जा छोड़े।

नील गगन में उड़ते-उड़ते बाकी बची सँवर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

कितनी आग चुराई हमने कितनी आग बचाई है,
इस जीवन के हवन कुंड में समिधा स्वयं बनाई है।
सब कुछ देकर अपना हमने कितना कुछ अपनाया है,
खोने की क्या बात करें जब पग-पग इतना पाया है।

खोते पाते जीवन की बाकी सदी गुजर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

बने बिगड़ते रिश्तों के मूल तत्व हम समझ न पाये,
समझ न पाई दुनिया या हम दुनिया को समझ न पाये।
कितने भाव समेटे मन में कितने मौन निहारे हैं,
कितने छोड़े यहाँ डगर में कितने पंथ बुहारे हैं।

तटबंधों को तोड़ लहर सागर में जा मिल जायेगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 नवंबर, 2024


फिर कुहासे भरे दिन आ गये।

फिर कुहासे भरे दिन आ गये।

सूझता कुछ भी नहीं दूर तक अब तो सफर में,
जा छुपी है धूप साथी कौन जाने किस नगर में।
धूम्र साँसों से निकलती दिन ख़ुश्कियों के आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

सूर्य प्राची से यहाँ अब दूर तक दिखता नहीं,
धुंध की इन चादरों पर काव्य कुछ लिखता नहीं।
ओढ़ चादर धुंध की क्या-क्या छुपाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

दूर तक हैं खिलखिलाते पुष्प सरसों के यहाँ,
बालियों में गेहूओं की ओस लिपटी है यहाँ।
शीत के अहसास के कितने फसाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

दूर जोड़ी सारसों की गीत कोई गा रही,
बुन रही है श्वेत स्वेटर दादी गुनगुना रही।
झुर्रियों की गोद के सपने सुहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

श्वेत धुँधली चादरों से आसमां को नापता,
बर्फ के अहसास से कोई धरा को बाँधता।
भोर से ले सांध्य तक अलावों के दिन आ गए,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

बाँधता मन की गली को सिलसिला फिर बात का,
है मचलती कामना मधुमास वाली रात का।
पाश के अनुरोध के कितने बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

शीत अधरों से निकल यूँ धूम्र बन कर छा रही,
धुंध की आगोश से ज्यूँ रेलगाड़ी आ रही।
साँस के छल्ले बनाने के बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 नवंबर, 2024

समर्पण

समर्पण

जिस पथ ने स्नेह दिया मुझको, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिस पथ ने मुझको ठुकराया, उसको भी गान समर्पित है।

जीवन के हर पथ पर मन ने, जो पाया उसका मान किया,
विष पाया या अमृत पाया, अधरों ने उसका पान किया।
जिसने अधरों को तृप्त किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने अधरों को तप्त किया, उसको भी गान समर्पित है।

पग साथ चले कुछ चले नहीं, कुछ साथ रहे कुछ रहे नहीं,
कुछ पुष्प खिले कुछ खिले नहीं, कुछ भाव कहे कुछ कहे नहीं।
जिसने भावों को व्यक्त किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने मन को अभिशप्त किया, उसको भी गान समर्पित है।

दो शब्द गीत के क्या गाये, आहों से गूँज उठा जीवन,
दो पुष्प हृदय के यूँ पनपे, आहों से खीझ उठा उपवन।
जिन गीतों में मधुपान किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने मन का अपमान किया, उनको भी गान समर्पित है।

जो सपने जीवन के उलझे, अब उनका क्यूँ अफसोस करूँ,
शब्दों पर अपने ना ठहरे, अब उनसे क्यूँ अनुरोध करूँ।
जिसने पलकों को सहलाया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने आँसू को ठुकराया, उसको भी गान समर्पित है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 नवंबर, 2024



 


मेरे दिल तक नहीं पहुँची

मेरे दिल तक नहीं पहुँची

पता था वो ही इस दिल का वही अपना ठिकाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

वो ही थे रास्ते अपने वो ही अपनी दिशाएं थीं,
वो ही मौसम सुहाने थे वही बहती हवायें थीं।
वही था आसमां अपना जहाँ कल आना जाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

कहीं चाहत के सपने थे कहीं कुछ कामनाएं थी,
कहीं यादों के झरने थे कहीं कुछ प्रार्थनाएँ थीं।
कहीं कुछ भावनाएं थीं जिन्हें अपना बनाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

कि इन गीतों में इस दिल के कहीं कुछ याद है बाकी,
कहीं कुछ तो अधूरा है जो ये फरियाद है बाकी।
अभी यादों की कतरन से वही रिश्ता पुराना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 नवंबर, 2024

दोहा


लोभ मोह मद क्रोध या, सत्य धर्म आचार।
संगत जैसी राखिये, वैसा हो व्यवहार।।

मिथ्या आडंबर सभी, मिथ्या सारा खेल।
मन से मन नाहीं मिले, पूरा होत न मेल।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय

सर्व भव निरोगः



सर्वे निरोगः सर्व आनंदम श्रेष्ठम चरित्रम जीवन वसंतम।
श्रीज्ञान श्रेष्ठम नाथनाथम श्रीमद्भागवत शरणम प्रपद्ये।।
 
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

चौपाई

चौपाई

वेद ग्रन्थ जे प्रतिदिन सुनहीँ। चित्त शांत मन सुंदर बनहीं।।
पढ़हिं सुनहि अनुमोदन करहीं। पुण्य भाव मन धारण करहीं।।

राम कथा जीवन आधारा। छुटहि क्लेश मन हो विस्तारा।।
प्रभु चरणों में जो मन हारा। भवसागर से उतरहिं पारा।।

भक्ति भाव से प्रभु को मोहहिं, रंग रूप मन सुंदर होयहिं।
राम नाम से नाता जोड़हिं, तन मन जीवन उपवन होयहिं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 नवंबर, 2024

भाई

भाई

दूर हो जाऊँ सबसे या ये छूट जग जाये,
एक बस साथ तेरा मुझको भाई मिल जाये।

बिन तेरे क्या करूँ मैं ले के जग के खजाने,
न भाये तेरे बिन मुझको ये सारे जमाने।
हो साथ तेरा अगर तो मरुथल भी खिल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

साथ जब तक है तेरा दुनिया की खुशियाँ सभी,
हर अँधेरे राह की रोशन रहीं गलियाँ सभी
ज्यूँ कड़कती ठंड में सुनहरी धूप खिल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

कामना कुछ भी नहीं है अब किसी आकाश की,
एक बस इच्छा यही है चाह तेरे पास की।
हाथ तेरा हाथ में जब बंद राह खुल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

जिंदगी ये छाँव है

जिंदगी ये छाँव है

सुख-दुख हर्ष-शोक सब जिंदगी के पड़ाव हैं
धैर्य पूर्व सब सहो तो जिंदगी ये छाँव है

दो कदम के रास्ते हैं दो कदम के फासले
दो कदम जो बढ़ सको तो जिंदगी ये गाँव है

कट रही है जिंदगी अब जैसी भी अच्छी बुरी
दौर-ए-उम्र में सदा ये जिंदगी चुनाव है

एक मोड़ उलझनें हैं एक मोड़ राहतें
एक मोड़ चल पड़े तो जिंदगी बहाव है

हर किसी की मुट्ठी में है देव उसका आसमां
मन को जो न भा सके तो जिंदगी अभाव है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12 नवंबर, 2024

सुख का वनवास न हो

सुख का वनवास न हो

माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

दुख ने लंबे डग भर कर के सुख का पथ अवरोध किया,
अपना कौन पराया क्या है दुख ने इसका बोध दिया।
दुख ने माना पग बाँधा है लेकिन मन में वास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

जीवन भर कब कौन रहा है इक दिन सब खो जाता है,
जब-जब जो-जो होना है वो तब-तब सो हो जाता है।
अपने कर्तव्यों के पथ में कोई भी अवकाश न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

साथ- साथ कितने चलते हैं कितने ही खो जाते हैं,
नयन कोर में बसे रहे कुछ, कुछ मिलकर खो जाते हैं।
चेहरों की भीड़ में लेकिन दर्पण का उपवास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

बीत चले कितने ही मधुऋतु यादों का बस गुंजन हो,
रीत चले कितने ही मधुघट प्यालों पर बस चुंबन हो।
इक दूजे का साथ रहे बस भले नया मधुमास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 नवंबर, 2024

छठ

छठ क्या है

क्या बताऊँ छठ क्या है
इसे शब्दों में बाँध पाना असंभव है।
छठ भावनाओं का सागर है,
छठ प्रेम प्रतिज्ञा की गागर है।
छठ त्याग का प्रतीक है,
छठ सुहाग की जीत है।
छठ भक्ति का सागर है
जिसमें पुण्य जन्म के मिलते हैं।
छठ माँ का वो आँचल है,
जिसकी छाँव तले हम पलते हैं।
छठ त्याग, तपस्या, समर्पण है,
छठ भावनाओं का दर्पण है।
ये महज व्रत नहीं है ये,
जीवन का आधार है।
ये पर्व सनातन का स्तंभ है,
ये नैतिकता का व्यवहार है।
इसकी महिमा शब्दों में मुश्किल है
रेलों की भीड़, बसों की भीड़
चेहरों की उत्सुकता, बच्चों की रौनक है,
छठ महज पर्व नहीं है ये जीवन है।
उगते सूरज को सभी पूजते हैं,
हम डूबते सूरज को भी पूजते हैं।
इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं होता
कोई ऊंच नीच नहीं होता है
भावनाओं से रिश्तों को सींचते हैं।

चाँद से प्रश्न

चाँद से प्रश्न

मैंने पूछा चाँद से कि रोटियाँ क्यूँ गोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

वो एक नन्हीं गोद में नेह की आगोश में,
देखती थी चाँद को चाहती थी पास हो।
बंद मुट्ठी में छुपा कर थी रखीं कुछ रोटियाँ,
और पलकों के किनारों पर सजी कुछ लोरियाँ।

मैंने पूछा चाँद से लोरी क्यूँ अनमोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

साँझ के अंतिम सिरे पर दर्द कुछ खामोश सा,
गिन रहा था उँगलियों पर वक्त की नादानियाँ।
ओढ़ चादर धुँधलके की छुप रहा था दिन वहीं,
धुंध में भी दिख रही थी वक्त की नाक़ामियाँ।

मैंने पूछा चाँद से कि साँझ क्यूँ अनबोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

रोटियों में चाँद था या चाँद जैसी रोटियाँ,
खोजती थी लोरियों में तोतली सी बोलियाँ।
लोरियों को ओढ़ यहाँ भूख जब सो जायेगी,
और कह देंगी रोटी कल खिलाने आयेंगी।

मैंने पूछा चाँद से रोटी का क्या मोल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

एक बस्ती में उजाला एक में अँधियार क्यूँ,
पूछती है रोशनी का है यहाँ व्यापार क्यूँ।
एक सी थाली सभी की और चंदा एक सा,
मौन हो कैसे यहाँ अपनी नजर को फेरता।

मैंने पूछा चाँद से किसका सारा खेल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 नवंबर, 2024

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...