कोशिश



कदम-कदम पे मुश्किलें हैं चलना भी सीखिए।
फूल ही नहीं काँटों में गुजरना भी सीखिए।
हर किसी को नहीं मिलता है मुकम्मल आसमां,
जिंदगी को जीना है तो मरना भी सीखिए।

कशिश

कशिश

वक्त की रेत पर ये उम्र लिख रही कथा,
शब्द-शब्द भाव और अर्थ-अर्थ है व्यथा।
एक तीर हम खड़े हैं एक तीर चाहतें,
एक तीर मुश्किलें हैं एक तीर राहतें।
मन में एक द्वंद था मुक्त था कि बंद था,
हम मगर समझ सके न घाव वो प्रचंड था।
चाह थी बहुत मगर, न चीख ही निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

आइना था सामने देख हम सके नहीं,
मन में जमी धूल को साफ कर सके नहीं।
रात के प्रभाव में सांध्य को ही खो दिये,
भूल ही कुछ ऐसी थी न चाह कर रो दिये।
यूँ अश्रु कोर से बहे के स्वप्न सारे गिर गये,
चाँदनी सजी न थी कि धूल में ही मिल गये।
चाह थी बहुत मगर न चाँदनी सँवर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

पाँव जब उठे कभी तो रास्ते बिसर गये,
थाम भी सके न वक्त रेत से फिसल गये।
स्वप्न नैन कोर तक आये पर रुके नहीं,
जाने कैसी जिद थी चाह कर झुके नहीं।
सोचते-सोचते ही साँझ देखा ढल गयी,
जब तलक ये सोचते उम्र ही निकल गयी।
जिंदगी पड़ाव पर न चाह कर ठहर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

चार काँधे देख कर जिंदगी सहज लगी,
मौन जब हुई नजर आँखें भी सुभग लगीं।
कारवाँ को देख कर रास्ते भी चल दिये,
कल तलक जो दूर थे साथ-साथ हो लिये।
कारवाँ था साथ में साँस-साँस थम गई,
देख कर के मौन हर आँख-आँख नम हुई।
उम्र भर कशिश रही न चाह कर निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अक्टूबर, 2024

भूली-बिसरी यादें

भूली-बिसरी यादें

जब यादें पलकों से छनकर बूँदें बन बह जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

मोड़ अधूरा राह अधूरी कुछ भी तो मालूम नहीं,
कौन राह पर चली जिंदगी साँसों को मालूम नहीं।
जब राहें कदमों को छूकर खुद बोझिल हो जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

दूर क्षितिज पर किरण पिघलती मौन सांध्य के आँचल में,
यादें इंद्रधनुष बनती हैं उम्मीदों के बादल में।
दूर किरण संध्या में घुलकर लुकछिप-लुकछिप जाती है,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

बाँह पसारे रात मचलती धीमे-धीमे मदमाती,
कहे अनकहे मधुमासों के गीतों में भींगी जाती।
मदमाते गीतों में बसकर अधरों को छू जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अक्टूबर, 202र

मुक्तक

कितना देखा भाला लेकिन कुछ भी जान नहीं पाये।
थी पहचानी गलियाँ लेकिन कुछ अनुमान नहीं पाये।
पल-पल भेष बदलते देखा क्या जाने क्या अनजाने,
अपनी ही परछाईं को भी हम पहचान नहीं पाये।
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रात-रात भर जागीं पलकें क्या जाने कब सोई हैं।
दिन को क्या मालूम यहाँ पर रातें कितना रोई हैं।
अपनी ही परछाईं पर जब अपना कोई जोर नहीं,
नहीं किसी से शिकवा हमको नहीं शिकायत कोई है।
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क्या बतलायें तुमको हमने क्या खोया क्या पाया है।
दर्द मिले या आँसू हमने हँसकर सब अपनाया है।
लेकिन इस किस्मत में शायद जलना कुछ तो बाकी था,
जब भी हँसना चाहा हमको खुशियों ने ठुकराया है।

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इक पलड़े पर रिश्ते ठहरे इक पलड़े पर सपने थे।
इक पलड़े पर खुद की खुशियाँ इक पलड़े पर अपने थे।
ऐसा द्वंद हुआ पलड़ों में सपने सारे टूट गये,
क्या बतलाऊँ पलड़ों को जो सपने टूटे अपने थे।
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बदला-बदला दौर यहाँ है पहले से हालात नहीं।
बाद तिरे कितने आये पर पहले से जज्बात नहीं।
देखी हमने दुनिया सारी देखे कितने सावन भी,
लेकिन तुम बिन इस मौसम में पहले वाली बात नहीं।
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माना कदम थके हैं लेकिन जल्दी कदम बढ़ाऊँगा।
क्षण भर को फिसला हूँ लेकिन जल्द खड़ा हो जाऊंगा।
मेरे गिरने से मत सोचो हमने सब कुछ हार दिया,
खुद से अपना वादा है मैं जल्दी मंजिल पाऊँगा।
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कहा किसी ने सुना किसी ने सच तो कोसों दूर रहा।
जिनको केवल सत्य पसंद था क्यूँ झूठ उन्हें मंजूर रहा।
जो कहते थे साथ चलेंगे चाहे कितनी बाधा हो,
चार कदम भी चल न पाये रिश्ता क्यूँ मजबूर रहा।
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बातों-बातों में समझाना अच्छा लगता है।
हँसकर बालों को सुलझाना अच्छा लगता है।
अकसर खो जाता हूँ गहरी नीली आँखों में,
तेरा आँखों में उलझाना अच्छा लगता है।



ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

चंद ख्वाहिशों का बोझ लिए रोज निकलता हूँ मैं।
ठोकरें खाता हूँ गिरता हूँ फिर सँभलता हूँ मैं।
इन अंधेरों का मुझको है अब नहीं खौफ कोई,
रोशनी के लिए हर रोज थोड़ा पिघलता हूँ मैं।

मुस्कुराहट

मुस्कुराहट

गम जमाने के अब रास आने लगे हैं
मुश्किलों में सही पास आने लगे हैं
जरूरत नहीं महफिलों की मुझे है
तेरी खुशियों में ही मुस्कुराने लगे हैं


अफसोस नहीं

अफसोस नहीं

टूटा जितनी बार हृदय ये उतनी बार सँभाला इसको,
एक बार जो टूटा फिर तो कोई भी अफसोस नहीं है।

दो बूँद पलक पर आकर ठहरे, हमने उसको समझा गहना,
अपनों से या मिले पराये, हमने हर आहों को पहना।
साँसों की बस डोर सँभाली, नहीं किसी पर जोर कभी था,
दूर क्षितिज पर जो सपने थे, देखा उनका छोर नहीं था।

पलकों के सूने आँगन में, कितनी बार पुकारा इसको, 
टूटा जो फिर आज सपन ये, पलकों का कुछ दोष नहीं है,

मोहपाश कुछ काम न आया, कितनी बार शब्द से सींचा,
रेशे-रेशे बिखर न जायें, हृदय लगाकर इनको भींचा।
लेकिन चंचल हृदय अधिक था, बाहों को अधिकार नहीं था,
जिसको दिल ने अपना समझा, रिश्तों का आधार नहीं था।

मोहपाश से निकल न पाया, कितनी बार निकाला इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

निष्ठुर है चंचल छाया है, परिचय आकर्षण की सीमा,
स्नेह समर्पण मुद्राएं सब, क्या जाने किसका पथ धीमा।
जीवन लोहे की पटरी है, हर राहों को नापा इसने,
धूप ताप बारिश झेली है, तब जाकर पथ बाँधा इसने।

खुद ही अनुबन्धन में उलझे कितना ही सुलझाया इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अक्टूबर, 2024

कविता

कविता

वक्त के हर दौर का आधार बनी है कविता।
कभी शोला तो कभी अंगार बनी है कविता।
कितने गाये हैं और कितने लिखे गीतों में,
पृष्ठों पर शब्दों का आकार बनी है कविता।

कभी रिश्ते तो कभी परिवार बनी है कविता।
रूठे रिश्तों की भी मनुहार बनी है कविता।
उम्र के हर दौर का व्यवहार जहाँ मिल जाये,
यहाँ पे हर दौर का व्यवहार बनी है कविता।

कहीं शिक्षा, तो कहीं व्यापार बनी है कविता।
वेदों की ग्रंथों का भंडार बनी है कविता।
हर भाव में जिसके सभी रूप सिमट जाते हैं,
ऐसे हर भावों का विस्तार बनी है कविता।

रूप दुल्हन का बनी श्रृंगार बनी है कविता।
प्रेम के हर रूप का उपहार बनी है कविता।
जिसके आने से मौसम में भी रंगत छाये,
वो पावन दीपों का त्यौहार बनी है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13अक्टूबर, 2024

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

बिस्तर सूना-सूना सोफा खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

सिलवटें बदलती करवट अब जाने क्या-क्या कहती हैं,
तकिए के लिहाफ से आँखें खोई-खोई रहती हैं।
चद्दर की तह भी अब तो मुश्किल से ही खुल पाती है,
गद्दे और चद्दर की बाहें मुश्किल से मिल पाती है।

चौकी का हर कोना अब तो खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

कुछ बातों पर गुस्सा करना कुछ पर मन की कह लेना,
सुनने से पहले कितनी बातों का निर्णय कर लेना।
नाराज हुए तो भी आशीषों से झोली भर देना,
पलक कोर से तकना फिर उम्मीदों को जीवन देना।

पलकों के कोरों में अब कुछ खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तकती हैं चौखट को आँखें हर आहट पर उठती हैं,
आते जाते हर कदमों पे बरबस जाकर रुकती हैं।
और प्रतीक्षा है सपनों की पलकों के निज आँगन में,
आशीर्वादी पुष्प मिलेंगे फिर से मुझको दामन में।

आ जाओ अब आँगन मुझको अपना खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 अक्टूबर, 2024

मेहमान

मेहमान

क्या जाने क्या खता थी बदनाम हो गया हूँ।
ऐसा जला हूँ खुद से इल्जाम हो गया हूँ।
न रास अब तो आती है राहतें कोई भी,
घर में अपने अब तो मेहमान हो गया हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        

है विनती रघुराई

है विनती रघुराई

यह विनती तुमसे रघुराई। हरहु क्लेश विषाद मन माहीं।।
भरहु आस विश्वास भरोसा। मिटइ सबहिं के मन के दोषा।।
धरम भाव सब के मन लावा। उपजहिं सबहि हृदय समभावा।।
सुमति भाव जिनके मन छाई। अनुदिन बढ़े प्रेम अधिकाई।।

कुटिल भाव सब नष्ट हो, अंतस हो शुभ धाम।
शुद्ध चित्त सुमिरन करें, ले कर प्रभु का नाम।। 

सदाचार सुंदर पथ जग में। कटे कष्ट सबही यहि डग में।।
पग-पग कंटक कितनो भारी। राम नाम सब कंटक टारी।।
कलयुग में प्रभु नाम अधारा। छूटहिं क्लेश प्रेम विस्तारा।।
जिनके हिरदय प्रेम बसे है। उनके हिरदय राम बसे हैं।।

भक्ति भाव जा मन बसे, हृदय बसे अनुराग।
ज्ञान ध्यान संपति बढ़े, होत हृदय बड़भाग।।

जपहुँ राम सुंदर मन होई। मिटे कष्ट सुंदर तन होई।।
जपहुँ प्रभु नाम हैं बहुतेरे। ये विपत काल कबहुँ न घेरे।।
श्रद्धा सबुरी त्याग समर्पण। चित्त शुद्ध मन होवे दर्पण।।
निर्मल मन हो सत्य सनातन। जीवन का कण-कण हो पावन।।

जीवन का आधार है, प्रभु का सुंदर नाम।
यहिं जीवन के मूल हैं, कृष्ण कहो या राम।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08अक्टूबर, 2024




स्वप्न

स्वप्न

दुनिया के बाजार में जीवन और नहीं खिलौना है।
किसी मोड़ पर कुछ पाना है किसी मोड़ कुछ खोना है।
दर्द खुशी सपने आँसू कब यहाँ हमेशा टिकते हैं,
एक पलक खुशियों के आँसू दूजे सपन सलोना है।

पलकों ने सपने छाँटे हैं

पलकों ने सपने छाँटे हैं

बाँट दिए हैं पुष्प सभी अब,
आँचल में बाकी काँटे हैं,
पलकों ने सपने छाँटे हैं।

निकल पड़ी दो बूँद ठहर जब,
पलकों को अहसास हुआ है।
सूनापन पसरा नयनों में,
आहों का उपवास हुआ है।

निज पलकों में अश्रु निवेदन,
साँसों में बस सन्नाटे हैं।

व्यापारी हो गयी व्यवस्था,
जाने कैसी लाचारी है।
गीत पुराने अधरों के सब,
स्वर में कैसी नाकारी है।

सरोकार सब नये हो गये,
हिस्सों ने अपने बाँटे हैं।

नहीं चेतना आवाहन में,
स्वर व्यंजन अब नहीं रागते।
वेद ग्रंथ गीता रामायण,
चौराहे अब नहीं बाँचते।

आयातित साँसों में घुलकर,
अपनों ने ही पथ काटे हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 अक्टूबर, 2024

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...