फिर खेल खेला जाएगा

फिर खेल खेला जाएगा

नेह का सपना दिखाकर स्वयं को अपना बताकर,
मान्यताओं को छुपाकर नीतियों को भी भुलाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सभ्यता रह-रह गिरेगी आतमा रह-रह मरेगी,
सत्य का अनुरोध धूमिल शून्यता रह-रह बढ़ेगी।
वासना का जाल फैला प्रेम अरु विश्वास मैला,
मुद्रिका के प्रेम के हर अंश का अनुप्रास मैला।

समर्पण के, आभार के, नींव को झूठा बताकर,
हर समर्पित मुद्रिका के अंश को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

धर्म को अवरोध कहकर भावनाओं को गिराना,
भागवत के उपदेश के अर्थ को झूठा बताना।
वेदों के हर अंश से और नीतियों से दूर जाना,
गंग के तप-त्याग को बस स्वार्थ औ झूठा बताना।

व्यस्तताओं के बहाने संबंध का मन गिराकर, 
दूध के हर बूँद की आतमा को पल-पल गिराकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

हर सृजन की भावना में स्वार्थ का ही मूल होगा,
लाभ में वो ही रहेगा वक्त के अनुकूल होगा।
लाभ से सिंचित रहेगी वक्त की हर एक शिक्षा,
फिर भगीरथ क्यूँ करेगा गंग की वैसी प्रतीक्षा।

अब साधना के मूल्य को हर घड़ी हर पल गिराकर,
हर सृजन की आतमा पे झूठ का लेपन लगाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सत्य की होगी परीक्षा हर कदम पर व्यूह होगा,
झूठ आश्वासन से घिरा तर्क हर अभ्यूह होगा।
गांडीव होगा हाथ में नैन में प्रतिशोध होगा,
व्यर्थ सम्मुख पार्थ के हर कर्ण का अनुरोध होगा।

व्यूह लेकिन वो रचेंगे नीति को झूठा बताकर,
अभिमन्यु का फिर वध करेंगे व्यूह में झूठा फँसाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

अब आत्मबल का शौर्य का स्वयं ही पहचान करना,
मत्स्य की उस आँख का अब स्वयं ही अनुमान करना।
कब तक करेगा ये जगत अब परशु की फिर प्रतीक्षा,
ये सदी खुद ही करेगी उपलब्धियों की समीक्षा।

फिर धर्म की स्थापना के मार्ग से मन को हटाकर,
छेड़कर इतिहास को कौटिल्य को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 जुलाई, 2024

खेल अभी भी जारी है

खेल अभी भी जारी है

जिसने सबका मन भरमाया कुछ और न दुनियादारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

दो रंगे पासे हाथों में ले अब भी शकुनी घूम रहा,
स्वार्थ प्रमुखता ले भावों में हर द्वार-द्वार को चूम रहा।
कुटिल भावना अंतस में भर हाथों में लिए कटारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

गली मोड़ हर चौराहे पर कटुता बैठी फ़न फैलाये,
पल-पल सोच रही पांचाली कैसे पथ पर आये जाये।
केशव के साये में क्यूँ कर छुपना उसकी लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

सत्ता लोलुप दरबारों में सबके अपने स्वार्थ पल रहे,
भीष्म पितामह वाली चुप्पी देख यहाँ पर हृदय छल रहे।
सत्ता के चौखट पर कैसी लोकतंत्र की लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 जुलाई, 2024

सारे व्याकरण में है नहीं

सारे व्याकरण में है नहीं

कैसे लिख दूँ गीतों में मैं प्यार के अहसास को
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यादें जब भी आँसू बनकर नैन से बहने लगे,
ये मान लेना गीतिका का बंध पूरा हो गया।
आहों की बदली में जब-जब ये हृदय घिरने लगे,
ये मान लेना आतमा का द्वंद पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत में आँसू के अहसास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

जब भी मचलकर मन कभी ये प्रश्न खुद करने लगे,
ये मान लेना आतमा का कार्य पूरा हो गया।
जब कभी मन की गली के हर रासते मिलने लगें,
ये मान लेना रासतों का कार्य पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत मैं मन के हर विन्यास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यूँ ही कभी जब भींग जाये मन भाव के अहसास में,
मान लेना प्रीत का का अनुबंध पूरा हो गया।
जब बूँद पलकों से उतरकर स्वयं ही हँसने लगे,
ये मान लेना अश्रुओं का पंथ पूरा हो गया।

अब जो अलौकिक बात है इस अश्रु के अहसास में,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जुलाई, 2024

दीपक एक जला लेना

दीपक एक जला लेना

दुनिया के हर अँधियारे को साथी दूर भगा देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

गीत न केवल लिखना साथी लहरों के आलिंगन के,
लिखो दर्द तटबंधों के प्रिय मिटते हर अनुबंधन के।
बलखाती लहरों में घुलकर तट को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

कदम-कदम लाखों पहरे लाखों राह दिखाने वाले,
संबंधों की चौखट पर रिश्तों को समझाने वाले।
इस दुनियादारी में फँसकर तुम खुद को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

पलकों के सपनों को यूँ ही व्यर्थ नहीं ढहने देना,
यादों के शीश महल में प्रिय कुछ सपने रहने देना।
सपनों को पाने की हठ में अपने नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

साँसों से अनुबंध हुए जो कभी नहीं वो कम करना,
औरों के आँसू से अपनी आँखों को भी नम करना।
हार गए जिन संबंधों को उनको नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 जुलाई, 2024

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है

इंद्रधनुषी आसमां का हर रंग सारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

जूझती है जिंदगी अहसास के विस्मृत पलों में,
छल रही है बंदगी भी जो कभी थी हर दिलों में।
हर आस के अहसास का पुष्पित इशारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

थी कभी मधुमित नशीली ये रात जो बरसात में,
आधरों से थी टपकती मधु हर घड़ी हर बात में।
सूखे मधु के हैं प्याले या कुछ नया अनुबंध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

अब न वो सुरताल सारे और न वही संगीत है,
बस झूठ के पैबंद से मन सिल रहा हर प्रीत है।
अब प्रीत का अनुराग का जो था सहारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

मेरी पेशानी के बल से हँस रहे जिनके महल,
द्वार पर उनके नहीं है मेरी पेशानी का हल।
बूँद की अंतिम सियाही तक ही यहाँ संबन्ध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26 जुलाई, 2024

मुक्ति गीत

मुक्ति गीत

जाओ है विदा तुमको हमारे गीत अब न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

था आचमन तुमको हमेशा और अर्पित मन सुमन सब,
था मंत्र के उच्चारणों में पुण्यता का आगमन सब।
अब जो न होगी पुण्यता तो ये गीत हम न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

अब क्यूँ करे ये दिल प्रतीक्षा क्यूँ द्वार पर दीपक धरे,
क्यूँ कर सहे हर लांछनों को क्यूँ याचना अब मन करे।
जब प्रतीक्षा ही न होगी नहीं मीत हम कहलायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

जब टूटना ही रेख में हो तो वृथा है भार ढोना,
क्यूँ व्यर्थ के अनुबन्धनों में स्वयं कालाहार होना।
जब तोड़ सारे बंधनों को मुक्त हृदय हो जायेंगे
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

मन चल पड़े जब मुक्त होकर सब व्यर्थ है फिर सोचना,
शीतल करे जो दो दृगों को क्यूँ अश्रुओं को पोछना।
आँसू में अनुभूतियों के अहसास जब बह जायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 जुलाई, 2024

जीवन का आशय

जीवन का आशय

बिना लड़े कब मिल पाया है जीवन का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

लहरों की धारा संग चलकर गहराई का ज्ञान हुआ,
आत्म विभूषित हुआ जहाँ राहों का अनुमान हुआ।
अनुमानों के बिना मिला कब संकल्पों को आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

अरुणोदय का बोध नहीं तो चन्द्र रश्मियाँ व्यर्थ रहीं,
जब तक ताप नहीं मिलता है शीतलता का अर्थ नहीं।
धूप-ताप जो सहा नहीं है छाँवों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

उच्च कभी तो निम्न कभी है अपने जीवन की रेखा,
पौरुष का सम्मान किया जो उसने मरु में जल देखा।
अनुदानों में मिलने वाले सपनों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19 जुलाई, 2024

शहर विकास तो गाँव है गहना।

शहर विकास तो गाँव है गहना

पगडंडी से सड़क का रास्ता,
इक दूजे के मन में बसता।
गली-गली से होती बातें,
तारों के संग कटती रातें।
पुरवइया का घर-घर बहना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

राहों में कदमों की करवट,
नयनों में सपनों की सिलवट।
एक चली तो दूजी चली है,
फूल है एक तो दूजी कली है।
हँसकर इक दूजे से मिलना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

इक सपनों की भूल-भुलैया,
दुजे में पीपल की छइयाँ।
भाग-दौड़ है एक में पल-पल,
दूजे में सपनों की हलचल।
सपनों का शहरों में बसना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

ऐसी जुड़ी राहें जीवन की,
गाँव सुने है शहर के मन की।
तब टूट सकेगी कैसे डोरी,
शहर चले जब गाँव की ओरी।
शहरों के संग गाँव का रहना
शहर विकास तो गाँव है गहना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18 जुलाई, 2024




मेरे स्वर

मेरे स्वर

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

उम्मीदों का दामन थामे, प्रति दिन पथ पर चलता हूँ,
शूल चुभे कितने ही पग में, हँस कर खुद से मिलता हूँ।
कंटक पथ भी फूल बनेंगे, इक दिन वो भी आयेगा,
आज चला हूँ भले अकेले, इक दिन जग भी आयेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

जीवन पथ मुश्किल है माना, नामुमकिन कुछ रहा कहाँ,
इस जीवन में संघर्ष न हो, ऐसा पथ कब रहा यहाँ।
उद्द्यम के बल पर सपनों की, गाथा मन लिख पायेगा,
आज उगाता जिसे अकेले, जग उसको उपजायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

कदम ताल औरों के नापूं, मुझको ये अधिकार नहीं,
औरों की शर्तों पर गाऊँ, मुझको ये स्वीकार नहीं।
अपने हिस्से के मधुवन में, सावन इक दिन आयेगा,
उम्मीदों की इस लतिका पे, फूल कभी मुस्कायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जुलाई, 2014

अधूरे स्वर

अधूरे स्वर

कितने मंजर नयनों में आकर पलकों को छल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

है जितना मुश्किल अनुमानों की राहों में खुलकर जाना,
है उतना मुश्किल दुविधाओं से जीवन का बाहर आना।
अनुमानों दुविधाओं के पल जब सपनों में मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जितना मुश्किल इस जीवन में है वादा कर हँसते रहना,
उतना ही मुश्किल है पलकों के आँसू का कहते रहना।
हँसते आँसू जब अधरों के कंपन में घुल-मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

मन को माटी जैसा रखकर इस जीवन में रहना होगा,
जीना है यदि इस जीवन को सब धूप-छाँव सहना होगा।
जीवन तब इस धूप-छाँव में हँसते-हँसते पल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जो जीवन भर बाधित स्वर ले निज आहों में जीता होगा,
हृद घट खंडित भावों से छल पल-पल कितना रीता होगा।
रीते अंक लिए आँसू फिर घावों को ना सिल पायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2024

अपनी नाव उतारी है

अपनी नाँव उतारी है

कितनी कश्ती आशाओं की, लहरों में उलझी जाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

हार-जीत के अनुमानों से, आशंकित मन की राहें,
लेकिन आलिंगन में लेने, को आतुर मन की बाहें।
हार-जीत के सम्मोहन में, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, सपनों के सब अनुयायी,
कुछ सपने जीवंत हुए हैं, कुछ पानी की परछाईं।
लेकिन सपनों के चौसर पर, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

लिखा रेख में जो जीवन के, चाहा टाल नहीं पाया,
पग-पग कितने जतन किये पर, मन का हाल नहीं पाया।
पग तल जितने राह चले हैं, मंजिल दूर हुई जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

नीलकंठ बनना चाहा पर, अंतस शुद्ध न हो पाया,
जीत गया जीवन कलिंग पर, मन ये बुद्ध न हो पाया।
इच्छाओं के महा जलधि में, चाहे कितनी बलखाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2024

किधर जाऊँगा

किधर जाऊँगा

जिंदगी तू साथ देगी तो निखर जाऊँगा
हाथ छूटा जो तेरा तो मैं बिखर जाऊँगा

यूँ तो वादे हैं हज़ारों यहाँ इन राहों में
मुझसे वादा जो कर तो सफर पाऊँगा

वैसे बन-बन के भी बिगड़ा हूँ बहुत
तू जो हँस देगी तो सुधर जाऊँगा

तेरी कश्ती का मैं मुसाफिर हूँ यहाँ
छूटी जो कश्ती तो किधर जाऊँगा

"देव" चलता है सफर जब तलक साँसें हैं
है ये लम्हों का सफर हँस के गुजर जाऊँगा

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जुलाई, 2024


बूँदों का मधुमास

बूँदों का मधुमास।   

सावन की मधु बूंदें गिरकर, यूँ अन्तस् में अधिवास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।

हरित हुआ धरती का आँचल,
काली मेघ घटायें छाईं।
बारिश की बूँदेँ जीवन में,
बनकर के सौगातें आयीं।
तन मन ऐसे भींगा जैसे, मृदु भावों ने अनुप्रास किया।
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

देख धरा का खिलता आँचल,
मेघों का भी मन डोला है।
दूर क्षितिज पर मिलन देख कर, 
पपिहे का भी मन डोला है।
पपिहे ने भी गीत सुना कर, फिर प्रियतम को है याद किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

सावन ऋतु की देख उमंगें,
हिय प्रेम राग भर जाता है।
दूर देश बैठे पियतम की, 
यूँ बरबस याद दिलाता है
प्रेम फुहारों से भींगा मन, अब मधुर मिलन की आस किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...