प्रेम का कैसा प्रमाणन

प्रेम का कैसा प्रमाणन

गिनता रहेगा यदि जगत ये, योगफल क्या प्रेम का है,
चुनता रहेगा वृत्तियों में, नेह यदि तो प्रेम क्या है।
होता गणित का बोध बौना, भाव की अनुरागिनी में,
योगफल कोई क्या गिनेगा, प्रेम की मधु यामिनी में।

यदि भाव में अनुबंध है तो, नेह का कैसा प्रवारण।

जो है कथानक छद्म यदि तो, नेह का अस्तित्व कैसा,
कहो आत्मा यदि है अमर तो, देह पर स्वामित्व कैसा।
हो भोर चाहे सांध्य तन की, साँस की सबको जरूरत,
क्या बन सकेगा इस जगत में, साँस का कुछ और पूरक।

यदि साँस से अनुबंध है तो, देह में कैसा प्रमादन।

जो सारथी यदि प्रेम है तो, पार्थ हो तुम स्वयं रथ में,
होगा समर्पित वन सुमन सब, साधना के मौन पथ में।
अहसास के जीवंत पथ का, न और अब प्रमाण होगा,
अब यवनिका के हर पतन पर, इक नया निर्माण होगा।

जब हो समर्पित वन सुमन सब, और जीवन हो पुजारन।
फिर प्रेम का कैसा प्रमाणन, प्रेम का कैसा प्रमाणन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 अप्रैल, 2024


नारी

नारी

नव सपनों की आशाओं की, तुम मौन समर्पण हो नारी,
जीवन के मूल भावना की, तुम असली दर्पण हो नारी।
व्यर्थ याचना से हटकर के, तुम बिना झुके ही रहा करो,
चंचल लहरों सी नदिया की, तुम बिना रुके ही बहा करो।

तुम सृष्टि नियंता हो जग की, तुम ही पालक हो जीवन की,
तुम आशाओं का झुरमुट हो, तुम अभिलाषा हर उपवन की।
तुम छंद युक्त हो गीत मधुर, तुम कविताओं की जननी हो,
हो मानस की तुम चौपाई, तुम वेद ग्रन्थ की सरिणी हो।

खुशियों का तुम हो प्रथम पृष्ठ, तुम उम्मीदों का प्रमुख चित्र,
अनुशीलन हो सब भावों का, तुम ही जीवन का प्रथम मित्र
सूर्योदय से गोधूली तक, तुम चतुर्दिशा में रहती हो,
सब बाधाओं सब विध्नों से, तुम बिना रुके ही बहती हो।

तुम  प्राण वायु इस सृष्टि की, तुम मूल स्रोत हर दृष्टि की,
तुम हो पावस की प्रथम बूँद, और मृदुल रागिनी वृष्टि की।
तुम केंद्र बिंदु हो जीवन के, हर मधुर यामिनी रागों की,
शीतलता का मूल स्रोत हो, इस विकल हृदय की बातों की।

तुम श्रेष्ठ भावना धरती की, तुम मृदुल कामना धरती की,
तुम भावों का हो एक कल्प, तुम श्रेष्ठ प्रार्थना धरती की।
जीवन के हर इक पथ पर तुम, प्रतिपल अबाध गति चला करो,
औरों से मिलने से पहले तुम, अपने मन से मिला करो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अप्रैल, 2024




इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

देह पत्थर की हुई और जंगल के हुए मन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

पत्थरों के वन उगे हैं हर गली हर मोड़ पर,
दहशतों में जी रहे हैं मस्तियों को छोड़ कर।
दे रही है सांध्य सूरज को सदा चेतावनी,
भीड़ की वीरानियों में ढूँढता मन सावनी।

हीनता हर दृष्टि में क्यूँ खो रहा मन का गगन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

गिर रही हैं टूट कर आज सारी संहितायें,
और धूमिल हो रही हैं जो यहाँ थी पूर्णतायें।
खोजता है हर घड़ी मन अर्थ में आनंद बस,
चाहता आश्वाशनों में लाभ से अनुबंध बस।

संहिता के पृष्ठ पर कंटकों के युग रहे वन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

आ चलें लेकर यहाँ पर सरगमों का गीत हम,
आ लिखें हर पृष्ठ पर अनुबन्धनों की जीत हम।
पर्वतों को फर्क क्या हो भले गहरे अँधेरे,
रोशनी के अंक में पल रहे बादल घनेरे।

सिंह द्वारों पर उगे हैं आज कितने वन सघन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

उत्सवों के द्वार पर नामंजूर है मंगल कलश,
छाँव में आश्वासनों के है मची जब तक कलह।
गढ़ रहा है ये समय स्वार्थ का अहसास कैसा,
उँगलियों को चुभ रहा तंत्र का विश्वास कैसा।

तंत्र के विश्वास को खल रही है कैसी चुभन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अप्रैल, 2024



राही तुम कब आओगे

राही तुम कब आओगे

चौखट पर दो ठहरी आँखें, आँचल का बना बिछौना है,
पूछ रहे हैं कोर नयन के, हे राही तुम कब आओगे।

धरती पर जब आसमान के, चिड़ियों का देखूँ छाया क्रम,
परदों की झुरमुट से उठती, इन आवाजों से होता भ्रम।
कब तक मन को समझायेंगे, हम संदेशों से पाती से,
कब तक मन को बहलायेंगे, हम मधु गीतों से पाखी के।
पूछ रहे सावन के झूले, गीत मिलन के कब गाओगे।।

बरस-बरस दिन बीत रहे हैं, ऋतुओं ने भी करवट बदली,
सूने छत के मुंडेरों से, हँसती बैठ पवन ये पगली।
झड़े हुए पत्तों की खड़-खड़, कब तक मन को भरमायेंगे,
पनघट पर सूनी गागर के, लौट दिवस कब फिर आयेंगे।
पलकों की पनघट के आँसू, कब आकर के सहलाओगे।।

धूप सताती यहाँ छाँह में, अरु शूल चुभे हैं फूलों में,
इस सिलवट से उस सिलवट तक, ये रात कट रही शूलों में।
आँखों से सपने ओझल हैं, ये बैरन रात सताती है,
चन्द्र किरण की चंचल किरणें, बस पल-पल आग लगाती हैं।
धूप सने मन के दलान में, बारिश बनकर कब छाओगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 अप्रैल, 2024


ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना

ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना

क्या बतलाऊँ दीवारों में, कितना सूनापन पसरा है,
क्या बतलाऊँ अँधियारों का, रंग अभी कितना गहरा है।
क्या बतलाऊँ तुम बिन मेरे, घर मे कितना खाली पन है,
क्या बतलाऊँ तुम बिन कितना, इन साँसों में भारीपन है।

मत जाना इतना दूर हृदय से, के टूटे ये ताना-बाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।।

तुम बिन देगा कौन सहारा, जब दर्द दाह तड़पायेगा,
कौन करेगा दूर तपन को, कौन आह को सहलायेगा।
पलकों के कोरों में गलकर, यूँ बह न जाये दिल की बात,
चौखट पर यादों के बीते, चरण पखारते सारी रात।

धुँधले होने से पहले तुम, इन यादों को सहला जाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।।

धुंध भरे मौसम में कब तक, गूंजे गीतों की शहनाई,
क्या जाने कब ढल जायेगी, इन बालों की ये कजराई।
क्या जाने कब तक बीतेगी, ये उम्र यहाँ इन पहरों में,
क्या जाने कब बह जायेगी, ये उम्र भँवर, में लहरों में।

गिनी चुनी बाकी घड़ियों में, इन साँसों को बहला जाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 अप्रैल, 2024

प्रिय आज सुना दो मधुर गान

प्रिय आज सुना दो मधुर गान

यादों को ताम्रपत्र पे लिख दो, भावों को अमरत्व दिला दो,
अंतस के भित्ति चित्र पे चित्रित, आकृतियों में रंग मिला दो।
मधुर प्रणय की इस बेला में, आ मिले तोड़ सारे बंधन,
उल्लासित मधुमित भावों से, करें सुवासित मन को चंदन।
प्रलय प्रणय की मधु सीमा में, आ रखें इक दूजे का मान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान।।

मन की बंद गली में आकर, भावों को अनुमोदित कर दो,
श्रृंगारित मृदु छंदों से, अंतर्मन को मोहित कर दो।
मन के कोरे भित्ति चित्र पर, प्रणय रंग से रचो अल्पना,
चित के कुंज निलय में आकर, पूरी कर दो सभी कल्पना।
अंतस के निज सूनेपन में, प्रिय हो गुंजित फिर मृदुल तान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान।।

घन बन बरसो आज धरा पर, तप्त हृदय शीतल हो जाये,
चन्द्र रश्मि की मृदु छाया से, सिंचित मन कोमल हो जाये।
प्रलय प्रणय से पुण्य प्रवाहित, ये सारा दामन भर जाये,
जीवन का हो राग सुवासित, सूना मन आँगन भर जाये।
चन्द्र किरण की शीतलता में, हो पूर्ण सभी मन के अनुमान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अप्रैल, 2024

गीतों को वरदान

गीतों को वरदान

गीतों के आंदोलित स्वर को, जग में जब सम्मान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

नयनों के इस आंदोलन में, मुश्किल मन का भाव छुपाना,
बदल रहे इन हालातों में, नामुमकिन है हाल छुपाना।
कब जाने दिल की राहों में, कौन यहाँ किसको मिल जाये,
दिल के पतझड़ में कब जाने, पुष्प कहीं फिर से खिल जाये।

नयनों के आंदोलन को जब, गीतों का अनुदान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

झुकी हुई तरु की छाया में, जाने कितने पल सिमटे हैं,
उलझी माथे की सिलवट में, अनुभव के धागे लिपटे हैं।
दूर घनेरे अँधियारे जब, राहों से मन को भटकाये,
अवसादों से घिरे गगन में, नाहक ही मन उलझा जाये।

झुके हुए उस तरुवर के जब, अनुभव को सम्मान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

दरबारी हो गया अगर तो, कविताई का अर्थ नहीं है,
सत्ता को अनुनादित करना, कवि का केवल धर्म नहीं है।
जन गण मन की दिव्य भावना, सत्ता तक पहुँचाना होगा,
सोया है यदि सिंहासन तो, उसको पुनः जगाना होगा।

जनश्रुतियों को कविताओं में, जब मन वांछित स्थान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 अप्रैल, 2024




अधूरी रही

अधूरी रही

उम्र भर इक कहानी अधूरी रही
बात जो थी सुनानी अधूरी रही

ढूँढता ही रहा साथ वो उम्र भर
पास थी जो निशानी अधूरी रही

चाह दिल में दबी के दबी रह गयी
प्रीत दिल की पुरानी अधूरी रही

स्वप्न पलकों से बोझल हुए इस तरह
रात की रात रानी अधूरी रही

रोटी की दौड़ में उम्र यूँ खो गयी
जो भी आई जवानी अधूरी रही

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 अप्रैल, 2024

सारी रात बीनते बीती

सारी रात बीनते बीती

छिन्न भिन्न यादों के टुकड़े, सारी रात बीनते बीती

दिन के कोरे तापमान में, संबंधों की कोरी छाया,
झूठे वादे आसमान से, बीता दिवस न कोई आया।
बार-बार अखबार उठाकर, बासी खबरों को दुहराया,
नाम मात्र की सुबह हुई थी, कह-कह कर मन को बहलाया।

बेबस दिन के सूनेपन को, रात-रात भर गिनते बीती।।

ताप वात अनुकूलित घर में, जिंदा मौसम रहा तड़पता,
आधी उमर खोजते बीती, आधी को मन रहा कलपता।
जीवन भर जिस पावदान पे, सारी उम्र रगड़ते बीती,
उसका जर्जर हाल देख कर, सारी रात तड़पते बीती।

पावदान से जर्जर मन को, सारी रात सीलते बीती।

सजे-सजे तोरड़द्वारों से, जीवन भर मन रहा भटकता,
कितने सपने झोली में भर, खूँटी पर मन रहा लटकता।
गिरे अंक से कितने सपने, टूटे कितने ताने-बाने,
लेकिन मन के संधिपत्र पे, हस्तलिखित कितनी मुस्कानें।

संधिपत्र को मुस्कानों से, सारी रात लीपते बीती।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2024

झुर्रियों की जुबानी

झुर्रियों की जुबानी

कच्ची सफेद चादरों में, लिपटी उम्र की है कहानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

दूर तक कितने चले हैं, पाँव राहें जानती हैं,
उम्र सी पगडंडियाँ ही, दर्द उसका जानती हैँ।
मौन हँसकर झाँकती थी, उम्र जूतों से जहाँ पर,
हर घड़ी हँसकर छुपाते, धूल से सनकर वहाँ पर।

झाँकती अब भी खड़ी हैं, उँगलियाँ बनकर निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

हैं थके बाजू न समझो, इनमें अब भी जोर है,
ध्यान से सुन लो जरा, हवा में अब भी शोर है।
नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ जो, झुर्रियों को थामती हैं,
बाजुओं के जोर को, वो ही बस पहचानती हैं।

बैठ काँधों पर ठुमक कर, तय हुई कितनी जवानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

कुछ स्वप्न पलकों पर सजाये, नींद कितनी मार दी,
बस जीत बाँटी हर घड़ी, स्वयं केवल हार ली।
एक कपड़े में सिमटकर, स्वप्न को रफ्फू किया है,
रातें सारी जानती हैं, कैसे सपनों को जिया है।

कोर की इन सिलवटों में, हैं छुपीं सारी निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

हर उम्र की अपनी व्यथा है, इक ओर दूजी छोर है,
उँगलियों से थाम लेना, हल्की बहुत ये डोर है।
कौन जाने किस घड़ी में , छूट जायें ये सहारे,
आसमां का क्या भरोसा, टूट जायें कब सितारे।

मखमली इन सिलवटों में, हैं उम्र की कितनी कहानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2024

चाँदनी का रूप

चाँदनी का रूप

सांध्य का यदि एक टुकड़ा अंक में जो डाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

पंक्ति को विस्तार देता तोड़ सकता जो सितारे,
छंदों की रश्मियों को माँग मैं भरता तुम्हारे।
काश मैं मधुमित पलों को इन पलों में पाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

काश लिख सकता पलों में मैं सदी की हर कहानी,
काश कह सकता हृदय के भाव आँखों की जुबानी।
काश अंतस के विकल हर भावों को सँभाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

हर निकलता पल हृदय में प्राण का अहसास देता,
शून्यता के हर पलों में नेह का आभास देता।
चाँदनी की रश्मियों को माँग में मैं डाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2024

सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...