काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

कितने सपने पलकों पर ले
रातों के हम साथ जगे
बनकर बाती हम दीपक की
उम्मीदों के साथ जगे
तुम बिन कैसे रोशन दुनिया
बात यहाँ समझा पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

मैंने अपने सूनेपन को
तेरी यादों पे वारा
जीत गया मैं सबसे लेकिन
अपने ही दिल से हारा
दिल से क्यूँ मजबूर हुआ
बात यहाँ बतला पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

अब तुम कितने दूर बसे हो
चाहूँ तो कैसे आऊँ
ऊँची-ऊँची दीवारें हैं
कैसे तुम तक पहुँचाऊँ
मुझसे तुमको घाव मिले जो
काश उसे सहला पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जून, 2022

मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने जग की बात परखकर
कुछ शब्द प्रखर हो कह डाले
मैंने मन के सूनेपन में
कुछ गीत मुखर हो रच डाले
मेरे उन गीतों को अब तक
कोई सद्भाव न मिल पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने समझा साथ मिलेगा
जीवन के हर पथ पे मुझको
मैंने चाहा करूँ समर्पित
जीवन का हर पल मैं तुमको
लेकिन हाथों की रेखा में
मैं तुमको नहीं सजा पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने अपने अंतर्मन के
भावों से श्रृंगार खिलाये
मैंने अपने हर गीतों में
सपनों के श्रृंगार सजाये
थे पलकों के तंग किनारे
मैं आँसू नहीं बहा पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

कितने ही अवरोध मार्ग में
मैं कब तक मनन यहाँ करता
सूरज की ढलती किरणों में
मैं चिंतन कहो कहाँ करता
कुछ था कर्ज मेरे माथे पर
मैं जिसको नहीं चुका पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30जून, 2022

मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।

मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।

मेरे माथे की सिलवट को अगर जो पढ़ लिया होता
मेरे भावों की आहट को नजर में मढ़ लिया होता
नहीं घिरती कभी अफसोस की बदली इन हवाओं में
मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।।

जो लफ्जों का सफर मुश्किल तो रस्ते छूट जाते हैं
कहे कोई यहाँ कुछ भी नजारे  रूठ जाते हैं 
नहीं बस दोष लहरों का किनारों की कुछ खता होगी
कि हल्की थाप लहरों की जो पाकर टूट जाते हैं।।

जी, चलो माना नहीं आता मुझे मिलना मिलाना कुछ
नहीं आता मुझे माना कि कहना कुछ सुनाना कुछ
मगर सब बात दिल में है अभी तक सालती तुमको
इशारों में  सही कुछ तो नजर से गढ़ लिया होता।।

हुए हैं दूर अब हम तुम समय का दंश है शायद
कहीं मेरे तुम्हारे भाव का कुछ अंश है शायद
जब मचली नाव लहरों में किनारा कढ़ लिया होता
मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जून, 2022



लहरायें वन उपवन सारे।

लहरायें वन उपवन सारे।  

तन कोमल हो मन निर्मल हो
सुखमय जीवन का हर पल हो
खिल जाएं सबकी आशाएँ
स्वच्छ हवा से जग मंगल हो।।

द्वीप-द्वीप हरियाली छाये
कलरव मीठा राग सुनाये
जगती का हर गीत मनोहर
खग-मृग सब हिल मिल गायें।।

स्वच्छ धरा हो पुण्य भाव हो
नहीं कहीं कोई अभाव हो
जन-जन हर्षित मन पुलकित हो
हिय निर्मल निर्झर मृदु स्वभाव हो।।

अंबर से पग-पग शोभित हो
अवनी का कण-कण पोषित हो
लहराये वन उपवन सारे
शुभ गीतों से नभ गुंजित हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जून, 2022

जीवन के संधि-पत्र पर।

जीवन के संधि-पत्र पर। 

जीवन के उस संधिपत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कुछ पन्नों में नत्थी कर ली
सबने जीवन की गाथा
बिखरे-बिखरे कुछ पन्ने थे
बाँध नहीं पाया धागा
इक-इक पन्ने चुनने खातिर
रात-दिवस जीवन जागा
फिर भी जाने कितने पन्ने
जीवन पथ के छूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कितनी सुधियों की खुशबू से
महक रहा जीवन अपना
कितने वादों की नरमी से
कितना कुछ हमको लिखना
पर इक आँधी के झोंके से
बिखरा पलकों का सपना
सपनों का कुछ दोष नहीं था
पलकों से क्यूँ टूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

इक पन्ने पर धुँधले चेहरे
पास कहीं परछाईं हैं
यादों के दीपक से मिलकर
अंतस में घिर आयीं हैं
यादें पलकों की बूँदों से
लगती कुछ घबराईं हैं
अधरों के वो गीत सभी अब
चुभते से क्यूँ शूल हुए
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना जब भूल गये।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2022


अब भी चुभ रहा बन शूल।

कुछ कहीं ऐसा है अब भी
चुभ रहा बन शूल।

अंक में मेरे सिमटकर
पाश में मेरे लिपटकर
कंठ में थे गीत के स्वर
कुछ कहा उस रोज तुमने
याद है वो आज साथी या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

मौन पल में कुछ कहा था
दर्द कितना ही सहा था
शब्द अधरों से झरे कुछ
अश्रु पलकों से गिरे कुछ
याद है वो अश्रुकण या फिर गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

अब कहाँ मैं तुम कहाँ पर
दूर हैं हम, मौन हैं स्वर
लिख रहा पर गीत तेरे
भाव मन के, प्रीत तेरे
याद है क्या गुनगुनाना या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

दूर हूँ सब बंधनों से
स्नेह के अनुरंजनों से
है नहीं अफसोस कोई
रात पलकें पर न सोईं
याद अब भी जागना है या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जून, 2022


पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

पीड़ा ने मुझको अपनाया।।
          
               1⃣

पग-पग चलता रहा निरंतर
पलकों में भर प्रेम समंदर
आती जाती साँसें पल-पल
भावों में कब करती अंतर
नयनों ने सब भाव सँभाले
आस-निराश के ओढ़ दुशाले
अधरों पर नवगीत सजाये
आहों में भी गीत सुनाये
मेरा गीत जगत को भाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

              2⃣

मैंने सुख में भाव सँभाले
दुख में सुख की राह निकाले
मीलों चलता रहा क्षितिज तक
कदमों से जीवन लिख डाले
कुछ भूलों ने ऐसा घेरा
सुख में दुख ने डाला डेरा
बदनामी की आँच लगी यूँ
बदल न पाया मन का फेरा
मन के भावों को समझाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

                3⃣

यादों का जब लिया सहारा
उस पर अपना सबकुछ वारा
जगती से क्या करूँ शिकायत
सब से जीता खुद से हारा
हार-जीत के चक्र में फँसकर
भूल गया जब जीना खुलकर
फिर क्या देता दोष किसी को
समझ नहीं पाया जब मिलकर
विधना ने सब खेल रचाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

               4⃣

उत्तर इतना सहज रहा कब 
के जब चाहो तब मिल जाये
भावुकता के क्षण में हमने
संदेशे पल-पल भिजवाये
जिस पल तुमसे राह मिली थी
जीवन क्या तब हमने जाना
अंजुलि से जब समय गिरा तब
खोना क्या तब हमने जाना
खो कर भी पल-पल मुस्काया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2022


है कुपथ क्या औ सुपथ क्या अब कौन बोलेगा भला।।

है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            1⃣
रात के उस पार देखो
भोर की उजली किरण है
बादलों के पार देखो
अवनि अंबर का मिलन है
हूँ जा रहा इस पंथ पर 
मैं अकेला गीत गाता
फिर कहो कोई यहां क्यूँ
आसमां सर पर उठाता
है सुगम या राह दुर्गम
अब कौन रोकेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            2⃣

राह कितनी मैं चला हूँ
और कितनी दूर जाना
मुश्किलें चाहे सफर में
सीखा केवल मुस्कुराना
शब्द लहरों से लिया हूँ
साहिलों से गीत गाना
आँधियाँ चाहे डगर में
दीप बनकर टिमटिमाना
दीप का व्यवहार बोलो
अब कौन समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

               3⃣

क्या कठिन जीवन यहाँ पर
औ क्या है ये मृत्यु सरल
लगता जिंदगी के वास्ते 
सब पी रहे पल-पल गरल
हर किसी के अंक में है
उसका अपना आसमान
फिर नहीं पर्याप्त है क्यूँ
जो कुछ मिला सबको यहाँ
अब ये कसक दिन रात की 
क्या वक्त समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             4⃣
मौन रहकर इस सफर में
देखो चले कितने मगर
पार कितने पा सके हैं
हो ये डगर या वो डगर
ये नाव ही है जानती
वेग कितनी है लहर में
वो किनारे क्या करेंगे
दूर जो ठहरे सफर में
पतवार इन किश्तियों की
अब कौन पकड़ेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             5⃣

जब लिए संतोष मन में
चल पड़े मन के नगर में
क्यूँ यहाँ अफसोस करना
राह कैसी है नजर में
शब्द से उपचार कर के
दर्द को अपना बना लो
गीत में श्रृंगार भर के
स्वयं में ही गुनगुना लो
जब नहीं हो साथ कोई
बोलो शपथ क्यूँ ले भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
फिर कौन बोलेगा भला।।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        11जून, 2022

आज अभिलाषा जगी है।।

आज अभिलाषा जगी है।।

          1

चाँदनी का रथ सजा है
और तारे भी सफर में
भाव की आलोड़नाएँ
गुदगुदाती हैं डगर में
अंक में आकर मिली है
आस जो थी मनचली
देख इसको फिर खिली है
कामनाओं की कली
मौन इस व्यवहार में
आस के संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
        
            2

नेत्र मन के आज मेरे
खुल रहे हैं पास आकर
साँस में सरगम सजी है
देख तुझको पास पाकर
रत्न आभूषण सभी अब
मोहते मन को निरन्तर
ये शिशिर ऋतु भी मुझे अब
लग रही पिय आज सुंदर
रूप के आकार में
इस मधुर संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             3

आज मन के स्वप्न सारे
फिर पलक पे आ सजे हैं
भावनाओं के दुआरे
प्रेम के तोरण सजे हैं
चाह जो थी दूर कल तक
पास लाना चाहता हूँ
कल्पनाओं के सफर में
दूर जाना चाहता हूँ
मृदु हृदय उद्गार में
मोह के आकार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             4

आज मन के निज नगर में
सज रहे हैं गीत के स्वर
प्रीत के पावस पवन में
गूँजते मधुमास के त्वर
है सजी ऋतु ये रसीली
हैं प्रहर सब आज पावन
गेह में पल-पल छुपा है
स्नेह का संपूर्ण गायन
देह के आधार में
कामना उपहार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

              5

चल निकल कर मौन पल से
आज मन की कह लें सारे
अंक में जो कुछ हमारे
प्रीत पर हम क्यूँ न वारें
हाँ चलो पहचान लें अब
क्यूँ रहे मन में निराशा
दिख रही है आज हमको
प्रेम की कोमल सुभाषा
पंथ में अभिसार के
मौन के उद्गार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

            6

लौट जाऊँ मैं यहाँ से
तो कहो कैसा लगेगा
साथ में जब हम न होंगे
भाग्य फिर कैसे जगेगा
इस निशा के निज पलों को
कौन देगा मान्यता
शुष्क भावों से कहो फिर
क्या जगेगी  संज्ञान्यता
चेतना के सार में
स्वप्न के विस्तार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10जून, 2022





जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

मैंने जग के सूनेपन में उल्लासों के गीत रचाये
कुछ में भाव लिखे हैं अपने कुछ में दूजे भाव सजाये
फिर भी सोचा इस रंगमंच पे आऊँ मैं क्या-क्या बनकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

लेकिन जगती रंगमंच पर कैसा अभिनय करवाती है
भरती है उल्लास कभी औ कभी निराशा दे जाती है
कभी नटी सा जीवन लगता और कभी लगती मनमानी
फिर भी जाने क्यूँ लगती है ये दुनिया जानी पहचानी।।

अपने मन के भावों को कह लेता हूँ यूँ ही लिखकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

तुमसे ये जो मेल हुआ है यही भाव है यही प्रणय है
जगती के इस आडंबर में सत को समझे वही हृदय है
एक सत्य है एक प्राण है बहती जिसमें जीवन धारा
करता रहता जिसमें जीवन हर हिस्से का अभिनय सारा।।

भले दृष्टि में अभिनय है ये जीता हूँ मैं इसको मनभर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

हैं हम सब किरदार जगत के मन ही अपना रंगमहल है
जिस पर सारा मंच सजा है ये जगती वो क्रीड़ाथल है
अपना अंश निभा लें जिसपल उन्हीं पलों में जीवन मूल
वरना जाने कौन यहाँ पर कब क्या हो जाये अगले पल।।

बीते पल की घोर निशा में फिर क्यूँ भटके मन घुट-घुट कर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून, 2022


जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

कब तक भटकेगा यूँ ही
दर्द ले तरसेगा यूँ ही
आह मन की कब सुनेगा
कह यकीं कैसे करेगा
चल चलें मन के सहारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

कवि होना आसान कहाँ।

कवि होना आसान कहाँ।।

घाव की कुछ पंक्तियाँ ले
भाव में कुछ बदलियाँ ले
भर नीर का सागर नयन 
औ वेदना आयी शरण 
तब लिखे कुछ गीत मन ने
भरे दर्द का सारा जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

निज पृष्ठ पर परिणाम देकर
निज आस को विश्राम देकर
भर शब्द के पग-पग सुमन
कर मौन मन के मृदु नयन
जब सजे श्रृंगार मन के
तब लिखे जो मन ने कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सब मोह माया छोड़ कर
निज बंधनों को तोड़ कर
कर के कंटकों का चयन
कर दूर जगती के तपन
प्रिय शब्दों से सिंचित बदन
तब भाव मन का है कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सींच अश्रुओं से क्यारियाँ
कर दूर सब दुश्वारियाँ
सोये जगत में जाग कर
निज मोह सारे त्याग कर
सत्य पथ पर रखते कदम
सींचा लेखनी से जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

निज अलकों के बंधन खोलो।।

निज अलकों के बंधन खोलो।।

माथे पर भावों का चंदन
उर में भरकर मृदु स्पंदन
कुछ कहता सुन धीरे से मन
अपने आलिंगन में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

सूरज का पथ मद्धम-मद्धम
साँझ निखरती पल-पल थम-थम
निज अंतस में भर भाव प्रथम
कुछ कह दो कुछ मन की सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

प्राची से किरणों की माला
बारह घोड़ों के रथवाला
मुख पर भरकर भाव सुनहरे
जाते-जाते बोले सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।


तुम में मैं हूँ मुझमें तुम हो
आस-निरास पल में तुम हो
तुम ही जीवन की अभिलाषा
मृदु पल को पलकों में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...