विवेक, ज्ञान व बुद्धि में अंतर

विवेक, ज्ञान व बुद्धि में अंतर

ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है और बुद्धि में तार्किकता का समावेश होता है यदि उसमें नैतिकता और सद्गुणों का समावेश कर दिया जाये तो वह विवेक बन जाता है।

गीत भरी आँख का

गीत भरी आँख का

दर्द कैसे लिखूँ उस भरी आँख का,
जिसकी खुशियों के आगे अँधेरा हुआ।

एक उम्मीद का दीप लेकर चले,
स्वप्न के गीत पलकों में जैसे पले।
एक आँधी कहीं से आ ऐसी चली,
लुट गईं चाहतें जो थीं मन में पलीं।
आह कैसे लिखूँ उस घुटी चीख का,
जिसकी साँसों के आगे अँधेरा हुआ।

चल रही थी पवन मस्त थी चाहतें,
दिल के आँगन में होने लगी राहतें।
फिर अचानक कहाँ से अँधेरा हुआ,
लुट गयी रोशनी गुम सवेरा हुआ।
चीख कैसे लिखूँ उस घुटी सांझ का,
जिसके ढलने से पहले अँधेरा हुआ।

अब तो सूनी हैं गलियाँ नहीं राह है,
लुट गयी चाँदनी ना बची चाह है।
शब्द पलकों से आकर छलकने लगे,
गीत अधरों पे खोकर बहकने लगे।
भाव कैसे लिखूँ चाँद की प्रीत का,
जिसके सजने से पहले अँधेरा हुआ।

आज हैं हम यहाँ कल न जाने कहाँ,
हम रहेंगे कहीं तुम रहोगे कहाँ।
एक लम्हा हूँ मैं तो गुजर जाऊँगा,
राह में, याद में मैं न फिर आऊँगा।
गीत कैसे लिखूँ वक्त की रीत का,
रीत लिखने से पहले अँधेरा हुआ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 अप्रैल, 2025

केसर की पीड़ा

केसर की पीड़ा

दो चार शब्द की कड़ी भर्त्सना क्या घावों को भर पायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

क्यूँ लहुलुहान है धरती सारी आँखों मे अंगारे हैं,
स्वर्ग धरा पर कहते जिसको क्यूँ आज वहाँ अँधियारे हैं।
संविधान की धाराओं पर कैसी अड़चन आयी है,
टेसू की धरती पर छाई कैसी ये काली परछाई है।
जहाँ धरा पर सूर्य प्रथम आ नया उजाला देता है,
उसी धरा पर मानवता का किसने गला लपेटा है।
टेसू के फूलों का क्रंदन कब तक दिल दहलायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

वो कश्मीर जहाँ की वादी में खुशियाँ खन-खन करती है,
क्यूँ आज वहाँ की वादी में मानवता पल-पल मरती है।
कश्मीर जहाँ के नदियों का पानी कल-कल बहता है,
आज वहाँ की धरती पर आतंकी मनमानी करता है।
जब तक ऋषियों की धरती पर इक भी आतंकी जिंदा है,
तब तक भारत संविधान की सभी धारायें शर्मिंदा है।
ऋषि मुनियों की तपो भूमि ये कब तक अश्रु बहायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

आखिर कब तक कायरता की ये खेती बोई जायेगी,
निर्दोषों के खूँ से कब तक ये होली खेली जायेगी।
आखिर कब तक कश्मीर हमारा ये मनमानी झेलेगा,
ए के छप्पन की गोली का ये घाव कहाँ तक झेलेगा।
क्या निर्दोषों के जीवन का सचमुच अब कोई मोल नहीं,
पोंछ सके जो अश्रु यहाँ पर क्या ऐसा कोई बोल नहीं।
भारत माँ के आँचल को चीखें कब तक यूँ दहलायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

अब मैं घाटी के आँसू से जन गण मन गाने निकला हूँ,
मैं उठा कलम को आज यहाँ पर अलख जगाने निकला हूँ।
कब तक केसर की क्यारी में बंदूक उगाया जायेगा,
अरु कब तक झेलम की लहरों में लहू बहाया जायेगा।
कब तक वोटों की फसलों से संसद को आबाद करेंगे,
आतंकी से मानवता कर भारत को बर्बाद करेंगे।
जो लहू बहेगा झेलम में तो खुशियाँ भी बह जायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

भारत के टुकड़े के नारे जब तक गलियों में गूंजेंगे,
चौराहों पर हत्यारों को वोटों की खातिर पूजेंगे।
कब तक घाटी की गलियाँ यहाँ खून की होली देखेगी,
कब तक मासूमों के सपनों को बंदूकें ये रौँदेंगी।
कब तक यूँ ही बिरयानी देकर आतंकी को झेलेंगे,
कब तक भीतरघाती को यूँ ही मुफ्त खिला कर झेलेंगे।
क्या मासूमों की चीखें यूँ ही अंतस को तड़पायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

बहुत हो चुका खेल मेज का अब तो सम्मुख आना होगा,
न हो प्रतीक्षा परशुराम की अब राष्ट्र धर्म निभाना होगा।
पास बुलाकर साथ बिठाया लेकिन कुछ भी परिणाम नहीं,
अब तो कुछ ऐसा हो जिसका हो उनको भी अनुमान नहीं।
समझौतों के संग-संग अब अलग मार्ग अपनाना होगा,
जैसी भाषा में जो समझे वैसा ही समझाना होगा।
युद्ध जीत कर समझौते की यदि मेज सजाई जायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा तब तक मन को यूँ तड़पायेगी।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 अप्रैल, 2025

शब्द जो निकले हृदय से, क्या शून्य में खो जायेंगे

शब्द जो निकले हृदय से, क्या शून्य में खो जायेंगे

क्या मौन ही रह जायेंगी इस हृदय की कामनाएँ,
क्या शून्य में खो जायेंगी क्लांत मन की याचनायें।
जोड़ कर के भाव दिल के एक कहानी लिख रहे हैं,
शब्दों से अनुरोध करते भाव मन के दिख रहे हैं।
जो भाव अन्तस में उठे क्या व्यूह में खो जायेंगे।

शोर में रह जाये ना, दबकर हृदय की मौन भाषा,
भीड़ में खो जाये ना, घिरकर यहाँ मणिदीप आशा।
आँधियों में पल रहे हैं दीप अंतर्मन के जितने,
क्या अलंकृत हो सकेंगे मौन पलकों के वो सपने।
क्या मृदु नयन के मौन सपने अश्रु में खो जायेंगे।

सांध्य के अंतिम प्रहर का गीत हृदय को मोहता है,
आस के मधुमास में मनमीत विलय को सोचता है।
ये सोचती है रात कैसा भोर का प्रकाश होगा,
धुंध होगी रास्तों में या के खुला आकाश होगा।
जो बने अनुबंध अब तक क्या मुक्त हो खो जायेंगे।

कहीं खो गये यदि शब्द तो फिर गीत का औचित्य क्या,
कहीं तेज धूमिल हो गया तो सूर्य का लालित्य क्या।
चलो ढूँढ़ लें अपने हृदय की आज सारी रिक्तियाँ,
और पूर्ण कर लें हम चलो हर गीत की वो पंक्तियाँ।
हम आज यदि चेते नहीं कल सुप्त हो सो जायेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 अप्रैल, 2025

रस्ता दूर निकल जाये

रस्ता दूर निकल जाये

जीवन के इस पुण्य पंथ में दो चार कदम आ चलो चलें,
कौन मोड़ पर कब जाने कोई रस्ता दूर निकल जाये।

कौन अकेला चला डगर में साथ चली है परछाईं,
मंजिल की आहट पर देखा निज सपनों की पुरवाई।
अपनों का आलोड़न पाकर सपने मन के खूब खिले हैं,
साथ चले जब यहाँ डगर में अंतर्मन भी खूब मिले हैं।
नयनों में सपनों को लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के नयन कोर का कोई सपना कब छल जाये।

दो स्नेह शब्द अधरों पर आये उम्मीदों को पंख दे गये,
संबंधों के महा जलधि में नूतन इक अनुबंध दे गये।
लेकिन जो पग चले नहीं हैं साथ डगर में इस जीवन के,
क्या जानेंगे पग के रिश्ते कैसे पनपे मन उपवन के।
स्नेह शब्द अधरों पे लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के शब्द चयन में कौन भाव मन को खल जाये।

पुरवा के झोंकों में घुलकर सपनों को वरदान मिला है,
सपने जब होठों पर आये गीतों को सम्मान मिला है।
शब्द-शब्द जब बाँधा हमने गीत सुनहरे रचे यहाँ पर,
छंद भंग जो हुए कहीं तो भाव न जाने गिरे कहाँ पर।
गीतों को सम्मानित करने दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के कौन बंध में गीतों की मात्रा गिर जाये।

हम माना साथ नहीं चल पाये पर सूनी कब ये हुई डगर,
बिछड़े संगी साथी कितने ये राह मगर हो गईं अमर।
कुछ दूरी तक साथ चले जो उन्हें मिला जीवन का स्वाद,
जिनसे छाँव मिली है पथ में हर उस राही को धन्यवाद।
कुछ पल को छाया बन जायें दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के कहाँ छाँव में खोया जीवन पथ मिल जाये।
       
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10 अप्रैल, 2025

ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

चीखती है रात सारी भोर का पता नहीं,
खो गए हैं रास्ते अब ठौर का पता नहीं।
आँधियों के शोर में खो गया प्रकाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

पंछियों के घोसलों में चीखती है जिंदगी,
जंगलों में रास्तों में टूटती है बन्दगी।
पंछियों के आँसुओं में दिख रहा विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

मूक दर्द रास्तों पे कर रही है याचना,
भर के अश्रु नैन में कर रही है प्रार्थना।
बेजुबां की जिंदगी में कैसा ये विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

शोर है गली-गली मौन पर नगर यहाँ,
साँस-साँस रो रही हादसों का डर यहाँ।
ज़िंदगी यूँ जल रही है मौत भी उदास है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 अप्रैल, 2025

गीत हम लिखते रहेंगे

गीत हम लिखते रहेंगे

भोर की पहली किरण से रात के अंतिम प्रहर तक,
वाहिनी के तीव्र पथ से मौन उस अंतिम लहर तक।
व्याकरण से शब्द चुनकर लेखनी प्रतिबद्धकर के,
भाव को आकार देकर गीत हम लिखते रहेंगे।

जो नजर गमगीन होगी भाव हम उसके लिखेंगे,
हर होठ के अनुरोध को शब्द हम देकर रहेंगे।
हम नहीं उस ओर जो वक्त संग-संग साज बदलें,
देख रुख बहती हवा का मौसमों के साथ चल लें।
भाव को आकार देकर होठ से अनुबंध कर के,
साज में ढलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

जो गली वीरान होगी रोशनी गमगीन होगी,
आँधियों में दीपिका की लौ उलझकर हीन होगी।
रश्मियों की जब अँधेरों से कहीं होगी लड़ाई,
सत्य को अवरुद्ध कर के झूठ की होगी बड़ाई।
झूठ पर प्रतिबंध करके सत्य से अनुबंध कर के,
दीप बन जलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

चाहता है कौन आना शौक से दुख के नगर में,
कौन चलना चाहता है कंटकों के इस सफर में।
चाहता हूँ लौट जाऊँ छोड़ कर सब कुछ यहाँ से,
किंतु कैसे लौट जाऊँ गीत गाये बिन यहाँ से।
तोड़ कर के बंध सारे नेह से संबन्ध कर के,
प्रेम से मिलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

कुरु सभा की साजिशों से मौन हो जो जा चुके हैं,
द्यूत में भी चोट खाकर धर्म जो पछता चुके हैं।
ढूँढकर उनको यहाँ पर मुख्य पथ से जोड़ना है,
झूठ के आडंबरों को आज हमको तोड़ना है।
साजिशों से द्वंद्व करके द्यूत को प्रतिबंध करके,
जीत हम लिखते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        04 अप्रैल, 2025
        हैदराबाद

वाहिनी- नदी

गीत की भावना

गीत की भावना

शब्द दिल से चुने पंक्तियों में बुने,
गीत की भावनाएं निखरने लगीं।
कुछ कहे अनकहे शब्द अहसास थे,
गीत की कामनाएं निखरने लगीं।

द्वंद्व कोई नहीं अब हृदय कोर में,
स्वयं से भी नहीं अब करूँ याचना।
रीझता भी नहीं देख दर्पण कहीं,
फिर किसी से कहो क्या करूँ प्रार्थना।
जब प्रकाशित हृदय भक्ति के पुंज से,
भक्तिमय भावनाएं सँवरने लगीं।

लोभ धन से नहीं लोभ तन से नहीं,
जो मिला पथ में मुझको स्वीकार है।
अब हलाहल मिले या मिले सोमरस,
अब अमरत्व भी मुझको बेकार है।
जब सुवासित हृदय सत्य के पुंज से,
सत्य की दीपिकाएँ निखरने लगीं।

भाव निकले हृदय के लिखा गीत में,
रीत कोई जगत की नहीं जानता।
जोड़ने को चला हूँ सदा मार्ग में,
और कोई गणित मैं नहीं जानता।
मन हो भाषित जब प्रेम विश्वास से,
प्रार्थनाएँ हृदय में उमड़ने लगीं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2025


माँ

माँ

खुशियों की जब कभी बात आती है माँ
याद में तेरी तस्वीर आती है माँ

गीत लिखता हूँ मैं जब कभी स्नेह के
छंद में पंक्ति में गुनगुनाती है माँ

छाती हैं जब कभी नैन में बदलियाँ
आज भी दूर से चुप कराती है माँ

धूप में थक के जब बैठ जाता हूँ मैं
छाँव आँचल का अब भी ओढाती है माँ

आँख होती है जब नम किसी बात पे
दिलासा हृदय को दिलाती है माँ

मिल रही हो भले सारी खुशियाँ यहाँ
अब भी गोदी तेरी याद आती है माँ

कैसे कह दूँ कि तू अब नहीं साथ है
मेरी साँसों में तू मुस्कुराती है माँ

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02 अप्रैल, 2025






रोते-रोते मुस्काता हूँ

रोते-रोते मुस्काता हूँ

उर पीड़ा के मौन अंश जो, नयन कोर में रहते प्रतिपल,
जो स्थापित मन के भावों को, चुभते बनकर अभिशापित दल।
बूँद नयन से चरण पखारूं, मैं आहों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

साँसों से साँसों का बंधन, है आह-आह का अनुबन्धन,
निज हृदय सृजित स्मित भावों का, हिय पीड़ा का कैसा क्रंदन।
आँसू के दो चार कणों से, मैं तप्त हृदय नहलाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

दुर्बल मन के कुछ सपनों का, जाने कैसा ये चढ़ाव है,
बिखरे मोती मनके सारे, कैसा मन का ये दुराव है।
बिखरे मनके मोती चुनता, मन ही मन को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

कुछ सपनों के मर जाने से, रिश्तों में कैसी परवशता,
एक कोख से जन्मे मन में, कैसी लघुता कैसी गुरुता।
अंतर्मन के कोर में बसे, पाषाणों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...