नयनों के आलोड़न से

नयनों के आलोड़न से

बन जाये इतिहास यहाँ पर, तेरी मेरी मधुर कहानी,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

विरह वेदना साथी मेरे, अश्रु मेरे काव्य की भाषा,
बन जाऊँ ना कहीं यहाँ मैं, दुनिया में बस खेल तमाशा।
इस विरह लेखनी को मेरे, बस स्नेहिल आभास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

पग तल नाप रहे हैं रस्ते, निशा कहाँ है भोर कहाँ है,
एक जलन है नयन कोर में, क्या जाने मन ठौर कहाँ है।
इन नयनों के कोरों में बस, सपनों को मधुमास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

दर्द प्रेम है अश्रु स्नेह है, बैरन लगती यहाँ श्वास है,
बाती जैसा जल जाऊँगा, क्या मेरा यही इतिहास है।
मधुर प्रेम की एक फूँक से, सपनों का विन्यास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 जून, 2024

छाँव

छाँव

ढूँढ़ते हो क्यूँ सुखन बस उम्र के ही गाँव में
आओ मिल बैठो घड़ी भर जिंदगी की छाँव में

जो वहाँ पर दर्द है तो खुशियों का भी राज है
कट रही है जिंदगी इन बादलों की छाँव में

जब से छूटी है जमीं छूटी गलियाँ गाँव की
दर्द गाँवों का बढ़ा है देख छाले पाँव में

जिनके कदमों की धमक से डोलते थे रास्ते
ढूँढ़ते हैं अब सफर वो इस नए बदलाव में

भूख का मतलब यहाँ बतलायेगी वो जिंदगी
जिसने खुद को है तपाया धूप के इस गाँव में

उम्र का वो मोड़ अब भी है वहीं पहले जहाँ था
जिसने कभी चलना सिखाया आँचलों की छाँव में

फिर चलो बैठे वहाँ और खुद से ही बातें करें
राह भी शायद मिले उन्हीं बरगदों की छाँव में

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया
तुझसे सजा अँगना रे।
तेरी ही कुह-कुह से
तेरे ही कलरव से
सोना और जगना रे।

हो कितना अँधेरा, जग में कहीं भी,
काँटे हों कितने भी, पग में कहीं भी,
तुझसे ही रस्ता दिखा।
गीत अधूरे हों, आहों के घेरे हों,
मन की गली में, कैसे अँधेरे हों,
नयनों में सपना लिखा।

सूने नयन का तू सपना सलोना,
पलकों का पलना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

अंबर से चुन-चुन के, तारे ले आऊँ,
सतरंगी चूनर में, उनको जड़ाऊँ,
बाहों के पलने में झूला झुलाऊँ।
नयनों में तेरे, काजल लगाऊँ,
तेरे आँचल में मैं, चाँद तारे सजाऊँ,
परियों की तुझको कहानी सुनाऊँ।

तुझ पर लिखूँ, गीत प्यारे सुहाने,
तुझ संग सँवरना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         22 जून, 2024

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

क्रोंच पक्षी के रुदन को काव्य का इक रूप देकर,
मौन आँसू जो गिरे थे भाव को इक रूप देकर।
कुछ पंक्तियों में सिमटकर दर्द ने नव गान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

दर्द भावों में उभरकर नव गीत बनकर छा गये,
गीत अधरों से उतरकर नव काव्य बनकर छा गये।
पंक्ति का आकार पाकर सब भावनायें खिल गईं ,
जो रचे उसे रोज हिय ने दर्द बनकर छा गईं।

शब्द का श्रृंगार पाकर दर्द को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

जो थी घुटन मन में कहीं वो भाव पन्नों पर लिखे,
अरु शब्द के हर उस चुभन के घाव पन्नों पर दिखे।
लिख दिये प्रतिरोज जाने पीर जीवन के पलों की,
पास फिर भी रह गयी आह बिछड़े उन पलों की।

भाव को विस्तार देकर गीत को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

गीत में जीवन सुरों के वो राग सारे लिख दिये,
नेह के सुंदर पलों के पिय राग सारे लिख दिये।
लिख दिये नव गीत कितने मन लुभाती कामना के,
राग को सम्मान देती प्रीत की नव भावना के।

साज का नव सुर सजाकर गीत ने सोपान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

एक बेरि आ जाइता गाँव

एक बेरि आ जाइता गाँव

बरिस-बरिस बीतल, अँखिया झुराइल, अउर छूटल ई पिपरा के छाँव हो।
हे विदेसिया, एक बेरि आ जाइता गाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव।

संगी छूटल, साथी छूटल, छूटल खेल-खिलौना, 
गली, मुहल्ला, आँगन छूटल, छूटल खाट-बिछौना।
छूट गयल माथे पे थपकी, जबसे, छूटल अँचरा के छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

हर आहट पे मनवा भागे, पुरवइया तड़पाये, 
ई चंदा के शीतल किरणें तन में आग लगाये।
पहर-पहर मुश्किल हौ बीतल, अब तारन की छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

ताल-तलैया पगडंडी सब, हर पल राह निहारे,
घर के सूनी-सूनी चौखट, घुट-घुट तोहें पुकारे।
बिन तोहरे ई जीवन लागे, लहर में भटकत नांव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

केतनी बीत गइल ई जिनगी, बाकी जितनी बाटे,
पल-पल बरस-बरस लागत हौ, कइसे इहके काटे।
साँझ ढले से पहिले आ के, खतम करा अलगाव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जून, 2024

कैसे अलविदा कह दूँ

कैसे अलविदा कह दूँ

जाने किस मोड़ पे, मुलाकात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बस अभी-अभी ही तो, शुरू हुआ है सफर,
कैसे कह दूँ मैं कि, बड़ी लंबी है डगर।
जाने किस मोड़ पे, सवालात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

कितने सपने हैं सजाए, इन पलकों में,
कितने वादे हैं छुपाए, इन अलकों में।
क्या पता किस मोड़ पे, वो साथ हो जायें,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बीत चुकी कितनी, कितनी कहानी बाकी,
अब भी अधरों पे, उनकी निशानी बाकी।
क्या पता फिर से वही, बरसात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       16 जून, 2024

जाने कैसा है मिलन

जाने कैसा है मिलन

धुँधलके में साँझ के आस मद्धम पल रही है,
मौन हैं हम तुम मगर आँख कुछ-कुछ कह रही है।
इन मचलती कामनाओं में छुपी कुछ तो चुभन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

मौन हम दोनों यहाँ, पर साँस कुछ तो कह रही,
छू के आँचल को तेरे पौन मद्धिम बह रही।
जब पवन का गीत मद्धम डर रहा क्यूँ आज मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

चाँद के अपने सफर पर रात का क्या जोर है,
जल रही जब दीपिका फिर क्यूँ हृदय में शोर है।
जब खिला उपवन हृदय का मौन फिर क्यूँ मन सुमन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।
 
कहीं ऐसा न हो गीत अधूरे फिर रह जाएं,
ठहरो न जरा सा आज कि दूरी कम हो जाएं।
है अधरों को स्वीकार काँपता पर अंतर्मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जून, 2024

मुक्तक

वो मौसिकी ही क्या जिसमें जिंदगी न हो।
वो शायरी ही क्या जिसमें बन्दगी न हो।
यूँ तो आशिकी के लाखों तलबगार हैं,
वो आशिकी ही क्या जिसमें तिश्नगी न हो।

घटेगी कब तलक साँसें कहीं कुछ जोड़ तो होगा।
हमारी मुश्किलों का भी कहीं कुछ तोड़ तो होगा।
भटकेगी इन राहों में अकेली जिंदगी कब तक,
कहीं तो इस कहानी का सुहाना मोड़ तो होगा।


यमुक्त गीत- यादें

यादें

मेरी यादें जब तुम्हारे दिल को छूकर जाएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

क्या हुआ जो उस घड़ी में गीत पूरे हो सके न,
और रहकर पास भी हम पास इतने हो सके न।
दूरियाँ जब-जब भी अपने रास्ते में आएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी ।

एक लम्हा था जिसे हमसे सँभाला न गया,
एक लम्हा उम्र का हमसे निकाला न गया।
जब भी लम्हे दर्द बनकर उम्र को तड़पायेंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

अनलिखी रह जाये न अपनी कहानी प्यार की,
हार कर भी जीत की और जीत में भी हार की।
हार ये मेरी तुम्हारे दिल को जब तड़पायेगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जून, 2024

गजल- निभाया न गया

निभाया न गया

दिल पे लगी उसको छुपाया न गया
मुझसे रिश्ता कोई निभाया न गया

उम्र भर दर्द के साये में जीता कैसे
चाह कर दर्द दिल में दबाया न गया

कहने को ही रिश्ता उनसे था अपना
ये भरम भी दिल में बनाया न गया

कैसे दे दूँ मैं दोष लकीरों को यहाँ
आशियाना मुझसे ही बसाया न गया

उनकी नजरों में गिर न जाऊँ फिर से
चाह कर उनको फिर से बुलाया न गया

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 जून, 2024

चीख

चीख दब कर रह गयी क्या बेबसी की मार से,
या बँधी है जोर से या जुल्म से तलवार से।
वेदना का ये समर अब सहा जाता नहीं है,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

साँझ का वो धुँधलका और पुरवा थी सुहानी,
चल रही चाँदनी और खिल रही थी रातरानी।
एक मद्धम सी लहर हौले-हौले छू रही थी,
खेलती मस्त होकर मन का अंचल छू रही थी।

था अभी पूरा प्रहर ये तो बस शुरुआत थी,
लेख में विधना के पर वो तो अंतिम रात थी।
रौंद डाले स्वप्न सारे तेज इक रफ्तार ने,
कर दिए सब मौन सपने क्रूर के उस वार ने।

चीख दब कर रह गयी क्या जाने कैसे शोर में,
वक्त अब शायद नहीं है क्या कलम के जोर में।
बंद होकर रह न जाये पृष्ठ में बनकर कहानी,
लेखनी कुछ धार दे दो कह सके सच को जुबानी।

यूँ लिखो इस दर्द को कि बेध दे सबका हृदय,
मुक्त कर दो सत्य को या झूठ में कर दो विलय।
है विवश क्यूँ सत्य इतना अब सहा जाता नहीं,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 जून, 2024

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...