काशी के महिमा

काशी के महिमा

काशी के बारे में का का बताई
महिमा यह नगरी के कइसे सुनाई।
जिहइं ओर देखा हौ रेला पे रेला
गली चौक चौराहा न केहू अकेला।
गाड़ी चलई जइसे हाथी चलत बा
एहकी से ओहकी गली सब मिलत बा।
कहीं हौ कचौड़ी कहीं हौ समोसा
कड़ाही-कड़ाही छनत हौ भरोसा।

गंगा के तीरे पे चाही के चुस्की
संझा सवेरे मचे खाली मस्ती।
भोले के महिमा से जीवन मिलत बा
कहउँ ओर देखा शहर इ खिलत बा।
गली हो मोहल्ला हौ सांडन के रेला
मस्ती की नगरी में हरदम हौ खेला।
नहीं कौनो चिंता न कौनो फिकर बा
हर-हर औ बम-बम के इतना असर बा।

गमछा कमर में और कान्हे अँगौछा
फैशन इहाँ हौ नजर के बस धोखा।
अन्धियारे में यहिं के एतना उजास बा
के गाली में बोली में देखा मिठास बा।
न इहाँ गैर कोई और न कोई पराया
यहीं हो कि रहि गा इहाँ जे भी आया।
कण-कण में भोले हैं कण-कण जीवन बा
ई बाबा के नगरी हौ इहाँ मृत्यु मिलन बा।

बंधन से पापों से मुक्ति दिलाई
सत्यम शिवम सुंदरम हौ भलाई।
काशी के बारे में का का बताई
महिमा यह नगरी के कइसे सुनाई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26 दिसंबर, 2024

मुक्तक

मुक्तक

कुछ गलती तेरी थी साथी और कुछ गलती मेरी थी।
कुछ उम्मीदें तेरी टूटी और कुछ टूटी मेरी थीं।
इस हृदय के सूनेपन ने वीथी पर देखा जब मुड़कर,
कुछ तेरी यादें छूटी थीं और कुछ छूटी मेरी थीं।

इन यादों को सिरहाने रख जब कभी अकेले हो लेता हूँ।
दुनिया की इस महफ़िल में साथी मैं भी खुद को खो लेता हूँ।
क्या कहना क्या सुनना साथी अब और नहीं अफसोस मुझे है,
अब स्वयं अकेले हँस लेता हूँ और अकेले रो लेता हूँ।

भीड़ भरी तन्हाई में मैं मौन अकेले रह लेता हूँ।
आहें आँसू रस्में कसमें सभी अकेले सह लेता हूँ।
है बहुत जताया इस दुनिया ने हमदर्दी अब और नहीं,
मन ही मन बातें करता हूँ मन से मन की कह लेता हूँ।



देख कर गीत तुमको मचलने लगे

देख कर गीत तुमको मचलने लगे

पृष्ठ पर शब्द खुद ही सँवरने लगे,
देख कर गीत तुमको मचलने लगे।

दूर रह ना सके पास आने लगे,
बेसबब गीत दिल गुनगुनाने लगे।
चाह कर दूर मन से नहीं हो सके,
क्या कहें रात भर क्यूँ नहीं सो सके।

जागती रात करवट बदलने लगे,
स्वप्न खुद गीत बनकर मचलने लगे।

दो अलग राह कब तक अकेली चले,
सोचती हर घड़ी अब मिले तब मिले।
मोड़ तक जा कदम खुद ब खुद रुक गये,
देख कर छाँव दिल की वहीं झुक गये।

वो मिलन सोचकर मन सिहरने लगे,
भाव खुद गीत बनकर मचलने लगे।

एक मन को सिवा कुछ नहीं आसरा,
मन नहीं गा सके गीत जब दूसरा।
जब सभी भाव मन के सिमटने लगे,
खुद की आगोश में खुद लिपटने लगे।

सोच कर ये मिलन जब बहकने लगे,
गात खुद गीत बनकर मचलने लगे।
पृष्ठ पर शब्द खुद ही सँवरने लगे,
देख कर गीत तुमको मचलने लगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 दिसंबर, 2024

विदाई की घड़ी

विदाई की घड़ी

इस विदाई की घड़ी में वेदना बन गीत छलके,
गीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

मै नहीँ हूँ तुम नहीं हो है समय का खेल सारा,
क्या करेंगे जान कर अब कौन जीता कौन हारा।
इस समय के खेल में जब आह बनकर गीत छलके,
अश्रु की उस भावना से देख लो घबरा न जाना।

इस हृदय के कोर में जो पत्र अब तक हैं अधूरे,
रो पड़ेंगे पत्र सारे हो सके न क्यूँ वो पूरे।
वो अधूरी कामना फिर गिर पड़े जब अश्रु बनके,
गीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

हो रहें हम दूर कितने पर जमाना जानता है,
जो रचे हैं गीत हमने गुनगुनाना जानता है।
गीत की उन पंक्तियों से जब हृदय में प्रीत छलके,
प्रीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

ये विरह की भी घड़ी है दे रही कुछ तो निशानी,
आँख भी जल में विलय हो लिख रही मन की कहानी।
इस विलय से दर्द को जब हार में भी जीत छलके,
जीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 दिसंबर, 2024



ऐसे ही बस हँसते रहना

ऐसे ही बस हँसते रहना

कसमें वादे प्यार वफ़ा सब,
आहें आँसू मिलन जुदाई।
लांछन मेरे आभूषण हैं,
सह लेंगे सारी रुसवाई।
तुमसे कोई द्रोह नहीं है,
बस इतना है तुमसे कहना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

कहो अकेले अब भी छुपकर,
गीत हमारे क्या सुनती हो।
दूर क्षितिज संध्या मुस्काये,
स्वप्न नये क्या फिर बुनती हो।
लहरों के संग-संग अब भी,
दूर किनारे, क्या जाती हो।
बारिश के पानी में अब भी,
बालों को क्या लहराती हो।
बारिश जब-जब मन बहकाये,
बूँदों के संग-संग बहना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

मेरे हिस्से पुण्य अगर हो,
तेरे आँचल में सब भर दूँ।
रोक रहा यदि बंधन कोई,
मुक्त सभी बंधन मैं कर दूँ।
बातें हों या ताने जग के,
हँसकर सारे मैं सह लूँगा।
छूट गये जो सभी सहारे,
बिना सहारे भी रह लूँगा।
मुझको अब अफसोस नहीं है,
अफसोस नहीं तुम भी करना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

धन्य-धन्य तुम प्रेम ग्रंथ के,
सारी शर्तों को है त्यागा,
कितने युद्ध लड़ूँगा खुद से,
हारा हूँ पर नहीं अभागा।
भूल पुरानी यादें सारी,
तुम जीवन में बढ़ते जाना।
मैं तो हूँ इक कवि अनजाना,
मुझको है किसने पहचाना।
मेरे गीतों को जब सुनना,
पलकों को तुम वश में रखना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 दिसंबर, 2024

एक उम्र का सफर

एक उम्र का सफर

अजनबी है राहें और अजनबी ये जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।
क्या जाने किस गली में ही मिल जाये जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

चलना कहाँ ठहरना कहाँ कब अपने हाथ था,
ये वक्त उम्र भर कहो कब किसके साथ था।
एक पल में जो मिली है हमें वो है जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

किस्मत ये कब किसी की कहो हरपल सगी हुई,
कल तक जो साथ-साथ थी कल और की हुई।
किस्मत से जो मिला है हमें वही है जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

क्या जाने मोड़ कौन सा हम सबको जुदा करे,
अपने-अपने हिस्से का हक़ हम अदा करें।
एक दूजे की करें यहाँ हँसकर के बंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17 दिसंबर, 2024

आओ ऐसे प्यार करें

आओ ऐसे प्यार करें 

पीर पुनः कहानी बनकर इन नयनों से बह न जाये,
गीत बनाकर हर पीड़ा को अधरों से मनुहार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

जो कुछ मुझमें बाकी है तुम पर सभी निछावर कर दूँ,
अपनी खुशियाँ देकर के पीर सभी तुम्हारे हर लूँ।
तुमको देखूँ तुमको समझूँ तुमपर ही सबकुछ वारूँ,
अपने जीत समर्पित कर दूँ तुमसे ही पग-पग हारूँ।
हार-जीत के उन्मादों में कोई कसर नहीं रह जाये,
कर के अपनी जीत समर्पित खुद पर हम उपकार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

केवल पृष्ठों में रहकर गीत हमारे रह ना जायें,
व्यर्थ यूँ ही अश्रुओं में घुल स्वप्न अपने बह न जायें।
चुप रह न जायें भावनाएँ मौन आहों में सिमटकर,
ना बीत जाये उम्र अपनी मौन यादों में लिपटकर।
गीत अपनी भावनाओं का अधूरा नहीं रह जाये,
हम छंद से इसको सजाकर जीवन का श्रृंगार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

तुम मेरा आकाश ले लो मैं धरा ले लूँ तुम्हारी,
मुक्त हो सब बंधनों से लेकर चलें अपनी सवारी।
ना फिक्र साँसों की रहे और न फिक्र आहों की रहे,
मिलकर कहें हम भाव सारे अब तक रहे जो अनकहे।
जो अनकहे थे भाव मन के अनकहे ही रह न जायें,
हम भावनाओं को सजाकर जीवन को उपहार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

 ✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        15 दिसंबर, 2024


दर्द काली रात का

दर्द काली रात का

दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं,
दर्द को उस जख्म को क्यूँ वक्त सहलाता नहीं।

घुल गया उस रोज जाने रात में कैसा जहर,
दूर तक फैली हुई थी रात की काली पहर।
रात की उस कालिमा का रंग क्यूँ जाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

लग गयी उस रोज जाने रात को कैसी नजर,
नींद की आगोश में जब सो रहा सारा शहर।
रात में क्यूँ चीख थी क्यूँ वक्त बतलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

मौत का तांडव मचा था हर गली हर मोड़ पर,
जा रही थी जिंदगी हर साँस आँचल छोड़कर।
साँस के उस घाव को क्यूँ आज सहलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

जो हुआ उस रात उसमें रात की क्या थी खता,
मौत हत प्रभ ढूँढती थी जिंदगी का खुद पता।
उस पते पर पत्र कोई क्यूँ आज पँहुचाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 दिसंबर, 2014




मुक्तक

मुक्तक

दो बूँद खुशी के क्या छलके दुनिया ने बेहाल किया।
नख से लेकर शिख तक जाने क्या सबने पड़ताल किया।
ऐसे उलझे खोज-बीन में नयन कोर हालातों के,
गालों पर आने से पहले खुशियों ने हड़ताल किया।
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बहुत मुश्किल है परदेसी गाँवों को भुला पाना।
बहुत मुश्किल है खेतों को गलियों को भुला पाना।
भले हो रोशनी कितनी शहर की बंद गलियों में,
बहुत मुश्किल अँधियारों के दीपक को भुला पाना।
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आईने को देखता जब हैरान देखता हूँ।
इस गली में हर शख्स परेशान देखता हूँ।
तलाश में सुकूँ की भटका हूँ इस कदर मैं,
निकल के अपने घर से अब मकां देखता हूँ।
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मुश्किलें हैं माना जिंदगी का सफर आसान तो नहीं।
पर जिंदगी की मुश्किलों से इतना परेशान तो नहीं।
क्या हो जायेगा किसी का दो घड़ी साथ चल देंगे हम,
दो कदम को साथ चलने से किसी का नुकसान तो नहीं।
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इक रोशनी की चाहत में अब तलक जलता रहा हूँ मैं।
पत्थर था पर बन के मोम अकसर पिघलता रहा हूँ मैं।
मिली होगी किसी को जिंदगी जरा ही दूर जाने पर,
तुझे पाने की ख्वाहिश में अभी भी चलता रहा हूँ मैं।
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बहुत खोया हूँ राहों में तुम्हारे पास आने को।
बहुत खोजा हूँ मैं खुद को महज अहसास पाने को।
चल सकता हूँ अकेले मैं यहाँ दुनिया की राहों में,
मगर चाहत है इस दिल की तुम्हारा साथ पाने को।
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मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

शोर मचाते सन्नाटों में मौन रात की नई कहानी,
पलकों की आहट में छिपकर बैठी ज्यूँ आँखों का पानी।
आते जाते पल छिन पल छिन सूनी आँखों को मलते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

रोज भोर इक नई कहानी लेकर आँगन में आती है,
जागे नयनों के सपनों को नूतन आहट दे जाती है।
टुकड़ा कहीं धूप का छिपकर भावों को सहला जाता है,
झोंका मस्त पवन के आकर साँसों को महका जाता है।
दर्द रात का सभी भूलकर नव उम्मीदों को गढ़ते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

यादों के मानसरोवर में दो हंस मौन जब मिलते हैं,
अंतस के नील सरोवर में नव प्रेम पुष्प फिर खिलते हैं।
दूर कहीं मन की बस्ती में सूनी आस जगा जाती है,
बीते सभी उपालंभों को हौले से समझा जाती है।
नई भोर में नई आस ले सारा दिवस सफर करते हैं
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

उम्र घटेगी भले हमारी लेकिन मन में प्रेम बढ़ेगा,
यहाँ जलेगा हृदय हमारा वहाँ तुम्हारा मन तड़पेगा।
भीड़ भरे एकाकीपन में बीते लम्हों को खोजेंगे,
दूर जहाँ तक नजर पड़ेगी केवल तुमको ही ढूँढेंगे।
मन के भाव पृष्ठ पर लिख कर तुमको सब अर्पित करते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07 दिसंबर, 2024


सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...