श्री भरत व माता कैकेई संवाद
अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच कलेजा काँप गया।।1।।
जिस गली गुजरते भरत आज हर गलियाँ सूनी लगती थीं।।
आज अवध की सारी नजरें उस कोमल मन को चुभती थीं।।2।।
क्या हुआ शत्रुघन आज अवध को क्यूँ ऐसे हमको तकते हैं।।
कुशल क्षेम की बातें छोड़ो मुख फेर सभी क्यूँ चलते हैं।।3।।
देख घृणा के भाव नजर में दोनों का मन अकुलाता है।।
अनहोनी कुछ हुई अवध में मन भय से बैठा जाता है।।4।।
सूनी-सूनी गलियाँ सारी सरयू में भी जोश नहीं था।।
बेसुध लगी अयोध्या नगरी खग मृग तक को होश नहीं था।।5।।
राज महल के द्वार पहुँच कर जब देखा उजड़े उपवन को।।
मन आशंकित हुआ भरत का खलने लगी शांति तन मन को।।6।।
देख रहे जिस ओर भरत सब नेत्र अश्रु जल से भारी थे।।
बेचैनी से लगे पूछने द्वार-पाल से दरबारी से।।7।।
देख भरत को राज महल में माता दौड़ी थाल सजाकर।।
करूँ आरती राज कुँवर की मुँहमाँगी इच्छा को पाकर।।8।।
राज महल का कोना-कोना सब बिखरा-बिखरा लगता था।।
कैकेई को छोड़ सभी का मुख उतरा-उतरा लगता था।।9।।
गुरु के सम्मुख गये भरत फिर जब हाल सुना उनके मुख से।।
क्षोभ नयन में उतरा ऐसे और कलेजा बैठा दुख से।।10।।
गये कक्ष में माता के फिर सब देख बहुत अफसोस हुआ।।
झर-झर अश्रु बहे नयनों से मुख माँ का देखा क्रोध हुआ।।11।।
सूनी-सूनी राज महल है इक बस तुमको शोक नहीं है।।
अपने इस कुकृत्य पे बोलो तनिक कहो अफसोस नहीं है।।12।।
माँ कितना भरत अभागा है जो तुमने मुझको जाया है।।
अपने इस व्यवहार से कहो माँ क्या-क्या तुमने पाया है।।13।।
अपने ही पुत्रों में माता ये कैसा तुमने भेद किया।।
भाई-भाई को अलग किया अरु प्रभु को वन में भेज दिया।।14।।
कैसा माँगा वर माँ तुमने लाज नहीं क्यूँ तुमको आई।।
ऐसा घाव दिया है तुमने आज जगत में कोख लजाई।।15।।
क्षमा करूँगा कैसे खुद को मैं कैसे सम्मुख जाऊँगा।।
क्या बोलूँ कौशल्या माँ से मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा।।16।।
अपराधी हूँ आज अवध का मुझको न कहीं का छोड़ा है।।
दूषित रिश्ते कर डाले हैं माँ मान भरत का तोड़ा है।।17।।
क्या अपराध हुआ है बोलो मैंने बस प्रण याद दिलाया।।
अपने सुत को राज मिले बस राजन को इतना समझाया।।18।।
हाय तुमने क्या किया है ये अक्षम्य है अपराध सारा।।
प्रभु राम को वनवास देकर जीते जी मुझको है मारा।।19।।
प्रभु राम के बिन देह ये मृत क्या तिलक और क्या सिंहासन।।
जब देह ही मृत हो चुकी हो कहो करेगी कैसे शासन।।20।।
हे माँ तुम्हें क्या कहूँ मुझपर कैसा कलंक लगाया है।।
पुत्रमोह में पड़कर माता ये कैसा धर्म निभाया है।।21।।
हे तात-तात कहते-कहते बेसुध भरत हुए जाते थे।।
झर-झर अश्रु नेत्र से बहते मन ही मन कुढ़ते जाते थे।।22।।
जो ना जाता छोड़ अवध को ऐसा कोई पाप न होता।।
हाथ पिता का रहता सिर पर भाई को वनवास न होता।।23।।
सारा दोष विधाता मेरा क्यूँ माँ ने मुझको जाया है।।
मुझसे मेरा प्राण छीनकर तुम कहो मात क्या पाया है।।24।।
कैसे मुख दिखलाऊँ बोलो आज अवध का अपराधी हूँ।।
अब जीने का अधिकार नहीं मैं मृत्यु दंड का भागी हूँ।।25।।
माता होकर के माता का क्यूँ तुमने कोख उजाड़ा है।।
इससे अच्छा बंध्या रहती क्यूँ मेरा जन्म बिगाड़ा है।।26।।
जी करता है तुझे त्याग दूँ सारे रिश्ते नाते तोड़ूँ।।
लेकिन तूने मुझे जना है इस सच से कैसे मुख मोडूँ।।27।।
रिश्तों की मर्यादा तोड़ी रघुकुल का अपमान किया है।।
जीवन भर अफसोस रहेगा तुमने ऐसा काम किया है।।28।।
जी करता है तुझे मृत्यु दूँ पर मन ही मन मैं डरता हूँ।।
मेरे प्रभु ना मुझे त्याग दें जा क्षमा तुझे मैं करता हूँ।।29।।
स्वयं तुझे मालूम नहीं है तुमने कैसा पाप किया है।।
हुआ कलंकित भरत अवध में तुमने ऐसा शाप दिया है।।30।।
तोड़ रहा हूँ तुमसे रिश्ता अब पास नहीं मैं आऊँगा।।
यही सजा है तेरी अब मैं न माता कहकर बुलाऊँगा।।31।।
राजपाट तुमको प्यारा है सब तुझे समर्पित करता हूँ।।
तेरे इस कुकृत्य पे माता मैं खुद को दंडित करता हूँ।।32।।
है सौगंध विधाता मुझको कुछ और नहीं मैं माँगूँगा।।
अब जब तक प्रभु ना आयेंगे सब सुख जीवन का त्यागूँगा।।33।।
वनवास नहीं केवल प्रभु का मुझको भी वनवास दिया है।।
कलंक लगा मेरे माथ पर मेरा ही उपहास किया है।।34।।
त्यागूँगा मैं राज महल को अब वल्कल मैं भी धारूँगा।।
अब जब तक प्रभु ना आयेंगे इस चौखट में ना आऊँगा।।35।।
इतना कहकर भरत चल दिये नेत्र अश्रु जल से भारी थे।।
भाई का भाई से रिश्ता सारे रिश्तों पर भारी थे।।36।।
✍️ अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10 जुलाई, 2025