खयाल तेरी तरफ गया

खयाल तेरी तरफ गया

हुई उदास शाम तो खयाल तेरी तरफ गया
बात हुई आम तो खयाल तेरी तरफ गया

इक आह सी दबी रही दिल के कोर में कहीं
टीस जब उठी खभी खयाल तेरी तरफ गया

कदम-कदम पे जिंदगी ये जंग सी रही सदा
जब कभी ये दिल डरा खयाल तेरी तरफ गया

के उम्र भर सफर मेरा हादसों से था भरा
बेचैन जब हुआ कभी खयाल तेरी तरफ गया

दिल पे किसका जोर है देव कब तेरा हुआ
बात इश्क की चली खयाल तेरी तरफ़ गया

✍️ अजय कुमार पाण्डेय

चाहत

चाहत

ये जीवन एक रस्ता है तो इसकी चाहतें तुम हो,
जो साँसों की जरूरत है तो इसकी राहतें तुम हो।

नहीं तुम बिन कोई मंजिल नहीं कोई किनारा है
जो भाये इन किनारों को वो इसकी आदतें तुम हो

नहीं मुमकिन गुजारूँ जिंदगी तन्हा मैं आहों में
ये तन्हाई मिटा दे जो वो इसकी आहटें तुम हो

बिछे हैं हर कदम जो फूल मेरे गीतों की राहों में
जो मेरे गीत साँसें हैं तो इनकी राहतें तुम हो

कहाँ जाऊँ छुड़ाकर हाथ नहीं कोई सहारा है
बसे हो देव पलकों में अब इसकी आदतें तुम हो

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 फरवरी, 2024

अनकही एक कहानी

अनकही एक कहानी

एक संशय हृदय में पनपता रहा इक कहानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

उम्र लिखती रही रेत पर गीतिका छंद फिर भी अधूरे सिसकते रहे,
मोम बन साँस पल-पल पिघलती रही रोशनी के लिए मन मचलते रहे।
एक संशय अधूरा सिसकता रहा इक जवानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

एक वादा न खुद से सँभाला गया साथ हो कर भी मधुरात हो न सकी,
चाँद का हर सफर ये अधूरा रहा ऊँघती ही रही रातें सो न सकी।
चाँदनी संशयों में उलझती रही रातरानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

रात दिन याद के मेघ छलते रहे इक तमन्ना हृदय में पिघलती रही,
चाहतों को नजर कुछ लगी इस तरह हर तमन्ना कलेजा मसलती रही।
कोर को रात दिन मेघ छलते रहे हर निशानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

भोर की आस में रात सो ना सकी जब हुई भोर तो नींद ही छल गयी,
याद के पृष्ठ पर चित्र उभरे मगर कैसे कहते के प्रीत ही छल गयी।
पृष्ठ के चित्र सारे बिछड़ते रहे तूलिका ही अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 फरवरी, 2025

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से दूर तू निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ अपना ढूँढ़ ले तू रास्ता।।

लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

विधना का लेख

विधना का लेख

दो कड़ियाँ जोड़ सकूँ जीवन की इतनी सी बस चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

तिनका-तिनका जोड़ा प्रति पल लाखों जतन यहाँ कर डाले,
अपने मन को मार-मार कर औरों के बस सपने पाले।
कुछ चाहा लेकिन किया नहीं अरु अपने मन की जिया नहीं,
उलझे ऐसे यहाँ जगत में के पैबंदों को सिया नहीं।

दो पैबंद लगा लूँ मन में बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कितना चाहा दूर हो सके मन विचलन की हर राहों से,
कितना चाहा मुक्त हो सके मन फिसलन से हर आहों से।
हों कंटक कितने भले तने में पुष्प खिला ही करता है,
दूर रहें कितने भी अपने पर हृदय मिला ही करता है।

मन से मन को पुनः मिला लूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कुरुवंशों के सभी पाप को संवादों से धोना चाहा,
श्रेष्ठ जनों की पुण्य छाँव में दो पल को बस सोना चाहा।
लेकिन मन में दुर्योधन हो असत्य सदैव ही पलता है,
अधम पाप मन में बैठा हो तो प्रथम स्वयं को छलता है।

संबंधों के भाव सँभालूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 फरवरी, 2024

मुक्तक

जब-जब भी तू बढ़ेगा तेरे पास आऊँगा।
मैं रास्तों से तेरे सभी काँटे हटाऊँगा।
यहाँ जिंदगी की दौड़ में जब दोनों हों खड़े,
फिर तुझसे हार कर भी मैं तो जीत जाऊँगा।

जो मैं हूँ इक पतंग तो तू डोर है मेरी।
एक छोर मैं खड़ा तो दूजी छोर तू खड़ी।
अब बिन तेरे ये जिंदगी की जंग है कठिन,
जो हर कदम तू साथ है तो जीत है मेरी।

गीत में तू बसी प्रार्थना में बसी।
चाहतों में सजी कामना में सजी।
साँस की आस तुझसे जुड़ी इस तरह,
कल्पना में सजी भावना में बसी।

तुम्हारे वास्ते माँगूँ कहो तुम ही मैं क्या माँगूँ।
काँटे राह के चुन लूँ दुआयें जीत की माँगूँ।
करो गर तुम इशारा तो बनूँ परछाइयाँ तेरी,
तुम्हारी नींद मैं सोऊँ तुम्हारी नींद मैं जागूँ।

तब जाकर बनती है कविता

तब जाकर बनती है कविता

भावों का सागर उमड़े जब तब जाकर बनती है कविता
आहों में भी प्रेम सजे जब तब जाकर बनती है कविता।

कहीं हृदय के प्रेमांगन में भावों का सागर लहराये,
जब कोई साँसों का बंधन मन के भावों को छू जाये।
कभी अधर पर मुस्कानों की हल्की रेख कहीं खिंच जाये,
जब पलकों के किसी कोर पर आँसू धीरे से मुस्काये।
साँसें जब अल्हड़ हो जायें तब जाकर बनती है कविता।

जब लोगों से भरी भीड़ में सूना कोना मन को भाये,
पलकों के द्वारे पर अकसर कोई पल-पल आये जाये।
एकाकीपन मन तड़पाये गीत विरह का मन को भाये,
मन का बोझ सँभल ना पाये आँसू पलकों में भर जाये।
छन से सपना जब गिर जाये तब जाकर बनती है कविता।

मन के पावन नीलगगन में जब यादों की बदली छाये,
खुली पलक का कोई सपना रातों में करवट दे जाये।
तकिये की सिलवट में जब-जब चिट्ठी की वो खुशबू आये,
जब पुस्तक के किसी पृष्ठ में सूखा हुआ पुष्प मिल जाये।
सूखी पंखुरियाँ जब महके तब जाकर बनती है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05 फरवरी, 2024


बिन संघर्षों के जीवन में पाया उसका मोल नहीं

बिन संघर्षों के जीवन में पाया उसका मोल नहीं

कुरुक्षेत्र का रण जीवन है पग-पग अगणित बाधाएँ
मोड़-मोड़ अवरोध बड़े हैं मोड़-मोड़ पर विपदाएँ।
विपदाओं के शीर्ष शिखर या शूल भरे हों राहों में,
सूख रहे हों कंठ तपिश से ज्वाला से या आहों से।
अलसाई आँखों की खातिर सपनों का कुछ मोल नहीं।

कंकड़-कंकड़ डाला घट में तब पानी ऊपर आया,
कितने छाले फूटे होंगे तब जाकर मंजिल पाया।
कितनी रातें जागी होंगी तब सपनों का महल बना,
पत्थर कितने तोड़े होंगे तब ये रस्ता सरल बना।
सहज भाव से यदि मिल जाये पानी उसका मोल नहीं।

दर्द नहीं जिनके जीवन में मोल खुशी का क्या जानें,
पीड़ा जिनको समझ न आई पीर किसी की क्या जानें।
जिन रिश्तों ने दर्द न झेला अपनापन क्या जानेंगे,
अपनों से जो जीते केवल खुशी हार की क्या जानेंगे।
बिन अपनों के मिली जीत का जीवन में कुछ मोल नहीँ।

कर्तव्यों के महाकुंभ में प्रतिदिन एक नहावन है,
इसकी डुबकी यहाँ जगत में गंगा जल सा पावन है।
प्रतिदिन घाट सजाता जीवन प्रतिदिन बहती जलधारा,
बूँद-बूँद कर में अंकित होती रहती अमृत धारा।
कर्तव्यों के बिना मिले जो अधिकारों का मोल नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 फरवरी, 2024

सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...