कर्तव्य पथ

कर्तव्य पथ

हार पर चीत्कार क्यूँ हो जीत का उल्लास क्यूँ हो,
जो मिला है आज पथ पर प्रभु शीश पर उसको धरूँ,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

पथ कंटकों से हों भरे अवरोध हों चाहे भरे,
चाहे शिलाएं शीर्ष तक या सूझे कुछ भी न परे।
ये रात काली हो भले या काल सी लंबी भले,
हों बंद सारे रास्ते और रोशनी कुछ ना मिले।

अब क्यूँ अँधेरों से डरूँ जब शीश प्रभु का हाथ हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

दर्द का साम्राज्य हो या वेदना चारों तरफ हो,
भ्रम का पारावार हो अनभिज्ञता चारों तरफ हो।
थक चुके हों पैर चाहे या शूल कितने हों चुभे,
टिमटिमाती रोशनी के दीपक भले बुझते रहें।

वेदना अज्ञानता में प्रभु ज्ञान का उपहार हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

अब हो भला चाहे बुरा परिणाम सब स्वीकार है,
मैं दोष माथे पर मढूँ मुझको नहीं अधिकार है।
जो कुछ मिला मुझको जगत में आपका आशीष है,
द्वार पर प्रभु आपके प्रतिपल झुका मेरा शीश है।

कर्तव्य पथ पर चल सकूँ शीर्ष मेरा व्यवहार हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जनवरी, 2024



बनारस

बनारस

दुनिया खातिर मात्र शहर है,
अपनी तो है जान बनारस।
इटली पेरिस सबके होंगे,
अपनी तो है शान बनारस।
गली मुहल्ले घाट बनारस,
सड़क-सड़क पर हाट बनारस।
गंगा का है घाट बनारस,
जीवन का है ठाठ बनारस।
साड़ी है श्रृंगार बनारस,
है भक्ति का संसार बनारस।
शिक्षा का है केंद्र बनारस,
कण-कण है सर्वेन्द्र बनारस।
मस्ती का है नाम बनारस,
घर-घर इसका धाम बनारस।
वेदों का है मंत्र बनारस,
ज्ञान-ध्यान है तंत्र बनारस।
इक दूजे का प्यार बनारस,
गीता का है सार बनारस।
मस्ती में मशगूल बनारस,
सृष्टी का है मूल बनारस।
सत्य कामना सोच बनारस,
जीवन, मृत्यु मोक्ष बनारस।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         22 जनवरी, 2024



बदली यादों की

बदली यादों की

हमने मन के हर भावों को,
गीतों का रूप दिया साथी।
मेरे मन के इन गीतों को,
आ धीरे से सहला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

कुछ दूर रहे कुछ पास रहे,
कुछ भूल गये कुछ याद रहे।
कुछ पलकों के दरवाजे पे,
गुमसुम-गुमसुम चुपचाप रहे।
कुछ बूँदें बनकर बिखर गए,
कुछ गिरने को बेताब रहे।
बेताबी के उन भावों को,
गीतों का रूप दिया साथी।
बेताबी के इन भावों को,
तुम धीरे से बहला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

गलियों-गलियों बस्ती-बस्ती,
हर मोड़-मोड़ पे देखा है।
जंगल-जंगल शहरों-शहरों,
पग-पग इक जीवन रेखा है।
परबत-परबत सागर-सागर,
जानी पहचानी रेखा है।
रेखाओं की पृष्ठभूमि में,
रंगों से भाव भरा साथी।
रेखाओं के इन रंगों में,
कुछ तुम भी रंग मिला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

जब सांध्य ढले गोधूली में,
सूरज मद्धम हो जायेगा।
दूर क्षितिज जब सागर तल में,
चुपके-चुपके खो जायेगा।
जीवन की गोधूली में जब,
पतझड़ का मौसम आयेगा।
पतझड़ के वो सूखे मौसम,
फिर पुष्पित हो जायें साथी।
पलकों के नील सरोवर में,
फिर नूतन स्वप्न खिला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 जनवरी, 2024





माहिया

माहिया

ये दिल की बातें हैं
दिल ही तो जाने
बीती जो रातें हैं

रात में नहीं आना
लाखों पहरे हैं
दिल को ये समझाना

दिल को क्या समझाऊँ
दिल की बातों को
कैसे मैं बतलाऊँ

ये बात नहीं अच्छी
झूठ नहीं कहता
ये प्रीत नहीं कच्ची

दिल तो बेचारा है
हाल वहाँ पर जो
वो हाल हमारा है

वो दिन फिर आयेंगे
दूर नहीं होंगे
हम जब मिल जायेंगे

✍️अजय कुमार पाण्डेय

व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

कुछ शब्द के अनुरोध को पंक्तियाँ स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।
जो लिखी ही न गयी हो आज तक किसी पृष्ठ पर,
हैं उठाते प्रश्न उस पर तिलमिलाती बदलियाँ।

सत्य पर पहरे लगाकर झूठ अब इतरा रहा,
धुंध का लेकर सहारा रश्मि को ठुकरा रहा।
आँधियाँ फिर से मचलकर द्वार का पथ रोकती,
धूल धूसर हो यहाँ पर रश्मियों को टोकतीं।

जो असल में ही नहीं है व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

जब उजाले खौफ खायें रश्मियाँ छुपने लगें,
जब अँधेरे झूम कर आकाश को ढकने लगें।
राह में जब पौन के ही पत्थरों का ढेर हो,
नेह के बदले दिलों में पल रहा जब बैर हो।

अब अँधेरों के कथानक व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

शीर्ष ही जब दे प्रलोभन निम्न क्यूँ उद्द्यम करे,
श्रेष्ठ भी तब ज्ञान को अज्ञानता के सम करे।
योग्यता के पैर में जब हो कँटीली बेड़ियाँ,
व्यर्थ के आधार पर बनने लगी हैं श्रेणियाँ।

ज्ञान अस्वीकार कर अब स्वार्थ अंगीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

धर्म पर आक्षेप लगने जब लगे अज्ञानता से,
तुच्छता बढ़ने लगे जब समर्पित मान्यता से।
झूठ के आकाश में जब पल रही अभिव्यक्तियाँ,
फिर सुनेगा कौन मन के नेह की अभिवृत्तियाँ।

धर्म सम्मत पंथ के हर ज्ञान को व्यापार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जनवरी, 2024






मुक्तक

मुक्तक

कि इन पलकों में सपनों को सँजोना चाहता हूँ मैं।
के खुशियों की फुहारों से भिंगोना चाहता हूँ मैं।
कहूँ कितना मैं भटका हूँ दिलों की राजधानी में,
पलक के कोर में छोटा सा कोना चाहता हूँ मैं।

हजारों बात हैं लेकिन न कोई बात आयी है।
तुम्हारी याद न आये न ऐसी रात आयी है।
मिरे सपने मेरी यादें हैं सभी कुछ साक्षी इसके,
बिना तेरे सितारों की नहीं बारात आयी है।

कि लिखे जो गीत चाहत के सुनाना चाहता हूँ मैं।
हमारे दिल में है क्या-क्या जताना चाहता हूँ मैं।
बिना तेरे सफर दिल का अधूरा मुझको लगता है,
बस इतनी बात इस दिल की बताना चाहता हूँ मैं।

पुराने दोस्त यादों की विरासत साथ रखते हैं।
नजर से टोह रखते हैं नजाकत साथ रखते हैं।
बिना बोले हृदय की बात सारी जान जाते हैं,
दिल को जीत लेती हो वो आदत साथ रखते हैं।

सफर हो खुशनुमा सबका इबादत रोज करता हूँ।
खुशी की चाह रखता हूँ नजर को तेज रखता हूँ।
हजारों ख्वाहिशों का बोझ काँधों पे लिये हरदम,
छुपा कर ख्वाहिशें अपनी सफर हर रोज करता हूँ।

तुम्हारे बीच मेरे बीच अभी कुछ बात बाकी है।
है कहीं कुछ तो बचा ऐसा कि जो जज्बात बाकी है।
ये मेरी हिचकियाँ मुझको यूँ ही सोने नहीं देती,
कहीं दिल में तुम्हारे अब भी मेरी याद बाकी है।

बिना तेरे निगाहों को कहीं अच्छा नहीं लगता।
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर अच्छा नहीं लगता।
कैसी कशमकश है मेरे दिल की राजधानी में,
हजारों हैं निगाहों में मगर सच्चा नहीं लगता।

समझता हूँ दिलों की मैं तुम्हारी भावनाओं को।
समझता हूँ इशारों को तुम्हारी कामनाओं को।
नहीं समझो के पत्थर हूँ कहीं मजबूरियाँ कुछ हैं,
समझता हूँ हमारे दिल की सारी आशनाओं को।

मेरे हर गम-खुशी में बस तुम्हारा नाम आयेगा।
मेरे हर गीत गजलों में तुम्हारा नाम आयेगा।
अब मिले बदनामियाँ कितनी मुझे चाहे जमाने में,
मेरी बदनामियों में भी तुम्हारा नाम आयेगा।

ना है शिकवा जमाने से नहीं कोई शिकायत है।
नहीं रुसवाईयाँ कोई नहीं कोई अदावत है।
जैसा भी हूँ मैं वैसा तुम्हारे सामने ही हूँ,
के तुम मानो या न मानो नहीं कोई मिलावट है।

दिल में कितनी कहानी छुपाये हुए।
कितने लम्हें हुये गुनगुनाये हुए।
बिन तेरे अब कहीं गीत सजते नहीं,
कितनी सदियाँ हुईं ये जताये हुए।

एक वादा मिलन का अधूरा रहा।
हर इरादा नयन का अधूरा रहा।
उम्र भर इक कमी सी कहीं रह गयी,
उम्र को गुनगुनाना अधूरा रहा।

वक्त का क्या पता कब गुजर जायेगा।
रेत सा हाथ से कब बिखर जायेगा।
इस घड़ी में चलो एक हो जायें हम,
कौन जाने कहाँ कब बिछड़ जायेगा।

मैं वही तुम वही और वही रास्ता।
कैसे कह दें नही अब कोई वास्ता।
बिन कथानक कहानी अधूरी है ये,
बन सकेगी नहीं फिर कोई दास्ताँ।

दौड़ता ही रहा जिस खुशी के लिये
वो खुशी आज तक भी मिली ही नहीं।
चलते-चलते यहाँ पांव थकते रहे
छाँव लेकिन कहीं भी मिली ही नहीं।
दिन गुजरता रहा रात होती रही
चांदनी पर कभी भी खिली ही नहीं।

नयन के कोर ये यूँ ही नहीं गीले हुए होंगे।
हृदय की भावनाएं दर्द से गीले हुए होंगे।
कि हिचकी बताती है तुम्हारे दिल के हालत को,
बिन मौसम हुई बरसात नयन गीले हुए होंगे।

तुम्हारे पास कहने के बहाने कम नहीं होंगे।
तुम्हारे चाहने वाले दिवाने कम नहीं होंगे।
बहुत अफसोस होगा तुमको इक दिन इस अदावत पे,
बहुत होंगे तुम्हारे पास लेकिन हम नहीं होंगे।

के नदिया को समंदर के मुहाने की जरूरत है।
ये लहरों के मचलकर पास आने की जरूरत है।
नहीं ऐसा के नदिया को समंदर ही सहारा है,
समंदर को भी नदिया के सहारे की जरूरत है।

सुहाने थे पुराने दिन वो अकसर याद आते हैं।
बिताए पल जो अकसर साथ में वो याद आते हैं।
चले जाते हैं अकसर छोड़ कितने बीच राहों में,
मगर इन दूरियों में भी दिलों को पास लाते हैं।


कुछ पल खातिर आ जाओ

कुछ पल खातिर आ जाओ

तप्त हृदय को शीतल कर दे, कुछ ऐसा भाव जगा जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

धूल धूसरित यादें मन की, झुरमुट में छुपी कहानी है,
तुम से तुम तक जो जाती है, वो हमको आज सुनानी है।
यादों के मान सरोवर में, नील कमल वही खिला जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

शब्द-शब्द की सीमायें हैं, भावों पर अवरोध नहीं है,
कितने गीत लिखे जगती पर, इसका भी अब बोध नहीं है।
शब्दों की हर सीमाओं का, तुम बोध कराने आ जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

आँसू भी अच्छे लगते हैं, जब तक खुशियों के होते हैं,
गिर पड़ते हैं बिछड़ कोर से, आहों को वो कब ढोते हैं।
आँसू के हर इक भावों का, अब मर्म बताने आ जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

इस दुनिया से जाने वाले, यादों में जिंदा रहते हैं,
और कभी मन की खिड़की से, पृष्ठों पर छपते रहते हैं।
बन जाये ना कहीं कथानक, अपनी पहचान बता जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       06 जनवरी, 2024




प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...