राम का नाम मन में बसा लीजिये

राम का नाम मन में बसा लीजिये

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।

कंटकों से भटकने लगे मन कभी,
मुश्किलों में उचटने लगे मन कभी।
जब किसी बात से क्षोभ होने लगे,
मौन मन में कभी क्रोध होने लगे।
जब हृदय क्लांत होकर भटकने लगे,
भक्ति का भाव मन में जगा लीजिये।

धर्म का मार्ग हो सत्य का मार्ग हो,
राम प्रतिपल चले लडखडाये नहीं।
लोभ हो मोह हो या कभी द्रोह हो,
पाँव उनके कभी डगमगाए नहीं।
मुश्किलें शूल बन राह रोकें कभी,
मुश्किलों को गले से लगा लीजिये।

हो पिता का कथन मात का हो वचन,
माथ हरदम वचन को लगाया सदा।
भ्रात हो शत्रु हो या कोई मित्र हो,
प्रण किया जो उसे तो निभाया सदा।
शब्द के घाव से मन तड़पने लगे,
मौन को ढाल अपनी बना लीजिये।

जब हुआ क्रोध तो स्वयं पर वश किया,
ज्ञान का ध्यान का मंत्र जग को दिया।
बेर शबरी के जूठे कुछ गम नहीँ,
प्रेम मन में जो है तो कुछ कम नहीं।
भेद मन में कभी जब पनपने लगे,
मन को शबरी, अपने बना लीजिये।

राम हो जाये जग ये संभव नहीं,
जो चले धर्म पथ पर वही राम है।
राम का पथ चुने आज संभव नहीं,
कर्म पथ पर चले जो वही राम है।
पंथ में पाँव जब लड़खड़ाने लगे,
राम का दीप मन में जला लीजिये।

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

बस इतना वरदान रहे

बस इतना वरदान रहे

और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे,
जीवन के इस महापरिधि में और न कुछ व्यवधान रहे।
हर कर्तव्यों की त्रिज्या हो जो चारों ओर बराबर हो,
उम्मीदों के महासिंधु में पावनता न्योछावर हो।
अधिकारों की पृष्ठभूमि पर जीवन का कुछ मान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

स्वप्न सरीखी पगडंडी पर पदचिन्हों का आवाहन,
पुण्य भाव के श्रेष्ठ कलश से जीवन बने नहावन।
वेद ग्रन्थ की वाणी गुंजित गंगाजल पावन अमृत,
गीता और पुराणों से हो रोम-रोम जीवन पुलकित।
जिह्वा से आवाहन हो जब मंत्रों का संज्ञान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

शिक्षा संस्कृति और ज्ञान से राष्ट्र मार्ग आलोकित हो,
स्वस्थ आचरण और सभ्यता से जीवन अनुमोदित हो।
स्वार्थ रहित हो भाव हृदय के सबसे सबका अपनापन,
सत्य धर्म के ज्योति पुंज से मिट जाये सारा सूनापन।
पुण्य पंथ में इस जीवन के नहीं कभी व्यवधान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 मार्च, 2025
तुम पूछते हैं मेरी आँखों में समंदर कैसा है
क्या बताऊँ जो देखा वो मंजर कैसा है

जरा हवा क्या चली जो छुपने लगे ओट में
क्या बताऊँ उन्हें जो बीती बवंडर कैसा है

जिनको चाहा यहाँ स्वयं को भूलकर
हाथों में उनके ये खंजर कैसा है

जीतने को जीत लेते हम हर एक युद्ध को
पर दिल जो न जीते वो सिकन्दर कैसा है

माना उन्हें अब मेरी जरूरत नहीं है देव
पर ये बेचैनियों का समंदर कैसा है

✍️अजय कुमार पाण्डेय



फागुन

फागुन

नैनों से नैन मिले जबही तब नैन से नेह जता गयी गोरी।
अधर खुले अधखुले ही रहे पर अधरों से प्रेम जता गयी गोरी।
रंग फागुन ऐसो चढो तन-मन पे और कहीं कुछ सूझत नाहीं,
के रंग-अबीर बिना नैनन से नैनों को रंग लगा गयी गोरी।

हृदय के भाव अधरों पर कभी जब गीत बन जायें।
मचलती भावनाएं जब कभी अधरों पे ठन जायें।
फागुन रंग है ऐसा अछूता कोई हो नहीं सकता,
छुये जब रंग तन-मन को हृदय बरसने बन जायें।

नेह स्नेह के भाव खिले जब नैन से नैन मिले फागुन में।
आवत-जावत राह तके सब चाह से चाह मिले फागुन में।
रंग-बिरंगी धरा भयी और फूल ही फूल खिले अईसन, 
मस्त मलंग हुआ जीवन जब तन-मन रंग रंगा फागुन में।

न जुड़ता नाम तेरे संग तो यूँ बदनाम ना होता।
न जुड़ता साथ में तेरे कहीं यूँ नाम ना होता।
न मिलता मैं अगर तुमसे तो ऐसा हाल न होता,
न लिखता गीत कविता मैं भी किसी काम का होता।

हमारी चाहतों का रंग कभी फीका नहीं होगा।
हमारी आशिकी का ढंग कभी फीका नहीं होगा।
खुमारी ये तुम्हारी जो नहीं तो और फिर क्या है,
कि तुम्हारी खुश्बुओं का संग कभी फीका नहीं होगा



क्या फायदा

क्या फायदा

शब्द मेरे मुखर हो न पाये कभी, दिल किसी से लगाने का क्या फायदा।

कितने आये-गये नेह की राह में, पर किसी को हृदय ने पुकारा नहीं,
गीत कितने लिखे प्रेम की चाह के, पर किसी को हृदय में उतारा नहीं।
बाद उनके हृदय को न भाया कोई, और से दिल लगाने का क्या फायदा।

करते क्या कामना हम खुशी की यहाँ, दर्द ने जब हृदय को सहारा दिया,
पास रहकर भी जब पास हो ना सके, अश्रु ने तब हृदय को सहारा दिया।
अश्रु जब गिर पड़े नैन के कोर से, नैन से दिल लगाने का क्या फायदा।

लोग कहते रहे प्रेम इक रोग है, दिल ने लेकिन कभी इसको माना नहीं,
जिसने छोड़ा हमें ये वही लोग हैं, कौन अपना पराया ये जाना नहीं।
प्रेम ही रोग जब बन गया हो यहाँ, गैर को दोष देने का क्या फायदा।

जीतता क्या किसी से यहाँ युद्ध में, जब किसी को हराना नहीं चाहता,
ऐसे बरसे नयन प्रेम की राह में, दिल किसी से लगाना नहीं चाहता।
हार में जीत की आस जगने लगे, जीत कर हार जाने का क्या फायदा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 मार्च, 2025

पहचान

पहचान

नैन अधखुले सपन अधूरे
उलझन सारी रात रही,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

चूल्हे पर जो धूम्र उठा था
पता ठिकाना क्या जाने,
कितना मिटा कोयला जलकर
कौन राख अब पहचाने।
कितनी सिमटी आग रात भर
बरतन को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

पगडंडी की धूल लिपटकर
क्या जाने के कहाँ चली,
कितनी मंजिल नापी पग ने
कितनी राहें सदा छलीं।
कितने कुचले दूब राह में
पैरों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

टुकड़े-टुकड़े सपने जोड़े
पलकों पर रखकर पाला,
नयन कोर की हर बूँदों को
आँचल कोरों में पाला।
सपने पलकों के क्यूँ बिखरे
कोरों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

मुट्ठी से उस गिरे समय को
जाने कब से ढूँढ़ रहा,
यादों के आँचल में अपने
सपनों को मन ढूँढ़ रहा।
हाथों से क्यूँ आँचल छूटा
हाथों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

✍️अजय कुमार पाण्डेय

श्री लक्ष्मण मूर्छा एवं प्रभु की मनोदशा

श्री लक्ष्मण मूर्छा एवं प्रभु की मनोदशा

चहुँओर अंधेरा फैल गया ऋषि ध्वनियाँ सारी बंद हुईं,
पुलकित होकर बहती थी जो पौन अचानक मंद हुई।

कुछ नहीं सूझता जब मन को अँधियार पसरने लगता है,
शंका मन में जब उमड़ पड़े संसार बिखरने लगता है।

समय पूर्व सूरज संध्या के आँचल में जा मंद हुआ,
यूँ लगा हृदय के किसी कोर की धमनी का बल तंग हुआ।

विचलित मन विचलित तन ले साँस उखड़ती जाती थी,
अपने ही हाथों से अपनी हर आस उजड़ती जाती थी।

तभी अचानक कहीं कर्ण में स्वर का स्पंदन तंग हुआ,
शक्ति लगी श्री लक्ष्मण को सुनकर के क्रंदन भंग हुआ।

युद्धभूमि में मूर्छित पाकर सब स्वप्न नयन का बिखर गया,
बसने से पहले यूँ लगा आज संसार हृदय का उजड़ गया।

देख धरा पर तेजोमय को सूर्य गगन का बिखर गया,
धैर्यवान बल शीलवान बल उस पल जाने किधर गया।

क्या क्षमा कभी कर पाऊँगा खुद को इस अपराध पे मैं,
प्राणों को क्षति पहुंचाई अपने ही आराध्य के मैं।

शिला बन गए स्वयं प्रभू जो कभी शिला को तारे थे,
लगा समय से हार गये हैं कभी नहीं जो हारे थे।

विधना के खुद आज भाग में कैसी विपदा आयी है,
किस विधि चली लेखनी अब ये कैसी निठुर सियाही है।

हाय अवध का भाग्य धरा पर मौन हुआ क्यूँ खोया है,
लगता बरसों से जागा था धरा गोद में सोया है।

कैसे मुख दिखलाऊँगा मैं आकर वहाँ अयोध्या में,
वशीभूत हो निजता में कैसा अपराधी योद्धा मैं।

कैसे बोलूँगा माँ से मैं कि धर्म निभा नहीं पाया,
रक्षा को जो वचन दिया था उसको निभा नहीं पाया।

बड़ा अभागा राम जगत में जीवनभर बस खोया है,
मात-पिता से दूर हुआ अब भ्रात मौन हो सोया है।

हे पेड़ रूख खग मृग सारे कैसे व्यथा सुनाऊँ मैं,
व्यथा राम के मन की क्या है कैसे यहाँ बताऊँ मैं।

मात-पिता का वचन निभाना कैसे ये अपराध हुआ,
कौन जनम की सजा मिली है कैसे मैं अभिशाप हुआ।

मात सुमित्रा के सम्मुख राम वचन सब झूठ हुआ,
जो विश्वास दिलाया माँ को हाय अभागा झूठ हुआ।

उर्मिला से क्या कहूँगा मैं कैसे सम्मुख जाऊँगा,
लक्ष्मण बिन कैसे जाऊँ मैं यहीं डूब मर जाऊँगा।

आज जगत में कौन यहाँ पर मुझसे बड़ा अभागा है,
जीवन भर मैंने विधना से अपना सुख बस माँगा है।

क्या बोलूँगा भ्रात भरत से विश्वास यहाँ जो टूटा है,
हाथ पकड़ बचपन में खेला हाथ आज जो छूटा है।

क्यूँ काल कहीं पर सोया है क्यूँ मृत्यु नहीं आ जाती,
क्यूँ प्रलय नहीं आता है क्यूँ ये धरा नहीं फट जाती।

क्यूँ लखन नहीं कुछ कहते हो क्या अपराध हुआ मुझसे,
क्यूँ ऐसे पड़े अंक में हो कुछ तो कहो अनुज मुझसे।

तुम बिन मेरा जगत अँधेरा सूर्य नहीं उग पायेगा,
पंछी कलरव नहीं करेंगे जग सूना हो जायेगा।

नहीं दिखोगे साथ अगर सीता को क्या बतलाऊँगा,
कैसे सम्मुख जाऊँगा मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा।

क्या अंतर है रात दिवस में तुम बिन जगत अँधेरा है,
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण बस मातम का घेरा है।

बिना लखन के शून्य राम हैं इस जीवन ने जान लिया,
प्राण तजूँ इस युद्ध भूमि में मैंने भी प्रण ठान लिया।

तुम बिन जीवित रहा अगर जनम अधूरा रह जायेगा,
सृष्टि का कुछ पता नहीं पर राम न पूरा हो पायेगा।

मुझसे स्वार्थी कौन यहाँ पर अपने खातिर यहाँ जिया,
पत्नी वियोग में हो अंधा भाई का बलिदान दिया।

भाई खातिर जीवन अर्पण कौन यहाँ करता ऐसा,
धूर्त कहेगा जग मुझको क्या भाई होता है ऐसा।

बिन तेरे यदि जीत गया सीता प्राणों को तज देगी,
गया अकेला अगर अवध तो मायें जीवन तज देंगी।

होगा उचित यही के संग-संग प्राण यहाँ मैं त्यागूँ,
भ्रात मुझे लौटा दे विधना और न तुझसे कुछ माँगूँ।

लगता कभी कि बहुत हुआ अब कोई वरदान न माँगूँ,
बनूँ काल का महाकाल मैं धैर्य त्याग सब कुछ त्यागूँ।

अपने अन्तस् की ज्वाला को असुर रक्त से शांत करूँ,
जब तक अंतिम रिपु जीवित है नीर बूँद ना ग्रहण करूँ।

जग ने मेरा धैर्य देखकर मुझको बस कायर समझा,
मेरे नम्र निवेदन को देव दनुज ने कायर समझा।

धूल धूसरित करूँ लंक को करूँ क्षुधा को शांत यहाँ,
टूट पडूँ बन प्रलय यहाँ करूँ हृदय को शांत यहाँ।

कोदण्ड धरूँ न तब तक मैं अंतिम असुर मिटा न दूँ,
काल अवध के नभ पे छाया उसकी मूल मिटा ना दूँ।

यदि लखन नहीं बचेगा तो समस्त सृष्टि का क्या करना,
जब जीवन ही कलुषित हो तो मृत्यू से कैसा डरना।

कैसे मिली वेदना मुझको हाय काल क्यूँ हँसता है,
जिस स्वार्थ दंश ने डँसा लखन मुझे नहीं क्यूँ डँसता है।

कहो विभीषण इस विपदा को कैसे मैं अब टारूँगा,
बिना लखन के यहाँ युद्ध में शस्त्र न अब मैं धारूँगा।

खुले नहीं यदि नैन लखन के युद्ध यहाँ मैं हारूँगा,
बिना लखन यदि रात ढल गयी कल ना सूर्य निहारूँगा,

हे हनुमत ये रात बीतती बोलो कब तक आओगे,
समय पूर्व यदि तुम ना आये मुझे न जीवित पाओगे।

मेरे खातिर जिसने अपने जीवन का अब सुख त्यागा,
मौन धरा पर पड़ा हुआ मुझसा है अब कौन अभागा।

मात-पिता पत्नी को त्यागा तुमसा कोई धीर नहीं,
भाई खातिर सब कुछ वारे तुमसा कोई वीर नहीं।

बिना लखन के इस जीवन का है कोई अस्तित्व नहीं,
राम शून्य हो जायेगा अब और बचा व्यक्तित्व नहीं।

हे हनुमत विनती है तुमसे शीघ्र यहाँ पर आ जाओ,
और विलंब न सह पाऊँगा जीवन मुझको दे जाओ।

रुदन देख राघव के मन का धरती अंबर डोल गया,
राम काज में विलंब न होगा पवन पुत्र मन बोल गया।

धीर धरें है रघुकुल नन्दन क्षण में दुख कट जायेगा,
मेरे आने से पहले ना सूरज ये उग पायेगा।

रोक सकेगा कौन मुझे अब किसमें इतना जोर नहीं,
राम नाम की महिमा हो यदि तिनका भी कमजोर नहीं।

राम काज को पूर्ण हुए बिन दूजा काज नहीं होगा,
जब तक मैं ना आऊँगा ये दिन आगाज नहीं होगा।

पलक झपकते बूटी लेकर हनुमत जब वापस आये,
आनंदित हो रघुनंदन फिर अंतर्मन में मुस्काये।

बूटी का पाकर प्रभाव जब लक्ष्मण ने आँखें खोली,
जीवन के सब श्रेष्ठ सुखों से राघव ने भर ली झोली।

लगा हृदय से लक्ष्मण को तब राघव ने जीवन पाया,
खग मृग सब जो भूल चुके थे आनंदित जीवन गाया।

तन मन जीवन ऋणी रहूँगा सोई किस्मत जागी है,
हनुमत तुम सा सखा मिला है राम यहाँ बड़भागी है।

हर्षित कण-कण हुआ धरा का प्रकृति ने जीवन पाया,
राम काज सम्पूर्ण किया हनुमत ने भी वचन निभाया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2025


 


माँ

भले हो दूर माँ मुझसे मगर इतना भरोसा है।
रहेगी पास माँ हरपल मुझे इतना भरोसा है।
मेरी नादानियों को देवताओं माफ कर देना,
सभी देवों से भी ज्यादा मुझे माँ पर भरोसा है।


मुक्तक

लड़कपन में लिखी जो भी कहानी याद है हमको।
किताबों में छिपाई जो निशानी याद है हमको।
वही हम हैं वही तुम हो भले ये वक्त बदला है,
बिताए संग में जो-जो जवानी याद है हमको।

लिखेंगे गीत वादों के बना मनमीत यादों को।
दिलों की भावनाओं को निगाहों के इरादों को।
न पूछो कैसे बीते हैं वो लम्हे बिन कहानी के,
डुबोये आंसुओं ने जिनमें चाहत की निशानी को।

के दिल में है मेरे क्या-क्या मेरी धड़कन बताएगी।
तुम्हारी चाह कितनी है मेरी हिचकी बताएगी।
सुनाऊँ कैसे मैं तुमको गुजारे कैसे सावन ये,
मेरी पलकों की हालत को ये बरसातें बतायेंगी।

तुम्हारे बाद गीतों के वो सारे शब्द खोये हैं।
लिखे जो व्याकरण में प्रेम के सारे शब्द खोये हैं।
बहुत मुश्किल से ढूँढा हूँ तुम्हारी इक निशानी को,
औ गाया जब इसे मैंने वो सारे शब्द रोये हैं।

आँसू की सियाही से लिखे जो गीत अब खोये।
यादों की रिहाई से जो निकले गीत सब खोये।
भूली हर कहानी अब कहाँ तक याद रहती है,
गिरे जब बूँद पलकों से कपोलों पर सभी खोये।

कभी कुछ खो दिया हमने कभी कुछ पा लिया हमने।
कि आयी याद जब उनकी दिलासा दे दिया हमने।
सिमट कर बूँद को कोरों पे आकर सूखने से पूर्व,
पलकों की सियाही से उन्हें फिर गा लिया हमने।

तुम्हारा साथ यदि हो तो खिलेंगे फूल राहों में।
के कंटक हों भले कितने चलेंगे दूर राहों में।
बहुत मुश्किल सफर ये जिंदगी का हमको लगता है,
चलेंगे संग-संग जब हम हँसेंगे धूल राहों में।

यही चाहत है इस दिल की तुम्हारे गीत मैं गाऊँ।
तुम्हारा दर्द हर पाऊँ तुम्हारी प्रीत मैं पाऊँ।
अब नहीं कुछ चाह इस दिल की यही बस कामना बाकी,
के तुम्ही से हार कर के मैं खुद से जीत मैं जाऊँ।

तुम्हारे बिन सुबह कोई न कोई शाम होती है।
करूँ जब बात कोई भी तुम्हारी बात होती है।
गुजरने को गुजरती हैं ये रातें हर घड़ी हर पल,
तुम्हारे साथ जो बीती नहीं वो रात होती है।

हजारों गीत लिखे पर कोई भी गा नहीं पाये।
अपने दिल की चाहत को कभी दिखला नहीं पाये।
यूँ मजबूरियों ने बाँध रक्खा मेरे कदमों को,
मिले अवसर कई लेकिन कभी हम आ नहीं पाये।

तुम्हारे पास आता हूँ तो खुद को हार जाता हूँ।
के नयनों की नजाकत में मैं दिल को हार जाता हूँ।
नहीं रहता नियंत्रण जब कभी तुम पास आ जाओ,
मैं सबसे जीत जाता हूँ तुम्हीं से हार जाता हूँ।

गुजरते शाम के आँचल में कुछ बाकी निशानी है।
मचलते कामनाओं की महकती रातरानी है।
हैं माना दूर हम लेकिन मगर इक डोर ऐसी है,
बँधी जिससे गुजारे वक्त की सारी कहानी है।


अधर पर नाम जब आया नयन गीले हुए होंगे।
हमारी चाहतों में पुष्प सभी पीले हुए होंगे।

हमारी याद में उनके नयन गीले हुए होंगे।

सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...