मत रोको मुझको

     मत रोको मुझको                                                     

आज कोई मत रोको मुझको
प्रभु चरणों में बिछ जाने दो,
शब्दों की सीमाएं छोड़ो
सब भावों को कह जाने दो।।

तुम गरिष्ठ पुंज हो, शिलाखंड हो
मैं चंचल इक बहता निर्झर,
आज कृपा बस इतनी कर दो
तल में अपनी बह जाने दो।।

तुम नव प्रभात हो, स्वर्ग स्नात हो
मैं किंचित इक दीप की बाती,
नव प्रभात के इस प्रभाव में
मुझको भी अब ढल जाने दो।।

तुम अन्तर्यामी जग के स्वामी
मैं बालक अबोध, अज्ञानी,
अपनी सत्संगति में रख लो
अशन, व्यसन सब त्यज जाने दो।।

मुक्ति बोध तुम, ज्ञान योग तुम
ध्यान योग तुम, भक्ति योग तुम,
दीन- हीन आसक्ति युक्त मैं
मुझे अपनी शरण में रम जाने दो।।

आज कोई मत रोको मुझको
मुझे प्रभु चरणों में बिछ जाने दो,
शब्दों की सीमाएं छोड़ो
सब भावों को कह जाने दो।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


मेरा गांव

     
मेरा गांव             


वो पीपल के नीचे की सोंधी सी माटी
वो घुटनों से लिपटी सोंधी सी माटी
सोंधी सी खुशबू में लिपटा वो बचपन
वो पुरवा के झोंकों में बरगद की छांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो भँवरों की गुनगुन, वो किरणों की खिल खिल
वो तपती दुपहरी में पैरों का जलना
वो गोधूलि बेला में गायों का रंभना
वो पूष की रातों में अलावों से सेंकना
बारिश के मौसम में फूस के छत की वो छांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो माई के हाथों के प्यारे से स्वेटर
पुआलों पे लगने वाले वो बिस्तर
हर छोटे बड़े मौकों पे लोगों का जमघट
वो अपने परायों की प्यारी सी खटपट
वो पंगत की मस्ती में न्योतों में जाना
वो तनते चद्दरों में सिमटे बच्चों के पांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो छोटे बड़े सबका आदर सत्कार
इस नए दौर में भी जिंदा रखते सब संस्कार
वो दादी-नानी की प्यारी सी कहानी
कहीं एक राजा, कहीं एक रानी
वो तीज, त्योहार, वो शादी -बारातें
वो प्यारे से रिश्ते, वो प्यारी सी बातें
कभी खत्म न होने वाली वो रातें।

कहां आ गए हम यूँ चलते चलते
शहरों की जगमग न अब नुझको भाती
चार पैसों की चाहत में
भले छोड़ आया मैं सब कुछ
मगर याद तेरी सदा है सताती
वो बिरहा, वो कजरी,
वो ढोलक की ताप
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

इंतज़ार

   इंतज़ार                     


दिन भी लगने लगे अब बरस के समान
हर तरफ लोगों की भीड़ है
पर जाने क्यूँ वीराना सा है
ये दुनिया ये जहान।

भीड़ है अपनों की पर हम अधीर हैं
कहीं कोई है, पर कहां, कौन, कैसा है ?

हम सोचते हैं, भीड़ में खोजते हैं,
वर्षों से आंखें करती रहीं जिसका इंतज़ार,
क्षण भर तो लगा वो मिल गया
दामन खुशियों से यूँ भर गया।

मिला ज़रूर
क्या वही, जिसके लिए दिल था बेकरार।
हाँ- मिला
घर आंगन खुशियों से खिला
लेकिन ये क्या- वो यथार्थ नही एक सपना था
पल भर का, खत्म हुआ
लो शुरू हो गया , फिर वही इंतज़ार।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

वक्त

             वक्त           


गली के मोड़ पे वो खड़ा था
शायद अपनी ही किसी सोच में पड़ा था।
मैने पूछा, क्यों भाई बात क्या है
तुम्हारे यहां खड़े होने का ध्येय क्या है?
कुछ भी न कह उसने मुझे घूर के देखा
नज़रें इधर उधर फिरा कर दूर तक देखा
थोड़ा पास आकर बोला-
हर तरफ भागमभाग, दौड़-धूप और है मारामारी
गली के किसी कोने पर
सिसक रही मानवता बेचारी
लूट, खसोट, बेईमानी, चोरी और डकैती
ये बन गयी है आज अराजकता की कसौटी।
मुफ़्गखोरी की आदत कहां लग गई
भुजबल पर जिन्हें गर्व था अपने
चंद प्रलोभनों से बिकने लगे उनके सपने
इस देश की हालत ये क्या हो गयी
इंसान की इंसानियत जाने कहाँ खो गयी।
मैने कहा क्यों परेशान हो तुम
देख कर ये सब क्यों हैरान हो तुम।
उसने कहा- मैं वक्त हूँ
वादे का बड़ा सख्त हूँ,
सदियों पहले भी मैं आया था
तब भी सब कुछ ऐसा ही पाया था
फर्क सिर्फ इतना है-
तब लूट रहा कोई ग़ैर था
आज लूट रहा कोई अपना है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

सफ़र

            सफर           


सूरज की पहली किरण जब 
ओस की बूंदों पर पड़ी
अलसाई बूंदें मोतियों सी चमक पड़ीं।
नभ में लालिमा आई, दिवस भी चल पड़ा
पक्षियों के कलरव से नभ गुंजित हुआ।
प्रकृति के इस खेल से मन प्रफुल्लित हुआ
लहराती, बलखाती ये नदियां
कल कल करते ये झरने
सुरम्य संगीत इनके मन को लगे हरने।
दिवस का ये सफर और भी आगे चला
नभ के आंचल से निकल 
सूर्य ने यौवन को छुआ।
किरणों के तेज से दिवस और प्रफुल्लित हुआ,
सूर्य यूँ चलता रहा, दिवस भी ढलता रहा।
दिन ढला सांझ हुई
रात की गहराइयों में, सूरज भी गुम हुआ
रात और काली हुई, ज़िंदगी भी कैद हुई।
पर वक्त का ये कारवां , अविरल यूँ चलता रहा।
वक्त को कैद करने है नही संभव कहीं
पुनः दिन निकला रात गई,
ज़िंदगी भी मुक्त हुई।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


मैखाना

            मैखाना              


मैखाने से क्या गुज़रे, हंगामा हो गया
सरे आम चर्चा का बहाना हो गया।

हसरत न थी पीने की, मगर
बिन पिये ही पीने का अफसाना हो गया।

लोग जाते रहे मैखाने तो कोई बात न थी
हम पास से क्या गुज़रे, हंगामा हो गया।

सोचा था कि न जाएंगे उधर
उन्होंने ज़ख्म ही कुछ ऐसा दिया कि,

बचते रहे जिन गलियों से
उन्हीं गलियों में अपना आना जाना हो गया।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...