इंतज़ार
दिन भी लगने लगे अब बरस के समान
हर तरफ लोगों की भीड़ है
पर जाने क्यूँ वीराना सा है
ये दुनिया ये जहान।
भीड़ है अपनों की पर हम अधीर हैं
कहीं कोई है, पर कहां, कौन, कैसा है ?
हम सोचते हैं, भीड़ में खोजते हैं,
वर्षों से आंखें करती रहीं जिसका इंतज़ार,
क्षण भर तो लगा वो मिल गया
दामन खुशियों से यूँ भर गया।
मिला ज़रूर
क्या वही, जिसके लिए दिल था बेकरार।
हाँ- मिला
घर आंगन खुशियों से खिला
लेकिन ये क्या- वो यथार्थ नही एक सपना था
पल भर का, खत्म हुआ
लो शुरू हो गया , फिर वही इंतज़ार।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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