मेरा गांव

     
मेरा गांव             


वो पीपल के नीचे की सोंधी सी माटी
वो घुटनों से लिपटी सोंधी सी माटी
सोंधी सी खुशबू में लिपटा वो बचपन
वो पुरवा के झोंकों में बरगद की छांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो भँवरों की गुनगुन, वो किरणों की खिल खिल
वो तपती दुपहरी में पैरों का जलना
वो गोधूलि बेला में गायों का रंभना
वो पूष की रातों में अलावों से सेंकना
बारिश के मौसम में फूस के छत की वो छांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो माई के हाथों के प्यारे से स्वेटर
पुआलों पे लगने वाले वो बिस्तर
हर छोटे बड़े मौकों पे लोगों का जमघट
वो अपने परायों की प्यारी सी खटपट
वो पंगत की मस्ती में न्योतों में जाना
वो तनते चद्दरों में सिमटे बच्चों के पांव
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

वो छोटे बड़े सबका आदर सत्कार
इस नए दौर में भी जिंदा रखते सब संस्कार
वो दादी-नानी की प्यारी सी कहानी
कहीं एक राजा, कहीं एक रानी
वो तीज, त्योहार, वो शादी -बारातें
वो प्यारे से रिश्ते, वो प्यारी सी बातें
कभी खत्म न होने वाली वो रातें।

कहां आ गए हम यूँ चलते चलते
शहरों की जगमग न अब नुझको भाती
चार पैसों की चाहत में
भले छोड़ आया मैं सब कुछ
मगर याद तेरी सदा है सताती
वो बिरहा, वो कजरी,
वो ढोलक की ताप
मेरी हर सांस में जिंदा है मेरा गांव।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

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