कर्ण एवं इंद्र देव संवाद
गतांक से आगे......
इस युग का वो दानवीर, ना उसके जैसा शूरवीर,
अपना वचन निभाया था, अगणित को सुख पहुंचाया था।
हरि के सम्मुख नहीं झुका, कर्तव्य से अपने नहीं रुका,
धन्य-धन्य है वो दानी, अद्भुत था वो अभिमानी।
दान मनुज का धर्म बड़ा है, जो भी इसको करता है,
लोभ मोह से परे रहा वो, खोने से कब डरता है।
रहते यहाँ जगत में वो, सर्वस्व दान जो करते हैं,
दान-पुण्य के अज्ञानी, सब पाकर के भी मरते हैं।
जीवन कब चिरकाल रहा है, व्यर्थ मनुज तन डरता है,
कौन लड़ सका है विधना से, देह त्यागना पड़ता है।
व्रती वीर दानी मन से, था कर्म वचन पालनहारी,
निभा रहा था वहाँ जगत में, धर्म परायण प्रण भारी।
रवि पूजन पश्चात वहाँ पर, जो कोई भी आता था,
कर्ण उसे मुँहमाँगा देता, रीत नहीं लौटाता था।
दसों दिशाओं में फहर रही थी उसकी दानशीलता,
चहुँओर मुखर हो सब गाते थे उसकी धर्मशीलता।
अंगदेश में नाम पड़ा था उसका कर्ण महादानी,
उसका सान्निध्य पाने को थे तरसते कितने प्राणी।
एक दिवस को सरिता तट पर, डूबा था ईश मनन को,
किये हुए था ध्यान हृदय में, अपने मूँद नयन को।
खेल रही थीं जलधि रश्मियाँ, उसके तन को छूकर,
बिखर रही थी आभा चँहुदिश, जब कवच और कुंडल पर।
खेल रहे थे खग मृग सारे, हँसते चहक रहे थे,
जब सरिता में कटि तक डूबा, तन दम-दम दमक रहे थे।
तभी अचानक वहाँ कुंज में, खर पात तनिक था डोला,
जब ध्यान गया उधर कर्ण का, वो देख उधर फिर बोला।
कौन उधर है छुपे खड़े क्यूँ, अब बन्धु सामने आओ,
क्या मंतव्य लिए आये हो, अब आकर प्रिय बतलाओ।
पास मेरे जो भी होगा मैं अर्पित तुम्हें करूँगा,
बन्धु प्रयोजन अपना बोलो, मैं कोशिश पूर्ण करूँगा।
धन-धान्य, संपदा अन्न वसन, या अन्य कहो अभिलाषा,
कोशिश कर के पूर्ण करूँगा, प्रिय मैं तुम्हारी आशा।
जितना जिसके भाग्य में लिखा, उतना ही वह पायेगा,
धन-दौलत सब हानि लाभ ये, यहीं रखा रह जायेगा।
फहर रही है कीर्ति पताका, इस दूर-दूर तक जग में,
खाली हाथ नहीं लौटा है, जो आया है इस डग में।
निश्चय का ले भाव हृदय में, हे विप्र माँग सकते हैं,
प्रण पालन के लिए कर्ण ये, जीवन भी दे
सकते हैं।
किस्मत में जो लिखा नहीं है, मैं कैसे वरण करूँगा,
जिस तक पँहुच असंभव मेरी, मैं कैसे ग्रहण करूँगा।
जिस पर जिसका अधिकार विप्रवर, उसको वो पायेगा
किस्मत में जो लिखा हुआ है, वही पास रह जायेगा।
है मुझको संकोच यही के, जो कुछ भी मैं माँगूँगा,
न सुनने से बेहतर होगा, इच्छा अपनी त्यागूँगा।
निश्चिंत भाव से कहें विप्रवर, इच्छा अपने मन की,
वचन आपको देता प्रभुवर, मैं करूँगा रक्षा प्रण की।
खुलकर कहिये आप विप्रवर, मन में जो इच्छा है,
करूँ समर्पित श्री चरणों में, अब मेरी भी इच्छा है।
क्षमाप्रार्थी हूँ सुकर्म मैं, अब अच्छा है जाने दो,
अब संकट में कैसे डालूँ, मनवांछित फल पाने को।
बिन पाये ही मिला मुझे सब, इतना आश्वासन पाकर,
धन्य-धन्य हो गया यहाँ मैं, बस पास तिहारे आकर।
अब होगा उचित यही मुझको, हे दानवीर जाने दो,
वरना मेरे पास बचेगा, केवल पछताने को।
बोल उठे फिर दानवीर, यूँ रिक्त नहीं जाने दूँगा,
मंशा मन की होगी पूरी, क्षोभ नहीं आने दूँगा।
मेरे कर बल में जो कुछ भी, सब चरणों में रख दूँगा,
राज-पाट धन धान्य विप्रवर, सब अंजुलि में भर दूँगा।
वचन माँग कर दान त्यागना, प्रभु ऐसा नहीं हुआ है,
जिसके मन की जो इच्छा है, सब पूर्ण यहीं हुआ है।
इतना संकोच नहीं करिये, प्रभु मन की अपने कहिये,
प्रभु मेरी वचनबद्धता पर, अब तनिक न संशय करिये।
यदि इच्छा पूरी कर न सका, मैं प्राण यहीं त्यागूँगा,
मैं मृत्यु वरण करूँ विप्रवर, अभयदान नहीं माँगूँगा।
सुन कर इतनी घोर प्रतिज्ञा, हृदय विप्र का डोल गया,
एक साँस में बिना रुके ही, मन की इच्छा बोल गया।
धन का मुझको मोह नहीं, सत्ता सुख भी नहीं चाहिये,
नहीं चाहिये अन्न वसन, सेवा कोई नहीं चाहिये।
दे सकते हैं मुझे यहाँ तो, प्रिय अपना ये संबल दें,
तो कृपा करें मुझ पर इतना, बस यही कवच कुंडल दें।
सुनकर इच्छा सन्यासी की, उसका मन डोल गया,
बड़े ध्यान से विप्र को देखा, कुछ सोचा फिर बोल गया।
अब समझा और नहीं कोई, प्रभु आप स्वयं सुरपति हैं,
लगता है देने अब आये, इस जीवन को नव गति हैं।
धन्य-धन्य ये जीवन मेरा, के आप धरा पर आये,
है ये मेरा सौभाग्य कि, सुरपति याचक बनकर आये
मुझ अबोध को क्षमा करें प्रभु, मैं कैसे जान न पाया,
स्वयं ईश मेरे दर आये, नादान समझ ना पाया।
मैं मूरख अज्ञानी कितना, बस बढ़-चढ़ कर के बोला,
दानशीलता के घमण्ड में, उन शब्दों को ना तोला।
मेरी अंजुलि में क्या सुरपति, यहाँ आपको देने को,
मैंने अपना हाथ पसारा, सिवा आपसे लेने को।
मेरा है सामर्थ्य कहाँ प्रभु, यहाँ आपको दे पाऊँ,
मैं ठहरा साधारण मानव, पर अपना वचन निभाऊँ।
फिर भी देवराज जब खुद ही, बन भिक्षुक हाथ पसारें,
जो भी मेरे वश में होगा, सब रख दूँ बिना विचारें।
जो भी मन की इच्छा है प्रभु, मैं वही दान मैं दूँगा,
रिक्त हाथ ना जाने दूँगा, जग में अपयश ना लूँगा।
सब सारा खेल रचाया है, अर्जुन का यश ना टूटे,
मेरे अमोघ से टकराकर, फिर उसके शर ना टूटे।
पर वीरों का रण में सोचें, ऐसे भी क्या होता है,
एक वीर की विजय चाह क्या, दूजा सर पर ढोता है।
हाथ बाँधना एक वीर का, इतना कहें उचित होगा,
ऐसे मुझे मारना प्रभुवर, कहें नहीं अनुचित होगा।
अच्छा होता युद्ध भूमि को, यदि जीता जाता बल से,
ऐसे रण का मोल कहें क्या, जो जीता जाये छल से।
ऐसे मुझे मार कर सुरपति, अर्जुन नहीं अमर होगा,
छल से जो जीता जायेगा, उचित कहें क्या रण होगा।
मुझसे है यदि युद्ध जीतना, तो पार्थ यही बस कर लें,
एक मोम की मूरत गढ़ कर, युद्ध भूमि में रख लें।
अपने खड्ग वार से उसका, वो प्राण वहीं हर लेंगे,
अपने मन की सारी इच्छा, पूरी ऐसे कर लेंगे।
परन्तु जीत नहीं सकता है, वो मुझको इस विधि रण में,
मुझे जीतने की इच्छा सब, बस रह जायेगी मन में।
जो अतिरिक्त तेज था मेरा, वो मुझसे छीन लिया है,
मत समझें के कवच माँग कर, अब मुझको हीन किया है।
युद्ध भूमि में अर्जुन अब भी, मुझसे जीत न पायेगा,
कर्ण विजय की आशा उसकी, खाली ही रह जायेगा।
अच्छा है के कवच माँग, अब मुझको सामान्य किया है,
वरना जगत यही कहता, कि कवच ने अहसान किया है।
जाने कैसी रेख लिखी थी, जो पग-पग छलता आया,
विधना ने भी मुझ किंचित को, है पग-पग बस तड़पाया।
जन्म दिया जिस माँ ने मुझको, क्यूँ लोक लाज वश छोड़ा,
मेरे हँसने से पहले ही, आँसू ने नाता जोड़ा।
सहता आया जनम-जनम, मैं बस इस दुनिया के ताने,
पर जो थी पहचान यहाँ, विधना आयी उसे चुराने।
जब-जब भी मैं हँसना चाहा, इस जग ने मुझे रुलाया,
सब कुछ पाया यहाँ जगत में, पर भाग्य उचित ना पाया।
पग-पग मुझको मिली वेदना, अरु काँटों पर चलना था,
चाहे जितनी शीतलता थी, पर मुझको तो जलना था।
अब शायद है प्रारब्ध यही, मैं मान इसे लेता हूँ,
कवच और कुंडल मैं अपना, अब दान दिए देता हूँ।
इतना सहज नहीं होता है, यूँ विजय दान में देना,
जीवन देना और किसी को, खुद मृत्यु वरण कर लेना।
उठा कृपाण कर्ण ने फिर, अपनी त्वचा चीर डाला,
कवच और कुंडल कर में, वो देवराज के डाला।
ऐसा अद्भुत दृश्य देख कर, प्रकृति पल भर सिहर गयी,
चकित हुआ ब्रहाण्ड समूचा, साँसें पल भर ठहर गयीं।
विस्मृत मन से देवराज तब, उसको ही देख रहे थे,
उसके मन की दानशीलता, बस मन में सोच रहे थे।
दिया वचन जो देवराज को, था उसको वहाँ निभाया,
कवच और कुंडल देते पल, वो तनिक नहीं घबराया।
बोझिल मन से देवराज ने, जाने की आज्ञा माँगी,
मन ही मन में दानशीलता, रह मौन कर्ण की मानी।
नहीं कहा कुछ अपने मुख से, अपने रथ की ओर बढ़े,
तनिक दूर तक चल पाये थे, रथ पहिये धरा में गड़े।
इक वाणी ने देवराज का, फिर थ्यान उधर को खींचा,
आकाशी वाणी को सुनकर, मन देवराज का भींचा।
छल से तुमने प्राप्त किया है, इस कवच और कुंडल को,
सोचो क्या इतिहास कहेगा, अब इस तुम्हारे छल को।
वाणी सुन देवराज का मन, आत्मग्लानि से भर गया,
रथ से उतरे देवराज तब, मुख फिर उसकी ओर किया।
फिर आता देख कर्ण ने, पूछा कहें और क्या इच्छा,
और बचा क्या पास हमारे, मैं पूर्ण करूँ जो इच्छा।
मेरा सब कुछ माँग लिया है, और बचा क्या देने को,
क्या अब देवराज आये हो, प्राण मिरा हर लेने को।
आत्म ग्लानि से भरा हुआ हूँ, हाँ मुझको है पछतावा,
मेरे छल ने हृदय दुखाया, अब और करूँ क्या दावा।
हूँ शर्मिंदा बहुत पुत्र मैं, अब और न मुझको करिये,
मन की इच्छा पूर्ण करूँगा, कुछ मन की अपने कहिये।
अब और नहीं कुछ कहने को, कुछ और नहीं माँगूँगा,
अब चाहे जो भी हो जाये, वरदान नहीं माँगूँगा।
कर्ण तुम्हारे तेज के सम्मुख ठहर नहीं पाता हूँ,
आत्म ग्लानि के बोझ तले मैं स्वयं दबा जाता हूँ।
ये है मेरा अपराध बड़ा जो निश्छल मन को मारा,
निश्छल मन के सम्मुख आकर अब देवराज भी हारा।
सच है मैं सम्मुख आया था, बस तुमसे छल करने को,
पुत्र मोह में पड़कर तुमसे, बस ये अमोघ हरने को।
छल से तुमको हीन बनाया, मैं कैसे अब जाऊँगा,
इतिहास मुझे धिक्कारेगा, कैसे मुख दिखलाऊंगा।
तेरे तप के आगे मैं अब, खुद को छोटा पाता हूँ,
अपने छल से यहाँ फँसाया, मन ही मन पछताता हूँ।
लौटा हूँ फिर पास यहाँ, मुझ पर एक कृपा बस कर दो,
मनवांछित फल पाओ जिससे, तुम ऐसा कोई वर लो।
धन्य हुआ है हृदय हमारा, कुछ देवराज को देकर,
मोल दान का चुक जाता है, बदले में कुछ भी लेकर।
जो मेरा कर्तव्य यहाँ है, बस मैंने वही किया है,
मुझसे जिसने जो भी माँगा, बस मैंने वही दिया है।
दानशीलता पुत्र तुम्हारी, प्रिय कोई पा न सकेगा,
जब तक सूरज चाँद गगन में, नाम तुम्हारा रहेगा।
तू माँगेगा नहीं यहाँ पर, प्रिय पुत्र मुझे ये पता है,
मनवांछित फल दूँगा तुझको, प्रण मैंने यही किया है।
मन में यदि संकोच बहुत है, किया ये मुझसे छल है,
युद्ध भूमि में डटा रहूँ मैं, बस मुझको इतना बल दें।
है मालूम नहीं माँगेगा, पर मुझको तो देना है,
मैंने छल से हृदय दुखाया, वरदान तुझे देना है।
इक अमोघ देता हूँ तुझे, जो काल को भी खायेगा,
एक बार जो वार किया तो, ये विफल नहीं जायेगा।
पर इसका प्रयोग तू केवल, एक बार कर पायेगा,
एक बार तरकस से निकला, लौट मुझे मिल जायेगा।
नहीं चलाना यूँ ही इसको, जब तक न बड़ा संकट हो,
कोई उपाय नहीं रहे जब, या फिर स्थिति बड़ी विकट हो।
दानशीलता पुत्र तुम्हारी, युग-युग तक सब गायेंगे,
दैत्य, देव हों या नर हों, तुझको आदर्श बताएंगे।
दिव्य अस्त्र दे दिया कर्ण को, देवराज फिर चले गये,
यूँ ही व्यर्थ न करना उसको, शब्द कर्ण से कहे गए।
भाग 9 समाप्त
भाग- 10- कर्ण- कुंती संवाद
दबे पाँव आ रहा प्रलय, उस शांति काल को हरने को,
रचने को इक नई सदी, फिर नई व्यवस्था करने को।
प्रलय द्वार पर खड़ा हुआ, इतिहास बदलने वाला था,
विकराल शांति क्षय होने, पाषाण पिघलने वाला था।
त्राहि-त्राहि चहुँओर मचेगी, घनघोर प्रलय आएगा,
दूषित होगी सौम्य सभ्यता, अँधियार घना छायेगा।
सूर्योदय के साथ जगत में, महामृत्यु का तांडव है,
कौरव होंगे एक छोर तो, दूजे पर पांडव हैं।
होगा खेल मृत्यु का ऐसा, सभी प्रथा हाँ टूटेंगी,
बदलेगा इतिहास धरा का, सभी व्यवस्था टूटेगी।
भाई का दुश्मन भाई बन, इक दूजे को मारेंगे,
नैतिकता का मोल गिरेगा, सभी चेतना हारेंगे।
संहार समय यहाँ लिखेगा, छिटक दूर सब जाएंगे,
सत्य-असत के धर्म युद्ध में, मिथक टूट सब जाएंगे।
व्याकुल मन में सोच रही थी, कुंती एक-एक पल को,
भाई-भाई सम्मुख होंगे, क्या होगा जाने कल को।
कैसे देखेंगी आँखे ये, भाई को भाई मारे,
टूटेगा ये हृदय हमारा, कैसे मन इसे विचारे।
एक कोख के जन्मे सारे, इक दूजे के दुश्मन हैं,
किसको जाकर कहूँ हृदय की, सारे मेरे ही धन हैं।
कल प्रात की किरणों के संग, कब जाने क्या होगा,
प्राण हरेगा अनुजों के या, फिर स्वयं प्राण दे देगा।
युद्धभूमि में चाहे जो हो, पर हृदय फटेगा मेरा,
दोनों में से कोई हत हो, पर रक्त गिरेगा मेरा।
किससे मन की बात कहूँ, अब कौन व्यथा मानेंगे,
विश्वास करेगा कौन यहाँ, बस लोग कथा मानेंगे।
टूट रही हूँ किसे कहूँ मैं, अब अपने मन की बातें,
किसे सुनाऊँ कौन सुनेगा, निज मन की ये आघातें।
आज पितामह मौन पड़े हैं, अरु गांधारी बेमन हैं,
पुत्र मोह में पड़े हुये हैं, धृतराष्ट्र बहुत ही खिन हैं।
धर्मराज क्या सुन पायेंगे, जो छुपा सत्य है मेरा,
समझेंगे क्या मन की मेरे, ये किस विपदा ने घेरा।
कैसे कह दूँ बात पुरानी, कैसे मैं बतलाऊँगी,
कैसे सम्मुख जाऊँगी मैं, कैसे मुख दिखलाऊँगी।
शायद अच्छा यही रहेगा, मैं पास कर्ण के जाऊँ,
अपने मन की व्यथा कहूँ मैं, ये ज्वाल उसे दिखलाऊँ।
मन में ऊहा पोह लिये वो, चल निकली विदुर भवन से,
कितने किंतु परन्तु ले चली, वो अपने मन ही मन में।
कभी लजाती सकुचाती थी, वो घबराती थी मन में,
चल पड़ी आस मन में लेकर, वो वहाँ कुंज कानन में।
मन में ले अभिलाषा कितनी, वो सरिता तट पर आयी,
मन में कितने बोझ लिये वो, थी शरमाई सकुचाई।
पश्चिम तट पर डूब रहा था, जब सूरज सांध्य गगन में,
संध्या पूजन में डूबा था, कौन्तेय वहाँ पर जल में।
तन से उसके टकराकर के, जल लहरें मचल रही थीं,
सांध्य रश्मियाँ तन को छूकर, उस जल में पिघल रही थीं।
देखा तेज पुत्र कर्ण का, कुंती फूली नहीं समायी,
पल भर को सब भूल गयी वो, थी कौन प्रयोजन आयी।
मन को उसके मिला सहारा, शीतलता मौन नयन को,
देख रही थीं उसकी नजरें, बस सुत के सुंदर तन को।
आहट अपने आसपास पा तब ध्यान कर्ण ने खोला,
अपने सम्मुख देखा उनको, कर जोड़ नमन कर बोला।
है देवी मैं राधासुत हूँ, आप किस प्रयोजन आईं,
ऐसा क्यूँ लगता है मुझको, हैं थोड़ी सी घबराईं।
युद्धभूमि ये कुरुक्षेत्र की, क्यूँ घबराया सा मन है,
मुख की आभा धूमिल लगती, क्यूँ थका-थका सा तन है।
बेहिचक आप कहिये मुझसे, क्या सेवा कर सकता हूँ,
कहें हृदय में है क्या आपके, जो पूरी कर सकता हूँ।
तब धीरज टूटा कुंती का , वो रुँधे कंठ से बोली,
काँप रहीं थीं साँसें उसकी, फिर धीरे से वो बोली।
राधा का तू पुत्र नहीं है, तू मेरा ज्येष्ठ तनय है,
जिसने हमको दूर किया है, हाय और नहीं समय है।
तीनों पुत्रों की ही भाँति, मेरी कोख का तू है अंश,
सूतपुत्र नहीं है प्यारे, तू भी है इस राज्य का वंश।
क्वांरेपन में उत्सुकता वश, मैंने तुझको पाया था,
असमय था वो समय बहुत ही, जब जीवन में आया था।
लोक लाज वश त्यागा था, मैंने तुझको निज जीवन से,
पर मैं त्याग नहीं पाई, अब तक अपने इस जीवन से।
क्वांरेपन में गर्भवती हो, यदि होती है कोई नारी,
हेय दृष्टि से सभी देखते, दोष बहुत है ये भारी।
तेरा रोष सही है मुझसे, जो मैंने तुझको त्यागा,
कौन यहाँ होगा दुनिया में, सच, तुझसे बड़ा अभागा।
धन्य-धन्य है वो माता, जिसने तुझे धरा पर पाला,
मुझ बदकिस्मत पर जिसका, ना अहसान उतरने वाला।
उसके सम्मुख कर जोड़ूँगी, उसका सम्मान करूँगी,
गले लगा कर सबके सम्मुख, मैं उसका मान करूँगी।
पर यहाँ सामने सम्मुख मैं, याचक बनकर आयी हूँ,
देने को कुछ नहीं पुत्र मैं, एक प्रार्थना लायी हूँ।
कल प्रात भोर की किरणें , एक नया अध्याय लिखेंगी,
रिश्तों की पृष्ठभूमि पर, एक नया पर्याय लिखेंगी।
विनती इतनी युद्धभूमि में, कल प्रात पुत्र मत जाना,
हाथ जोड़ कर यही माँगती, कुछ करना वहाँ बहाना।
पाण्डव तुझको मारेंगे, या तू पाण्डव को मारे,
कैसे सह पाऊँगी बोलो, दोनों में कोई हारे।
बहुत डरी मैं लोक लाज वश, पर अब मैं नहीं डरूँगी,
तू ही मेरा ज्येष्ठ तनय है, मैं जग से यहाँ कहूँगी।
आ लगा लूँ गले से तुम्हें, प्रिय नयनों में मैं भर लूँ,
बरस-बरस की प्यास हृदय की, अब पूर्ण यहाँ मैं कर लूँ।
हूँ अपराधी मैं प्रिय तेरी, अब मुझको यहाँ सजा दे,
पर इक बार मुझे माँ कहकर, प्रिय अपने हृदय लगा ले।
अब छोड़ द्वेष मन के सारे, आ मुझको गले लगा ले,
बरसों-बरसों तरसी हूँ मैं, आ मुझको अब अपना ले।
सोच युद्ध में कल जाकर के, तू मारेगा किस किसको,
है विनती तुझसे यही पुत्र, त्यागो अन्तस् के विष को।
रख दे अपना हाथ शीश पर, प्रिय दे-दे अपनी छाया,
मेरा कथन सत्य है सारा, तुम इसे न समझो माया।
ये युद्ध जीत कर कौरव से, कुरु कुल पर राज करोगे,
पाँचों पाण्डव सेवा देंगे, उन पर अभिमान करोगे।
मुझ पर विश्वास करो पुत्र तुम, दिल चीर कहो दिखलाऊँ,
तुमसे छल मैं नहीं करूँगी, अब कौन शपथ मैं खाऊँ।
पश्चिम तट पर डूब रहे जो, प्रिय देखो वहाँ गगन में,
जिसके प्रताप से दिवस चले, होता प्रकाश जीवन में।
उसी देव का सूत है तू, और नहीं सूर्य अंश है,
जन्मा नहीं सूत कुल में, तेरा कुल भी राजवंश है।
पुत्र वधू कुरु वंश की नहीं, माँ तुम्हारी आयी है,
विध्वंस रोक लो सूर्यपुत्र, विनती करने आयी है।
कहकर सूर्यदेव पश्चिम में, जा लहरों में डूब गये,
शायद माँ के सम्मुख अपना, वो तेजोमय भूल गये।
किया निवेदित नमन सूर्य को, राधेय मुड़ा फिर बोला,
तब कुंती को मुड़कर देखा, फिर धीरे से वो बोला।
बिन मेरे तुमने है काटा, अपना ये जीवन सुख से,
फिर क्यूँकर आयी हो कहने, अब पुत्र मुझे इस मुख से।
त्याग दिया था मुझे यहाँ पर,, जिस लोक लाज के भय वश,
फिर अब क्यूँ आयी हो लेने, तुम इस दुनिया का अपयश।
कोन बात है मन में कहिये, जो इतना घबराती हैं,
क्यूँ अपनी उस उत्कंठा पर, आँसू यहाँ बहाती हैं।
मुझ अनाथ को स्वीकारा था, मुझ पर है नेह लुटाया,
कौन वंश हूँ बिना विचारे, बस मुझको है अपनाया।
छोटे कुल में पला बढ़ा, तुम राजवंश की महारानी,
अब ऐसे मुझसे जुड़ने से, होगी कितनी बेमानी।
मुझे पता है सारी बातें, अब कहो न नई कहानी,
दुनिया के सम्मुख आयी तो, जग में होगी बदनामी।
छोड़ दिया था मुझे अकेला, अब क्यूँ कर पछताती हो,
आखिर ऐसी क्या मजबूरी, जो ये कथा सुनाती हो।
मुझे भटकता छोड़ दिया था, जब भूख प्यास से तुमने,
कौन बनेगा यहाँ सहारा, क्या सोचा था तब तुमने।
जब मुझको थी बहुत जरूरत, तुम लौट महल को आई,
एक बूँद पय की कब पायी, तुम सोच नहीं पछताई।
अब पछताने क्यूँ आयी हो, जब मैने सब कुछ हारा,
तुमसे मेरा अब क्या रिश्ता, अब क्यूँ मैं बनूँ सहारा।
मुझे छोड़कर वहाँ अकेला, जब तुम थी गयी महल में,
इक पल को क्या सोचा तुमने, क्या होगा मेरा जल में।
जल में मुझको छोड़ दिया था, जब तुमने भाग्य भरोसे,
फिर आयी हो यहाँ किसलिये, क्या चाह रही हो मुझसे।
अब जब अंतिम छोर पर खड़ा, हम सबका ये जीवन है,
क्यूँ आयी हो यहाँ माँगने, अब जीवन यहाँ मरण है।
तुम कहती दोषी तुम हो, बोलो अब इससे क्या होगा,
क्या लौटेगा दंश सभी, जो पग-पग मैंने है भोगा।
त्याग दिया जब तुमने मुझको, मुझपर अधिकार नहीं है,
तुमसे अब रिश्ता कैसे हो, तुमसे संसार नहीं है।
राधा ही अब माता मेरी, तुमसे अब अनुबंध नहीं,
अब मुश्किल है तुमसे रखना, जीवन में संबंध कहीं।
मुझे त्यागने के उस पल में, जब तनिक नहीं घबराई,
किस मुख से तुम मुझको अपना, अब तनय बताने आयी।
राधा ही माता मेरी, अब सब अधिकार उसी का है,
तुमसे है कैसा रिश्ता, मेरा संसार उसी का है।
तुम पाँच पुत्रों की माता हो, मुझे नहीं कोई दुख है,
जो कुछ मेरी किस्मत में था, मुझको उससे ही सुख है।
बहुत सुखी हूँ जीवन में, राधा ने मुझको अपनाया,
पूर्व जन्म का ही फल है, मात रूप में उसको पाया।
तुमने उचित किया या अनुचित, चर्चा का ये विषय नहीं,
रिश्तों पर अब पुनः विचारूं, ऐसा अब ये समय नहीं।
जाति, गोत्र, कुल मर्यादा, इसको विध्न न माना मैंने,
अपने भुजबल पौरुष को, बस पहचान बनाया मैंने।
जग के तानों में ही मैंने, अपनी पहचान बनाई,
नहीं किसी के सम्मुख जाकर, अपनी ये व्यथा सुनाई।
तुमने मुझको खोकर भी, सबकुछ इस जीवन में पाया,
पर मैंने इस जीवन में, बस पग-पग सम्मान गँवाया।
जिनकी किस्मत में जीना है, वो किस विधि भी जीते हैं,
जिनका सर पर हाथ समय का, विष अमृत सा पीते हैं।
त्यागा तुमको लोक लाज वश, अब कैसे मैं समझाऊँ,
समझ नहीं पाती हूँ कैसे, अब तुमसे आँख मिलाऊँ।
क्षम्य नहीं अपराध मिरा ये, कितनी कहूँ अभागी हूँ,
कैसे कहूँ याद में तेरी, रात-रात भर जागी हूँ।
बहुत दूर आ गया देवि मैं, सब छोड़ पुरानी बातें,
नहीं फायदा कुछ भी सुनकर, अब बीती वो आघातें।
अब तक तुमने मुझको जो, अपनी ये व्यथा सुनाई है,
तुमसे पहले मुझे यहाँ, केशव ने कथा सुनाई है।
नहीं क्षोभ है मन में कोई, बस डरती हो इस रण से,
किसी विधा भी साथ हमारा, बस टूटे दुर्योधन से।
नहीं मोह मुझसे कोई, और न बल देने आयी हो,
मुझे तोड़ अर्जुन को केवल, संबल देने आयी हो।
सुरपति भी आकर के मुझसे, ले गए कवच कुंडल को,
माता भी सम्मुख हैं आयी, अब यहॉं तोड़ने बल को।
बात तुम्हारी मान कर अब, युद्ध भूमि से हटना मुश्किल है,
बीच मार्ग में साथ छोड़ना, मित्रता नहीं है छल है।
जाओ जा अर्जुन से कह दो, अब और कहीं छुप जाए,
युद्ध भूमि आने से अच्छा, वो अपना सौभाग्य मनाये।
मेरा रोम-रोम उपकृत है, बस दुर्योधन के ऋण से,
दुर्योधन का साथ न छोड़ूँ, मैं नहीं हटूँगा प्रण से।
कहता जाता व्यथा हृदय की, झर-झर आँसू बहते,
नहीं सूझता था दोनों को, अब कैसे दुख वो सहते।
खाली हाथ लौट जाती हूँ, कर कुछ और नहीं सकती,
तुमको या फिर पांडव को मैं, मरता देख नहीं सकती।
समझ चुकी हूँ रुकने का, मेरे अब न कोई अर्थ है,
तुम्हारे प्रण के सम्मुख, अब मेरी वेदना व्यर्थ है।
सोचा था इस जीवन में, जो खोया था फिर पाऊँगी,
पाँच नहीं छह पुत्रों की, अब मैं माता कहलाऊँगी।
पर शायद मेरी किस्मत में, और नहीं बस रोना है,
पुत्रों के हाथों पुत्रों को, युद्धभूमि में खोना है।
दोष नहीं तुम्हारा सुत, ये सारा दोष हमारा है,
देव, दनुज या मानव सब, विधना के आगे हारा है।
सोचा था कि पास तुम्हारे, मैं झोली फैलाऊँगी,
तुमको फिर से पाकर सूना, अंक नहीं ले जाऊँगी।
पर जाने से पहले आ जा, मैं सोया भाग्य जगा लूँ,
मेरे सम्मुख आ जाओ सुत, मैं तुमको गले लगा लूँ।
माता के क्रंदन के सम्मुख, विधना भी अब हारी थी,
ममता के आँसू के सम्मुख, सभी वेदना हारी थी।
गले लगा कुंती को उसने, आँसू झर-झर बहते थे,
सदियों की अनबुझी प्यास को, दोनों कब से सहते थे।
इक दूजे को गले लगाकर, दोनों बस पछताते थे,
संध्या के उन मौन पलों में, आँसू बहते जाते थे।
दो बिछड़ों का मिलन देख कर, वहाँ सभी कुछ खोया था,
कौन कलम ले रेख बनाई, विधना भी तब रोया था।
मुझको तुमने गले लगाया, इस अंत समय में आकर,
धन्य-धन्य हो गया कर्ण अब, माँ तेरी गोदी पाकर।
मेरी भी इच्छा है तुमको, मैं कह कर मात बुलाऊँ,
आगे जो भी जनम मिले माँ, मैं तेरी गोदी पाऊँ।
रिक्त हाथ लेकर आई हो, रिक्त नहीं जाने दूँगा,
दानशीलता के चरित्र पर, आँच नहीं आने दूँगा।
मनवांछित इच्छा दे न सका, पर रिक्त नहीं जाओगी,
पाँच पुत्र की माता हो तुम, पाँच की ही कहलाओगी।
मेरा युध्द पार्थ से केवल, बस उस पर वार करूँगा,
बाकी चार के सम्मुख नहीं, मैं रण में वार करूँगा।
अर्जुन से रण की खातिर, हूँ कर रहा प्रतीक्षा मैं,
उसको विजित करूँ जीवन में, जी रहा इसी इच्छा में।
तुमसे मेरा प्रण है इतना, न चारों पर वार करूँगा
यदि पार्थ वहाँ सम्मुख होगा, उसे न स्वीकार करूँगा।
दुर्योधन को जीत सकेगा, बस मुझको यहाँ हराकर,
गोद सदा ही भरी रहेगी, पांच पुत्र ही पाकर।
कैसा दुख है वहाँ जहाँ पर, खुद केशव ही सम्मुख हैं,
पक्ष में जिनके धर्म खड़ा है, उनको तू सुख ही सुख है।
विजय हुई यदि कुरुकुल की तो, प्रण है के मैं आऊँगा,
कोई कष्ट न आने दूँगा, चारों को अपनाऊँगा।
चूमा मस्तक कुंती ने फिर, उसको बाहों में भरकर,
झर-झर-झर बह रहे अश्रु थे, उन के चरणों को छूकर।
मौन रही कुंती पछताती, अब कहती वो क्या मुख से,
लौट चली सांध्य के संग में, वो वहाँ बड़े ही दुख से।
भाग 10 समाप्त
भाग 11
जग में पौरुष क्या केवल, बल दिखलाने से होता है,
धर्म मार्ग पर समझौता, क्या इतिहासों को ढोता है।
स्वार्थ सिद्धि की खातिर जिसने, रिश्तों का अपमान किया,
कुंठित मन की अभिलाषा को, जग ने कब सम्मान दिया।
अंतर्मन क्या हीन हुआ है, धर्म मार्ग पर झुकने में
श्रेष्ठ मनुजता रह पायेगी, क्या कहो प्राण हरने में,
सत्य-धर्म के मार्ग पर जो, डग-डग कदम बढ़ाएगा,
सदियों-सदियों तक जीवन ये, उसका ही गुण गायेगा।
कोष नहीं संतोष से बड़ा, धर्म ग्रन्थ सब कहते हैं,
जिनके मन संतोष नहीं हो, वो पीड़ा में रहते हैं।
जिनकी खातिर धर्म बड़ा है, सत्य वहीं पर पलता है,
झूठ जहाँ आश्रय पाता है, हिंसा ही फल मिलता है।
साथ खड़ा जो अधर्म के, पथ अपने काँटे बोता है,
खोता है तन मन धन सब, वो जीवन भर बस रोता है।
औरों की पीड़ा से खुद को, जो भी जोड़ न पाया है,
मानवता की बेदी पर बस, जीवन भर पछताया है।
लोभ-मोह, क्रोध द्रोह के, बंधन को ना तोड़ सका,
डूबा बस वो महा प्रलय में, लहरों को ना मोड़ सका।
जीवन वही सुलभ होता है, वही जीतता है जग को,
सत्य धर्म के मार्ग रखा हो, जीवन भर जिसने पग को।
पद मान प्रतिष्ठा पर अपने, जो भी नर अकुलाता है,
अनचाहे वासना जाल में, जीवन उलझा जाता है।
अहित धर्म का होता है, केवल अधर्म सहने से,
आश्रय असत्य को मिलता है, मौन सत्य के रहने से।
अनीतियों के विरुद्ध जब-जब, मौन रहा मानव प्रबुद्ध,
नीति जगत में स्थापित करने, होता है तब धर्मयुद्ध।
फिर धर्मयुद्ध छिड़ गया वहाँ, उस कुरुक्षेत्र के रण में,
हा, त्राहि-त्राहि कर उठी धरा, तब चीख उठी कण-कण से।
नरमुंडों से पटी धरा में, रिश्ते छूटे जाते थे,
उस इक पल के अवहेलन से, मिथ सब टूटे जाते थे।
युद्ध क्षेत्र में नए बने कुछ संबन्ध पुराने टूटे थे,
और पितामह के प्रताप से केशव के प्रण टूटे थे।
प्रेम धर्म से जो होता है, स्वयं ईश भी आते हैं,
प्रिय भक्तों के संरक्षण हेतु, खुद भी शस्त्र उठाते हैं।
गिरा वहाँ वटवृक्ष वंश का, धरती का दिल काँप उठा,
हाहाकार मच गया रण में, कुल का तेज प्रताप गिरा।
गिरे पितामह युद्ध भूमि में, धैर्य सभी ने खोया था,
केवल कुरूपति नहीं वहाँ पर, अर्जुन का दिल रोया था।
गिरे पितामह युद्ध भूमि में, तेज वंश का हुआ लुप्त,
लेकिन ये धरती वीरों से, हुई यहाँ कब कहो लुप्त।
बाद पितामह युद्ध भूमि में, सेनापति गुरु आर्य हुए,
रणनायक बन कुरु सेना के, रक्षक वहाँ आचार्य हुए।
अवहेलना उस रणभूमि में, मुश्किल से सह पाता है,
होकर भाव विभोर कर्ण तब, पास, पितामह जाता है।
भाग 11 समाप्त
भाग 12- कर्ण-पितामह संवाद
युद्धभूमि में जाने को, आशीष पितामह पाने को,
लेकर मन में भाव चला, अपना सद्धर्म निभाने को।
कर जोड़ पितामह के सम्मुख, नतमस्तक हो चरण छुआ,
स्पर्श पितामह का पाकर के, अंतर्मन में विकल हुआ।
आशीष प्राप्त करने सम्मुख, कर्ण, पितामह आया है,
और नहीं दे सका आपको, अश्रु नयन में लाया है।
जो आदेश मुझे हो तो, अब युद्ध क्षेत्र में धनुष धरूँ,
कुरूपति के रक्षण को तात, अब युद्ध भूमि में चरण धरूँ।
देखूँ मैं भी युद्ध भूमि में, वीर कौन सा आया है,
कौरव की अविजित सेना पर, जिसने प्रलय मचाया है।
किसके बाणों के प्रहार से, धरती अंबर डोल रहे,
किसके सम्मुख रणवीरों के, त्राहि-त्राहि मुख बोल रहे।
मुझको दें आदेश तात, अब युद्ध भूमि में जाऊँ मैं,
विजय दिलाऊँ कुरूपति को, या वीरगती को पाऊँ मैं।
मुँदे नयन को भीष्म देव ने, सुने कर्ण को फिर खोले,
देख कर्ण के आर्द्र नयन को, फिर धीरे से वो बोले।
शेष बचा क्या तत्व कहो, अब और यहाँ इस जीवन में,
अब तो केवल शेष बचे, आँसू ही मेरे लोचन में।
चाहा कितनी बार यहाँ पर, मैं रोक सकूँ इस रण को,
अफसोस यही समझा न सका, यहाँ हठी दुर्योधन को।
जहाँ चेतना सुप्त हुई है, विश्वास जहाँ सोता है,
बिखरा है जीवन सारा, वो समाज बस रोता है।
कब विवेक हीन मनुज मन को, मिलती है उत्तम छाया,
उसको तो घेरे रहती है, निकृष्ट लोभ मोह माया।
धर्म युद्ध चल रहा यहाँ, एक अधर्म दूजा धर्म है,
बीच कहीं रेख पर खड़े, सोचो धर्म किधर अधर्म है।
इसलिए पुत्र सोचो कि अब, परिणाम कहाँ तक जायेगा,
अपने पौरुष से पूछो, क्या खोयेगा क्या पायेगा।
धर्म-अधर्म के कुरुक्षेत्र में, जो लेख लिखी जायेगी,
वही प्राप्य होगा इस युग का, सदियाँ-सदियाँ गायेगी।
पुत्र तुमसे कोई द्रोह नहीं, तुमसे कहीं विद्रोह नहीं,
तुम दानवीर पावन चरित्र, तुमसा होगा नहीं मित्र।
हे वीर पुत्र तुम हो सबल, है दुर्योधन तुमसे संबल,
जाकर उसको समझाओ, मेरा संदेशा पहुँचाओ।
उसने मेरी कब सुनी यहाँ, अपने मन की किया यहाँ,
मुझको भी कब पहचाना, बस सदा मुझे दुश्मन माना।
मैं सिंहासन से बँधा रहा, मौन इसलिए सदा रहा,
प्रण अपना तोड़ नहीं पाया, मैं सब छोड़ नहीं पाया।
है हठी बहुत ही दुर्योधन, तुमसे पाकर आश्वासन,
कब और किसी की सुना यहाँ, अपने मन की किया यहाँ।
देख कहाँ ले आया है, सोचो क्या किसने पाया है,
यदि ऐसा होता जाएगा, कौन कहो बच पायेगा।
तुम मुझ पर ये उपकार करो, मेरे मन का भार हरो,
क्या कहो मिलेगा लड़ने से, प्राण एक का हरने से।
मेरा बस इतना काम करो, बंद यहीं संग्राम करो,
पांडव कौरव सब मिल जाएं, इक दूजे को अपनायें।
कर्ण ने कहा हे कुरु प्रमुख, कैसे हूँ अब वचन विमुख,
उसका सुख-दुख अपनाने को, हर पल साथ निभाने को।
बचा कहें क्या शेष रहा, अब कुछ भी नहीं विशेष रहा,
शांति-शांति चिल्लाने से, कायरता पीठ दिखाने से।
युद्ध भूमि में लड़ते-लड़ते, चले गए क्या आएंगे,
लम्हों ने यदि शस्त्र धरा, सदियाँ कायर कहलायेंगे
संभव नहीं यहाँ रुक पाना, विजय द्वार मुझको जाना,
ये संधि मार्ग अब मुश्किल है, विजय लक्ष्य ही मंजिल है।
आशीष दीजिये भीष्म देव, अब जीत सकूँ मैं ये रण,
मैं रचूँ एक इतिहास नया, देखूँ फिर ये दिव्य चरण।
ये शांति मार्ग अब दुर्गम है, युद्ध भूमि में जीवन है,
इक ओर शांति इक ओर युद्ध, सोचूँ अब क्या बन प्रबुद्ध।
अब वक्त नहीं पछताने का, मुश्किल वापस जाने का,
अब मृत्यु देख घबराना क्या, जीवन से ललचाना क्या।
विश्राम करूँ ये समय नहीं, युद्ध भूमि में विनय नहीं,
बस लक्ष्य विजय अब करना है, जीना है या मरना है।
हे महाश्रेष्ठ विश्वास करें, मन में थोड़ी आस धरें,
यूँ हिम्मत अपनी मत छोड़ें, युध्द से मुख अब न मोड़ें।
अर्जुन से मुझको लड़ना है, उसे पराजित करना है,
मैं उसका शीश झुकाऊँगा, विजय द्वार पर लाऊँगा।
जब दृढ़ता है इतनी प्रण में, करो वही जो है मन में,
जा, अपना प्रण संधान करो, युद्ध भूमि में नाम करो।
छूकर चरण वंदना करके, चला कर्ण मन दृढ़ करके,
वो युद्ध भूमि की ओर चला, प्रण लेकर घनघोर चला।
भाग-12 समाप्त
भाग- 13- कर्ण युद्ध भूमि में
अगले दिन युद्ध भूमि में, कुरु सेना ने हुंकार किया,
कुरूपति ने कर्ण को वहाँ, जब सेना का अधिकार दिया।
पाकर विश्वास नया मन में, कुरु सेना आयी रण में,
अब चहुँदिस यही पुकार उठी, कुरु सेना हुंकार उठी।
युद्धवीर का रण छूटा, बनकर कर्ण प्रलय टूटा,
सर तन से उजड़े जाते थे, पाण्डव बिखरे जाते थे।
काँप उठा था वहाँ समर, जब टूटा बन राधेय कहर,
अब काँप उठी धरती सारी, अरिदल पर था वो भारी।
सब अपने प्राण बचाते थे, देख उसे छुप जाते थे,
देख कर्ण का रौद्र रूप सब, त्राहि-त्राहि चिल्लाते थे।
सेना का ऐसा हाल देख, सबको यूँ बेहाल देख,
केशव बोले हो सावधान, सेना को दो अभयदान।
प्रचंड इसका हर प्रहार, रोको इसका हर एक वार,
ऐसे जीत न पाओगे, जब तक इसको न हटाओगे।
ऐसे क्यूँ कर देख रहे, कुछ करो पार्थ क्या सोच रहे,
हाथ धरे रह जाओगे, तो फिर पीछे पछताओगे।
यदि इसे न रोका जायेगा, युद्ध यहीं चुक जायेगा,
प्रण सभी धरे रह जायेंगे, पांडव जीत न पायेंगे।
अर्जुन फिर हुंकार उठा, कर्ण को देखा दहाड़ उठा,
केशव रथ ले चलो उधर, देखूँ उसका मैं तेज प्रखर।
सावधान पार्थ क्या सोचते हो सम्मुख हूँ वार करो,
या अच्छा होगा अपनी पराजय यहाँ स्वीकार करो।
आओ करें पूर्ण दोनों, यहाँ जिस प्रयोजन आये हैं,
भाग्य का आभार है जो, ये दिन हमको दिखलाए हैं।
हाँ रहेगा कौन पल में, यहाँ पार्थ अब बतलायेगा,
अब अंत तक इस युद्ध को, यहाँ पार्थ ही ले जाएगा।
होगी विजय किसकी पराजय, समय यहाँ बतलायेगा,
इस पल यहाँ जो कुछ रचेगा, इतिहास उसे गायेगा।
अब आज इस रणभूमि में, हमें प्रण पूर्ण सब करना है,
काट कर के शीश तेरा, आहूति धर्म को देना है।
कहकर अर्जुन ने अपने, ले धनुष बाण संधान किया,
अपने अरि की ताकत का, बिन सोचे ही अनुमान किया।
कहा कर्ण ने पार्थ वीर हो, लगता क्यूँ घबराये हो,
केवल आवेशित मन लेकर, युद्धभूमि में आये हो।
मेरा सँभालो वार तुम, यमलोक यही पहुँचायेगा,
भान नहीं होगा जिसका, वो दृश्य यही दिखलायेगा।
बाणों पर बाण प्रहार किया, अर्जुन ने हुंकार किया,
क्यूँ कमजोरों से लड़ते हो, मुझसे क्या तुम डरते तो।
दोनों फिर सम्मुख आये, यूँ लगा कि पर्वत टकराये,
दूजे का बल नाप रहे, अब देव-दैत्य सब काँप रहे।
जब शर से शर टकराते थे, वज्र टूट गिर जाते थे,
धरती अंबर आकाश गगन, मौन हुई था वहाँ पवन।
नजर जहाँ भी पड़ती थी, बस चीख सुनाई पड़ती थी,
लाशों का अंबार हुआ, अब युद्ध बहुत खूंखार हुआ।
कर्ण के हर इक वार पे, रथ इधर-उधर ले जाते थे,
सारथी के व्यवहार को, अर्जुन समझ न पाते थे।
देख कर्ण की युद्ध विविधता, केशव कुछ चिंतित हुए,
तीव्र कर्ण के एक वार से, कुछ क्षण पार्थ मूर्छित हुए।
देख कर्ण का वार प्रखर, पांडव में हाहाकार हुआ,
लगे पूछने वो सबसे, क्या अर्जुन का संहार हुआ
छूकर मृत्यू के पट को अर्जुन मूर्छा से प्रकट हुआ,
क्रोधाग्नि थी फूटी हृदय में अब युद्ध बहुत विकट हुआ।
कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में, कितने निश्चय टूटे थे,
मन में कितने दबे रह गये, कितने संशय छूटे थे।
इक-इक कर चारों पांडव, कर्ण से सभी जन हारे थे,
लेकिन माँ को वचन दिया, इसलिए न उनको मारे थे।
युद्ध भीषण हो चुका था, परिमाण सारा खो चुका था,
सब नीतियाँ अवरुद्ध थीं, प्रवृत्तियाँ सारी क्रुद्ध थीं।
चँहुओर हाहाकार था, गिरता दिख रहा संस्कार था,
आज किसको कौन टोके, इस युद्ध को अब कौन रोके।
है परिवर्तनों का ये समय, सर नाचता था बस प्रलय,
क्या समय का ये आकार था, क्या युद्ध ही व्यवहार था।
मद मोह में सब चूर होकर, जा रहे सब दूर होकर,
सब नैन आँसू खो रहे थे, रक्त से पग धो रहे थे।
कब कौन किसको पूछता है, युद्ध में क्या सूझता है,
कब युद्ध में कुछ राह होती, बस विजय की चाह होती।
जिस ओर देखता कर्ण उधर, पांडव सेना हारी थी,
नए समीकरण बने युद्ध में, कौरव सेना भारी थी।
मुड़ता था राधेय जिधर भी, हाहाकार उधर मचता,
उसके खूंखार प्रहारों से, इधर-उधर था अरि छुपता।
केशव ने कहा पार्थ से, है वीर बहुत ये बलशाली,
इसके हाथों का प्रहार, नहीं गया है अब तक खाली।
बचपन से ही दोनों को, मैं वीर मानता आया हूँ,
लेकिन इसकी युद्ध कला, को श्रेष्ठ जानते आया हूँ।
इसके जैसे ही तुमको, चमत्कार दिखलाना होगा,
विद्या जो पाई तुमने, सभी युद्ध में लाना होगा।
इस परम वीर का बल देखूँ, सोच रहा मन ही मन में,
क्या इसको जीत सकोगे तुम, इस भाँति यहाँ इस रण में।
जब भी इसपर वार किया, रथ दूर हुआ इसका रण में,
केशव केवल आह भरी, क्यूँ इसकी खातिर ही मन में।
सांध्य निकटतम देख कर्ण ने, किया वहाँ संग्राम घोर,
सहसा गरज उठा रण में, धरती अंबर छोर-छोर।
सम्मुख तेरे प्रलय खड़ा, अब अंत दिवस तुम्हारा है,
पार्थ ईष्ट की याद करो, तुम्हारा वही सहारा है।
सांध्य पलों का अंतिम क्षण है, युद्ध आज चुक जाएगा,
ये मत सोचो केशव का प्रण, तुझको यहाँ बचाएगा।
ले चला रथ तीव्र गति से, वो पार्थ के सम्मुख वहाँ पर,
स्वयं भगवन सारथी बन, थे युद्ध में प्रस्तुत जहाँ पर।
थे पलक झपके अभी तक, के शल्य रथ ले आन पहुँचा,
युद्ध का अंतिम चरण अब, लगने लगा अब आन पहुँचा।
हाय पर किस्मत को वहाँ पर, कुछ और ही स्वीकार था,
पर थी लिखी कुछ और किस्मत, कुछ और ही स्वीकार था।
धर्म के ऊपर कहाँ तक, ये अधर्म चढ़ कर जायेगा,
ऐसा इक दिन आएगा, जब अधर्म खुद ही जाएगा।
कब कौन कितने दिन रहेगा, रेख में सबके लिखा है,
किसकी कहाँ कितनी कहानी, लेख में सबके लिखा है।
धर्म आहुतियाँ माँगती है, श्रेष्ठ है क्या जानती है,
वो जानती है न्याय करना, कुटिलता संज्ञान करना।
कर्म की परछाइयाँ भी, कब छोड़ती हैं जिंदगी को,
रेख में लिखती हमेशा, हर शब्द को हर बन्दगी को।
है गलत जो कुछ यहाँ पर, वो सर्वदा अनुचित रहेगा,
है अधम व्यवहार यदि तो, परिणाम भी मिलकर रहेगा।
दो वीरों के मध्य युद्ध इक मोड़ पे आकर फँस गया,
जब तक कर्ण समझ पाता रथ का पहिया धरा धँस गया।
रण के निर्णायक पल में, असमर्थ स्वयं को पाता है,
अनहोनी आशंका में, मन उलझा-उलझा जाता था।
जोर लगाया अश्वों ने पर, नहीं धरा ने रथ छोड़ा,
जब वृथा हुए साधन सारे, शल्य विवश हो कर जोड़ा।
हे वीर तनिक आ जाओ, आकर अपना जोर लगाओ,
आओ इसे झकझोरते हैं, रथ को तनिक मोड़ते हैं।
कैसे पहिये यहाँ निकालूँ, राह नहीं सूझे कोई,
लगता है इस युद्ध भूमि में, किस्मत है सोई-सोई।
हे वीर बड़ी विपदा भारी, कौन घड़ी में आई है,
सर पर देखो मृत्यु खड़ी है, कैसी विपदा आयी है।
ऐसे क्षण में रथ का धँसना,अवश्य यहाँ कुछ बात है,
इसमें भी कुछ तो छल होगा, या फिर किया आघात है।
हँसा कर्ण मन ही मन में, उसके जैसा कौन भुवन में,
कैसा अब ये पल आया, सोच रहा क्या खोया-पाया।
रथ से उतरा कर्ण धरा पर, पहिये पर हाथ रखा फिर,
उसने पूरा जोर लगाया, मगर तनिक हिला न पाया।
धरती डोली अंबर डोला, विद्यमान कण-कण डोला,
हाय कर्ण की किस्मत देखो, पर मही से रथ न डोला।
यूँ कर्ण को ऐसे फँसा देख, रथ का पहिया धँसा देख,
उसको यूँ बेहाल देखकर, स्थितियों का हाल देखकर।
देख पार्थ को माधव बोले, सोच रहे क्या अब भोले,
युद्ध का अंतिम पल यही है, वार करो समय सही है।
जो समय निकल ये जायेगा, ऐसा पल ना आयेगा,
फिर मार इसे ना पाओगे, पछताते रह जाओगे।
अब सोचते हो पार्थ क्या, अरि संहार का अवसर यही,
है बहुत मुश्किल मिलेगा, यहाँ फिर तुम्हें मौका सही।
चले शस्त्र हृदय के पार हो, अरि का यहीं संहार हो,
युद्ध में, तुम्हारी जीत हो, सत स्थापना की रीत हो।
क्या उचित ये कर्म होगा, मलिन नहीं युद्ध धर्म होगा,
तू अभी क्या जानता है, क्या धर्म है पहचानता है?
मैं कहूँ जो तेरा कर्म है, शत्रु का वध ही धर्म है,
वृथा जो चिंतन में फँसेगा, काल तुझको ही ग्रसेगा।
पाप पुण्य छोड़ मुझपे वृथा भार सारा छोड़ मुझपे,
तू क्यूँ अकेला भार ढोता, वृथा कालाहार होता।
केशव की बातें सुनकर के, तब हृदय कर्ण का डोला
देखा उधर वो घबराकर के, फिर धीरे से वो बोला।
युद्ध धर्म से विमुख हुए तो, सोचो जय कैसी होगा,
निशस्त्र पर यदि वार करोगे, जीत कहो कैसी होगी।
हरि मुख से शब्द सुन कर्ण का दिल भय वश डोल गया
सुना जो शब्द हरि मुख से, राधेय भय से बोल गया।
जो हथियार उठाओगे, सोचो क्या वीर कहाओगे,
मुझको हथियार उठाने दो, समकक्ष मुझको आने दो।
सोचो इतिहास कहेगा क्या, तुमको माफ करेगा क्या,
ऐसे तो न्याय नहीं होगा, ये अन्याय बहुत होगा।
किस मुख से कहते हो कर्ण धर्म अधर्म की बात यहाँ,
दुर्योधन के हर अधर्म में, दिया हमेशा साथ वहाँ।
भीम को जब विष दिया था, तब कहाँ था धर्म बोलो,
लगाई आग लाक्षागृह में, क्या हँसा था धर्म बोलो।
नारी का अपमान हुआ जब, तुम वहाँ क्या कुछ कहे थे,
चीर हरा जब द्रौपदी का, देख कर तुम भी हँसे थे।
द्रौपदी को जब वहाँ दासी बुलाया,
सभ्यता संस्कार सब तुमने भुलाया।
जब भी खोला मुख बस अपशब्द बोला,
द्रौपदी को देख कर खरशब्द बोला।
पांडव चले वनवास जब सब हारकर,
तब क्यूँ हँसा था झूठ सच को मारकर।
शकुनी ने किया जो वहाँ क्या धर्म था,
तुम ही कहो क्या जो हुआ सत्कर्म था।
अपराध था क्या कि अपना राज माँगा,
कह सकोगे दोष के क्यूँ ताज माँगा।
धर्म के उस राह पर क्यूँ छल मिला था,
वनवास क्यूँ श्रेष्ठता का फल मिला था।
शांति से रहना यहाँ वो चाहते थे,
कब किसी का राज बोलो चाहते थे।
पाँच माँगा गाँव क्या माँगा यहाँ पर,
दे सके ना भूमि उनको क्यूँ यहाँ पर।
शांति की खातिर सभी अधिकार छोड़ा,
मान रखने धर्म का घर-बार छोड़ा।
कौन ऐसे तुम कहो सब छोड़ता है,
सारे सुख से ऐसे मुख मोड़ता है।
दोष क्या था जो कि ये वनवास भोगा,
या कहो क्यूँ ये अज्ञातवास भोगा।
कौरवों ने जो किया वो धर्म था क्या,
यातना जो भी दिया वो धर्म था क्या।
थे पितामह मौन क्यूँ उस रोज बोलो,
ना गिरा था धर्म क्या उस रोज बोलो।
जब सत्य को पल-पल मिली थी वेदना,
तब मौन थी क्यूँ धर्म की ये चेतना।
छला व्यूह में कहो क्या सही कर्म था,
अभिमन्यू वध कहो क्या सही धर्म था।
निशस्त्र पर वार वहाँ जब तुमने किया,
धर्म का मान बोलो कब तुमने किया।
क्यूँ आज निहत्थे रोते हो, अभिमन्यू को याद करो,
छल से सबने कैसे मारा, तनिक उसे भी याद करो।
एक निहत्थे बालक पर, तुम सबने मिलकर घाव किया,
माफ नहीं इतिहास करेगा, ऐसा तुमने घाव दिया।
सोचो कितना तड़पा था वो, पीछे से जब मारा था,
युद्ध भूमि की नैतिकता सब, उस दिन ही सच हारा था।
बचपन से जो पीड़ा पाई, पांडव का क्या दोष कहो,
जो भी तुमने पग-पग झेला, उसमें इनका दोष कहो।
दुर्योधन के हर पापों में, तुम भी भागीदार रहे,
जब-जब गिरा है धर्म बोलो, तुम भी जिम्मेदार रहे।
क्यूँ वृथा अभिमन्यु पर तो बोलते हो,
पर किया जो द्रोण से क्यूँ भूलते हो।
पितामह को हराया छल से तुमने,
युद्ध को यहाँ निभाया छल से तुमने।
हाँ, सुयोधन दूर कितना जा चुका है,
धर्म के प्रतिकून कितना जा चुका है।
पांडवों ने भी यहाँ पर धर्म छोड़ा,
जीतने को युद्ध सब सत्कर्म छोड़ा।
कैसे उनको श्रेष्ठ अब बतलाओगे,
कैसे अब अपराध सब झुठलाओगे।
बस मित्रता मेरा निभाना धर्म था,
करूँ उसकी सुरक्षा मेरा कर्म था।
थक गया है पार्थ मुझसे युद्ध करके,
अब करे विश्राम मेरे प्राण हरके।
पर न जाने पार्थ क्यूँ करता नहीं है
क्यूँ यहाँ वो प्राण अब हरता नहीं है।
व्यर्थ होगा कर्ण अब ये बात करना,
है बहुत मुश्किल यहाँ अब पाप गिनना।
अब पूछना के कौन किसने क्या किया,
अब सोचना जगत को किसने क्या दिया।
पाप के भागी हुए जब आज सारे,
कौन कम है कौन ज्यादा क्या विचारें।
अब किसी के दोष पर कुछ बोलना क्या,
ले तुला अब पाप सारे तोलना क्या।
पाप के सहभाग सारे हो चुके हैं,
चेतना के पुष्प सारे खो चुके हैं।
यहाँ व्यर्थ है पार्थ अब प्रलाप करना,
गलतियों को सोच पश्चाताप करना।
दोष पे अपने बहुत पछता चुका हूँ,
जग के तानों से बहुत उकता चुका हूँ।
अब है उचित के अंत ये संग्राम हो,
और इस रण का अब उचित परिणाम हो।
रण विजय के हेतु पार्थ शस्त्र उठाओ,
ना प्रतीक्षा में समय अपना गँवाओ।
बेध दे अब वक्षस्थल पार्थ अरि का,
है मिला तुझको यहाँ पर साथ हरि का।
जो मिला मुझको अभी तक पुण्य बल था,
श्रेष्ठ था, विश्वास था, निश्चय अटल था।
कुछ न सोचा मैंने न परिणाम जाना,
मित्रता को धर्म का पर्याय माना।
युद्ध का अंतिम चरण अब आन पहुँचा,
कर्म के परिणाम का फल आन पहुँचा।
श्रेष्ठ के सम्मान में सब गान गाओ,
और हृदय के सुर में सब सुर मिलाओ।
हो गया तब मौन कह कर कर्ण मन की,
खो गया फिर शून्यता में वो गगन की।
एक शर सहसा गले में आन पहुँचा,
देखते ही वीर वो सुरधाम पहुँचा।
उस एक युग की पंक्तियाँ सब मौन थीं,
सूर्य किरणों की रश्मियाँ अब मौन थीं।
कर्ण के जयकार से रण गूँजता था,
घोर हाहाकार से रण गूँजता था।
देखने परिणाम रण का आज सारे,
देवता सब स्वर्ग से धरती पधारे।
हो चुका था मौन युग इक सो चुका था,
युद्ध का परिणाम निश्चित हो चुका था।
युद्ध का परिणाम सुनकर दौड़ आये,
और भय से हार के निस्तार पाये।
फिर कहा धर्मराज ने मौन तोड़कर,
और मन की सब व्यग्रता को छोड़कर।
था बहुत मुश्किल यहाँ इसको हराना,
वीरता में श्रेष्ठता से पार पाना।
हर घड़ी मेरा हृदय ये काँपता था,
बस यही वरदान हरि से माँगता था।
इसके कारण निश्चिंत न हो सका था,
वन में भी मैं चैन से न सो सका था।
काल के सम्मुख स्वयं ये काल था,
ये वीरता में श्रेष्ठ था विकराल था।
ये युद्धभूमि में यहाँ न आज सोता,
सोचिये क्या युद्ध का परिणाम होता।
है सत्य के बस श्रेष्ठता ही रीत है,
और अधर्म पर धर्म की ये जीत है।
गंभीर मन फिर वहाँ श्री कृष्ण बोले,
श्रेष्ठ कुछ मत बोलिये इस जीत को ले।
श्रेष्ठता केवल नहीं बस जीत में है,
मन, वचन में, कर्म में है प्रीत में है।
सोचिये इस श्रेष्ठता का मोल क्या है,
हो अजय तो योग्यता का तोल क्या है।
जीत केवल युद्ध के हुंकार में है,
या समर्पित श्रेष्ठता में प्यार में है।
इस युद्ध में बस जीत ही परिणाम है,
सबके हृदय में जो बसेगा नाम है।
मत सोचिये के आज रण में क्या हुआ,
इस युद्ध का परिणाम मन में, क्या हुआ।
है मिला क्या आज और क्या खोया है,
क्या है जागा और क्या-क्या सोया है।
जिसपे बीती है वो ही सब जानता,
है कौन किसके घाव को अब मानता।
उम्र काँटों में यहाँ जिसने बिताई,
पीर वो ही जानता केवल, पराई।
था कपट से दूर कितना धीर था वो,
था तपस्वी युग का दान वीर था वो।
बस दिया उसने, जगत से कब लिया है,
उम्र भर बस युद्ध ही उसने जिया है।
पग-पग लिया अपयश स्वयं को मारकर,
जीता है हर युद्ध स्वयं को हारकर।
वो इस जगत में मित्रता का सूर्य है,
तप, त्याग का, बलिदान का वो तुर्य है।
है गया इतिहास को वो जीत देकर,
मनुजता की इस जगत को प्रीत देकर।
त्याग का उसके सदा सम्मान करिये,
है सिखाया जो जगत को ध्यान धरिये।
प्रिय मित्रता का वो वृहद पर्याय है,
जो कभी न खत्म हो वही अध्याय है।
इतिश्री
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स्मरण- ये मेरी मौलिक रचना है, इसका सर्वाधिकार सुरक्षित है।
©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद