जयद्रथ वध


जयद्रथ वध                                  

 भाग 1  

महाकाव्य की दिशा में आगे बढ़ते हुए आज मैं आप सभी के सम्मुख एक अन्य महत्वपूर्ण प्रकरण - जयद्रथ बध को अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, उम्मीद है कि मुझे आप सभी का आशीष प्राप्त होगा--
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 जयद्रथ वध       
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भाग 1 

कुरुक्षेत्र के रण में एक वीर जब सज्जित हुआ,
देख उस युद्ध की गति सुरराज भी लज्जित हुआ।।1।।

घेर कर उस वीर का था कायरों ने वध किया,
युद्ध के प्रतिमान सारे हो भयातुर तज दिया।।2।।

देख कर रौद्र कोई सम्मुख नहीं उसके हुआ,
जो वहाँ था सामने वो नर्क का भागी हुआ।।3।।

घेर कर कौरवों ने ध्यान उसका था बँटाया,
वार धोखे से किया और नैतिकता घटाया।।4।।

फिर भी हिम्मत थी कहां कि पास उसके आ सके,
प्रचंड उस प्रहार से वो पार उसके पा सके।।5।।

चक्रव्यूह टूटा देख सबने घात फिर उसपर किया,
कर त्याग नैतिकता वहाँ चोट था सबने किया।।6।।

व्यूह असफल देख कर जब काँपने सारे लगे
धूर्तता के भाव मन ले घात तब करने लगे।।7।।

क्रमशः---

        भाग 2

गतांक से आगे--

तोड़ डाला नीतियों को, हार सम्मुख देखकर,
गिर गए प्रतिमान सारे, एक ही आदेश पर।।8।।

जयद्रथ ने घात करके, वार था उसपर किया,
युद्ध नियमों के परे, व्यवहार का परिचय दिया।।9।।

हो निशस्त्र शत्रु जब भी, वार तब करते नहीं,
नीति है रणभूमि की, स्वीकार क्यूँ करते नहीं।।10।।

धर्म को रौंदा जिन्होंने, अधर्म के व्यवहार से,
रक्त था उसने बहाया, आज कुत्सित वार से।।11।।

वीरता के पीठ पर, ये धूर्तता का वार था,
रक्तरंजित थी धरा, अब कुछ नहीं आधार था।।12।।

वार इतना तीव्र था कि, वीर उसको सह सका न,
ऐसे धरती पर गिरा, चाह कर भी उठ सका न।।13।।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ, खड्ग भी खंडित हुआ,
वीर का सान्निध्य पा, सुरलोक भी मंडित हुआ।।14।।

क्रमशः--

भाग 3

गतांक से आगे--

सूचना पा वीरगति की, पार्थ फिर व्याकुल हुए,
शत्रु के संहार को वो, मन ही मन आकुल हुए।।15।।

वध जयद्रथ का करूँगा, है ये मेरा प्रण यहाँ,
दाह कर लूँगा अगर, सूर्यास्त तक जीवित रहा।।16।।

थी प्रतिज्ञा घोर इतनी, ब्रम्हांड सब गुंजित हुआ,
पार्थ के इस रौद्र से, भूभाग सब कंपित हुआ।।17।।

रौद्र देखा पार्थ का तो, काँपने धरती लगी
गर्जना सुन पार्थ की, फिर काँपने मृत्यू लगी।।18।।

जयद्रथ की प्राण रक्षा, खुद दुर्योधन करेगा,
करेगा घात जो भी, नर्क का भागी बनेगा।।19।।

मेरे रक्षण में रहो, तुम तक पहुँच न पायेगा,
प्रण जो टूटा पार्थ का, क्षोभ से मर जायेगा।।20।।


क्रमशः--

भाग 4

गतांक से आगे--

भोर की पहली किरण से, सारथी रथ ले चला,
दिन चला निर्वाध गति, नहीं कहीं जयद्रथ मिला।।21।।

पार्थ का मन आज कितने, क्षोभ से था भर गया,
यूँ लगा आज उसका, प्रण टूट कर के गिर गया।।22।।

जो मरा ना आज अरि, कैसे वापस जाऊँगा,
टूटा जो प्रण तो मुख, कैसे फिर दिखलाऊँगा।।23।।

इस धरा पर जीने का, न अब मुझे अधिकार है,
होगा जीवन व्यर्थ हाय, फिर मुझे धिक्कार है।।24।।

आज माधव मैं यहाँ, पूर्ण प्रण कैसे करूँगा,
पूर्ण प्रण यदि ना हुआ, हास्य का भागी बनूँगा।।25। 

क्या करूँगा राज्य लेकर, शत्रु को न साध पाया
व्यर्थ है गाण्डीव यदि, वक्त को ना बाँध पाया।।26।।

छोड़ मन की भ्रांतियां सब, क्षोभ में ना तुम पड़ो,
है कवच में वो छुपा, संहार को आगे बढ़ो।।27।।

क्रमशः--

भाग 5

गतांक से आगे--

जिस भुजा में वीरता हो, वो रुदन करते नहीं,
देख कर बाधाओं को, पथ से वो टरते नहीं।।28।।

देख शत्रु सामने है, अब शोक का ये क्षण नहीं,
शत्रु का संहार हो, है बस तुम्हारा प्रण यही।।29।।

सुना माधव का वचन, उत्साह अर्जुन का बढ़ा,
त्याग कर क्षोभ सारे, उत्साह से आगे बढ़ा।।30।।

जयद्रथ तक पहुँचना, वहाँ पार्थ को मुश्किल हुआ,
युद्ध के अंतिम प्रहर को, सांध्य ने जैसे छुआ।।31।।

देखा संध्या को निकट, पार्थ का मन डोल उठा,
है निकट क्या अंत मेरा, मन ही मन बोल उठा।।32।।

यूँ देख दुविधा पार्थ की, कृष्ण तब मुखरित हुए,
और अपने चक्र से फिर, सूर्य को कल्पित किए।।33।।

अब कौरवों में सांध्य का, हर्ष चहुँदिश व्याप्त था,
पार्थ को संकेत इतना, अब वहाँ पर्याप्त था।।34।।

क्रमशः--

भाग 6

गतांक से आगे--

है दिवस का अंत ये, प्राण अब कैसे हरूँगा,
बस यही द्वंद था यदि, बच गया तो क्या करूँगा। 35।।

पक्ष में कौरव के अब, उल्लास ही उल्लास था,
दर्प में डूबा जयद्रथ, कर रहा परिहास था।।36।।

है दिवस का अंत ये, रह गयी प्रतिज्ञा अधूरी,
जल मरेगा अग्नि में, आस अब होगी न पूरी।।37।।

शत्रु सम्मुख है तुम्हारे, विलंब न अब तुम करो,
सांध्य में क्षण शेष है, शीघ्र उसका वध तुम करो।।38।।

गाण्डीव लो अब हाथ में, लक्ष्य का संधान हो,
दुष्ट, पापी कायरों का, अंत ही परिणाम हो।।39।।

वक्त अभी है शेष थोड़ा, व्यर्थ न इसको करो,
एक ही प्रहार से चलो, पार्थ इसका वध करो।।40।।

लक्ष्य में जब शत्रु हो, ध्यान तब टरे नहीं,
वार इतना तीव्र हो, शीश धरा पर गिरे नहीं।।41।।

क्रमशः--

भाग 7

गतांक से आगे--

बादलों से फिर निकलकर, सूर्य जब सम्मुख हुआ,
तब पार्थ का कुंठित हृदय, भी क्षोभ से विमुख हुआ।।42।।

सूर्य को फिर देखते ही, आँख भय से झुक गयी,
मौत सम्मुख देखते ही, साँस उसकी रुक गयी।।43।।

जब मिली ना राह कोई, भागने को जब हुआ,
गाण्डीव लेकर हाथ में, पार्थ ने फिर वध किया।।44।।

पूर्ण प्रतिज्ञा पार्थ ने की, शत्रु का बल रिक्त हुआ,
गुंजित हुआ सुरलोक भी, पाप से जो मुक्त हुआ।।45।।

झूठ कितना तीव्र हो, सत्य को कब ढँक सका है,
मार्ग की बाधाओं से, बोलो क्या रूक सका है।।47।।

झूठ का प्रभाव केवल, मूर्ख को भरमायेगा,
चीरने अँधियार मन का, सच बाहर आयेगा।।48।।

इतिश्री🙏🙏

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

  हैदराबाद

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