मुक्तक

उठो कि राष्ट्र स्वाभिमान का प्रमाण बाकी है।
अभी शीश स्वर्ण मुकुट का निर्माण बाकी है।
के सनातनी का दौर फिर से आ सके यहाँ,
हर कदम-कदम प्रयासों के परिमाण बाकी है।

वेद है पुराण है और गीता है यहाँ।
शक्ति का स्वरूप माता सीता है यहाँ।
अँधेरे क्या छलेंगे यहाँ राष्ट्र को कभी,
जब सत्य, ज्ञान, ध्यान का उजीता है यहाँ।

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शब्द की पंखुरी से सजाए हुए।
पंक्ति में भाव मन के मिलाए हुए।
हैं लिखे गीत मन के मिलन के यहाँ,
आस का दीप मन में जलाए हुए।
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आ चलें फिर वहीं हम मिले थे जहाँ।
वक्त के घाव हम-तुम सिले थे जहाँ।
दूर माना हुए पर अलग तो नहीं,
चाह के पुष्प मन में खिले थे जहाँ।
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लिख सकूँ शब्द मन के तुम्हारे लिए।
कह सकूँ भाव मन के तुम्हारे लिए।
और कुछ भी नहीं चाह मन में मेरे,
गीत जब भी सजे बस तुम्हारे लिए।
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नहीं है बात कोई भी पर न जाने क्यूँ बिखरता है।
कहूँ कैसे तुम्हारे बिन ये कैसे पल गुजरता है।
है कहीं कुछ तो बचा अब भी हमारे बीच में ऐसा,
लिखूँ जब शब्द कागज पर तुम्हारा अख़्स उभरता है।
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जिंदगी कब किसी को कहाँ रोकती है।
उम्र की सिलवटें भी कहाँ टोकती है।
गर हौसला हो दिल में करे कुछ नया,
मुश्किलें कब किसी को यहाँ रोकती हैं।



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