दोहे- " आदिपुरुष " पर।
शुचिता की किसको पड़ी, करते नित नव भोग।।
अभिव्यक्ति के नाम पर, मची हुई है गन्ध।
आदिपुरुष को देख कर, जनता सारी दंग।।
क्या पैसा इतना बड़ा, नैतिकता निर्मूल।
धर्मपरायणता सभी, गये सभी क्या भूल।।
ग्रन्थों पर आक्षेप अब, लगता बारंबार।
फिल्मों में परिहास का, सजा नया बाजार।।
हैरत में प्रभु राम हैं, आदिपुरुष को देख।
सोच रहे कैसे मिटे, संवादों का लेख।।
धन के नीचे दब गये, धर्म ग्रन्थ पहचान।
नैतिकता गिरवी हुई, पैसों का सम्मान।।
जनता को अब सोचना, अपने धन का मोल।
अनुचित का अब त्याग हो, शुचिता का हो मोल।।
मौन उचित है बस वहीं, जहाँ धर्म का मान।
ऐसे पथ को त्यागिये, होय जहाँ अपमान।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18जून, 2023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें