बाल कविता
मेंढक राजा बाजार चले
मेढ़क राजा बाजार चले
वहाँ दर्जी के द्वार चले
देख के दर्जी ने फिर पूछा
बारिश में तुम कहाँ चले।
मैं पास तुम्हारे आया हूँ
कुछ पैसे भी ले आया हूँ
रेनकोट सिलवाने है
इसीलिए मैं आया हूँ।
दर्जी ने पूछा क्या दिखलाऊँ
तुमको मैं अब क्या समझाऊं
मुझको भी सब नहीं समझना
अब बारिश में नहीं भींगना।
दर्जी ने फिर उसे बुलाया
अंदर मेज पर उसे बिठाया
उछल कूद वो लगा मचाने
थक गया जब लगा सुस्ताने।
दर्जी ने की लाख जतन
पर मेंढक का भरा न मन
कपड़ा है नहीं पास हमारे
घूमो ऐसे ही नंगे बदन।
तब से मेंढक फिरता है
बारिश में ही भींगता है
आने लगता जब उसे मजा
इधर उधर खूब उछलता है।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06जुलाई,2020
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