छंद - अनादर्श होती राजनीति
अनादर्शों का दौर है साहब
आदर्शों की बात कहां,
सत्ता का संघर्ष बड़ा है
अनुशीलन की चाह कहां।।
स्वाभिमानी पौरुष था जो
मन से शायद टूट गया,
सत्ता लोलुपता के कारण
नैतिकता से दूर गया।।
जन संपर्कों व मंचों से जिनको
यथार्थ की बातें करते देखा था,
सस्ती लोकप्रियता के पीछे
अब उनको पड़ते देखा है।।
राजनीति और आदर्श जैसे
एक दूजे से बेवफा होते गए,
रात भर गए रटाये
होते ही सुबह सफा हो से गए।।
ऐसे व्यवहारों के कारण
जन गण मन भी बहकता है,
आदर्शों को बिछते देख
मन बेतरतीब दहकता है।।
है लेखनी कुछ ऐसा लिखना
जिसकी अनुगूंज सुनाई दे,
हठधर्मिता सब ढह जाए
अंतरंग प्रकाश दिखाई दे।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
Aaj ki satyata ko pramanit krti hui ye Rachna.... Ati sunder
जवाब देंहटाएंThis is me Gitesh Arora
जवाब देंहटाएंThis is me Gitesh Arora
जवाब देंहटाएंAaj ki satyata ko pramanit krti hui ye Rachna.... Ati sunder
जवाब देंहटाएंप्रणाम भैया
जवाब देंहटाएंएक पहल है अपनी लेखनी के माध्यम से वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को उजागर करने का।
आपने बहुमूल्य समय दिया इसके लिए सहृदय आभार