वो दिन याद बहुत आते हैं

             वो दिन याद बहुत आते हैं 


वो नन्हे हाथों को बार बार ऊपर उठाना
देख कर माँ को गोदी के लिए मचल जाना 
उसका गीले में सोकर हमें सूखे में सुलाना 
पर आज गीलेपन से बचने को 
बच्चों की नैपी बदलवाते हैं ,
जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो चाक, खड़िया, वो दुद्धी वाले दिन 
वो लकड़ी की स्लेट, सरकंडे की कलम वाले दिन 
वो झोला टांग कर स्कूल जाने वाले दिन 
आज बच्चों को स्कूल बसों में भिजाते हैं 
और डिजिटल क्लास में पढ़ाते हैं, पर
न जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो एक ही साइकिल पर
दो लोगों का बैठ कर  जाना 
अपनी न रहे तो दूसरे की मांग कर चलाना
मना करने पर दोस्ती की कसम दिलाना 
आज खुद की कार से ही आते जाते हैं 
पर न जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

क्लास में उसे देखकर दिल ही दिल में मुस्कुराना 
स्टेशनरी से कार्ड खरीद कर लाना 
कार्ड में पत्र लिखकर उस तक पहुँचाना 
उसके पास पत्र पहुँचने पर
किले फतह करने जैसा भाव आना 
पर आज मोबाइल से आसानी से 
त्वरित सन्देश भेज दिए जाते हैं ,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो क्लास में दोस्तों की
टिफिन में तांक झाँक करना 
एक दुसरे की जूठन पर भी
अपना अधिकार जताना 
टिफ़िन शेयर न करने पर
कट्टी की धमकी तक दे जाते थे 
आज हाइजीन देख कर 
पांच सितारा होटलों में 
खाना खाने जाते हैं ,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो माँ से एक रूपये के लिए मचल जाना 
बाजार में खिलौने के लिए ज़िद्द कर जाना 
खिलौने न मिलने पर
पैर पटक कर जमीन पर लेट जाना 
आज तो खुद कमाते हैं 
अपनी सभी जरूरतों को
अमूमन पूरी भी कर जाते हैं,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो पिता की थाली में खाना खाने की ज़िद्द करना 
भाई को अधिक मिल गया
कह कर शिकायत करना 
बहन की चोटी खींच कर
उसे बार बार चिढ़ाना 
माँ के हाथ से थप्पड़ खा कर भी 
मेरी माँ मेरी माँ कहकर गले लग जाना 
पर न जाने क्यों कुछ लोग तेरी माँ तेरी माँ 
कहने से भी नहीं हिचकिचाते हैं ,
न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

यूँ तो सबने खूब तरक्की कर ली 
थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा 
सभी ने अपनी जेबें भर ली 
आज हम समाज में
अगणित लोगों से सम्मान पाते हैं 
पर वो माँ के थप्पड़ ,पिता की डांट ,
अध्यापकों की धमकी, दोस्तों की फटकार 
में आज भी इक हसीं अपनापन पाते हैं | 
न जाने क्यूँ वो दिन आज भी याद बहुत आते हैं || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद


राम हिंदुस्तान हैं

           राम हिंदुस्तान हैं          


राम राम राम राम, मन में राम, तन में राम
चर में राम अचर में राम, जल में राम नभ में राम
नहीं कोई बची जगह , जहां न विद्यमान राम।।

राम ही आन हैं, राम ही शान हैं
राम ही जान हैं, राम ही जहान हैं
राम से है जग यहां, जग ही मेरे राम हैं।।

राम ही हैं आत्मा, राम ही परमात्मा 
राम ही प्राण हैं, राम ही अभिमान हैं
राम ही पहचान हैं,राम पूजा हैं, सम्मान हैं।।

राम ही सत्य हैं, राम ही लक्ष्य हैं
राम ही दवा हैं, राम ही दुआ हैं
राम सिर्फ दया हैं, जिन्हें क्रोध ने छुआ नहीं।।

राम मर्यादा हैं, राम विश्वास हैं
राम ही चाह हैं, राम ही राह हैं
राम ही अनुबंध हैं, राम ही सौगन्ध हैं।।

राम ही प्रदक्षिणा हैं, राम शबरी के जूठे बेर हैं
राम माँ की ममता हैं, राम पिता की छांव हैं
राम ही आवाज़ हैं, राम ही आगाज़ हैं।।

राम हैं मानवता में, राम हैं सामाजिकता में
राम हैं अस्मिता में, राम हैं सहिष्णुता में
राम शीलता के प्रतिमान हैं, राम हिंदुस्तान हैं।।

हाँ राम हिंदुस्तान हैं।।

अजय कुमार पाण्डेय



द्रौपदी चीर हरण

             द्रौपदी चीर हरण।            


था सजा दरबार समग्र
मचा वहां कोलाहल था
आज दिवस कुछ अलग अलग था
सभा का मन भी व्याकुल था।।

थी बीसी बिछात भविष्य की
सत्ता का था संघर्ष वहां
सत्य-असत्य, शुचिता-कुटिलता
के मध्य मचा था एक द्वंद वहां।।

सत्ता की चाह प्रबल थी
संस्कार वहां बस नाम के थे
आज दिशाएं मौन पड़ी थीं
धरती गगन खामोश पड़े।।

उच्छृंखल बहती पवन की
गति भी मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने जब
चीर हरण की ध्वनि सुनी।।

मौन थी सत्ता वहां
मौन समग्र साम्राज्य था
धृतराष्ट्र, पितामह, गुरु द्रोण,
थे मगर बेजान थे।।

शूरवीरों से भरी सभा
बैठी धरे हाथों में हाथ थी,
वो न केवल कुलवधू थी
वो प्रतीक थी नारी सम्मान की।।

जो सभा में थी आज खड़ी
वो भी कहीं की लाज थी,
चीर जिसका हाथ में लिए
दुःशासन कर रहा अट्टहास था।।

कपाट सारे बन्द होने लगे जब
सभा छोड़ विदुर गए तब
कौरवों की वाणी भी
सशुचिता के पार हुई।।

कर्ण ने दुःशासन से जब कहा
अब पांचाली को निर्वस्त्र करो
हार चुके पांडव यहां
अब इससे ही मन मुदित करो।।

कातर नज़रों से कृष्णा
तक रही थी अपने वीर को
थे सभी लाचार वहां
नहीं कहीं अब वीर थे।।

द्यूत क्रीड़ा में हार कर
दास थे सब बन चुके

शोकाकुल मौन सभा
लज्जा से सभी गड़े जाते
नहीं किसी की साख बची
जो कृष्णा का क्रंदन सुन पाते।।

खड़ी बीच दरबार
मांग रही वो लाज की भिक्षा
भूल चुके संस्कार सारे
याद रही न कोई शिक्षा।।

नारी कोई वस्तु नहीं
तुम जिसका मोल लगा बैठे
मान तुम्हारा नहीं रहा जब
क्यों मेरा मान गंवा बैठे।।

आज पितामह मौन पड़े हैं
जब कुल की मर्यादा भंग हुई
युद्धवीर सब मौन पड़े हैं
क्या धरती वीरों से तंग हुई।।

दुर्योधन के छुद्र इशारे
स्वाभिमान को तड़पाते थे
अत्याचारी कौरव की करनी से
मर्यादा भी लज्जा से गड़े जाते थे।।

भूल चुकी थी राज सुख सारे
भूल चुकी सब मर्यादा को
भूल चुकी वो आज स्वयं को
भूल चुकी थी अपने तन को।।

याद रहे बस माधव उसको
मीत बनाया बचपन में जिसको
पीर मेरी सुन लो गिरधारी
हे बनवारी, घट-घट वासी।।

तुम ही जगत हो, तुम ही ज्ञाता,
रक्षा मेरी आज करो तुम
अपनी सखी की लाज बचाने
आकर मेरी बांह धरो तुम।।

दर्पयुक्त  दुःशासन
खींच रहा था चीर को
कोलाहल में मदमस्त कुटिलता
कब सुनती उसकी पीर को।।

खींच खींच कर लगा हांफने
वो कृष्णा की चीर को
निर्वस्त्र करना द्रौपदी को
उसकी क्षमता के पार हुआ।

वस्त्र रूप बनकर जब माधव,
का नैतिक अवतार हुआ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद




अभिमन्यु

         अभिमन्यु 


चक्रव्यूह में खड़ा हुआ वो
 घिरा हुआ था वीरों से
कहने को सब शूरवीर थे
पर व्यवहार कर रहे थे कायरों से।

न थी इतनी ताकत उनमें के
पार पा सकें उस बालक से
वो कोई सामान्य नहीं था
वो वीरों में महावीर था।

वीरों से अतिवीरों तक उसने
नाको चने चबवाया था
चन्द्रदेव के पुत्रमोह वश
आंशिक जीवन पाया था।

मां सुभद्रा के गर्भ में वो
बन अर्जुन नंदन आया था।।

बाल्यकाल मामा संग बीता
जहां समुचित ज्ञान वो पाया था
वेद पुराण से अस्त्र शस्त्र में
बन पारंगत वो आया था।।

गर्भकाल में ही उसने था
चक्रव्यूह का ज्ञान लिया
अपनी ज्ञान की उस ताकत का
उसने कुरुक्षेत्र में सम्मान दिया।।

जिस कुरुक्षेत्र की रचना कर
कौरव मन ही मन हर्षाये थे
उसी चक्रव्यूह के सब द्वारों पर
वो उससे मुंह की खाये थे।।

दुर्योधन,कर्ण , द्रोण, दुःशासन
सबका मान भंग कर डाला था
अपने रण कौशल से उसने
सबको खूब नचाया था।।

हस्र सुनिश्चित देख के कौरव
नैतिकता सब भूल गए,
चक्रव्यूह को खण्डित देख
युद्ध के मानदंड सब भूल गए।।

कायर कौरवों ने घेर कर
उस पर पीछे से वार किया
कुरुक्षेत्र को शर्मसार कर
जयद्रथ ने निहत्थे बालक पर वार किया।।

वार तीव्र था इतना
कि वीर उसे सहन न कर सका
मानदंडों के सैकड़ों प्रश्न छोड़
वो धरा पर गिर पड़ा।

वीर के गिरते ही
कौरव मदमस्त हुए
युद्धकौशल के सारे
मानदंड सब ध्वस्त हुए।

ये ऐसा अध्याय है
जो कोई भूल नही सकता
संघर्षों के जीवन में
बन कौरव चल नही सकता।


जीवन अपना कुरुक्षेत्र है
इससे है इनकार नही
पर जयद्रथ बनने का
किसी को अधिकार नही।।

जीवन कोई युद्ध नहीं
ये तो केवल कौशल है
कुशलपूर्वक जीने को
तुम खुद को तैयार करो

अपने भीतर के अभिमन्यु को
सस्नेह स्वीकार करो।।

अजय कुमार पाण्डेय


राष्ट्रवीरों को नमन

         राष्ट्रवीरों को नमन            


दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए,
उम्र के दो चार पल क्या
ज़िंदगानी दे गए।।

झुका दिया अंबर को जिसने
सागर का मंथन कर गए,
ऐसे वीरों को नमन 
जो अपनी कुर्बानी दे गए।।
दिल नमन करता है उनको 
जो कहानी बन गए।।

देश पर देखा जो संकट, 
खुद ही घर से चल दिये,
ना सुनी चौखट की आहट, 
आंसुओं को तज दिए।।

माँ भारती की फीकी 
चूनर जो देखी तो उसे
लहू से अपने रंग दिए,
दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए।।

इक हाथ में बांधा कलावा, 
दूजे में राखी बंधी
दिल में चाहत प्यार की भर, 
घर घर की किलकारी बन गए।

दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए।।

(पाक, चीन व आतंकियों के लिए)

चाहे तुम लाओ सिकंदर, 
चाहे गौरी या के गज़नी
सीमा पे पृथ्वी खड़ा है, 
कण कण में पोरस बस गए।
मर के जो पहुंचो नरक में, 
तो पूछना खुद आप से
पाक के नापाक मन की, 
क्यों निशानी बन गए।

दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

है हिमालय शान मेरा, 
और गंगा मान मेरी,
भारत नहीं भूभाग कोई, 
जिसकी तुम चाहत करो।।
है ये वो जीवन हमारा जिसपे, 
सांसे निछावर कर गए
दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

आये कितने सूरमा 
और तुर्रम खान कितने
एक ही ठोकर में सारे 
धराशाई हो गए,
है गर्व हमको राष्ट्र पर 
और गर्व शहीदों पर हमें
एक उजली भोर देकर 
खुद रात काली ले गए।।

दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

         हैदराबाद


मैं एक वोट हूँ

      मैं एक वोट हूँ          


न मैं मंदिर हूँ, न मैं मस्जिद हूँ
न मैं अमीर हूँ , न मैं गरीब हूँ
न मैं ताकतवर हूँ, न मैं मजलूम हूँ
मैं तो लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

मैं घायल हूँ लोकतंत्र में निजी हित की शमशीरों से
मैं स्वार्थी नेताओं की अनैक्षिक जागीर हूँ
मैं टूटते ख्वाबों की मौन आवाज़ हूँ
मैं खुद को खुद से ही पहुंचाने वाली चोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

सत्ता के गलियारों ने मुझको तोला
किसी ने अस्मत लूटी, किसी ने भावनाओं से खेला
सत्ता के गलियारों ने कभी गोधरा, कभी मथुरा
कभी मुजफ्फरनगर कभी कासगंज बनाया
चुनावी मंच से जायकेदार चाबुक से बरबस ललचाया
निज स्वार्थ से वशीभूत में खुद के स्वभाव की खोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

यूँ तो मैं आज़ाद देश का वाशिंदा हूँ
पर डरता हूँ निर्भया की दम घोंटती चीखों से
मैं ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हूँ
जहां इंटरनेट सस्ता और पढ़ाई महंगी है
मैं सियासतदानों के अनगिनत चालों का परिणाम हूँ
मैं स्वार्थी नेताओं अतृप्त वासना की हसीन चाह हूँ
मैं चुनावी जाड़े की गर्म हसीन कोट हूँ
जी हां मैं स्वार्थी लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

जब सत्ता के गलियारों में नोट दिखाए जाते हैं
जब चुनावी भाषण में सिद्धांत गिराए जाते हैं
जब जाति धर्म देख कर मुआवजे बांटे जाते हैं
जब रोटी की चाहत में सुदूर कोई बच्चा रोता है
जब उन चीखों को अनसुना कर 
अफ़ज़ल-कसाब को बिरयानी खिलाई जाती है
जब सहिष्णुता दिखाने को 
आधीरात कोर्ट खुलवाई जाती है
जब सीमा पर कोई वीर तिरंगे में लपेटा जाता है
जब उसकी नवयौवना विधवा 
अपने टूटे सपनों को खोजा करती है।

इतने पर भी मैं मौन पड़ा रहता हूँ
क्योंकि मैं नोटों के बंडल की एक नोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय











ज़िंदगी का खेल

       ज़िंदगी का खेल   


कैसे कैसे खेल दिखाए ये ज़िंदगी
पल में हंसाये तो पल में रुलाये ये जिंदगी,
हर आती जाती साँसों की धड़कन से
होने न होने का एहसास दिलाये ये जिंदगी।।

रंग बदलते रिश्तों का असली रंग दिखाए ये जिंदगी
अपने पराये का भेद बताए ये जिंदगी,
शर्मिंदा हो जाती है ये भी उस वक्त
जब कोख के दर्द को भी न समझा पाए ये जिंदगी।।

बिखरते रंगों का एहसास कराती है ज़िंदगी
हर गुज़रते वक्त के साथ एक नया आगाज़ कराती है,
जब अपनों से ही ज़ख्म मिलने लगे
तो इक नए जीवन का एहसास कराती है जिंदगी।।

बिछड़ना ही जब मुनासिब लगने लगे
तब फासलों के मुहावरों की समझाती है जिंदगी,
झूठ के प्रहार से जब घाव नासूर बन जाये
तो घाव पर मरहम भी लगाती है जिंदगी।।

सच कहो तो जीवन के उतार चढ़ाव जैसे भी हों
जीने की राह बताती है ये जिंदगी।।

अजय कुमार पाण्डेय



श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...