सीपियाँ
वक्त की रेत पर कुछ सीपियाँ बिखर गईं,
कुछ तो यूँ पड़ी रहीं और कुछ निखर गईं।
कर्म का असर है ये या कोई प्रभाव है,
कुछ रहीं शांत शांत और कुछ मुखर हुईं।
रूप के शहर में अनगिनत चाहतें,
कुछ तो गुजर गईं और कुछ ठहर गईं।
क्षणभर का खेल ये या चाहतों का मेल है,
खैर जो भी बात हो रश्मियां प्रखर हुईं।
उम्र के पड़ाव पर पीछे देखा जब कभी,
रेत की वो सीपियाँ हँस कर गुजर गईं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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