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जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                                 

कुरुक्षेत्र के रण में
एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति
सुरराज भी लज्जित हुआ।

घेर कर उस वीर को
कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सारे
भय के कारण त्यज दिया।

देख उसका रौद्र रूप
सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने
नर्क का भागी बना।

तब घेर कर कौरवों ने
ध्यान उसका भंग किया
चारों दिशा से वार कर
वीर को निःशस्त्र किया।

फिर भी हिम्मत थी कहां
कि पास उसके आ सके
प्रचंड वारों व प्रहारों से
पार उसके पा सके।

चक्रव्यूह बिखरता देख कर
शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीछे से
जयद्रथ ने निहत्थे वीर पर घात किया।

वार इतना तीव्र था
कि वीर सहन कर ना सका
कर्तव्यपालन की दिशा में
वीरगति को प्राप्त हुआ।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ
शत्रु का खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पाकर
सुरलोक भी मंडित हुआ।

वीरगति से वीर के
कौरवों में हर्ष छा गया
सर्वत्र पांडव पक्ष में
शोक था छा गया।

देख उसका हाल ऐसा
निःशब्द नव वधु हो गयी
नेत्र में भरे अश्रु सूखे 
वो धरा पर गिर गयी।

सुन सूचना वीरगति की
अर्जुन क्रोध से पागल हुए
आत्मदाह की की प्रतिज्ञा
जो अगले सूर्यास्त तक शत्रु का न वध किये।

थी प्रतिज्ञा घनघोर इतनी
भू-भाग भी गुंजित हुआ
देख पार्थ का रौद्र रूप
त्रिलोक तक कंपित हुआ।

करने जयद्रथ का दूर भय
दुर्योधन भी उपस्थित हुआ
करूंगा रक्षा तुम्हारी
सम्मुख सबके प्रण किया।

कुरु सेना के रक्षण में रहोगे
तुम तक वो पहुंच न पायेगा
प्रतिज्ञा पूरी न हुई तो
स्वतः ही आत्मदाह कर जाएगा।

भोर की पहली किरण पर
युद्ध का शंखनाद हुआ
दिन चला निर्वाध गति से
जयद्रथ न कहीं मिला।

निराश देख माधव ने कहा
पार्थ न विचलित बनो
रक्षा कवच में छुपा है वो
संहार करने शीघ्र तुम आगे बढ़ो।

सुनकर माधव के वचन
उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर विषाद के क्षण
उत्साह से लड़ने लगा।

सांध्य होने को चली
जयद्रथ तक पहुंच जब मुश्किल हुआ
वासुदेव ने माया रची
सूर्य बादलों में छिप गया।

सांध्य होने के भ्रम ने
कौरवों को हर्षित किया
आत्मदाह अब अर्जुन करेगा
अट्टहास जयद्रथ ने क्या।

देख शत्रु सामने
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा
पार्थ उठाकर गांडीव
शत्रु का तुम वध करो।

संध्या अभी भी शेष है
तनिक भी न विलंब करो
ध्यान रहे इतना तुम्हे कि
मस्तक धरा पर न गिरे।

देखते ही देखते सूर्य
बादलों से निकल गया
देख कर दृश्य ऐसा, प्राण
गले में शत्रु के अटक गया।

जैसे ही जयद्रथ
रणभूमि से भागने को हुआ
गांडीव उठा कर पार्थ ने
तत्क्षण में उसका वध किया।

जयद्रथ का शीश धड़ से हो अलग
जाकर गोद में, उसके पिता की गिरा
गोद में गिरते ही, सर उसके पिता का 
भी टुकड़ों में विभक्त हुआ।

हुई प्रतिज्ञा पूर्ण अर्जुन की
और शत्रु का वध हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी
इक पाप का था अंत हुआ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


जयद्रथ वध।


जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                  

 भाग 1  

महाकाव्य की दिशा में आगे बढ़ते हुए आज मैं आप सभी के सम्मुख एक अन्य महत्वपूर्ण प्रकरण - जयद्रथ बध को अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, उम्मीद है कि मुझे आप सभी का आशीष प्राप्त होगा--
********************

 जयद्रथ वध       
--------------------------------    

भाग 1 

कुरुक्षेत्र के रण में एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति सुरराज भी लज्जित हुआ।।1।।

घेर कर उस वीर का था कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सभी भय के कारण त्यज दिया।।2।।

देख उसका रौद्र रूप सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने वो नर्क का भागी बना।।3।।

घेर कर के कौरवों ने ध्यान फिर अन्यत्र किया
चहुँ दिशा से वार कर के वीर को निःशस्त्र किया।।4।।

फिर भी हिम्मत थी कहां कि पास उसके आ सके
प्रचंड उसके वार से वो पार कैसे पा सके।।5।।

चक्रव्यूह बिखरता देख शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीठ पर आघात किया।।6।।

व्यूह असफल देख कर जब काँपने सारे लगे
धूर्तता के भाव मन ले घात तब करने लगे।।7।।

क्रमशः---

        भाग 2

गतांक से आगे--

तोड़ डाला नीतियों को हार सम्मुख देखकर
गिर गए प्रतिमान सारे एक ही आदेश पर।।8।।

जयद्रथ ने घात करके पीठ पर फिर वार किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध धूर्तता व्यवहार किया।।9।।

हो निशस्त्र शत्रु जब भी वार तब करते नहीं
नीति है रणभूमि की स्वीकार क्यूँ करते नहीं।।10।।

धर्म को रौंदा जिन्होंने अधर्म के व्यवहार से
रक्त था उसने बहाया आज कुत्सित वार से।।11।।

वीरता के पीठ पर ये धूर्तता का वार था
रक्तरंजित थी धरा अब कुछ नहीं आधार था।।12।।

वार इतना तीव्र था कि वीर उसको सह सका न
ऐसे धरती पर गिरा चाह कर भी उठ सका न।।13।।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पा सुरलोक भी मंडित हुआ।।14।।

क्रमशः--

भाग 3

गतांक से आगे--

सूचना पा वीरगति की पार्थ फिर व्याकुल हुए
शत्रु के संहार का वो सब के सम्मुख प्रण किये।।15।।

वध जयद्रथ का करूँगा है ये मेरा प्रण यहाँ
दाह कर लूँगा अगर सूर्यास्त तक जीवित रहा।।16।।

थी प्रतिज्ञा घोर इतनी ब्रम्हांड सब गुंजित हुआ
पार्थ के इस रौद्र से भूभाग सब कंपित हुआ।।17।।

रौद्र देखा पार्थ का तो काँपने धरती लगी
गर्जना सुन पार्थ की थर-थर काँपने मृत्यु लगी।।18।।

जयद्रथ की प्राण रक्षा स्वयं दुर्योधन करेगा
जो करेगा घात उसपे नर्क का भागी बनेगा।।19।।

मेरे रक्षण में रहो तुम तक पहुँच न पायेगा
टूटी पार्थ की प्रतिज्ञा क्षोभ से मर जायेगा।।20।।

घेर में ऐसे रहोगे पार्थ न फिर पायेगा
टूटेगा जब प्रण यहाँ क्षोभ से मर जायेगा।।21।।

क्रमशः--

भाग 4

गतांक से आगे--

भोर की पहली किरण से सारथी रथ ले चला
दिन चला निर्वाध गति से कहीं जयद्रथ न पर मिला।।22।।

पार्थ का मन आज कितने क्षोभ से था भर गया
यूँ लगा के पार्थ का प्रण टूट कर के गिर गया।।23।।

वध किया न आज अरि का कैसे वापस जाऊँगा
टूटा जो प्रण यहाँ मुख कैसे मैं दिखलाऊँगा।।24।।

इस धरा पर जीने का न अब मुझे अधिकार है
है ये जीवन व्यर्थ मेरा हाँ मुझे धिक्कार है।।25।।

आज जो माधव यहाँ प्रण मेरा न पूर्ण होगा
बना भागी हास्य का हाय जी कर क्या करूँगा।।26।।

क्या करूँगा राज्य लेकर शत्रु को न साध पाया
व्यर्थ है गाण्डीव मेरा वक्त को न बांध पाया।।27।।

पार्थ छोड़ मन की भ्रांतियां यूँ क्षोभ में न तुम पड़ो
है कवच में वो छुपा संहार को आगे बढ़ो।।28।।

क्रमशः--

भाग 5

गतांक से आगे--

जिस भुजा में वीरता हो वो रुदन करते नहीं
देख कर बाधाओं को पथ से वो टरते नहीं।।29।।

देख शत्रु सामने है अब शोक का ये क्षण नहीं
शत्रु का संहार हो है बस तुम्हारा प्रण यही।।30।।

सुन के माधव के वचन उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर क्षोभ सारे उत्साह से आगे बढ़ा।।31।।

जयद्रथ तक पहुँचना वहाँ पार्थ को मुश्किल हुआ
युद्ध के अंतिम प्रहर को सांध्य ने जैसे छुआ।।32।।

देख सांध्य को निकट पार्थ का मन डोल गया
है समीप अंत मेरा स्वयं से वो बोल गया।।33।।

यूँ देख दुविधा पार्थ की कृष्ण तब मुखरित हुए
हो प्रभावित सूर्य भी जा बादलों में छुप गये।।34।।

वहाँ कौरवों में सांध्य का हर्ष चहुँदिश व्याप्त था
पार्थ को संकेत इतना अब वहाँ पर्याप्त था।।35।।

क्रमशः--

भाग 6

गतांक से आगे--

है दिवस का अंत ये प्राण कैसे अब हरोगे
बचा विकल्प कुछ नहीं सोच कर के क्या करोगे।।36।।

कौरवों के पक्ष में अब उल्लास ही उल्लास था
दर्प में डूबा जयद्रथ कर रहा अट्टहास था।।37।।

है दिवस का अंत ये रह गयी प्रतिज्ञा अधूरी
अग्नि में खुद जल मरेगा आस न होगी पूरी।।38।।

शत्रु सम्मुख है तुम्हारे विलंब नहीं अब करो
सांध्य में क्षण शेष है चलो शत्रु का अब वध करो।।39।।

गाण्डीव लो हाथ में अब लक्ष्य का संधान हो
दुष्ट, पापी कायरों का अंत ही परिणाम हो।।40।।

अभी वक्त थोड़ा शेष है व्यर्थ न इसको करो
अब एक ही प्रहार में सबके सम्मुख वध करो।।41।।

लक्ष्य में जब शत्रु हो ध्यान तब टरे नहीं
वार इतना तीव्र हो धरा पर शीश फिर गिरे नहीं।।42।।

क्रमशः--

भाग 7

गतांक से आगे--

बादलों से फिर निकलकर सूर्य जब सम्मुख हुआ
पार्थ का कुंठित हृदय भी क्षोभ से तब मुक्त हुआ।।43।।

सूर्य को फिर देखते ही आँख भय से झुक गयी
मौत सम्मुख देखते ही साँस उसकी रुक गयी।।44।।

जब मिली ना राह कोई भागने को जब हुआ
गाण्डीव लेकर हाथ में पार्थ ने फिर वध किया।।45।।

पूर्ण प्रतिज्ञा पार्थ ने की शत्रु का स्थल रिक्त हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी पाप से जो मुक्त हुआ।।46।।

झूठ कितना तीव्र हो सत्य को कब ढँक सका है
मार्ग की बाधाओं से बोलो कब रूक सका है।।47।।

झूठ का प्रभाव केवल मूर्ख को भरमायेगा
चीर अँधेरा जगत का सत्य बाहर आयेगा।।48।।

इतिश्री🙏🙏

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

          26सितंबर, 2022

जयद्रथ वध


जयद्रथ वध                                  

 भाग 1  

महाकाव्य की दिशा में आगे बढ़ते हुए आज मैं आप सभी के सम्मुख एक अन्य महत्वपूर्ण प्रकरण - जयद्रथ बध को अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, उम्मीद है कि मुझे आप सभी का आशीष प्राप्त होगा--
********************

 जयद्रथ वध       
--------------------------------    

भाग 1 

कुरुक्षेत्र के रण में एक वीर जब सज्जित हुआ,
देख उस युद्ध की गति सुरराज भी लज्जित हुआ।।1।।

घेर कर उस वीर का था कायरों ने वध किया,
युद्ध के प्रतिमान सारे हो भयातुर तज दिया।।2।।

देख कर रौद्र कोई सम्मुख नहीं उसके हुआ,
जो वहाँ था सामने वो नर्क का भागी हुआ।।3।।

घेर कर कौरवों ने ध्यान उसका था बँटाया,
वार धोखे से किया और नैतिकता घटाया।।4।।

फिर भी हिम्मत थी कहां कि पास उसके आ सके,
प्रचंड उस प्रहार से वो पार उसके पा सके।।5।।

चक्रव्यूह टूटा देख सबने घात फिर उसपर किया,
कर त्याग नैतिकता वहाँ चोट था सबने किया।।6।।

व्यूह असफल देख कर जब काँपने सारे लगे
धूर्तता के भाव मन ले घात तब करने लगे।।7।।

क्रमशः---

        भाग 2

गतांक से आगे--

तोड़ डाला नीतियों को, हार सम्मुख देखकर,
गिर गए प्रतिमान सारे, एक ही आदेश पर।।8।।

जयद्रथ ने घात करके, वार था उसपर किया,
युद्ध नियमों के परे, व्यवहार का परिचय दिया।।9।।

हो निशस्त्र शत्रु जब भी, वार तब करते नहीं,
नीति है रणभूमि की, स्वीकार क्यूँ करते नहीं।।10।।

धर्म को रौंदा जिन्होंने, अधर्म के व्यवहार से,
रक्त था उसने बहाया, आज कुत्सित वार से।।11।।

वीरता के पीठ पर, ये धूर्तता का वार था,
रक्तरंजित थी धरा, अब कुछ नहीं आधार था।।12।।

वार इतना तीव्र था कि, वीर उसको सह सका न,
ऐसे धरती पर गिरा, चाह कर भी उठ सका न।।13।।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ, खड्ग भी खंडित हुआ,
वीर का सान्निध्य पा, सुरलोक भी मंडित हुआ।।14।।

क्रमशः--

भाग 3

गतांक से आगे--

सूचना पा वीरगति की, पार्थ फिर व्याकुल हुए,
शत्रु के संहार को वो, मन ही मन आकुल हुए।।15।।

वध जयद्रथ का करूँगा, है ये मेरा प्रण यहाँ,
दाह कर लूँगा अगर, सूर्यास्त तक जीवित रहा।।16।।

थी प्रतिज्ञा घोर इतनी, ब्रम्हांड सब गुंजित हुआ,
पार्थ के इस रौद्र से, भूभाग सब कंपित हुआ।।17।।

रौद्र देखा पार्थ का तो, काँपने धरती लगी
गर्जना सुन पार्थ की, फिर काँपने मृत्यू लगी।।18।।

जयद्रथ की प्राण रक्षा, खुद दुर्योधन करेगा,
करेगा घात जो भी, नर्क का भागी बनेगा।।19।।

मेरे रक्षण में रहो, तुम तक पहुँच न पायेगा,
प्रण जो टूटा पार्थ का, क्षोभ से मर जायेगा।।20।।


क्रमशः--

भाग 4

गतांक से आगे--

भोर की पहली किरण से, सारथी रथ ले चला,
दिन चला निर्वाध गति, नहीं कहीं जयद्रथ मिला।।21।।

पार्थ का मन आज कितने, क्षोभ से था भर गया,
यूँ लगा आज उसका, प्रण टूट कर के गिर गया।।22।।

जो मरा ना आज अरि, कैसे वापस जाऊँगा,
टूटा जो प्रण तो मुख, कैसे फिर दिखलाऊँगा।।23।।

इस धरा पर जीने का, न अब मुझे अधिकार है,
होगा जीवन व्यर्थ हाय, फिर मुझे धिक्कार है।।24।।

आज माधव मैं यहाँ, पूर्ण प्रण कैसे करूँगा,
पूर्ण प्रण यदि ना हुआ, हास्य का भागी बनूँगा।।25। 

क्या करूँगा राज्य लेकर, शत्रु को न साध पाया
व्यर्थ है गाण्डीव यदि, वक्त को ना बाँध पाया।।26।।

छोड़ मन की भ्रांतियां सब, क्षोभ में ना तुम पड़ो,
है कवच में वो छुपा, संहार को आगे बढ़ो।।27।।

क्रमशः--

भाग 5

गतांक से आगे--

जिस भुजा में वीरता हो, वो रुदन करते नहीं,
देख कर बाधाओं को, पथ से वो टरते नहीं।।28।।

देख शत्रु सामने है, अब शोक का ये क्षण नहीं,
शत्रु का संहार हो, है बस तुम्हारा प्रण यही।।29।।

सुना माधव का वचन, उत्साह अर्जुन का बढ़ा,
त्याग कर क्षोभ सारे, उत्साह से आगे बढ़ा।।30।।

जयद्रथ तक पहुँचना, वहाँ पार्थ को मुश्किल हुआ,
युद्ध के अंतिम प्रहर को, सांध्य ने जैसे छुआ।।31।।

देखा संध्या को निकट, पार्थ का मन डोल उठा,
है निकट क्या अंत मेरा, मन ही मन बोल उठा।।32।।

यूँ देख दुविधा पार्थ की, कृष्ण तब मुखरित हुए,
और अपने चक्र से फिर, सूर्य को कल्पित किए।।33।।

अब कौरवों में सांध्य का, हर्ष चहुँदिश व्याप्त था,
पार्थ को संकेत इतना, अब वहाँ पर्याप्त था।।34।।

क्रमशः--

भाग 6

गतांक से आगे--

है दिवस का अंत ये, प्राण अब कैसे हरूँगा,
बस यही द्वंद था यदि, बच गया तो क्या करूँगा। 35।।

पक्ष में कौरव के अब, उल्लास ही उल्लास था,
दर्प में डूबा जयद्रथ, कर रहा परिहास था।।36।।

है दिवस का अंत ये, रह गयी प्रतिज्ञा अधूरी,
जल मरेगा अग्नि में, आस अब होगी न पूरी।।37।।

शत्रु सम्मुख है तुम्हारे, विलंब न अब तुम करो,
सांध्य में क्षण शेष है, शीघ्र उसका वध तुम करो।।38।।

गाण्डीव लो अब हाथ में, लक्ष्य का संधान हो,
दुष्ट, पापी कायरों का, अंत ही परिणाम हो।।39।।

वक्त अभी है शेष थोड़ा, व्यर्थ न इसको करो,
एक ही प्रहार से चलो, पार्थ इसका वध करो।।40।।

लक्ष्य में जब शत्रु हो, ध्यान तब टरे नहीं,
वार इतना तीव्र हो, शीश धरा पर गिरे नहीं।।41।।

क्रमशः--

भाग 7

गतांक से आगे--

बादलों से फिर निकलकर, सूर्य जब सम्मुख हुआ,
तब पार्थ का कुंठित हृदय, भी क्षोभ से विमुख हुआ।।42।।

सूर्य को फिर देखते ही, आँख भय से झुक गयी,
मौत सम्मुख देखते ही, साँस उसकी रुक गयी।।43।।

जब मिली ना राह कोई, भागने को जब हुआ,
गाण्डीव लेकर हाथ में, पार्थ ने फिर वध किया।।44।।

पूर्ण प्रतिज्ञा पार्थ ने की, शत्रु का बल रिक्त हुआ,
गुंजित हुआ सुरलोक भी, पाप से जो मुक्त हुआ।।45।।

झूठ कितना तीव्र हो, सत्य को कब ढँक सका है,
मार्ग की बाधाओं से, बोलो क्या रूक सका है।।47।।

झूठ का प्रभाव केवल, मूर्ख को भरमायेगा,
चीरने अँधियार मन का, सच बाहर आयेगा।।48।।

इतिश्री🙏🙏

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

  हैदराबाद

अभिमन्यु

         अभिमन्यु 


चक्रव्यूह में खड़ा हुआ वो
 घिरा हुआ था वीरों से
कहने को सब शूरवीर थे
पर व्यवहार कर रहे थे कायरों से।

न थी इतनी ताकत उनमें के
पार पा सकें उस बालक से
वो कोई सामान्य नहीं था
वो वीरों में महावीर था।

वीरों से अतिवीरों तक उसने
नाको चने चबवाया था
चन्द्रदेव के पुत्रमोह वश
आंशिक जीवन पाया था।

मां सुभद्रा के गर्भ में वो
बन अर्जुन नंदन आया था।।

बाल्यकाल मामा संग बीता
जहां समुचित ज्ञान वो पाया था
वेद पुराण से अस्त्र शस्त्र में
बन पारंगत वो आया था।।

गर्भकाल में ही उसने था
चक्रव्यूह का ज्ञान लिया
अपनी ज्ञान की उस ताकत का
उसने कुरुक्षेत्र में सम्मान दिया।।

जिस कुरुक्षेत्र की रचना कर
कौरव मन ही मन हर्षाये थे
उसी चक्रव्यूह के सब द्वारों पर
वो उससे मुंह की खाये थे।।

दुर्योधन,कर्ण , द्रोण, दुःशासन
सबका मान भंग कर डाला था
अपने रण कौशल से उसने
सबको खूब नचाया था।।

हस्र सुनिश्चित देख के कौरव
नैतिकता सब भूल गए,
चक्रव्यूह को खण्डित देख
युद्ध के मानदंड सब भूल गए।।

कायर कौरवों ने घेर कर
उस पर पीछे से वार किया
कुरुक्षेत्र को शर्मसार कर
जयद्रथ ने निहत्थे बालक पर वार किया।।

वार तीव्र था इतना
कि वीर उसे सहन न कर सका
मानदंडों के सैकड़ों प्रश्न छोड़
वो धरा पर गिर पड़ा।

वीर के गिरते ही
कौरव मदमस्त हुए
युद्धकौशल के सारे
मानदंड सब ध्वस्त हुए।

ये ऐसा अध्याय है
जो कोई भूल नही सकता
संघर्षों के जीवन में
बन कौरव चल नही सकता।


जीवन अपना कुरुक्षेत्र है
इससे है इनकार नही
पर जयद्रथ बनने का
किसी को अधिकार नही।।

जीवन कोई युद्ध नहीं
ये तो केवल कौशल है
कुशलपूर्वक जीने को
तुम खुद को तैयार करो

अपने भीतर के अभिमन्यु को
सस्नेह स्वीकार करो।।

अजय कुमार पाण्डेय


चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते

चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते

खण्ड-खण्ड हो रही सभी शिलाएँ मार्ग की,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

क्या सकेंगे रोक रिपू पार्थ के प्रवाह को,
चल पड़ा है सूर्य आज रोकने गुनाह को।
हर कदम के शूल आज पुष्प बन रहे यहाँ,
कंटकों से रास्तों में गीत लिख रहे यहाँ।
शूल-शूल गीत की हर पंक्ति-पंक्ति बींधते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

आ गया है वक्त आज शत्रु के विनाश का,
हो चला वक्त देखो फिर से नव प्रकाश का।
रश्मियाँ भी व्योम में अल्पनाएं रच रहीं,
वीरता के माथ की कामनाएं जँच रहीं।
अल्पना की पंक्ति को रिपु लहू से सींचते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

व्यूह में यहाँ न अभिमन्यु फिर फंसेगा अब,
क्रूरता का फल यहाँ कुरु वंश चखेगा अब।
शंखनाद हो चुका है युद्ध ये प्रचंड है,
मात्र मृत्यु ही यहाँ पे दंभी का दंड है।
शत्रु के शिविर में हर शत्रुओं को चीखते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

युद्ध ही अंत हो तो युद्ध का निर्वाह हो,
शत्रुओं के स्वप्न में पार्थ का प्रभाव हो।
कि मुक्त कंठ से कहो प्रचंड सिंधु धार हो,
कि जयद्रथ न उठ सके ऐसा खड्ग वार हो।
भागवत की पंक्ति से इस सदी को सींचते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 मई, 2025

अभिमन्यु

अभिमन्यु 

भाग 1

कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, तेरहवाँ दिन जब आया,
तब धर्मराज को बंधक करने, की रणनीति बनाया।

अर्जुन के रहते मुश्किल था, यूँ धर्मराज को छूना,
अर्जुन के रण कौशल से था, उत्साह वहाँ का दूना।

अर्जुन को दूर हटाने की, फिर गुरु ने रणनीति बनाई,
युद्ध भूमि में तेरहवें दिन, लड़ने जब सेना आई।

त्रिगर्तों और संसप्तकों ने, जब अर्जुन को ललकारा,
दूर किया फिर युद्ध भूमि से, कौरव को दिया सहारा।

चक्रव्यूह की बात सुनी, हाथ-पांव पाण्डव के फूले,
खेमे में सन्नाटा था, धर्मराज चिंता में झूले।

गुरु द्रोण ने युद्ध विजय, मंशा ले नीति बनाया,
इसीलिये इस युद्ध भूमि से, अर्जुन को दूर फँसाया।

देख वहाँ का दृश्य कठिन जब, अभिमन्यु का मन डोला,
चक्रव्यूह में मैं जाऊँगा, चहक उठा हँसकर बोला।

चक्रव्यूह को रण कौशल से, मैं अपने तोड़ूँगा,
तात वचन देता हूँ अरि को, जीवित ना छोड़ूँगा।

यहाँ भेदना चक्रव्यूह को, नहीं किसी को आता है,
हम सब में अर्जुन को केवल, व्यूह भेदना आता है।

हे तात था गर्भ में माँ के, तब ये सुनी कहानी थी,
सुना रहे थे माता को जब, अपनी पिता जुबानी थी।

छह द्वार को खोलूँगा जब, सातवाँ स्वयं खुल जायेगा,
सुत पर अपने करें भरोसा, पार न कोई पायेगा।

एक बार अंदर पहुँचा तो, बाहर मैं आ जाऊँगा,
चक्रव्यूह को भेद विजय श्री, द्वार यहाँ मैं लाऊँगा।

हुआ वीरगति लड़ते-लड़ते, सौभाग्य तात मैं जानूँगा,
लेकिन अरि के सम्मुख अपनी, हार नहीं मैं मानूँगा।

सुन अभिमन्यू की बात वहाँ, पाण्डव को ढाँढस आया,
रचने को इतिहास वहाँ पर, अपना रथ वहाँ सजाया।

क्रमशः--

भाग 2- अभिमन्यु- द्रौपदी संवाद

अभिमन्यू की बात वहाँ, सुनी द्रौपदी रुक ना पाई,
हृदय मात का डोल गया, वो दौड़ी घबराती आई।

माता का मुख देख कहा, माँ ऐसे क्यूँ घबराती हो,
अब मैं बालक नहीं रहा, आँचल में मुझे छुपाती हो।

माता है सौगंध मुझे ये, युद्ध जीत जब जाऊँगा,
विजय घोष के साथ यहाँ मैं, अपना मुख दिखलाऊँगा।

चिंता मात वृथा करती हो, मुझको क्या वो मारेंगे,
युद्ध क्षेत्र के चक्रव्यूह में, मुझसे सारे हारेंगे।

यदि रण में मैं नहीं गया तो, जीवन ये निष्फल होगा,
युद्ध नीति सफल हुए तो, कौरव का फिर कल होगा।

अपने रहते कौरव को मैं, सफल नहीं होने दूँगा,
बंदी यहाँ तात को अपने, कभी नहीं होने दूँगा।
 
दूर किया युद्ध क्षेत्र से, पिता के लिए नीति बनाई,
चक्रव्यूह रचकर रण में, खुद अपनी मंशा जतलाई।

लेकिन उनकी इस मंशा को, सफल नहीं होने दूँगा,
कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध को, विफल नहीं होने दूँगा।

चिंता मात वृथा करती हो, युद्ध क्षेत्र में जाने दो,
दो अपना आशीष मुझे माँ, मुझको धर्म निभाने दो।

है मुझे आशीष तुम्हारा, अरि को यहाँ हराऊँगा,
सौगन्ध मुझे है पायस की, तब ही मुख दिखलाऊँगा।

उसकी बातों का पांचाली, उत्तर दे ना पाती है,
अनहोनी की आशंका से, मन ही मन घबराती है।

भाग 3- अभिमन्यु-उत्तरा संवाद

माँ का ले आशीष अभिमन्यु, उत्तरा के सम्मुख आया,
सूने-सूने वहाँ कक्ष में, चिंतित वो उसको पाया।

आखिर वो दिन आ पहुँचा है, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी,
कुरु सेना को धूल चटाऊँ, मेरी उत्तम इच्छा थी।

मुझको हँसकर करो विदा तुम, रण कौशल दिखलाने को,
थाल सजाकर सज्ज करो अब, विजय प्राप्त कर आने को।

अभिमन्यु को सुनकर उत्तरा, घबराई सी बोल पड़ी,
बुझे नैन से उसको देखा, मन की गाँठें खोल पड़ी।

आर्य आज मन डरता है, अनहोनी की आशंका से,
कैसे विदा करूँ पिय मैं, घिरी यहाँ मैं शंका से।

मैं कब कहती हूँ रिपु से, के नहीं आपको लड़ना है,
आप हमारी बात सुनें, फिर करें वही जो करना है।

जाने क्यूँ कर हृदय हमारा, भय से बैठा जाता है,
अनहोनी की आशंका से, मेरा मन घबराता है।

जानती हूँ नाथ सब कुछ, ना वीर कोई आप सा है,
आज के इस युद्ध में भी, गंभीर कोई आप सा है।

क्षत्राणियों का धर्म है, और है यही उच्च कर्म भी,
थाल सजाये विदा करे, आगे बढ़कर स्वयं आप ही।

वीरता पे स्वयं पति के, संदेह पत्नी यदि पालती,
हो विमुख कर्तव्य पथ से, नर्क में वो खुद को डालती।

वीरता पर आर्य मुझको, तनिक न आपके संदेह है,
पर रोकती हूँ आज प्रिय, है मन में घिरा संदेह है।

जाने क्यूँ कर वाम नेत्र भी, मेरी यहाँ फड़कती है,
अनहोनी की आशंका से, हृदय की गति धड़कती है।

जाने क्यूँ लग रहा मुझे, के ये दिन नहीं अनुकूल है,
चुभ रहा मेरे हृदय में, आर्य जाने कैसा शूल है।

नहीं चाहिए कोई वैभव, मुझे राज की न आस है,
ब्रम्हांड का सब सुख वहीं है, के आप मेरे पास हैं।

अरण्य भी महल लगेगा, कर्तव्य पथ पर मै चलूँगी,
आपको यदि कुछ हुआ तो, ले राज सुख मैं क्या करूँगी।

ये बात कहते उत्तरा के, नेत्र झर-झर झरने लगे,
और कक्ष की उस शून्यता को, हर शांति को हरने लगे।

उत्तरा की बात सुनकर, भय दुर्भावना की भीत से,
शांत स्वर अभिमन्यु बोले, अति भोलेपन से प्रीत से।

हे प्रिये सुखदायिनी, संगिनी, शक्ति हर पथ की तुम हो,
है प्रकाशित हर पंथ मेरा, कैसा भय फिर तम से हो।

वो चित्त व्याकुल देखकर, प्रिय को अंक में लेते हुए,
अभिमन्यु ने हँसकर कहा, प्रिय को सांत्वना देते हुए।

शांत कर के चित्त अपना, सोचो स्वयं अपनी योग्यता,
वीर का श्रृंगार हो तुम, प्रिये छोड़ो मन की व्यग्रता।

कहो वीर की भार्या का क्या, ये चित्त होना चाहिये,
क्षत्राणियों को इन पलों में, क्या कहो रोना चाहिये।

जानता हूँ मैं कि मन में, इस पल जल रही इक ज्वाल है,
शीश जिसके हाथ हरि का, कब कर सकेगा कुछ काल ये।

व्यर्थ की चिंता हृदय में, क्यूँ हे प्रिये तुम पालती हो,
व्यर्थ ही अपने हृदय को, अवसाद से यूँ सालती हो।

प्रिय जानती हो बातें सभी, शंका सभी निर्मूल है,
हाँ शत्रु का मर्दन करूँ मैं, बस युद्ध का ये मूल है।

ज्ञान शिक्षा और समर्पण, मेरा सभी तब व्यर्थ होगा,
इस युद्ध से मुख फेरना, अधर्म होगा अनर्थ होगा।

सुन चुकी हो कौरवों ने, हमको घाव हैं कितने दिए,
पुण्यता से दूर रहकर, कुकर्म पाप हैं कितने किये।

क्या भूल सकती कौरवों ने, माँ के संग जो कुछ किया,
दे धैर्य की पल-पल परीक्षा, अपमान ही अब तक जिया।

कैसे भूलूँ तात के संग, उस द्यूत का हर एक छल,
प्रिये कैसे भूलूँ तुम कहो, उस घाव का हर एक पल।

अपशब्द कितने बोलकर, कितना घाव कौरव ने दिया
है ग्लानि होती सोचकर, के पल था वहाँ कैसे जिया।

उस अपमान का प्रतिशोध यदि, मैं आज ले न पाऊँगा,
ताउम्र मैं कायर रहूँगा, कैसे जी फिर पाऊँगा।

इस व्यूह को यदि आज रण में, तोड़ ना मैं सकूँगा,
जाकर पिता के सामने मैं, तुम कहो के क्या कहूँगा।

मैं जीत कर उस व्यूह को, शीघ्र आऊँगा यहाँ पर,
बस धैर्य मन में प्रिय धरो तुम, और जाऊँगा कहाँ पर।

सप्तपदी का एक-एक प्रण, हम साथ में निभायेंगे,
चिंतित करो न मन को अपने, प्रिय दूर हम न जायेंगे।

है समग्र जीवन तुम्हारा, तुमसे जुड़ी सब आस है,
मैं दूर कैसे हो सकूँगा, तुममें बसी जब श्वास है।

प्रिय है वृथा अवसाद सारा, जब स्वयं हरि हैं पक्ष में,
अब अरि नहीं जीवित बचेगा, आकर हमारे लक्ष्य में।

ले पाश में फिर उत्तरा को, यूँ धैर्य था उसने दिया,
हो मौन दोनों ने पलों में, बस धड़कनों को था जिया।

भाग 4- अभिमन्यु  चक्रव्यूह में

फिर चले अभिमन्यु रण में, छोड़ कर कितनी कहानी,
जाते हुए देखती थीं, भर कोर में दो नैन पानी।

अभिमन्यु का सान्निध्य पा, था सैन्य का उत्साह दूना,
अरि के लिए मुश्किल हुआ, अभिमन्यु को अब आज छूना।

आज रण को भेदने को, उस व्यूह का मद तोड़ने को,
इक नया इतिहास रचने, उस युद्ध का सम्मान रखने।

सज्ज होकर वीर बालक, षोडश वर्ष का आगे बढ़ा,
सैन्य का नेतृत्व करने, अब सौभद्र रथ पर आ चढ़ा

आज लिखने को खड़ी थी, वहाँ सृष्टि एक नूतन सदी,
इतिहास के हर पृष्ठ पर, नव प्रतिमान रचने को सदी।

फिर देखते ही देखते, दोनों सैन्य दल आगे बढ़े,
युद्ध इतना तीव्र था के, हो चकित काल रह गये खड़े।

लगीं गूँजने दशों दिशायें, उस युद्ध के जयघोष से,
ब्रम्हाण्ड भी गुंजित हुआ था, सैनिकों के उद्घोष से।

उस वीर बालक के समक्ष, न कोई टिक पाता वहाँ था,
एक पल में वो यहाँ था, तो दूसरे में वो वहाँ था।

देख उसका प्रचंड रूप अरि सेना तब लगी काँपने,
अपने प्राण बचाने को इधर-उधर सब लगे भागने।

जिधर नजर करता था वो, त्राहि-त्राहि था मचता जाता,
मुड़ जाता जिस ओर वीर, उस ओर शत्रु घटता जाता।

लगता था कौतूहल वश, वो अरि सेना काट रहा था,
अरि सेना के मुण्डों से, धरती सारी पाट रहा था।

सब वीर से अतिवीर तक की, शक्ति सारी थक चुकी थी,
यूँ लग रहा था आज रण में, सृष्टि सारी रुक चुकी थी।

थे वीर तो लाखों वहाँ, नहीं कोई रुक पाता वहाँ,
दो घड़ी को भी नहीं था, कोई शत्रु टिक पाता वहाँ।

देखते-देखते पहुँच गया,वो द्वार पर उस व्यूह के,
सब काँपने थर-थर लगे थे, वहाँ सैन्य अरि समूह के।

बस देखते ही देखते, व्यूह के द्वार सभी ध्वस्त थे,
उस वीर के सम्मुख वहाँ, सब रणनीति अरि के पस्त थे।

द्वार पर रक्षक जयद्रथ उपस्थित था बड़े ही शक्ति से,
पर पार न वो पा सका वहाँ अद्भुत वीर की शक्ति से।

तब कर्ण का भ्राता वहाँ पर शोण सम्मुख आकर कहा,
और तुम्हारा खेल मुझसे है अब नहीं जाता सहा।

हो वीर तो आ सामने, तुझे युद्ध मैं सिखलाऊँगा,
मैं आज इस रणभूमि में, तुझे युद्ध क्या बतलाऊँगा।

उसकी बात सुन अभिमन्यु ने, बस शांत रह हँसभर दिया,
और फिर एक ही प्रहार से, वो शांत उसको कर दिया।

देख भाई की दशा को, फिर राधेय अति क्रोधित हुआ,
हश्र देखा युद्ध का तो, वो अत्यंत ही क्षोभित हुआ।

बाण छोड़ा अनगिनत वो, जिसकी तीव्रता विकराल थी,
जो सामने आता वहाँ, उसकी मृत्यु बस तत्काल थी।

सौभद्र पूरे धैर्य से, उसके वार को खण्डित किया,
और कर्ण के प्रहार को, पूरे धैर्य से दण्डित किया।

युद्ध कौशल से वहाँ पर, उसने कर्ण को चिंतित किया,
वो काट कर रिपु चाप को, था रणभूमि में दण्डित किया।

कर्ण को यूँ देखकर के, दुर्योधनात्मक वीर लक्ष्मण,
सौभद्र के सम्मुख हुआ, वो हुंकारता वीर तत्क्षण।

देख लो अपने जनों को, आज अंतिम समय निहार लो,
अंत समय है तुम्हारा, अपनी हार तुम स्वीकार लो।

सौभद्र बोले वीर योद्धा, संवाद यूँ करते नहीं,
रणभूमि में होकर खड़े वो, बर्बाद क्षण करते नहीं।

यूँ अभिमन्यु के सुनकर वचन, मन में लग गयी आग सी,
फिर तीव्र गति से बाण छोड़ा, थी शक्ति जिसकी नाग सी।

स्वागत किया अभिमन्यु ने तब, उस शक्ति को करके विफल,
फिर काट करके कण्ठ उसका, रिपु को दिया तत्काल फल।

जैसे गिरा शीश रिपु का, हाहाकार रण में छा गया,
कौरवों के सैन्य दल में, था अँधियार जैसा छा गया।

शीश गिरते ही वहाँ दुःशाशन युद्ध में सम्मुख हुआ,
सामने अभिमन्यु के वो अरि सैन्य दल का प्रमुख हुआ।

देख कर सम्मुख उसे अर्जुन सुत क्रोध में जलने लगा,
धमनियों का रक्त सारा, वहाँ क्रोध में उबलने लगा।

रे दुष्ट पापी तू छुपा था, अब तक कहो किस आड़ में,
या छुपा बैठा कहीं था, कोई ओट लेकर त्राण में।

ले मेरा ये बाण तेरा अंत अब यहाँ सुनिश्चित है,
तेरे सारे पापों का अब यहीं आज प्रायश्चित है।

अभिमन्यु ये कह कर वचन, उस दुष्ट पर तब बाण छोड़ा,
उसने नराधम नीच का, सारा वहाँ अभिमान तोड़ा।

मूर्छित समझ उसको वहाँ से, दूर सेना कुरु ले गयी,
थे कौरवों के दर्प टूटे, वो चोट ऐसी दे गयी।

व्यूह टूटा देख कुरु की, सारी नीतियाँ अब ध्वस्त थीं,
सौभद्र के हर वार से, सेना कौरवों की पस्त थी।

गुरु द्रोण से कहने लगा, जाकर कर्ण फिर संताप से,
जल रहा कुरु सैन्य दल ये, गुरु मात्र बालक के ताप से।

पार्थ सुत के विरुद्ध, यदि कोई टिक ना पायेगा,
कुरुक्षेत्र का युद्ध सारा, बस आज यहीं चुक जाएगा।

यही श्रेष्ठ होगा के इसे, अब जैसे भी हो मार दें,
व्यूह के इस युद्ध को हम, मिल कर अंत अब परिणाम दें।

जैसे हो इसे मारना, गुरुवर श्रेष्ठ बस होगा यही,
अन्यथा कुरु वंश खातिर, अब परिणाम ना होगा सही।

तब सप्त रथियों ने वहाँ, त्यागे युद्ध के सारे नियम,
टूटे वहाँ सौभद्र पर, सातों छोड़ कर सारे धरम।

था सह रहा हर वार उनका, वो वीर बालक जोश से,
था तोड़ता रणनीति रिपु की, वो वीर पूरे होश से।

लेकिन अचानक वार से, उसके अश्व रथ के गिर पड़े,
कूद पड़ा फिर वीर सौभद्र, पहुँचा जहाँ सब थे खड़े।

श्वास जब तक प्राण में हो, जो वीर हैं झुकते नहीं हैं,
सत्य जिनके साथ होता, वो जीतने तक रुकते नहीं।

टूटा धनु जब खड्ग उठाया, वो वीर बस लड़ता रहा,
वो दुष्टता के वार सारे, वो ध्वस्त सब करता रहा।

घेर कर सातों ने वहाँ पर, शस्त्र उसके काट डाले,
फिर भी मुश्किल था के उसपर, कौन आ कर हाथ डाले।

जब नहीं था शस्त्र कोई, वो वीर फिर पहिया उठाया,
और रिपु की ओर देखा, फिर हाथ से उसको घुमाया।

कह पड़ा वो वीर मुख से, यही वीरता क्या तुम्हारी,
निःशस्त्र पर वार करते, कहाँ नीतियाँ है तुम्हारी।

कह कर वहाँ लड़ने लगा, फिर वो शत्रु के संघात में,
टूट पड़ा अरि सैन्य दल पर, लिए रथ का पहिया हाथ में।

घेर कर सातों ने वहाँ, उस पर प्रहार किया साथ में,
भेदने उसके लगे थे, रिपु के बाण सारे गात में।

निःशस्त्र पर हो वार करते, क्या वीरता है ये कहो,
मेरे हाथ में भी शस्त्र दो, फिर वार मेरा तुम सहो।

हे गुरु अब आप बोलें, क्या युद्ध का ये ही धर्म है,
निःशस्त्र पर वार करना, कहिये आप क्या सत्कर्म है।

कुलगुरु कहें हैं मौन क्यूँकर, अब आप का क्या स्वार्थ है,
हैं पूज्य हम सबके लिये जब, क्या आपका परमार्थ है।

प्राण दान में न माँगता हूँ, हो युद्ध केवल भीति से,
यूँ ही आप सब मुझसे लड़ें, पर युद्ध हो बस नीति से।

निःशस्त्र पर यूँ वार करना, ये सर्वदा अन्याय है,
यूँ कायरों की भाँति लड़ना, किस युद्ध का पर्याय है।

मैं पूछता हूँ वीरता का, बोलो यही क्या धर्म है,
सब लड़ रहे हो युद्ध जैसे, क्या नीति है क्या धर्म है।

कर्म का अपने सभी तुम, दण्ड यहीं सारे पाओगे,
व्यूह की जब बात होगी, बस कायर ही कहलाओगे।

पीठ पर अपने जयद्रथ का, वार बालक सह सका ना,
फिर गिर पड़ा ऐसे धरा पर, चाह कर भी उठ सका ना।

हे तात मेरा अंत है, अंतिम मेरा प्रणाम तुमको,
भूल मत जाना कभी, सबने किया जो घात मुझको।

लड़ता रहा मैं अंत तक, अफसोस पर कुछ कर न पाया,
व्यूह मैंने तोड़ डाला, पर धूर्तता से लड़ न पाया।

कहते हुए वो वीर बालक, फिर गिर पड़ा रणभूमि में,
ऐसे लगा जैसे सितारा, कोई गिर पड़ा हो भूमि में।

जीत के उन्माद पाले, जैसे दुष्ट कुछ रहते सदा,
वैसे दुःशाशन पुत्र ने, उसके शीश पर मारी गदा।

धोखे से उस प्रहार से, वो दृग बंद कर के सो गया,
और धरती के अंक से, एक वीर सितारा खो गया।

वीरता की बात जब भी, गीतों में गाया जायेगा,
हर पृष्ठ पर इतिहास के, तुमको ही पाया जायेगा।

तुम श्रेष्ठ का प्रतिमान हो, तुम ही श्रेष्ठ हो परिणाम हो,
बीतते सारे युगों में, तुम हर श्रेष्ठ का अभिमान हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23 दिसंबर, 2023








राम-नाम सत्य जगत में

राम-नाम सत्य जगत में राम-नाम बस सत्य जगत में और झूठे सब बेपार, ज्ञान ध्यान तप त्याग तपस्या बस ये है भक्ति का सार। तन मन धन सब अर्पित प्रभु क...